राजर्षि / परिच्छेद 35 / रवीन्द्रनाथ ठाकुर / जयश्री दत्त
गोविन्दमाणिक्य नक्षत्रराय का उत्तर सुन कर बहुत मर्माहत हुए। बिल्वन ने सोचा, शायद महाराज अब आपत्ति प्रकट नहीं करेंगे। किन्तु गोविन्दमाणिक्य बोले, "यह बात कभी भी नक्षत्रराय की नहीं हो सकती। यह उसी पुरोहित ने कहला भेजी है। नक्षत्रराय के मुँह से कभी भी ऐसी बात नहीं निकल सकती।"
बिल्वन ने कहा, "महाराज, अब क्या उपाय सोचा है?"
राजा ने कहा, "अगर मैं किसी प्रकार एक बार नक्षत्रराय से मिल सकूँ, तो सारा मामला सुलझा सकता हूँ।"
बिल्वन ने कहा, "और यदि मिलना न हो सके?"
राजा - "वैसा होने पर मैं राज्य छोड़ कर चला जाऊँगा।"
बिल्वन ने कहा, "अच्छा, मैं एक बार कोशिश करके देखता हूँ।"
पहाड़ के ऊपर नक्षत्रराय का शिविर। घना जंगल। बाँस-वन, बेंत-वन, टाँटल-वन। नाना प्रकार के लता-गुल्मों से ढकी धरती। सैनिक जंगली हाथियों के चलने वाले मार्ग का अनुसरण करके शिखर पर चढ़ गए। अपराह्न है। सूर्य पहाड़ के पश्चिमी भाग में ढुलक गया है। पूर्व दिशा में अंधकार हो गया है। गोधूलि की छाया और वृक्षों की छाया के मिल जाने से जंगल में असमय संध्या उतर आई है। शीतकालीन संध्या के समय भूमितल से कुहासे के समान वाष्प उठ रही है। झिल्ली की झंकार से निस्तब्ध वन मुखरित हो उठा है। बिल्वन के शिविर में पहुँचते-पहुँचते सूर्य पूरी तरह अस्ताचल को चला गया, किन्तु पश्चिमी आकाश में स्वर्ण-रेख विलीन नहीं हुई। पश्चिम की ओर वाली समतल घाटी में स्वर्णच्छाया-रंजित सघन वन निस्तब्ध हरे समुद्र के समान दिखाई पड़ रहा है। सैनिक कल सुबह कूच करेंगे। रघुपति एक झुण्ड सैनिक और सेनापति को साथ लेकर मार्ग की खोज में बाहर गया है, अभी लौटा नहीं है। यद्यपि रघुपति के संज्ञान में आए बिना किसी आदमी का नक्षत्रराय के पास आना मना था, तब भी संन्यासी वेशधारी बिल्वन को किसी ने नहीं रोका।
बिल्वन ने नक्षत्रराय के पास जाकर कहा, "महाराज गोविन्दमाणिक्य ने आपको याद किया है और पत्र लिखा है।" कहते हुए पत्र नक्षत्रराय के हाथ में थमा दिया। नक्षत्रराय ने काँपते हाथों से वह पत्र ले लिया। पत्र खोलते हुए उसे लज्जा और भय होने लगे। जितनी देर रघुपति गोविन्दमाणिक्य और उसके मध्य आड़ बना खड़ा रहता है, उतनी देर नक्षत्रराय बहुत निश्चिन्त रहता है। वह किसी भी तरह मानो गोविन्दमाणिक्य को देखना नहीं चाहता। गोविन्दमाणिक्य के इस दूत के एकदम से नक्षत्रराय के सम्मुख आ खड़े होते ही नक्षत्रराय जैसे किस तरह कुण्ठित हो गया, वह मन-ही-मन थोड़ा असंतुष्ट भी हुआ। इच्छा होने लगी, अगर रघुपति मौजूद रहता और इस दूत को उसके पास आने न देता! मन में बहुत इधर-उधर करने के बाद पत्र खोला।
उसमें जरा भी भर्त्सना नहीं थी। गोविन्दमाणिक्य ने उसे लज्जित करने वाली एक बात भी नहीं कही। भाई के प्रति जरा भी नाराजगी प्रकट नहीं की। नक्षत्रराय जो सैनिक-सामंत लेकर उन पर आक्रमण करने आया है, उस बात का उल्लेख तक नहीं किया। पूर्व में दोनों के बीच जैसा प्रेम था, मानो अभी भी अविकल वही प्रेम है। और भी, पूरे पत्र में एक सुगम्भीर स्नेह और विषाद छिपा हुआ है - वह किसी साफ बात के द्वारा व्यक्त न होने के कारण नक्षत्रराय के हृदय को बहुत चोट पहुँची।
चिट्ठी पढ़ते-पढ़ते उसके चेहरे के भाव धीरे-धीरे बदलने लगे। देखते-देखते हृदय का पाषाणी-आवरण विदीर्ण हो गया। उसके कम्पायमान हाथ में चिट्ठी भी काँपने लगी। उस चिट्ठी को कुछ देर तक मस्तक से लगाए रखा। उस चिट्ठी में भाई का जो आशीर्वाद था, वह मानो शीतल निर्झर की भाँति उसके तप्त हृदय में झरने लगा। बहुत देर तक निश्चल होकर सुदूर पश्चिम में संध्या-राग-रक्त श्यामल वन-भूमि की ओर निर्निमेष दृष्टि से देखता रहा। चारों ओर निस्तब्ध संध्या अतल स्पर्शी शब्दहीन शांत समुद्र के समान जागती रही। धीरे-धीरे उसकी आँखों में नमी दिखाई देने लगी, फिर तेजी से आँसू बहने लगे। सहसा नक्षत्रराय ने लज्जा और पश्चात्ताप में दोनों हाथों से चेहरा ढक लिया।
रोते हुए बोला, "मुझे यह राज्य नहीं चाहिए। भैया, मेरा सारा अपराध क्षमा करके मुझे अपने चरणों में स्थान दीजिए, मुझे अपने साथ रख लीजिए, मुझे दूर मत भगाइए।"
बिल्वन ने एक बात भी नहीं कही - आर्द्र हृदय से चुपचाप बैठा देखता रहा। अंतत: जब नक्षत्रराय शांत हुआ, तब बिल्वन बोला, "युवराज, गोविदमाणिक्य आपकी राह देखते बैठे हैं, और विलम्ब मत कीजिए।"
नक्षत्रराय ने पूछा, "क्या वे मुझे क्षमा कर देंगे?"
