राजर्षि / परिच्छेद 44 / रवीन्द्रनाथ ठाकुर / जयश्री दत्त
जिस दुर्ग में गोविन्द माणिक्य रहते थे, एक दिन वर्षा के अपराह्न में उसी दुर्ग के मार्ग से एक फकीर के साथ तीन बालक और एक वयप्राप्त भारवाही चले आ रहे हैं। बालक अत्यधिक थके दिखाई पड़ रहे हैं। हवा तेज बह रही है और बारिश लगातार पड़ रही है। सबसे छोटे बालक की आयु चौदह बरस से अधिक नहीं होगी, उसने ठण्ड से काँपते हुए दुखी स्वर में कहा, "अब्बा, और नहीं चल सकता।" कहते हुए अधीर होकर रोने लगा।
फकीर ने बिना कुछ कहे उसे छाती के पास खींच लिया।
बड़े बालक ने छोटे का तिरस्कार करते हुए कहा, "रास्ते के बीच इस तरह रोने का क्या फायदा है? चुप हो जा। अब्बा को बेकार में दुखी मत कर।"
छोटा बालक उठ रही रुलाई को दबा कर शांत हो गया।
मँझले बालक ने फकीर से पूछा, "अब्बा, हम लोग कहाँ जा रहे हैं?"
फकीर ने कहा, "यह जो किले का शिखर दिखाई पड़ रहा है, इसी किले में जा रहे हैं।"
"वहाँ कौन है अब्बा?"
"सुना है, कहीं के एक राजा संन्यासी होकर वहाँ रहते हैं।"
"राजा संन्यासी क्यों हो गया अब्बा?"
फकीर ने कहा, "पता नहीं बेटा! शायद उनके सगे भाई ने सैनिकों के साथ देश से देशांतर तक गाँव के कुत्ते के समान उनका पीछा किया। उन्हें राज्य और सुख-संपदा से बेदखल कर दिया। अब शायद दारिद्र्य की अँधेरी छोटी-सी गुफा और संन्यासी के गेरुए कपड़े ही उनके लिए संसार में छिपने का एकमात्र स्थान हैं। अपने भाई के विद्वेष से, विषदंत से और कहीं भी बचाव नहीं।"
कहते हुए फकीर ने मजबूती से अपने अधरोष्ठ दबा कर हृदय के आवेग का दमन किया। बड़े बालक ने पूछा, "यह संन्यासी कौन-से देश का राजा था?"
फकीर ने कहा, "वह नहीं पता बेटा!"
"अगर हमें आश्रय न दे?"
"तब हम लोग पेड़ के नीचे लेट जाएँगे। हम लोगों के लिए और जगह कहाँ है!"
शाम होने के कुछ पहले ही दुर्ग में फकीर और संन्यासी की भेंट हुई। दोनों ही दोनों को देख कर आश्चर्य में पड़ गए। गोविन्दमाणिक्य ने ध्यान से देखा - फकीर, फकीर नहीं लगा। छोटी-छोटी स्वार्थपर इच्छाओं से मन को हटा कर एकमात्र महान उद्देश्य में नियोजित करने पर चेहरे पर जो एक प्रकार की ज्वालाहीन विमल ज्योति प्रकट हो जाती है, वह फकीर के चेहरे पर दिखाई नहीं दी। फकीर हमेशा सतर्क भयभीत। उसके हृदय की सम्पूर्ण तृषित वासना मानो उसके जलते हुए दो नेत्रों से अग्नि-पान कर रही है। उसके मजबूती से बंद अधरोष्ठों और कस कर भिंचे दाँतों के बीच विफलता से घायल उसका विद्वेष मानो हृदय की अँधेरी गुफा में प्रवेश करके अपने को अपने आप ही डँस रहा है। साथ में तीन बालक, उनकी अत्यंत सुकमार सुन्दर श्रांत यंत्रणा भरी देह और एक प्रकार का गर्वित संकोच देख कर लगता है, जैसे वे जन्म से ही सार-सँभाल के साथ सम्मान के छींके पर टँगे हुए थे, उन्होंने यही पहली बार जमीन पर पैर रखा है। चलने पर पैरों की अँगुलियों में जो धूल लग जाती है, मानो पहले उन्हें इसका प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं था। संसार में कदम-कदम पर यह धूल