राजर्षि / परिच्छेद 36 / रवीन्द्रनाथ ठाकुर / जयश्री दत्त
बिल्वन ने लौट कर देखा, इस बीच राजा ने कुकियों को विदा कर दिया है, उन्होंने राज्य में उपद्रव आरम्भ कर दिया था। सैनिकों के दल को लगभग भंग कर दिया है। युद्ध की कोई विशेष तैयारी नहीं है। बिल्वन ने लौट कर राजा को सारा विवरण कह सुनाया।
राजा ने कहा, "तो ठाकुर, मैं विदा लेता हूँ। राज्य धन नक्षत्रराय के लिए छोड़ चला।"
बिल्वन ने कहा, "असहाय प्रजा को दूसरे के हाथों में छोड़ कर आप पलायन कर जाएँगे, यह सोच कर मैं किसी भी प्रकार प्रसन्न मन से विदा नहीं कर सकता, महाराज! विमाता के हाथों में पुत्र को सौंप कर भारमुक्त के समान शान्ति प्राप्त कर पाए, क्या ऐसी कल्पना की जा सकती है?"
राजा बोले, "ठाकुर, तुम्हारे वाक्य बींधते हुए मेरे हृदय में प्रवेश कर रहे हैं, अब मुझे क्षमा करो, मुझे और अधिक कुछ मत कहो। मुझे विचलित करने की चेष्टा मत करो। तुम्हें पता है ठाकुर, मैंने मन-ही-मन प्रतिज्ञा की थी कि रक्तपात नहीं करूँगा; मैं उस प्रतिज्ञा को नहीं तोड़ सकता।"
बिल्वन ने कहा, "तब, महाराज अब क्या करेंगे?"
राजा बोले, "तुमसे सब कुछ बताता हूँ। मैं ध्रुव को साथ लेकर वन में जाऊँगा। ठाकुर, मेरा जीवन नितांत अधूरा रह गया है। मन में जो सोचा था, उसका कुछ भी नहीं कर पाया - जीवन का जितना चला गया है, उसे वापस पाकर और नए सिरे से निर्मित नहीं कर पाऊँगा - ठाकुर, मुझे लग रहा है, भाग्य ने हम लोगों को तीर के समान छोड़ दिया है, अगर एक बार लक्ष्य से तनिक भी इधर-उधर हुए, तो हजार कोशिशें करने पर भी लक्ष्य की ओर नहीं लौट सकते। जीवन के प्रारम्भ में वही जो मैं भटक गया हूँ, अब जीवन के अंत में लक्ष्य को नहीं खोज पा रहा हूँ। जो सोचता हूँ, वह नहीं होता। जिस समय जाग कर आत्म-रक्षा कर पाता, उस समय जागा नहीं, जब डूब रहा हूँ, तब चेतना हुई है। जैसे लोग समुद्र में डूबते समय लकड़ी के टुकड़े का सहारा लेते हैं, उसी तरह मैंने बालक ध्रुव का सहारा लिया है। मैं ध्रुव में आत्म-समाधान खोज कर ध्रुव में ही पुनर्जन्म प्राप्त करूँगा। मैं शुरू से ही पालते-पोसते हुए ध्रुव का निर्माण करूँगा। ध्रुव के संग तिल-तिल मेरा भी विकास होता रहेगा। अपना मनुष्य-जन्म सम्पूर्ण बनाऊँगा। ठाकुर, मैं तो मनुष्य होने लायक ही नहीं हूँ, मैं राजा बन कर क्या करूँगा !"
राजा ने अंतिम बात बड़े भावावेश के साथ कही - सुन कर ध्रुव राजा के घुटनों पर अपना सिर रगड़ते-रगड़ते बोला, "आमि आजा।"
बिल्वन ने हँसते हुए ध्रुव को गोद में उठा लिया। बहुत देर तक उसके मुँह की ओर देखते हुए अंत में राजा से कहा, "वन में क्या कभी मनुष्य का निर्माण किया जाता है? वन में केवल एक पौधे को पाल-पोस कर बड़ा किया जा सकता है। मनुष्य मानव-समाज में ही निर्मित होता है।"
राजा बोले, "मैं एकदम से वनवासी नहीं बन जाऊँगा, मनुष्य-समाज से बस थोड़ा-सा दूर रहूँगा, किन्तु समाज के साथ सारा सम्बन्ध तोड़ नहीं डालूँगा। यह मात्र थोड़े-से दिनों के लिए।"
इधर नक्षत्रराय सैन्य सहित राजधानी के निकट आ पहुँचा। प्रजा के धन-धान्य की लूट होने लगी। प्रजा-जन केवल गोविन्दमाणिक्य को ही शाप देने लगे। कहने लगे, "यह सब केवल राजा के पाप के चलते ही घट रहा है।"
राजा ने एक बार रघुपति से मिलना चाहा। रघुपति के आने पर उससे बोले, "प्रजा को और क्यों कष्ट पहुँचा रहे हो? मैं नक्षत्रराय के लिए राज्य छोड़ कर जा रहा हूँ। अपने मुगल सैनिकों को विदा कर दो।"
रघुपति ने कहा, "जो आज्ञा, आपके विदा होते ही मैं मुगल सैनिकों को विदा कर दूँगा - त्रिपुरा को लूटा जाए, ऐसी मेरी इच्छा नहीं है।"
राजा ने उसी दिन राज्य छोड़ कर जाने की तैयारी कर ली, उन्होंने राज-वेश त्याग दिया, गेरुए वस्त्र धारण कर लिए। नक्षत्रराय को राजा के समस्त कर्तव्यों की याद दिलाते हुए एक लंबा आशीर्वाद-पत्र लिखा।
अंत में राजा ध्रुव को गोद में उठा कर बोले, "ध्रुव, मेरे साथ वन में चलेगा, बेटा?"
