रावी के उस पार / कमलानाथ

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डॉ. रिचर्ड पॉवेल और मैं एक हेलिकॉप्टर में बैठे खैरी गाँव के आसपास के क्षेत्र की रेकी कर रहे थे जहाँ हिमाचल प्रदेश में चमेरा जलविद्युत परियोजना का भूगर्भीय बिजलीघर बनना था। कनाडा से सलाहकार के रूप में रिचर्ड एक भूगर्भवेत्ता और मैं मुख्यालय से जलविज्ञान विशेषज्ञ की हैसियत से यहाँ आये थे।

“और नीचे लो, थोड़ा और टेढ़ा करो, मैं यहाँ से ठीक तरह देख नहीं पारहा हूँ”- रिचर्ड ने आग्रह किया।

“सर, इससे ज़्यादा टेढ़ा करना इस हेलिकॉप्टर में मुमकिन नहीं है। अगर मैं और ज़्यादा नीचे लूँगा तो हो सकता है इसका पंखा किसी पेड़ में फँस जाये” – पायलट ने समझाया।

“अगर आप ये नहीं कर सकते तो मुझे उड़ाने दीजिए। मैं नीचे लेता हूँ। इस तरह मुझे चट्टानें नज़र नहीं आ रही हैं ”- रिचर्ड ने फिर कहा।

मुझे लग रहा था रिचर्ड सचमुच दुराग्रह कर रहा था। चारों तरफ़ चीड़ के जंगल थे। पायलट हेलिकॉप्टर को नई उड़ान भरने के लिए पूर्व दिशा में ले आया था और तेज़ी से पश्चिम की ओर काफ़ी टेढ़ा करके नीचे की तरफ़ फिर से गोता लगा रहा था। रिचर्ड लगातार फ़ोटो खींचे जारहा था। नए चक्कर के लिए जब जब वो वापस आता था, नीचे मुझे छोटी छोटी बकरियां और उनके साथ कोई चरवाहा नज़र आता था। पेड़ों के झुण्ड के बीच यही ऐसा रास्ता था जहाँ से हेलिकॉप्टर बिना पेड़ों से टकराए गुज़र सकता था। मेरे लिए यह एक रोमांचक, बल्कि खौफ़नाक अनुभव था। मैं तब सिर्फ़ अपने आपको संयत रखने का प्रयत्न कर रहा था और अपनी सीट को कस के पकड़ कर बैठा हुआ था। मुझे मतली भी होने लगी थी। जब रिचर्ड ने मनचाही फ़ोटो लेलीं, वहीँ पेड़ों को काट कर बनाये हुए एक समतल स्थान पर हमारा हेलिकॉप्टर उतरा।

अगले दो घंटों तक रिचर्ड चारों तरफ़ घूमते हुए अपने हथोड़े से तोड़ कर चट्टानों के नमूने इकट्ठे कर रहा था। मैं वहाँ से थोड़ी दूर निकल कर सेवा नदी के किनारे पर आगया था। सितम्बर अक्टूबर में इस नदी का बहाव जून से अगस्त के महीनों में होने वाले बरसाती बहाव से काफ़ी कम था। इस समय यह ऊपर पहाड़ों से पिघली बर्फ़ का बहाव ही था। यह नदी आगे जाकर रावी नदी में मिल जाती है, जो इससे बहुत बड़ी है। बिजलीघर से बिजली पैदा करने के बाद पानी को रावी और सेवा नदियों के मुहाने के आगे छोड़ दिया जायेगा।