भरी गंदी दरिद्रता मानो उनमें संसार के प्रति घृणा को जन्म दे रही है, कदम-कदम पर उत्कृष्ट श्रेणी की चटाई और मिट्टी के बीच भेद देख कर वे जैसे संसार का तिरस्कार कर रहे हैं। मानो पृथिवी ने विशेषकर उन्हीं के साथ भेदभाव करके अपनी विशाल उत्कृष्ट चटाई लपेट कर रख दी है। मानो सभी ने उनके प्रति अपराध कर डाला है। दरिद्र लोग भिक्षा माँगने के लिए अपने गंदे कपड़ों में उनके बहुत निकट आने का जो साहस कर रहे हैं, यह केवल उनकी प्रतिद्वंद्विता है; घृणा योग्य कुत्ता कहीं निकट न आ जाए, इस कारण जैसे लोग रोटी का टुकड़ा दूर से ही फेंक देते हैं, मानो ये लोग भी उसी प्रकार भूखे गंदे भिखारियों को देख कर मुँह घुमा कर दूर से ही अनायास एक मुट्ठी मुद्राएँ फेंक सकते हैं। अधिकांश संसार का एक प्रकार का अति सामान्य रूप और फटेहाल निर्धनता मानो उनकी आँखों में केवल एक भारी बेअदबी है। वे जो संसार में सुखी और सम्मानित नहीं बन पा रहे हैं, यह केवल संसार का ही दोष है।
ऐसा नहीं कि गोविन्दमाणिक्य ने ठीक-ठीक इतना ही सोचा था। वे लक्षण देख कर ही समझ गए थे कि यह फकीर अपनी समस्त इच्छाओं को विसर्जित करके स्वाधीन और स्वस्थ होकर संसार का कार्य करने को बाहर निकला हो, ऐसा नहीं है; यह केवल अपनी इच्छाओं के तृप्त न होने के कारण असंतुष्ट होकर सारे संसार से विमुख होकर आया है। फकीर का विश्वास है कि वह जो चाहता है, वही उसका प्राप्य है, और संसार उससे जो चाहता है, वह सुविधानुसार देने पर भी चलेगा और न देने से भी कोई नुकसान नहीं है। ठीक इसी विश्वास के अनुसार काम नहीं चलता, इसी कारण वह संसार को छोड़ कर निकल पड़ा है।
गोविन्दमाणिक्य देखने में फकीर को राजा भी लगे, संन्यासी भी प्रतीत हुए। उसने ठीक ऐसी आशा नहीं की थी। उसने सोचा था, शायद एक लम्बोदर पगड़ीधारी बड़ा-सा मांस-पिंड दिखेगा अथवा एक दीन वेशधारी मैला-कुचैला संन्यासी, अर्थात भस्माच्छादित धूलिशैयाशायी उद्धत दर्प देखने को मिलेगा। लेकिन दोनों में से कोई भी देखने को नहीं मिल सका। गोविन्दमाणिक्य को देखने पर अनुभव हुआ कि जैसे उन्होंने सब कुछ त्याग दिया है, फिर भी जैसे सब कुछ उन्हीं का है। वे कुछ भी नहीं चाहते, इसीलिए जैसे सब कुछ पा लिया है - उन्होंने अपने को उत्सर्गित कर दिया है, इसी से मिल गया है। उन्होंने जिस प्रकार आत्म-समर्पण किया है, उसी प्रकार सम्पूर्ण जगत स्वेच्छा से उनकी पकड़ में आ गया है। किसी प्रकार का आडम्बर न होने के कारण ही वे राजा हैं, तथा सम्पूर्ण संसार के अत्यंत निकटवर्ती हो जाने के कारण ही वे संन्यासी हैं। इसी कारण उन्हें राजा भी नहीं बनना पडता, संन्यासी भी नहीं हो जाना पडता।
राजा ने अपने अतिथियों की आदर के साथ सेवा की। उन्होंने उनकी सेवा को परम अवहेलना के साथ ग्रहण किया। मानो इस पर उन लोगों को पूरा अधिकार था। उन लोगों के आराम के लिए क्या-क्या समान आवश्यक है, राजा को यह भी बता दिया। राजा ने बड़े बालक से स्नेहपूर्वक पूछा, "रास्ते की कठिनाई से बहुत थकन अनुभव हो रही है क्या?"