बिल्वन ने कहा, "वे युवराज पर तनिक भी क्रोधित नहीं हैं।" अधिक रात हो जाने पर मार्ग में परेशानी होगी। शीघ्र ही एक अश्व लीजिए। पर्वत के नीचे महाराज के आदमी प्रतीक्षा कर रहे हैं।"
नक्षत्रराय ने कहा, "मैं गुप्त रूप से पलायन करता हूँ, सैनिकों को कुछ बताने की आवश्यकता नहीं है। और तिल भर देर करना उचित नहीं, जितनी जल्दी यहाँ से निकल चला जाए, उतना ही अच्छा है।"
बिल्वन ने कहा, "सही बात है।"
तिनमुड़ा पहाड़ पर संन्यासी के साथ शिवलिंग-पूजा हेतु जा रहा है, कह कर नक्षत्रराय बिल्वन के साथ घोड़े पर चढ़ कर चल पड़ा। अनुचरों ने साथ जाना चाहा, किन्तु उन्हें मना कर दिया।
बाहर निकले ही थे कि उसी समय घोड़ों के खुरों की आवाज और सैनिकों का कोलाहल सुनाई पड़ा। नक्षत्रराय एकदम से सकपका गया। देखते-देखते रघुपति सैनिक लेकर लौट आया। आश्चर्यचकित होकर कहा, "महाराज, कहाँ जा रहे हैं?"
नक्षत्रराय कोई उत्तर नहीं दे पाया। उसे निरुत्तर देख कर बिल्वन ने कहा, "महाराज गोविन्दमाणिक्य के साथ भेंट करने जा रहे हैं।"
रघुपति ने एक बार बिल्वन का आपादमस्तक निरीक्षण किया, एक बार भौंहें सिकोड़ीं, उसके बाद आत्म-संवरण करते हुए कहा, "आज ऐसे असमय हम अपने महाराज को विदा नहीं कर सकते। परेशान होने का तो कोई कारण नहीं है। कल प्रात:काल जाने में भी कोई बात नहीं है। क्या कहते हैं महाराज?"
नक्षत्रराय ने धीमी आवाज में कहा, "कल प्रात: ही जाऊँगा, आज रात हो गई है।"
बिल्वन ने निराश होकर वह रात शिविर में ही व्यतीत की। अगले दिन सुबह नक्षत्रराय के पास जाने की कोशिश की, सैनिकों ने रोक दिया। देखा, चारों ओर पहरा है, कहीं कोई अवकाश नहीं। अंत में रघुपति के पास जाकर कहा, "चलने का समय हो गया है, युवराज को सूचित कीजिए।"
रघुपति ने कहा, "महाराज ने न जाने का निश्चय किया है।"
बिल्वन ने कहा, "मैं एक बार उनसे भेंट करना चाहता हूँ।"
रघुपति - "भेंट नहीं होगी, उन्होंने कह दिया है।"
बिल्वन ने कहा, "महाराज गोविन्दमाणिक्य के पत्र का उत्तर चाहिए।"
रघुपति - "पत्र का उत्तर इसके पहले एक बार और दिया जा चुका है।"
बिल्वन - "मैं उनके अपने मुँह से उत्तर सुनना चाहता हूँ।"
रघुपति - "उसका कोई उपाय नहीं है।"
बिल्वन समझ गया, कोशिश करना बेकार है; केवल समय और बातों का व्यय। जाते समय रघुपति से कह गया, "ब्राह्मण, तुम यह कैसा सर्वनाश करने में जुट गए हो! यह तो ब्राह्मण का काम नहीं है।"