राजर्षि / परिच्छेद 34 / रवीन्द्रनाथ ठाकुर / जयश्री दत्त
नक्षत्रराय सैनिकों के साथ आगे बढ़ने लगा, कहीं तिलभर भी बाधा नहीं आई। त्रिपुरा के जिस भी गाँव में उसने कदम रखा, वही गाँव उसकी राजा के रूप में अगवानी करने लगा। पग-पग पर राजत्व का आस्वाद पाने लगा - क्षुधा और भी बढ़ने लगी, चतुर्दिक फैले खेत, ग्राम, पर्वत-श्रेणियाँ, नदी, सभी कुछ 'मेरा है' के रूप में अनुभव होने लगा तथा उसी अधिकार-विस्तार के साथ-साथ स्वयं भी जैसे बहुत दूर तक फैल कर अत्यधिक मजबूत होने लगा। मुगल सैनिकों ने जैसा चाहा, उसने बेरोकटोक उन्हें वैसा ही हुकुम दे दिया। सोचा, यह सभी मेरा है और ये लोग मेरे ही राज्य में आ पहुँचे हैं। इन्हें किसी प्रकार के सुख से वंचित नहीं करना है - मुगल अपने देश में लौट कर उसके आतिथ्य और राजावत उदारता और दानशीलता की बहुत प्रशंसा करेंगे; कहेंगे, 'त्रिपुरा का राजा कोई छोटामोटा राजा नहीं है।' मुगल सैनिकों में अपने को प्रसिद्ध करने के लिए वह हमेशा उत्सुक रहता है। उन लोगों के द्वारा किसी प्रकार की श्रुति-मधुर बातचीत करने से वह एकदम पिघल जाता है। हमेशा डर बना रहता है कि कहीं किसी प्रकार की बदनामी का कारण न घट जाए!
रघुपति ने आकर कहा, "महाराज, युद्ध की तो कोई तैयारी दिखाई नहीं पड़ रही है।"
नक्षत्रराय ने कहा, "नहीं ठाकुर, भयभीत हो गया है।"
कहते हुए ठठा कर हँसने लगा।
रघुपति ने हँसने का विशेष कोई कारण नहीं देखा, लेकिन फिर भी हँसा।
नक्षत्रराय ने कहा, "नक्षत्रराय नवाब के सैनिक लेकर आ रहा है। बहुत आसान मामला नहीं है।"
रघुपति ने कहा, "देखूँ, इस बार कौन किसे निर्वासन में भेजता है! कैसे?"
नक्षत्रराय ने कहा, "मैं चाहूँ, तो निर्वासन का दण्ड दे सकता हूँ, कारागार में भी बंदी कर सकता हूँ - वध की आज्ञा भी दे सकता हूँ। अभी निश्चित नहीं किया है, कौन-सा करूँगा।"
कह कर भारी जानकार की मुद्रा में बहुत विवेचना करने लगा।
रघुपति ने कहा, "महाराज, इतना मत सोचिए। अभी काफी समय है। किन्तु मुझे भय हो रहा है, गोविन्दमाणिक्य युद्ध किए बिना ही आपको पराजित कर देंगे।"
नक्षत्रराय ने कहा, "वह कैसे होगा?"
रघुपति ने कहा, "गोविन्दमाणिक्य सैनिकों को आड़ में रख कर भारी भ्रातृ-स्नेह दिखाएँगे। गले लगा कर कहेंगे - मेरे छोटे भाई, आओ घर आओ, दूध-मलाई खाओ। महाराज रोकर कहेंगे - जो आज्ञा, मैं अभी चल रहा हूँ। अधिक विलम्ब नहीं होगा। कह कर नागरा जूता पैरों में डाल कर बड़े भाई के पीछे-पीछे छोटे भाई सिर झुकाए टट्टू घोड़े की तरह चल देंगे। बादशाह की मुगल फ़ौज तमाशा देख कर हँसते हुए घर लौट जाएगी।"
नक्षत्रराय रघुपति के मुँह से यह पैना व्यंग्य सुन कर बहुत दुखी हो गया। थोड़ा हँसने की निष्फल चेष्टा करके बोला, "मुझे उन्होंने क्या बच्चा समझा है, जो इस तरह से बहकाएँगे! उसका कोई मौका नहीं आएगा। वह नहीं होगा ठाकुर। देख लेना।"
उसी दिन गोविन्दमाणिक्य की चिट्ठी आ पहुँची। उसे रघुपति ने खोल लिया। राजा ने अत्यंत स्नेह प्रकट करके साक्षात प्रार्थना की है। चिट्ठी नक्षत्रराय को नहीं दिखाई। दूत से कह दिया, "गोविन्दमाणिक्य को कष्ट उठा कर इतनी दूर आने की आवश्यकता नहीं है। महाराज नक्षत्रमाणिक्य सैनिक और तलवार लेकर शीघ्र ही उनके साथ भेंट करेंगे। गोविन्दमाणिक्य इस अल्प अवधि में प्रिय भाई के विरह में अधिक व्याकुल न हों। आठ बरस का निर्वासन होने पर इसकी अपेक्षा और अधिक समय के अलगाव की संभावना थी।"
रघुपति ने नक्षत्रराय के पास जाकर कहा, "गोविन्दमाणिक्य ने निर्वासित छोटे भाई को एक अत्यंत स्नेहपूर्ण चिट्ठी लिखी है।"
नक्षत्रराय परम उपेक्षा का दिखावा करते हुए हँस कर बोला, "सचमुच क्या! कैसी चिट्ठी? देखूँ तो कहाँ है?" बोल कर हाथ बढ़ा दिया।
रघुपति ने कहा, "मैंने वह चिट्ठी महाराज को दिखाना आवश्यक नहीं समझा। इसीलिए उसी समय फाड़ कर फेंक दी। कह दिया, युद्ध के अलावा इसका और कोई उत्तर नहीं है।"
नक्षत्रराय हँसते-हँसते बोला, "बहुत अच्छा किया, ठाकुर। तुमने कह दिया, युद्ध के अलावा और कोई उत्तर नहीं है? सही उत्तर दिया है।"
रघुपति ने कहा, "गोविन्दमाणिक्य उत्तर सुन कर सोचेगा, जब निर्वासन दिया था, तब तो भाई बड़ी सहजता से चला गया था, लेकिन वही भाई घर लौटते समय कम गड़बड़ नहीं कर रहा है।"
नक्षत्रराय ने कहा, "सोचेंगे, भाई बड़ा सरल आदमी नहीं है। मन में आते ही जिसकी जब इच्छा हो, निर्वासन दे देगा और जब इच्छा हो, बुला लेगा, वह होने वाला नहीं है।"
कहते हुए अत्यधिक आनंद में दूसरी बार हँसने लगा।