राजर्षि / परिच्छेद 27 / रवीन्द्रनाथ ठाकुर / जयश्री दत्त
दीर्घ पथ। कहीं नदी, कहीं घना जंगल, कहीं छायाहीन प्रांतर - कभी नौका पर, कभी पैदल, कभी टट्टू घोड़े पर - कभी धूप, कभी बारिश, कभी कोलाहल भरा दिन, कभी रात्रि का निस्तब्ध अंधकार - नक्षत्रराय बिना रुके चलता रहा। कितने देश, कितने विचित्र दृश्य, कितने विचित्र लोग - किन्तु नक्षत्रराय के साथ, वही छाया के समान क्षीण, धूप के समान दीप्त एकमात्र रघुपति निरंतर लगा हुआ है। दिन में रघुपति, रात में रघुपति, सपने में भी रघुपति विराज रहा है। रास्ते में पथिक आ-जा रहे हैं, रास्ते के किनारे धूल में बालक खेल रहे हैं, हाट में सैकड़ों-सैकड़ों लोग खरीदना-बेचना कर रहे हैं, गाँव में वृद्ध पासा खेल रहे हैं, स्त्रियाँ घाट पर पानी भर रही हैं, नाविक गाना गाते हुए नौका में जा रहे हैं - किन्तु नक्षत्रराय के बगल में क्षीणकाय रघुपति हमेशा जाग रहा है। संसार में चारों ओर विचित्र खेल चल रहा है, विचित्र घटनाएँ घट रही हैं - किन्तु इस रंगभूमि की विचित्र लीला के बीच से होते हुए नक्षत्रराय का मंद भाग्य उसे खींचे लिए जा रहा है - अपने उसके लिए पराए हैं, लोकालय मात्र शून्य मरुभूमि है।
नक्षत्रराय थक कर अपनी पार्श्ववर्ती छाया से पूछता है, "और कितनी दूर चलना होगा?"
छाया उत्तर देती है, "बहुत दूर।"
"कहाँ जाना होगा?"
इसका कोई उत्तर नहीं। नक्षत्रराय निश्वास छोड़ते हुए चलता रहता है। तरु-श्रेणी के मध्य पत्तों से छाई गई एकांत साफ-सुथरी कुटिया को देख कर उसके मन में आता है, 'अगर मैं इस कुटिया का अधिवासी होता!' गो-धूलि के समय जब ग्वाले लाठी कंधे पर रखे मैदान से ग्राम-पथ पर धूल उड़ाते गाय-बछड़ों को लेकर चलते हैं, नक्षत्रराय के मन में आता है, 'अगर मैं इनके साथ जा पाता, संध्या-समय घर जाकर विश्राम कर पाता!' दोपहर में प्रचण्ड धूम में किसान हल जोत रहा है, उसे देख कर नक्षत्रराय सोचता है, 'आहा, यह कितना सुखी है!'
रास्ते के कष्ट से नक्षत्रराय विवर्ण, कमजोर और मलिन पड़ गया है; वह रघुपति से बोला, "मैं और नहीं बचूँगा।"
रघुपति ने कहा, "अब तुम्हें मरने कौन देगा!"
नक्षत्रराय को लगा, रघुपति से छूटे बिना उसके पास मरने का भी अवसर नहीं है। एक स्त्री ने नक्षत्रराय को देख कर कहा था, 'हाय, किसका लड़का है री! इसको रास्ते में कौन निकाल लाया!' सुन कर नक्षत्रराय का हृदय भर आया, उसकी आँखों में आँसू आ गए, उसकी इच्छा हुई, उसी स्त्री को माँ पुकार कर उसके साथ उसके घर चला जाए।
लेकिन नक्षत्रराय रघुपति के हाथों जितना कष्ट पाने लगा, उतना ही उसके वश में होने लगा, उसका सम्पूर्ण अस्तित्व रघुपति की उँगली के इशारे पर नाचने लगा।
चलते-चलते नदी की बहुलता क्रमश: कम होने लगी। धीरे-धीरे पक्की जमीन आ गई; मिट्टी लाल रंग की, कंकड़ों से भरी हुई, बस्तियाँ दूर-दूर बसी हुई, पेड़-पौधे विरल; दो पथिक नारियल के वनों का देश छोड़ कर ताल वनों के देश में आ पड़े। बीच-बीच में बड़े-बड़े बाँध, सूखे नदी-पथ, दूर बादलों के समान पहाड़ दिखाई पड़ रहे हैं। धीरे-धीरे शाहशुजा की राजधानी राजमहल निकट आने लगा।