राजर्षि / परिच्छेद 43 / रवीन्द्रनाथ ठाकुर / जयश्री दत्त
(यह परिच्छेद स्टूयार्ट कृत बंगाल का इतिहास से संग्रहीत)
इधर शाह शुजा अपने भाई औरंगजेब की सेना द्वारा उत्पीड़ित होकर भागा फिर रहा है। इलाहाबाद के निकट युद्ध क्षेत्र में उसकी पराजय हो गई। विपक्षियों से पराक्रांत शुजा इस विपदा के समय अपने पक्ष वालों पर भी विश्वास नहीं कर पाया। वह अपमानित और भीत भाव में छद्म वेश में साधारण लोगों के समान अकेला भागा फिरने लगा। जहाँ भी जाए, शत्रु सैनिकों की धूलि पताका और उनके घोड़ों के खुरों की आवाजें उसका पीछा करने लगीं। अंत में पटना पहुँच कर उसने फिर से नवाब के वेश में अपने परिवार तथा प्रजा के सामने आने की घोषणा की। उसमें भी, जैसे ही पटना पहुँचा, उसके थोड़े ही समय बाद औरंगजेब का बेटा, शहजादा मुहम्मद सेना सहित पटना के दरवाजे पर आ धमका। शुजा पटना छोड़ कर मुँगेर भाग गया।
मुँगेर में उसके तितर-बितर हुए दलबल के कुछ-कुछ लोग उसके पास आ जुटे और वहाँ उसने नए सैनिक भी इकट्ठे कर लिए। तेरियागढ़ी और शिक्लिगली के किले साफ करके और नदी के किनारे पहाड़ पर प्राचीर का निर्माण करवा कर वह मजबूत होकर बैठ गया।
इधर औरंगजेब ने अपने कुशल सेनापति मीरजुमला को शहजादा मुहम्मद की सहायता के लिए भेज दिया। शहजादा मुहम्मद ने खुलेआम मुँगेर के किले के निकट पहुँच कर पड़ाव डाल दिया और मीरजुमला दूसरे गुप्त मार्ग से मुँगेर की ओर चल पड़ा। जब शुजा शहजादा मुहम्मद के साथ छोट-मोटे युद्ध में उलझा था, उसी समय अचानक समाचार मिला कि मीरजुमला बहुत बड़ी सेना लेकर वसंतपुर आ पहुँचा है। शुजा परेशान होकर तत्काल अपने सारे सैनिकों के साथ मुँगेर छोड़ कर राजमहल भाग गया। उसका पूरा परिवार वहीं रह रहा था। सम्राट के सैनिक बिना देर किए वहाँ भी उसके पीछे पहुँच गए। शुजा ने छह दिन तक प्राणपण से युद्ध करते हुए शत्रु-सैनिकों को आगे नहीं बढ़ने दिया। लेकिन जब देखा कि और बचाव संभव नहीं, तो एक दिन तूफानी अँधेरी रात में अपना पूरा परिवार और यथासंभव धन-संपत्ति लेकर नदी पार करके तोंडा भाग गया तथा वहाँ किले की साफ-सफाई में जुट गया।
उसी समय घनी बारिश आ गई, नदी का पाट चौड़ा और रास्ता कठिन हो गया। सम्राट के सैनिक आगे नहीं बढ़ पाए।
इस युद्ध के पहले शहजादा मुहम्मद के साथ शुजा की कन्या का विवाह तय हो गया था। किन्तु युद्ध के झंझट में दोनों ही पक्ष उस बात को भूल गए थे।
इस समय बारिश के कारण युद्ध स्थगित है और मीरजुमला अपने शिविर को राजमहल से कुछ दूर ले गया है, ऐसे समय तोंडा के शिविर से शुजा के एक सैनिक ने गुप्त रूप से आकर शहजादा मुहम्मद के हाथों में एक चिट्ठी दी। शहजादे ने खोल कर देखा, शुजा की बेटी ने लिखा है - 'शहजादे, क्या यही मेरा भाग्य था? जिसे मन-ही-मन पति-रूप में वरण करके अपना सम्पूर्ण हृदय समर्पित कर दिया, जो अँगूठियों का आदान-प्रदान करके मुझे ग्रहण करने के लिए वचनबद्ध हुआ था, वही आज निष्ठुर तलवार हाथ में लेकर मेरे पिता के प्राण लेने चला आया है, क्या मुझे यही देखना था! शहजादे, क्या यही हमारे विवाह का उत्सव है! क्या इतना बड़ा समारोह उसी के लिए है! क्या उसी कारण आज हमारा राजमहल रक्त से लाल है! क्या उसी कारण शहजादा दिल्ली से हाथों में लोहे की बेड़ियाँ लेकर आया है! यही क्या प्रेम की बेड़ी है!'
इस चिट्ठी को पढ़ते ही मानो अचानक आए प्रबल भूकंप से शहजादे मुहम्मद का हृदय विदीर्ण हो गया। वह एक पल भी चैन से नहीं रह पाया। उसने तत्क्षण साम्राज्य की आशा, बादशाह का अनुग्रह, सब कुछ तुच्छ अनभव किया। उसने प्रथम यौवन की दीप्त अग्नि में हानि-लाभ के सम्पूर्ण विचार का विसर्जन कर दिया। अपने पिता का सारा कार्य उसे अत्यंत अनुचित और निष्ठुर अनभव हुआ। इसके पहले वह पिता की षड्यंत्र-प्रवण निष्ठुर नीति के विरुद्ध पिता के सम्मुख ही अपना मत स्पष्ट रूप से व्यक्त करता था, और कभी-कभी सम्राट का क्रोध-भाजन भी बनता था। आज उसने अपने सेनाध्यक्षों में से कुछ मुख्य-मुख्य लोगों को बुला कर सम्राट की निष्ठुरता, दुष्टता और अत्याचार के सम्बन्ध में असंतोष प्रकट करके कहा, "मैं तोंडा में अपने चाचा के साथ मिलने जा रहा हूँ। तुम लोगों में से जो मुझे प्यार करता हो, मेरे पीछे चला आए!"
