राजर्षि / परिच्छेद 26 / रवीन्द्रनाथ ठाकुर / जयश्री दत्त
रघुपति ने पूछा, "यह सब क्या हो रहा था?"
नक्षत्रराय ने सिर खुजलाते हुए कहा, "नाच हो रहा था।"
रघुपति ने घृणा से मुँह सिकोड़ते हुए कहा, "छी छी!"
नक्षत्र अपराधी के समान खड़ा रहा।
रघुपति ने कहा, "कल यहाँ से चल पड़ना होगा। उसकी तैयारी करो।"
नक्षत्रराय ने कहा, "कहाँ जाना होगा?"
रघुपति - "वह बात बाद में होगी। फिलहाल मेरे साथ बाहर निकल आओ।"
नक्षत्रराय ने कहा, "मैं यहाँ ठीक हूँ।"
रघुपति - "ठीक हूँ! तुम राजवंश में पैदा हुए हो, तुम्हारे सभी पूर्वज राज्य करते आए हैं। और तुम हो कि आज इस जंगली गाँव में सियार राजा बने बैठे हो और कह रहे हो, 'ठीक हूँ'।"
रघुपति के तीव्र वाक्यों और तीक्ष्ण कटाक्ष ने प्रमाणित कर दिया कि नक्षत्रराय ठीक नहीं है। नक्षत्रराय ने भी रघुपति के चेहरे के तेज में थोड़ा-बहुत उसी प्रकार समझा । वह बोला, "ठीक क्या, ऐसे ही हूँ। लेकिन और क्या करूँ? उपाय क्या है?"
रघुपति - "उपाय ढेरों हैं - उपायों का अभाव नहीं । मैं तुम्हें रास्ता दिखाऊँगा, तुम मेरे साथ चलो।"
नक्षत्रराय - "एक बार दीवानजी से पूछ लूँ।"
रघुपति - "नहीं।"
नक्षत्रराय - "मेरा यह सारा समान…"
रघुपति - "कुछ आवश्यक नहीं।"
नक्षत्रराय - "आदमी…"
रघुपति - "आवश्यकता नहीं है।"
नक्षत्रराय - "मेरे हाथ में इस समय पर्याप्त रुपए नहीं हैं।"
रघुपति - "मेरे हाथ में हैं। और अधिक बहाना-आपत्ति मत करो। आज सोने जाओ, कल सुबह ही चल पड़ना होगा।"
कह कर रघुपति किसी उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना चला गया।
उसके अगले दिन भोर में नक्षत्रराय जागा हुआ है। बंदी-जन ललित रागिनी में मधुर गीत गा रहे हैं। नक्षत्रराय ने बाहरी भवन में आकर खिड़की से बाहर देखा। पूर्वी तट पर सूर्योदय हो रहा है, अरुण रेखा दिखाई पड़ रही है। दोनों किनारों के वृक्ष-समूहों के बीच से, छोटे-छोटे गाँवों के सिवाने के निकट से अपनी विपुल जल-राशि के साथ ब्रह्मपुत्र अबाध बहता चला जा रहा है। प्रासाद की खिड़की से नद के किनारे एक छोटा कुटीर दिखाई पड़ रहा है। एक स्त्री आँगन में झाड़ू दे रही है - एक पुरुष उसके साथ एक-दो बातें करके सिर पर चादर बाँध कर, बाँस की लंबी लाठी के अगले भाग में पोटली लटका कर निश्चिन्त मन से कहीं निकल गया। श्यामा और दोएल सीटी बजा रहे हैं, बेने बोऊ विशाल कटहल वृक्ष के घने पत्तों के बीच बैठी गाना गा रही है। खिड़की में खड़े होकर बाहर की ओर देखते हुए नक्षत्रराय के हृदय से एक गहरी लंबी निश्वास निकली, उसी समय पीछे से रघुपति ने आकर उसे छुआ। नक्षत्रराय चौंक उठा। रघुपति ने कोमल-गम्भीर स्वर में कहा, "यात्रा की पूरी तैयारी हो गई!"