बालक उसका अच्छी तरह उत्तर न देकर फकीर से सट कर बैठ गया। राजा ने उसकी ओर देख कर तनिक हँसते हुए कहा, "तुम लोगों का यह सुकुमार शरीर रास्ता चलने के लिए नहीं है। तुम लोग मेरे इस दुर्ग में रहो, मैं तुम्हें जतन से रखूँगा।"
राजा की इस बात का उत्तर देना उचित है या नहीं, और इन सब लोगों के साथ ठीक किस प्रकार से व्यवहार करना करणीय है, बालक सोच नहीं पाए - वे फकीर से और अधिक सट कर बैठ गए। मानो सोच रहे हों, कहाँ का यह आदमी अपने मैले हाथ बढ़ाए इसी समय उन्हें पकड़ने आ रहा है।
फकीर गंभीर होकर बोला, "अच्छा, हम लोग कुछ समय तुम्हारे इस दुर्ग में रह सकते हैं।"
मानो राजा पर अनुग्रह किया हो। मन-ही-मन कहा, 'अगर जानते कि मैं कौन हूँ, तो इस अनुग्रह पर तुम्हारे आनंद की सीमा न रहती।'
राजा किसी भी तरह तीनों बालकों को वश में नहीं कर पाए। और फकीर जैसे पूरी तरह निर्लिप्त बना रहा।
फकीर ने गोविन्दमाणिक्य से पूछा, "सुना है, तुम एक समय राजा थे, कहाँ के राजा?"
गोविन्दमाणिक्य ने कहा, "त्रिपुरा का।"
सुन कर बालकों ने उन्हें बहुत हीन समझा। उन्होंने कभी त्रिपुरा का नाम सुना ही नहीं था। किन्तु फकीर थोड़ा-सा विचलित हो गया। फिर पूछा, "तुम्हारा सिंहासन गया कैसे?"
गोविन्दमाणिक्य थोड़ी देर चुप रहे। अंत में बोले, "बंगाल के नवाब शाह शुजा ने मुझे राज्य से निर्वासित कर दिया है।"
नक्षत्रराय की कोई बात नहीं कही।
यह बात सुनते ही सभी बालकों ने चौंकते हुए फकीर के चेहरे की ओर देखा। फकीर का चेहरा मानो बदरंग पड़ गया। वह सहसा बोल पड़ा, "लगता है, यह सब तुम्हारे भाई का किया-धरा है? शायद तुम्हारे भाई ने तुम्हें राज्य से भगा कर संन्यासी बना दिया है?"
राजा आश्चर्यचकित हो गए; बोले, "आपको यह समाचार कहाँ से मिला साहब?"