वे लंबा सलाम ठोंकते हुए तत्काल बोले, "शहजादे जो कह रहे हैं, वह अति यथार्थ है, देखना कल ही आधे सैनिक तोंडा के शिविर में शहजादे के साथ मिल जाएँगे।"
मुहम्मद उसी दिन नदी पार करके शुजा के शिविर में जा पहुँचा।
तोंडा में उत्सव का वातावरण छा गया। सारे के सारे युद्ध की बात एकदम भूल गए। अब तक केवल पुरुष ही व्यस्त थे, अब शुजा के परिवार में रमणियों के हाथ में भी काम का अंत नहीं रहा। शुजा ने अत्यंत स्नेह और आनंद के साथ मुहम्मद को अंगीकार किया। लगातार के रक्तपात के बाद खून का खिंचाव मानो और बढ़ गया। नृत्य-गीत-वाद्य के बीच विवाह संपन्न हो गया। नाच-गान समाप्त होते-न-होते खबर मिली कि सम्राट की सेना निकट आ गई है।
जैसे ही मुहम्मद शुजा के शिविर में गया, वैसे ही सैनिकों ने मीरजुमला को समाचार भेज दिया। एक सैनिक ने भी मुहम्मद का साथ नहीं दिया, वे समझ गए थे, मुहम्मद ने जान-बूझ कर विपत्ति के सागर में छलाँग लगाई है, वहाँ जाकर उसके दल में मिलना पागलपन है।
शुजा और मुहम्मद को विश्वास था कि सम्राट के अधिकांश सैनिक युद्ध-क्षेत्र में शहजादा मुहम्मद के साथ मिल जाएँगे। मुहम्मद इसी आशा में अपनी पताका फहराते हुए रण-भूमि में उतर गया। सम्राट के सैनिकों का एक बड़ा दल उसकी ओर बढ़ा। मुहम्मद आनंद में फूला न समाया। लेकिन वह दल निकट आते ही मुहम्मद के सैनिकों के दल पर गोले बरसाने लगा। तब मुहम्मद पूरी स्थिति समझ पाया। परन्तु तब और समय नहीं था। उसके सैनिक भाग खड़े हुए। युद्ध में शुजा का बड़ा बेटा मारा गया।
उसी रात हतभागा शुजा और उसका जामाता सपरिवार द्रुतगामी नौका पर सवार होकर ढाका भाग गए। मीरजुमला ने ढाका में शुजा का पीछा करना आवश्यक नहीं समझा। वह विजित क्षेत्र में व्यस्था कायम करने में लग गया।
दुर्दशा के दिनों में विपदा के समय जब मित्र एक-एक कर साथ छोड़ जाते हैं, तब मुहम्मद के धन-प्राण-मान को तुच्छ समझ कर - शुजा का पक्ष लेने के कारण शुजा का हृदय विगलित हो गया। वह मन-प्राण से मुहम्मद को प्यार करने लगा। उसी समय ढाका शहर में औरंगजेब का एक पत्र-वाहक गुप्तचर पकड़ा गया। उसका पत्र शुजा के हाथ लग गया। औरंगजेब ने मुहम्मद को लिखा था, 'सबसे प्यारे बेटे मुहम्मद, तुम अपने कर्तव्य की अवहेलना करके पितृ-द्रोही बन गए हो और अपने निष्कलंक यश पर कलंक लगा लिया है। रमणी की छलनामय हँसी पर मुग्ध होकर अपने धर्म का विसर्जन कर दिया है। भविष्य में जिसके हाथों में सम्पूर्ण मुगल साम्राज्य का शासन-भार आने वाला है, वह आज एक रमणी का दास बना बैठा है! जो भी हो, जब मुहम्मद ने अल्लाह के नाम की कसम खाकर अफसोस जता दिया है, तो मैंने उसे माफ किया। लेकिन जिस काम के लिए गया है, जब उसे पूरा करके आएगा, तभी वह मेरे अनुग्रह का अधिकारी होगा।'
शुजा इस चिट्ठी को पढ़ कर वज्राहत हो गया। मुहम्मद ने बार-बार कहा कि उसने कभी भी पिता के सामने अफसोस प्रकट नहीं किया। यह सब उसके पिता की चालाकी है। लेकिन शुजा का संदेह दूर नहीं हुआ। शुजा तीन दिन तक सोचता रहा। अंत में चौथे दिन बोला, "बेटा, हम लोगों के बीच विश्वास का बंधन ढीला पड़ गया है। इसलिए मैं अनुरोध कर रहा हूँ, तुम अपनी पत्नी को लेकर चले जाओ, अन्यथा हम लोगों के मन को शान्ति नहीं मिलेगी। मैंने राजकोष का दरवाजा खोल दिया है, श्वसुर के उपहार स्वरूप जितनी इच्छा हो, धन-रत्न ले जाओ।"
मुहम्मद ने आँसू बहाते हुए विदा ली, उसकी पत्नी उसके साथ चली गई।
शुजा बोला, "और युद्ध नहीं करूँगा। चट्टग्राम के बंदरगाह से जहाज पर चढ़ कर मक्का चला जाऊँगा।"
कह कर छद्म वेश में ढाका छोड़ कर चला गया।