नक्षत्रराय ने हाथ जोड़ कर अत्यंत कातर स्वर में कहा, "ठाकुर, मुझे क्षमा कीजिए, ठाकुर - मैं कहीं भी नहीं जाना चाहता। मैं यहीं ठीक हूँ।"
रघुपति ने एक भी बात कहे बिना अपनी जलती हुई दृष्टि नक्षत्रराय के चेहरे पर टिका दी। नक्षत्रराय आँखें झुका कर बोला, "कहाँ चलना होगा?"
रघुपति - "वह बात अभी नहीं हो सकती।"
नक्षत्र - "मैं भैया के विरुद्ध कोई षड्यंत्र नहीं कर पाऊँगा।"
रघुपति आग बबूला होते हुए बोला, "सुनूँ तो, भैया ने तुम्हारा कौन-सा महान उपकार कर दिया है!"
नक्षत्र मुँह घुमा कर खिड़की को नाखून से खुरचते हुए बोला, "मैं जानता हूँ, वे मुझे प्यार करते हैं।"
रघुपति ने तेज सूखी हँसी के साथ कहा, "हरि हरि, क्या प्रेम है! तभी तो, ध्रुव को निर्विघ्न युवराज पद पर अभिषिक्त करने के लिए भैया ने झूठा बहाना बना कर तुम्हें राज्य से भगा दिया है - कहीं राज्य के गुरु भार से माखन-पुतली-सा प्यारा भाई दुखी हो जाए तो! निर्बोध, क्या उस राज्य में कभी आसानी से प्रवेश कर पाओगे!"
नक्षत्रराय जल्दी से बोला, "मैं क्या यह सामान्य-सी बात नहीं समझता! मैं सब समझता हूँ - किन्तु बताओ ठाकुर, मैं करूँ क्या, उपाय क्या है?"
रघुपति - "उसी उपाय की बात तो हो रही है। उसी कारण तो आया हूँ। इच्छा हो, तो मेरे साथ चले आओ, नहीं तो इसी बाँस वन में बैठे-बैठे अपने हिताकांक्षी भैया का ध्यान करो। मैं चला।"
बोल कर रघुपति प्रस्थान के लिए तैयार हो गया। नक्षत्रराय जल्दी से उसके पीछे आकर बोला, "मैं भी चलूँगा ठाकुर, किन्तु दीवानजी अगर चलना चाहें, तो क्या उन्हें अपने साथ ले चलने में आपत्ति है?"
रघुपति ने कहा, "मेरे अलावा और कोई साथ नहीं जाएगा।"
नक्षत्रराय के पैर घर छोड़ कर निकलना नहीं चाहते। यह सारा सुख का खेला छोड़ कर, दीवानजी को छोड़ कर, रघुपति के साथ अकेला कहाँ जाना पड़ेगा! लेकिन रघुपति मानो उसके केश पकड़ कर खींच कर ले चला। उसके अलावा नक्षत्रराय के मन में एक प्रकार का भय मिश्रित कुतूहल भी पैदा होने लगा। वह भी एक भारी आकर्षण है।
नौका तैयार है। नदी के किनारे पहुँच कर नक्षत्रराय ने देखा, कंधे पर गमछा डाले पीताम्बर स्नान करने आ रहा है। नक्षत्रराय को देखते ही पीताम्बर ने हँसी से प्रफुल्ल मुख से कहा, "जयोस्तु महाराज! सुना है, कल कहीं से एक कुलच्छनी धूर्त ब्राह्मण ने आकर शुभ विवाह में बाधा खड़ी कर दी।"
नक्षत्रराय बेचैन हो गया। रघुपति ने गंभीर स्वर में कहा, "मैं ही वह धूर्त ब्राह्मण हूँ।"
पीताम्बर हँस पड़ा; बोला, "तब तो, आपके सामने आपका वर्णन करना अच्छा नहीं हुआ। जानता, तो कौन माई का लाल ऐसा काम करता! किन्तु ठाकुर, बुरा मत मानिए, पीठ पीछे लोग क्या नहीं कहते! मुझे सामने जो राजा कहते हैं, वे ही पीछे कहते हैं, पितु। मुँह पर कुछ न कहना ही काफी है, मैं तो यही समझता हूँ। जानते हैं, असली बात क्या है, आपका चेहरा कुछ ज्यादा ही नाराजगी-भरा दिखाई दे रहा है, किसी के भी चेहरे का ऐसा भाव देख कर लोग उसकी निंदा करने लगते हैं। महाराज, इतनी सुबह नदी किनारे?"
