राजर्षि / परिच्छेद 33 / रवीन्द्रनाथ ठाकुर / जयश्री दत्त
बिल्वन ठाकुर ढेरों कामों में डूब गया। उसने चट्टग्राम के पहाड़ी क्षेत्रों में विविध प्रकार के उपहारों के साथ द्रुतगामी दूत भेज दिए। वहाँ के कुकी ग्राम-मुखियाओं से कुकी सैनिकों के रूप में सहायता की प्रार्थना की। वे लोग युद्ध का नाम सुनते ही नाच उठे। कुकियों के जितने लाल (ग्रामपति) थे, उन्होंने युद्ध के समाचारस्वरूप लाल कपड़े में बँधे दाव दूतों के हाथों गाँव-गाँव भेज दिए। देखते ही देखते कुकियों का रेला चट्टग्राम की पहाड़ी चोटियों से त्रिपुरा की पर्वत-चोटियों में आ पहुँचा। उन्हें किसी नियम में नियंत्रित करके रखना कठिन होता है। बिल्वन स्वयं त्रिपुरा के गाँव-गाँव जाकर जूम से चुन-चुन कर साहसी युवा पुरुषों को सैनिकों के दल में इकट्ठा करके ले आया। बिल्वन ठाकुर ने आगे बढ़ कर मुगल सैनिकों पर आक्रमण करना उचित नहीं समझा। जब वे समतल भूमि को पार करके अपेक्षाकृत दुर्गम पहाड़ी चोटियों में आ पहुँचेंगे, तब जंगल, पहाड़ और नाना दुर्गम गुप्त मार्गों से सहसा आक्रमण करके उन लोगों को त्रस्त करने का निश्चय किया। बड़े-बड़े शिला-खण्डों से गोमती के जल पर बाँध लगा दिया गया - नितांत पराजय की आशंका देखने पर उसी बाँध को तोड़ कर बाढ़ में मुगल सैनिकों को बहाया जा सकेगा।
इधर नक्षत्रराय देश में लूट मचाते-मचाते त्रिपुरा के पहाड़ी-क्षेत्र में आ पहुँचा। उस समय जूम-कटाई समाप्त हो गई थी। सभी जूमिया हाथों में धनुष-बाण और दाव लेकर युद्ध के लिए तैयार हो गए। उच्छ्वासोन्मुख जल-प्रपात के समान कुकी-दल को और बाँध कर नहीं रखा जा सकता था।
गोविन्दमाणिक्य बोले, "मैं युद्ध नहीं करूँगा।"
बिल्वन ठाकुर ने कहा, "यह कोई काम की बात ही नहीं है।"
राजा ने कहा, "मैं शासन करने योग्य नहीं हूँ; सारे उसी के लक्षण प्रकट हो रहे हैं। उसी कारण मुझमें प्रजा का विश्वास नहीं है, उसी की वजह से दुर्भिक्ष की सूचना, उसी के चलते यह युद्ध। यह सब राज्य के परित्याग के लिए भगवान का आदेश है।"
बिल्वन ने कहा, "यह कभी भी भगवान का आदेश नहीं है। ईश्वर ने आप पर राज्य-भार अर्पित किया है; जितने दिन राज-कार्य नि:संकट था, उतने दिन अपना सहज कर्तव्य अनायास पालन किया, जैसे ही राज्य-भार गुरुतर हो उठा, वैसे ही आप उसे दूर फेंक कर स्वाधीन होना चाहते हैं और ईश्वर का आदेश बता कर अपने को धोखा देकर सुखी बनाना चाहते हैं।"
बात गोविन्दमाणिक्य के मन में लग गई। वे थोड़ी देर निरुत्तर बैठे रहे। अंतत: नितांत कातर होकर बोले, "बुरा मत मानना ठाकुर, मेरी पराजय हो गई है, नक्षत्र मेरा वध करके राजा बन गया है।"
बिल्वन ने कहा, "यदि वास्तव में वैसा ही घटे, तो मैं महाराज के लिए शोक नहीं करूँगा। किन्तु यदि महाराज कर्तव्य को छोड़ कर पलायन करेंगे, तो हम लोगों के लिए शोक का कारण होगा।"
राजा ने थोड़ा अधीर होकर कहा, "अपने ही भाई का खून बहाऊँ!"
बिल्वन ने कहा, "कर्तव्य के सामने भाई, बंधु कोई नहीं होता। कुरुक्षेत्र में युद्ध के अवसर पर श्रीकृष्ण ने अर्जुन को क्या उपदेश दिया था, स्मरण करके देखिए।"
राजा ने कहा, "ठाकुर, क्या तुम कह रहे हो, मैं अपने हाथ में तलवार लेकर नक्षत्रराय पर वार करूँ!"
बिल्वन ने कहा, "हाँ।"
सहसा ध्रुव आकर गंभीर मुद्रा में बोला, "छी वैसी बात नहीं बोलते।"
ध्रुव खेल रहा था, दोनों पक्षों में कुछ कहा-सुनी सुन कर अचानक उसके मन में आया कि अवश्य ही दोनों लोग कोई दुष्टता कर रहे हैं, अतएव समय रहते दोनों को थोड़ा-सा डाँट-फटकार आना आवश्यक है। यही सब विचार करके वह हठात आकर गर्दन हिलाते हुए बोला, "छी वैसी बात नहीं बोलते।"
पुरोहित ठाकुर को बड़ा आनंद अनुभव हुआ। वह हँस पड़ा, ध्रुव को गोदी में उठा कर चूमने लगा। लेकिन राजा नहीं हँसे। उन्हें लगा, मानो बालक के मुँह से उन्होंने दैव-वाणी सुनी है।
वे असंदिग्ध स्वर में बोल पड़े, "ठाकुर, मैंने निश्चय किया है, मैं यह रक्तपात नहीं होने दूँगा, मैं युद्ध नहीं करूँगा।"
बिल्वन ठाकुर थोड़ी देर चुप रहा। अंत में बोला, "यदि महाराज को युद्ध करने में ही आपत्ति है, तो और एक काम कीजिए। आप नक्षत्रराय से भेंट करके उन्हें युद्ध करने से रोकिए।"
गोविन्दमाणिक्य ने कहा, "इसके लिए मैं सहमत हूँ।"
बिल्वन ने कहा, "तब उसी प्रकार का प्रस्ताव लिख कर नक्षत्रराय के पास भेजा जाए।"
अंतत: वही तय हुआ।