राजर्षि / परिच्छेद 37 / रवीन्द्रनाथ ठाकुर / जयश्री दत्त
नक्षत्रराय ने सैन्य-सामंतों के साथ पूर्व के द्वार से राजधानी में प्रवेश किया, थोड़ा-सा धन और कुछेक अनुचर लेकर गोविन्दमाणिक्य ने पश्चिम वाले द्वार से यात्रा प्रारम्भ की। नगर के लोगों ने बाँसुरी फूँक कर ढाक (ढोल के आकार से मेल खाता एक वाद्य-यंत्र, जिसकी लम्बाई सत्तर से.मी. और जिसके दोनों गोलकों का व्यास पैंतालीस-पैंतालीस से.मी. होता है। इसे बाँस की हल्की पतली चंटी से बजाया जाता है, जिसकी लम्बाई लगभग पैंतालीस से.मी. होती है।) ढोल बजा कर हुलुध्वनि ( हुलुध्वनि : होठों की विशेष आकृति, जिह्वा, साँस और कंठ-स्वर की सम्मिलित क्रीड़ा से उत्पन्न ध्वनि, जिसे बंगाल में स्त्रियाँ मांगलिक अवसरों पर प्रस्तुत करती हैं।) और शंखध्वनि के साथ नक्षत्रराय की अगवानी की। गोविन्दमाणिक्य जिस मार्ग से घोड़े पर चढ़ कर जा रहे थे, उस मार्ग पर किसी ने भी उनके प्रति सम्मान प्रदर्शित करना आवश्यक नहीं समझा। दोनों ओर की झोपड़ियों में रहने वाली स्त्रियाँ उन्हें सुना-सुना कर गालियाँ देने लगीं, भूख और भूखे बच्चों के रुदन से उन लोगों की जिह्वा तीखी हो गई थी। परसों भारी दुर्भिक्ष के समय जिस बूढ़ी ने राज-द्वार पर जाकर भोजन पाया था और जिसे राजा ने स्वयं सांत्वना दी थी, वही अपने दुर्बल हाथ उठा कर राजा को शाप देने लगी। बालक माँओं से सीख पाकर उपहास उड़ाते हुल्लड़ मचाते राजा के पीछे-पीछे चलने लगे।
राजा दाएँ-बाएँ किसी ओर दृष्टिपात न करके सामने देखते हुए धीरे-धीरे चलने लगे। एक जूमिया खेत से आ रहा था, उसने राजा को देख कर भक्तिभाव से प्रणाम किया। राजा का हृदय भर आया। उन्होंने उसके निकट जाकर स्नेह व्याकुल स्वर में विदा प्रार्थना की। केवल इसी एक जूमिया ने उनके प्रजा-संतान-समुदाय की ओर से उनके राजत्व के अवसान की वेला में उन्हें भक्ति भरे उदास हृदय के साथ विदा किया। बालकों के झुण्ड को राजा के पीछे हुल्लड़ मचाते देख वह अत्यधिक क्रोधित होकर उन्हें भगाने दौड़ा। राजा ने उसे रोक दिया।
अंत में, मार्ग में जिस जगह केदारेश्वर की झोपड़ी थी, राजा वहाँ जा पहुँचे। उस समय एक बार दाहिने घूम कर देखा। आज जाड़े की सुबह है। कुहासा छँट कर सूर्य की किरणें दिखाई पड़ रही हैं। झोपड़ी की ओर देखते ही राजा को पिछले बरस के आषाढ़ महीने की एक सुबह याद आई। घने बादल, घनी बारिश। दूज के क्षीण चन्द्र के समान बालिका हासि चेतनाहीन होकर बिस्तर के कोने में दुबकी सो रही है। छोटा ताता कुछ भी न समझ पाने के कारण कभी दीदी के आँचल का किनारा मुँह में दबा कर दीदी को देख रहा है, कभी अपने गोल-गोल छोटे-छोटे मोटे-मोटे हाथों से आहिस्ता-आहिस्ता दीदी के गाल थपथपा रहा है। आज का यह अगहन महीने का ओस भीगा उजाला प्रात:काल उसी आषाढ़ के मेघाच्छन्न प्रभात में छिपा था। राजा को क्या लगा, कि जो भाग्य आज उन्हें राज्यहीन और अपमानित करके महल से विदा किए दे रहा है, वही