फिर सोचा, 'आश्चर्य की कोई बात नहीं, किसी से भी सुन लिया होगा।'
फकीर ने जल्दी से कहा, "मुझे कुछ पता नहीं। मैं केवल अनुमान कर रहा हूँ।"
रात होने पर सभी सोने चले गए। उस रात फकीर को और नींद नहीं आई। जागते हुए दुःस्वप्न देखने लगा और प्रत्येक शब्द पर चौंकने लगा।
अगले दिन फकीर गोविन्दमाणिक्य से बोला, "विशेष आवश्यकता के कारण यहाँ और रहना नहीं हो पाया। हम लोग आज विदा होते हैं।"
गोविन्दमाणिक्य ने कहा, "बालक मार्ग के कष्ट से थक गए हैं, उन्हें और कुछ समय आराम करने देना अच्छा रहेगा।"
बालक थोड़े कुढ़ गए - उनमें से सबसे बड़े ने फकीर की ओर देख कर कहा, "हम लोग कोई नितांत बच्चे नहीं हैं, जरूरत पडने पर आसानी से कष्ट सहन कर सकते हैं।"
वे गोविन्दमाणिक्य का प्यार स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं। गोविन्दमाणिक्य ने और कुछ नहीं कहा।
फकीर जिस समय चलने की तैयारी कर रहा था, तभी दुर्ग में एक और अतिथि का आगमन हुआ। उसे देख कर फकीर और राजा, दोनों ही आश्चर्य में पड़ गए। फकीर सोच नहीं पाया कि क्या करे! राजा ने अपने अतिथि को प्रणाम किया। अतिथि कोई और नहीं, रघुपति है। रघुपति ने राजा का प्रणाम स्वीकार करके कहा, "जय हो।"
राजा ने तनिक परेशान होकर पूछा, "नक्षत्रराय के पास से आ रहे हो ठाकुर? कोई विशेष समाचार है?"
रघुपति ने कहा, "नक्षत्रराय ठीक हैं, उनके लिए चिन्ता मत कीजिए।"
आकाश की ओर हाथ उठा कर बोला, "मुझे जयसिंह ने आपके पास भेज दिया है। वह बचा नहीं। मैं उसकी इच्छा पूरी करूँगा, अन्यथा मुझे शान्ति नहीं। आपके पास रह कर, आपका संगी बन कर आपके समस्त कार्यों में शामिल होऊँगा।"
राजा पहले रघुपति का भाव कुछ समझ नहीं पाए। उन्होंने एक बार सोचा, लगता है, रघुपति पागल हो जाएगा। राजा चुप रहे।
रघुपति ने कहा, "मैंने सब देख लिया है, किसी में ही सुख नहीं है। ईर्ष्या करने में सुख नहीं, आधिपत्य जमा कर सुख नहीं, आपने जिस मार्ग का अवलंबन किया है, उसी में सुख है। मैंने आपके साथ परम शत्रुता की, मैंने आपसे ईर्ष्या की, मैंने आपकी बलि चढ़ा देनी चाही थी, आज मैं आपके सम्मुख सब कुछ त्यागने आया हूँ।"
गोविन्दमाणिक्य ने कहा, "ठाकुर, तुमने मेरा परम उपकार किया है। मेरा शत्रु मेरी परछाईं के समान मेरे साथ-साथ ही लगा हुआ था, तुमने मुझे उसके हाथ से बचा लिया है।"
रघुपति उस बात पर कोई अधिक ध्यान न देकर बोला, "महाराज, मैं संसार में रक्तपात करके इतने दिन तक जिस पिशाची की सेवा करता आया हूँ, उसने अंत में मेरे ही हृदय का रक्त खींच कर पी डाला। उसी शोणित पिपासी जड़ता-मूढ़ता को मैं दूर कर आया हूँ; वह अब महाराज के राज्य के देव-मंदिर में नहीं है, अब वह राजसभा में घुस कर सिंहासन पर चढ़ी बैठी है।"
राजा ने कहा, "अगर वह देव-मंदिर से दूर हो गई है, तो धीरे-धीरे मनुष्य के हृदय से भी दूर हो जाएगी।"
पीछे से एक परिचित स्वर ने कहा, "नहीं महाराज, मानव-हृदय ही प्रकृत-मंदिर होता है, वहीं खड्ग पर धार चढ़ती है और वहीं शत-सहस्र नर बलियाँ चढ़ती हैं। देव-मंदिर में केवल उसका साधारण अभिनय होता है।"
राजा ने चकित होते हुए घूम कर देखा, सहास्य सौम्य-मूर्ति बिल्वन। उसे प्रणाम करके रुद्ध कंठ से कहा, "आज मेरा क्या आनंद है!"