इस समय यहाँ लगभग सन्नाटा सा था, बस बीच बीच में पक्षियों के चहचहाने की आवाज़, पानी बहने का शोर और कभी अचानक किसी कोयलनुमा काले पक्षी की तेज़ चीख़ इस सन्नाटे को तोड़ रही थी। इस सब के बीच हवा में लहर की तरह बह कर आती किसी औरत के गाने की आवाज़ भी टूट टूट कर सुनाई दे रही थी। मैंने ध्यान से सुनने की कोशिश की पर कोई शब्द समझ में नहीं आये। शीशम और चीड़ के पेड़ों का यहाँ इतना घना जंगल था कि बहुत दूर तक देख पाना संभव भी नहीं था। लेकिन प्रकृति का शुद्ध रूप और कौमार्य यहाँ देखा जासकता था। मैं एक पेड़ के नीचे बैठ कर प्रकृति के इस अद्भुत नज़ारे को देख रहा था और सोच रहा था, कुछ ही महीनों में यहाँ के अधिकांश पेड़ काट दिए जायेंगे जहाँ अन्वेषण टीम के रहने के लिए कोटेज बनाई जाएँगी। यह शांति और नीरवता कुछ महीनों के बाद शोर में तब्दील होजायेगी और प्रकृति के इस कोमल सौंदर्य और कौमार्य पर तथाकथित विकास के राक्षस द्वारा बलात्कार होगा। प्रकृति हमेशा से अपनी अस्मिता की रक्षा के लिए बेचैन रहती है और हम संवेदनहीनता के साथ उस पर प्रहार करते रहते हैं। इस द्वंद्व का अच्छा समाधान यजुर्वेद की एक ऋचा में है जहाँ प्रकृति संतुलन के लिए कहती है –“तुम मुझे दो, मैं तुम्हें दूं”।

मैं फिर उठा और सेवा नदी के किनारे चलने लगा, यह देखने के लिए कि इसे पार करने की क्या जुगत हो सकती है। इस वक़्त ऐसी कोई सम्भावना नज़र नहीं आई। नक़्शे में मैंने देखा था सेवा नदी कई घुमाव लेकर अंत में रावी नदी में मिल जाती है, पर इसका यह हिस्सा लगभग सीधा ही था – क़रीब डेढ़-दो किलोमीटर तक।

रिचर्ड ने दूर से आवाज़ लगाई और आने का इशारा किया। शाम होने से पहले हमें बनीखेत लौट जाना था।

डलहौज़ी में हमलोग एक होटल में रुके हुए थे। हमारे लिए और परियोजना के सभी अफ़सरों के लिए यहीं रहने का इंतज़ाम था। काफ़ी ऊँचाई पर यह एक प्रसिद्ध हिलस्टेशन है, बनीखेत से लगभग 9-10 किलोमीटर पर। बनीखेत के पास ही चौरा गाँव में रावी नदी पर एक बाँध बनना था और लगभग 30 किलोमीटर दूर खैरी के पास ज़मीन के नीचे एक बिजलीघर। पहले यहाँ लगभग डेढ़ वर्ष तक अन्वेषण का काम होगा जिसके आधार पर परियोजना का सम्पूर्ण आकलन किया जायेगा। बनीखेत और खैरी के बीच कोई सड़क नहीं थी, सिर्फ़ खच्चरों के लिए या स्थानीय निवासियों के आवागमन के लिए एक पगडण्डी ही थी। सारी स्थितियों के मद्देनज़र यह निर्णय लिया गया कि समय और खर्चा बचाने के लिए बजाय सड़कें बनाने के, अन्वेषण सम्बन्धी सारे कामों के लिए हेलीकॉप्टरों की सहायता ही ली जाये। आगे चल कर सारी मशीनें, जनरेटर, तकनीकी कर्मचारी, मजदूर वगैरह सभी इसी तरह लेजाये लाये जायेंगे।