भाग्य इस छोटी-सी झोपड़ी के द्वार पर उसी आषाढ़ के धुँधले प्रात:काल में उनकी प्रतीक्षा करता बैठा था? यहीं उसके साथ पहली भेंट हुई थी। राजा कुछ देर तक इस झोपड़ी के सामने अन्यमनस्क भाव से खड़े रहे। उस समय मार्ग में उनके अनुचरों के अलावा कोई नहीं था। जूमिया के दौड़ाने पर बालक भाग गए थे, लेकिन उसके दूर जाते ही वे फिर से आ धमके, उनके हुड़दंग से चेतना लौटने से राजा निश्वास छोड़ कर फिर से चलने लगे।
सहसा बालकों के शोर-शराबे के बीच एक सुमधुर परिचित स्वर उनके कानों में पड़ा। देखा, छोटा-सा ध्रुव दोनों हाथ उठाए हँसते-हँसते अपने छोटे-छोटे पैरों से उनकी ओर दौड़ा चला आ रहा है। केदारेश्वर पहले ही नए राजा के प्रति सम्मान प्रदर्शित करने चला गया है, झोपड़ी में केवल ध्रुव और एक बूढ़ी परिचारिका थी। गोविन्दमाणिक्य घोड़ा रोक कर उससे उतर पड़े। ध्रुव दौड़ कर खिल् खिल् करके हँसते हुए उनके ऊपर उछल पड़ा; वह उनके कपड़े पकड़ कर खींच कर, उनके घुटनों में मुँह छिपा कर, अपने प्रथम आनंद के उच्छ्वास का अवसान हो जाने के बाद गंभीर होकर राजा से बोला, "आमि टक् टक् चो'बो।"
राजा ने उसे घोड़े पर चढ़ा दिया। घोड़े पर चढ़ कर वह राजा के गले से लिपट गया, और अपने कोमल कपोल को राजा के कपोल से सटा दिया। ध्रुव अपनी बाल-बुद्धि से राजा के भीतर एक परिवर्तन अनुभव करने लगा। जैसे लोग गहरी नींद से जगाने के लिए नाना प्रकार की चेष्टाएँ करते हैं, उसी तरह ध्रुव ने उनके साथ खींचातानी करके, उनसे लिपट कर, उन्हें चूम कर किसी प्रकार उन्हें पहले वाली स्थिति में ले आने की अनेक चेष्टाएँ कीं। अंतत: असफल होकर मुँह में दो अँगुलियाँ डाल कर बैठा रहा। राजा ने ध्रुव का मनोभाव समझ कर उसे बारम्बार चूमा।
अंत में कहा, "ध्रुव, तब मैं चलूँ!"
ध्रुव राजा के चेहरे की ओर देख कर बोला, "मैं चलूँगा।"
राजा ने कहा, "तुम कहाँ चलोगे, तुम अपने चाचा के पास रहो।"
ध्रुव बोला, "नहीं, मैं चलूँगा।"
उसी समय झोपड़ी से वृद्धा परिचारिका बिड् बिड् करके डाँटते-फटकारते आ पहुँची; जल्दी से ध्रुव का हाथ पकड़ कर खींचते हुए बोली, "चल।"
ध्रुव भयभीत होकर बलपूर्वक दोनों हाथों से राजा को पकड़ कर उनकी छाती में मुँह छिपाए रहा। राजा ने दुखी होकर सोचा, वक्ष की शिराएँ खींच कर फाड़ कर फेंकी जा सकती हैं, परन्तु इन दो हाथों का बंधन क्या तोड़ा जा सकता है! लेकिन उसे भी तोडना पड़ा। आहिस्ता-आहिस्ता ध्रुव के दोनों हाथ खोल कर उसे जबरदस्ती परिचारिका के हाथों में पकड़ा दिया। ध्रुव पूरी शक्ति से रोने लगा; हाथ फैला कर बोला, "पिताजी, मैं चलूँगा।" राजा ने और पीछे न देख कर तेजी से घोड़े पर चढ़ कर उसे एड़ लगा दी। जितनी भी दूर गए, ध्रुव का आकुल-क्रंदन सुनाई पडता रहा, ध्रुव अपने दोनों हाथ फैलाए कहता रहा, "पिताजी, मैं चलूँगा।" अंत में राजा की प्रशांत आँखों से आँसू बहने लगे। उन्हें पथ-घाट सब कुछ दिखाई देना बंद हो गया। सूर्यालोक और सम्पूर्ण संसार मानो आँसुओं के जल से ढक गया। घोड़े की जिधर इच्छा हुई, उसी ओर दौड़ने लगा।