बिल्वन ने कहा, "महाराज ने स्वयं को जीत लिया है, इसी कारण सबको जीत लिया है। उसी के फलस्वरूप आज आपके द्वार पर शत्रु-मित्र सभी एकत्र हो गए हैं!"
फकीर ने आगे बढ़ कर कहा, "महाराज, मैं भी आपका शत्रु हूँ, मैं भी आपकी पकड़ में आ गया हूँ।"
रघुपति की ओर अँगुली का इशारा करते हुए कहा, "यह ब्राह्मण ठाकुर मुझे जानता है। मैं ही शुजा हूँ, बंगाल का नवाब, मैंने ही आपको बिना किसी अपराध के निर्वासित किया है और उस पाप का दण्ड भी पा लिया है - आज मेरे भाई की ईर्ष्या रास्ते-रास्ते मेरा पीछा कर रही है, मेरे राज्य में ही मेरे खड़े होने की जगह नहीं है। मैं छद्म वेश में और नहीं रह सकता, आपके समक्ष सम्पूर्णत: आत्म-समर्पण करके बच गया।"
इसके बाद राजा और नवाब, दोनों आलिंगनबद्ध हो गए। राजा ने केवल यही कहा, "मेरा क्या सौभाग्य है!"
रघुपति ने कहा, "महाराज, आपके साथ शत्रुता करने में भी लाभ है। आपसे शत्रुता करने जाकर ही आपके द्वारा अपना लिया गया अन्यथा कभी भी आपको जान नहीं पाता।"
बिल्वन ने हँस कर कहा, "जैसे फाँसी के फंदे में पड़ कर फंदे को तोड़ने की कोशिश में गर्दन और भी कसती चली जाती है।"
रघुपति ने कहा, "मुझे और दुःख नहीं - मुझे शान्ति मिल गई है।"
बिल्वन ने कहा, "शान्ति सुख अपने भीतर ही होता है, केवल जान नहीं पाते। भगवान ने जैसे मिट्टी की हाँड़ी में अमृत रख दिया है, अमृत है, कह कर किसी को भी विश्वास नहीं होता। आघात लगाने से जब हाँड़ी टूट जाती है, तब बहुत बार अमृत का स्वाद मिलता है। हाय हाय, ऐसी वस्तु भी ऐसी जगह रहती है!"
उसी समय एक आकाश-भेदी शोर उठा। देखते ही देखते दुर्ग में छोटे-बड़े नानाविध बालक आ धमके। राजा ने बिल्वन से कहा, "ये देखो ठाकुर, मेरे ध्रुव!"
कहते हुए बालक दिखा दिए।
बिल्वन ने कहा, "जिसके प्रसाद से आपने इतने सारे बालक पाए हैं, वह भी आपको भूला नहीं है, उसे ले आता हूँ।"
कह कर बाहर गया।
थोड़ी देर में ध्रुव को गोद में उठाए लाकर राजा की गोद में दे दिया। राजा ने उसे छाती में भींच कर पुकारा, "ध्रुव!"
ध्रुव कुछ नहीं बोला, गंभीर भाव से चुपचाप राजा के कंधे पर सिर टिकाए पड़ा रहा। बहुत दिन बाद पहली बार मिलने के कारण बालक के नन्हे-से हृदय में मानो एक प्रकार का अव्यक्त अभिमान और लज्जा उत्पन्न हो गए। राजा को लपेट कर चेहरा छिपाए रहा।
राजा बोले, "और सब हुआ, केवल नक्षत्र ने मुझे भाई नहीं कहा।"
शुजा ने तीखे भाव से कहा, "महाराज, और सभी अति सहजता से ही भाई के समान व्यवहार करते हैं, केवल अपना भाई नहीं करता।"
शुजा के हृदय से अभी भी शूल निकला नहीं था।