नक्षत्रराय ने तनिक करुण स्वर में कहा, "मैं तो चला दीवानजी!"
पीताम्बर - "चला? कहाँ? नवपाड़ा, मंडल परिवार के घर?
नक्षत्र - "नहीं दीवानजी, मंडल परिवार के घर नहीं। बहुत दूर।"
पीताम्बर - "बहुत दूर? तो क्या शिकार पर पाइकघाटा जा रहे हैं?"
नक्षत्रराय ने एक बार रघुपति के चेहरे की ओर देख कर केवल दुखी भाव से गर्दन हिला दी।
रघुपति ने कहा, "समय निकला जा रहा है। नाव पर चढ़ा जाए।"
पीताम्बर ने अत्यंत संदिग्ध और क्रुद्ध भाव से ब्राह्मण के चेहरे की ओर देखा; कहा, "तुम कौन हो रे ठाकुर? हमारे महाराज पर हुकुम चलाने आ गए हो!"
नक्षत्र ने परेशान होकर पीताम्बर को एक किनारे खींच ले जाकर कहा, "वे हमारे गुरु ठाकुर हैं।"
पीताम्बर बोल पड़ा, "होने दीजिए ना गुरु ठाकुर। वह हमारे चण्डी मण्डप में रहे, चावल-केले का सीधा भिजवा दूँगा, मान-सम्मान के साथ रहे - महाराज से उसे क्या लेना-देना!"
रघुपति - "वृथा समय नष्ट हो रहा है - तब मैं चला।"
पीतांबर - "जो आज्ञा, देर करने का क्या लाभ, महाशय झटपट चलते बनिए। मैं महाराज को लेकर महल जा रहा हूँ।"
नक्षत्रराय ने एक बार रघुपति के चेहरे की ओर देखा और फिर पीताम्बर के चेहरे की ओर देखते हुए धीमे स्वर में कहा, "नहीं दीवानजी, मैं जा रहा हूँ।"
पीताम्बर - "तब मैं भी चलता हूँ, लोगों को साथ ले लूँ। राजा की तरह चलिए। राजा जाएगा और दीवान नहीं जाएगा?"
नक्षत्रराय ने रघुपति की ओर देखा। रघुपति बोला, "कोई साथ नहीं जाएगा।"
पीताम्बर उग्र हो उठा, बोला, "देखो ठाकुर, तुम…"
नक्षत्रराय ने उसे जल्दी से रोकते हुए कहा, "दीवानजी, मैं चलता हूँ, देरी हो रही है।"
पीताम्बर ने निराश होकर नक्षत्र का हाथ पकड़ कर कहा, "देखो बेटा, मैं तुम्हें राजा कहता हूँ, किन्तु तुम्हें संतान के समान प्यार करता हूँ - मेरी कोई संतान नहीं है। तुम पर मेरा कोई हक नहीं बनता। तुम जा रहे हो, मैं तुम्हें बलपूर्वक नहीं रोक सकता। लेकिन मेरा एक अनुरोध है, जहाँ भी जाओ, मेरे मरने के पहले लौट आना होगा। मैं अपने हाथ से अपना सारा राजपाट तुम्हें सौंप जाऊँगा। मेरी यही एक साध है।"
नक्षत्रराय और रघुपति नौका पर चढ़ गए। नौका दक्षिण की ओर चली गई। पीताम्बर नहाना भूल कर गमछा कंधे पर रखे अन्यमनस्क भाव से घर लौट गया। गुजुरपाड़ा मानो खाली हो गया - उसके समस्त आमोद-उत्सव का अवसान हो गया। केवल प्रति दिन के प्रकृति के नित्य-उत्सव, प्रात:काल पक्षियों के गान, पत्तों की मर्मर ध्वनि और नदी की तरंगों की ताली को विराम नहीं।