मार्ग में एक स्थान पर मुगल सैनिकों का एक दल राजा की ओर संकेत करके हँसने लगा, यहाँ तक कि उनके अनुचरों का भी थोड़ा कठोर उपहास आरम्भ कर दिया। राजा का एक सभासद घोड़े पर चढ़ा जा रहा था, वह इस दृश्य को देख कर दौड़ा हुआ राजा के निकट आया। बोला, "महाराज, यह अपमान और सहन नहीं होता। महाराज को इस दीन वेश में देख कर इन लोगों का ऐसा साहस हो रहा है। यह लीजिए तलवार, यह लीजिए पगड़ी। महाराज थोड़ी प्रतीक्षा कीजिए, मैं अपने साथियों को लाकर जरा इन बर्बरों की खबर लेता हूँ।"
राजा ने कहा, "नहीं नयनराय, मुझे तलवार-पगड़ी की आवश्यकता नहीं है। ये लोग मेरा क्या बिगाड़ लेंगे? मैं अब इसकी अपेक्षा बहुत भारी अपमान सहन कर सकता हूँ। नंगी तलवार उठा कर मैं इस संसार में लोगों से और सम्मान प्राप्त करना नहीं चाहता। जिस प्रकार संसार में सर्वसाधारण अच्छे समय बुरे समय में मान-अपमान, सुख-दुःख सहन करते रहते हैं, मैं भी जगदीश्वर का मुँह ताकते हुए उसी प्रकार सहन करूँगा। मित्र विरोधी बन गए हैं, आश्रित कृतघ्न हो गए हैं, नम्र दुर्विनीत हो उठे हैं, शायद एक समय यह मुझे असहनीय होता, परन्तु अब मैं इसे सहन करके ही हृदय में आनंद-लाभ कर रहा हूँ। जो मेरे मित्र हैं, उन्हें मैं जान गया हूँ। जाओ नयनराय, तुम लौट जाओ, नक्षत्र को आदर के साथ निमंत्रित कर लाओ, जिस प्रकार मेरा सम्मान करते थे, उसी प्रकार नक्षत्र का भी सम्मान करना। तुम सब लोग मिल कर नक्षत्र को सदैव सुमार्ग और प्रजा के कल्याण में लगाए रखना, विदा के समय तुम लोगों से मेरी यही प्रार्थना है। देखना, कभी भूल से भी मेरी बात का उल्लेख करके अथवा मेरे साथ तुलना करके उसकी तिल भर निंदा मत करना। तो, मैं विदा होता हूँ।"
कह कर राजा अपने सभासद से गले मिल कर आगे बढ़ गए, सभासद उन्हें प्रणाम करके आँसू पोंछते हुए चला गया।
जब गोमती के किनारे वाले ऊँचे पहाड़ के निकट पहुँचे, तो बिल्वन ठाकुर अरण्य से बाहर निकल कर उनके सम्मुख आकर अंजली उठा कर बोला, "जय हो।"
राजा ने घोड़े से उतर कर उसे प्रणाम किया।
बिल्वन ने कहा, "मैं आपसे विदा लेने आया हूँ।"
राजा बोले, "ठाकुर, तुम नक्षत्र के पास रह कर उसे सत्परामर्श दो। राज्य का हित-साधन करो।"
बिल्वन ने कहा, "नहीं। जहाँ आप राजा नहीं हैं, वहाँ मैं अकर्मण्य हूँ। यहाँ रह कर मैं और कोई कार्य नहीं कर पाऊँगा।"
राजा ने कहा, "तब, कहाँ जाओगे ठाकुर? तब मुझ पर दया करो, तुम्हें पाकर मैं दुर्बल हृदय में बल प्राप्त करता हूँ।"
बिल्वन ने कहा, "मेरी कहाँ आवश्यकता है, मैं इसी की खोज में निकला हूँ। मैं निकट रहूँ अथवा दूर, आपके प्रति मेरा प्रेम कभी विच्छिन्न नहीं होगा, जान लीजिए। लेकिन आपके साथ वन में जाकर मैं क्या करूँगा?"
राजा कोमल स्वर में बोले, "तो, में विदा होता हूँ।"
कहते हुए दूसरी बार प्रणाम किया। बिल्वन एक ओर चला गया, राजा दूसरी ओर बढ़ गए।