ध्रुव ने तत्क्षण राजा के गले से लिपटते हुए कहा, "चलूँगा।"
उसी समय राजा को अचानक याद आया, ध्रुव को साथ ले जाने के लिए उसके चाचा, केदारेश्वर की सम्मति आवश्यक है; राजा ने केदारेश्वर को बुला कर कहा, "केदारेश्वर, तुम्हारी सम्मति हो, तो मैं ध्रुव को अपने साथ ले जाऊँ!"
ध्रुव दिन-रात राजा के पास ही रहता था, उसके चाचा के साथ उसका कोई बड़ा सम्बन्ध नहीं था, लगता है, इसीलिए राजा के मन में कभी नहीं आया कि ध्रुव को साथ ले जाने में केदारेश्वर को कोई आपत्ति हो सकती है।
राजा की बात सुन कर केदारेश्वर ने कहा, "मैं ऐसा नहीं कर सकूँगा, महाराज।"
सुन कर राजा चौंक गए। उन पर सहसा वज्राघात हुआ। थोड़ी देर चुप रहने के बाद बोले, "केदारेश्वर, तुम भी हम लोगों के साथ चलो।"
केदारेश्वर - "नहीं महाराज, वन में नहीं जा पाऊँगा।"
राजा ने कातर होकर कहा, "मैं वन में नहीं जाऊँगा; मैं जन-धन लेकर नगर में ही रहूँगा।"
केदारेश्वर ने कहा, "मैं देश छोड़ कर नहीं जा सकता।"
राजा ने कुछ न कह कर दीर्घ निश्वास छोड़ा। उनकी सारी आशा मृतप्राय हो गई। मानो क्षण भर में सम्पूर्ण धरती का चेहरा बदल गया। ध्रुव अपने खेल में डूबा था - बहुत देर उसकी तरफ देखते रहे, किन्तु उसे जैसे आँखों से देख नहीं पाए। ध्रुव उनके कपड़े का किनारा पकड़ कर खींचते हुए बोला, "खेलो।"
राजा का सम्पूर्ण ह्रदय विगलित होकर आँसुओं के रूप में आँखों की कोरों में आ गया, बड़े कष्ट से आँसुओं का दमन किया। मुँह फेर कर टूटे हुए हृदय से कहा, "तब ध्रुव रहे, मैं अकेला ही चलता हूँ।"
मानो क्षण भर में शेष जीवन का मरुमय-पथ तड़ितालोक में उनके चक्षु-तारकों पर अंकित हो गया।
केदारेश्वर ध्रुव का खेल रोक कर उससे बोला, "आ, मेरे साथ चल।"
कहते हुए उसका हाथ पकड़ कर खींचा। ध्रुव क्रंदन भरे स्वर में बोल उठा, "नहीं।"
राजा ने चकित होकर ध्रुव की ओर घूम कर देखा। ध्रुव ने दौड़ कर राजा को कस कर पकड़ते हुए जल्दी से उनके घुटनों में सिर छिपा लिया। राजा ने ध्रुव को गोद में उठा कर उसे छाती में भींच लिया। विशाल हृदय विदीर्ण होना चाहता था, छोटे-से ध्रुव को छाती में भींच कर हृदय को नियंत्रित किया। ध्रुव को उसी अवस्था में गोद में लिए वे विशाल कक्ष में टहलने लगे। ध्रुव कंधे पर सिर टिकाए एकदम स्थिर पड़ा रहा।
अंतत: चलने का समय हो गया। ध्रुव राजा की गोद में सोया पड़ा है। सोते हुए ध्रुव को धीरे-धीरे केदारेश्वर के हाथों में सौंप कर राजा यात्रा पर निकल पड़े।