हमने अपनी प्रारंभिक रिपोर्ट दी, रिचर्ड कनाडा लौट गया और मैं दिल्ली आ गया।

♦♦ • ♦♦

दो महीने बाद मैं फिर खैरी आया। पहले सा सन्नाटा तो अब नहीं रहा क्योंकि यहाँ प्लास्टिक की बनी बनाई पैनलों से 7-8 ‘झोंपडियां’ बना दी गयी थीं और मजदूरों कामगारों का शोरगुल सुनाई देता था। दूर देवदार के पेड़ की एक डाल पर बैठा चिड़ियों का एक जोड़ा जैसे इसी तरफ़ आश्चर्य और कौतूहल से देख रहा था। कुछ और समय बाद शायद यही जोड़ा निराशा और बेचैनी से देखेगा। हेलीकॉप्टरों ने बहुत सी ड्रिलिंग मशीनें और आदमी यहाँ उतार दिए थे। चट्टानों में कई जगह गहरे छेद करके इनकी नीचे तक की संरचना जानने के लिए नमूने लिए जायेंगे। रावी नदी और सेवा नदी पर मेरी निर्धारित की हुई जगहों पर हर रोज़ दो बार सुबह और शाम बहाव नापा जायेगा। मानसून के दिनों में देखा जायेगा कि पानी कितनी ऊँचाई तक उठ जाता है और कितनी मिट्टी ऊपर से बह कर आती है। ज़्यादातर काम करने वाले लोग बाहर के ही थे। पर एक कोई शेरसिंह हिमाचल का ही रहने वाला था जो जूनियर इंजीनियर था और जिसको मेरे साथ रहना था। खैरी के आसपास की उसको अच्छी जानकारी थी और यहाँ की व्यवस्था की ज़िम्मेदारी भी उसी की थी।

मैं शेरसिंह को लेकर सेवा नदी के किनारे पर आया। यहाँ अभी प्रकृति का सुहानापन उसी तरह बरक़रार था, हल्की हल्की सी हवा, अलग अलग तरह की वनस्पतियों की मिलीजुली सुगंध, पक्षियों की बीच बीच में संगीतमय चहचहाहट, पेड़ों के झुरमुट, जंगली घास जो मोटी तो थी पर मुलायम थी, नदी के बहाव का शोर...

मैंने शेरसिंह से पूछा- “यहाँ खैरी गाँव से मजदूरों को नहीं लिया प्रोजेक्ट में?”

“नहीं सर जी, इन लोगों को मशीन चलाना नहीं आता। एक दो आदमी हैं ऊपरी कामकाज के लिए, पर सारा स्टाफ़ तो प्रोजेक्ट का ही है। हाँ, जी एंड डी साइट के लिए यहाँ के लोकल लोग हैं” – शेरसिंह ने कहा।

जी एंड डी साइट, यानी गेज एंड डिस्चार्ज स्टेशन जहाँ से पानी के बहाव आदि सम्बन्धी सारी जानकारी इकट्ठी की जायेगी और माप लिए जायेंगे।

मुझे पिछली बार के रिचर्ड के साथ वाले दौरे के समय सुनाई दी गाने की आवाज़ के बारे में शेरसिंह से पूछना था पर संकोचवश मैंने ऐसा नहीं किया। वैसे ही रुक रुक कर आरही वही आवाज़ जैसे मेरे कानों में अब भी बह कर आरही थी।

“तुम लोगों ने सेवा नदी पार करने के लिए कोई छोटीमोटी पुलिया नहीं बनाई?” – मैंने पूछा।

“अभी तो सेवा नदी के पार सिर्फ़ जी एंड डी साइट वाले लोग ही जाते हैं सर जी। उन्होंने एक सीढ़ी डाल कर रास्ता बना लिया है” – वह बोला।

“चलो, वहाँ देखते हैं”।

शेरसिंह और मैं उस जगह तक आये जहाँ एक लंबी मोटे बांसों की सीढ़ी ने सेवा के दोनों किनारों को पाट रखा था।

“अरे, यह तो खतरनाक है, जब आदमी इस पर से जाते होंगे तो ये लचक नहीं जाती होगी?” – मेरे मुंह से अचानक निकल पड़ा।

“इस पर से एक एक कर के ही जाना पड़ता है सर जी। बीच में थोड़ी लचकती है पर जल्दी जल्दी जाने से कुछ नहीं होता” – शेरसिंह ने कहा।

“ठीक है, कल हम आयेंगे, जी एंड डी साइट देखने” – मैंने कहा।

“जी, सर जी”।

शाम का धुंधलका होने लगा था इसलिए हम वापस अपनी कॉटेज में लौट आये।

रात को एक अजीब सा सन्नाटा छा जाता था। कभी बीच बीच में किसी पेड़ पर पक्षियों के फड़फड़ाने की आवाज़ चौंका देती थी। बाहर से कभी कभी पत्तों की चरमराहट या सरसराहट की आवाज़ भी आती थी, किसी जंगली जानवर या सांप वगैरह के निकलने से। मैं लेटा लेटा सोच रहा था दिन में प्रकृति की सुंदरता रात की नीरवता में कैसा खौफ़ घोल देती है।

अगले दिन सुबह नाश्ता करके शेरसिंह और मैं निकल पड़े। अभी कुछ कुछ ठंडक थी इसलिए मैंने स्वेटर पहन लिया था। दोपहर गर्म होजाती थी। सेवा नदी पार करके रावी नदी पर जी एंड डी साइट थी, दोनों नदियों के मुहाने के बाद। हम वहाँ पहुंचे जहाँ सेवा नदी को पार करने के लिए अस्थाई तौर पर सीढ़ी रखी थी। इस सीढ़ी के कोई 2-3 फ़ीट नीचे सेवा नदी बह रही थी। चूँकि नदी का यह हिस्सा सीधा था इसलिए पानी के बहाव का अंदाज़ा मुश्किल था, बहरहाल कुछ दूर पर नदी में पड़े पत्थरों पर से बहाव देखने से लगता था यह काफ़ी था। पहले शेरसिंह सीढ़ी के बीच के बांसों पर पैर रखता हुआ तेज़ी से दूसरी तरफ़ निकल गया।

“आजाइए सर जी इसी तरह” – उसने आवाज़ लगाई।

मैं सोच रहा था अगर इस गीली सीढ़ी पर मैं तेज़ी से गया तो हो सकता है मैं फिसल जाऊं। फिर मुझे तैरना भी नहीं आता। पर हिम्मत करके मैं सीढ़ी पर चलने लगा, सम्हल सम्हल कर नीचे देखता हुआ कि मेरे पैर बीच के बांसों पर ठीक तरह पड़ें। नीचे नदी का बहाव दाहिनी ओर से बायीं ओर था। बहाव देखते देखते मुझे ऐसा भ्रम होने लगा कि मैं सीधा न चल कर बाँई तरफ़ झुक रहा हूँ। अपने आपको सीधा करने की गरज़ से मैं दाहिनी ओर झुका। मेरे इस झुकाव और वज़न के कारण सीढ़ी टेढ़ी हुई और मैं सेवा नदी में गिर पड़ा। सौभाग्यवश गिरते समय मेरे हाथ में सीढ़ी आगई और मैं इसे पकड़ कर लटक गया। मेरे हाथ सीढ़ी थामे हुए थे और सारा शरीर सेवा के पानी में डूबा हुआ था। पहाड़ों की बर्फ़ के पिघलने से ही नदी में बहाव था इसलिए पानी काफ़ी ठंडा था। मैंने स्वेटर और जींस पहन रखे थे इसलिए गीले होकर ये भारी होगये थे। शेरसिंह को समझ में नहीं आरहा था मुझे कैसे बचाए। वह घबराहट में सिर्फ़ इधर उधर दौड़ रहा था। लटके लटके थोड़ी देर में मुझे भी लगने लगा जैसे मैं आत्मविश्वास खो रहा हूँ, हालाँकि मैं चाह रहा था धीरे धीरे सीढ़ी के सहारे खिसकता हुआ किनारे तक आजाऊं। मुझे थोड़े से मनोवैज्ञानिक सहारे की ज़रूरत थी जो मुझमें यह विश्वास जगा सके कि खिसकने से मेरे सीढ़ियों पर से हाथ छूट नहीं जायेंगे। मैंने शेरसिंह से कहा कोई कपड़ा लाकर मेरे गिर्द लपेट दे ताकि मैं खिसकने की कोशिश कर सकूं। वह इधर उधर देखने लगा। शायद उस समय वह अपनी कमीज़ भी खोल कर लपेट सकता था पर न उसे और न मुझे यह सूझा।

सौभाग्य से उसी समय हमने देखा एक 17-18 वर्ष की लड़की 3-4 बकरियों को लेकर उधर से गुज़र रही थी। उसने अपने सर पर दुपट्टा बांध रखा था। मैंने शेरसिंह से कहा उसे जल्दी बुलाये। उसने आवाज़ लगाईं –“ओ पुरवा, जल्दी दौड़ आ”। वह उसे जानता था। पुरवा दौड़ती हुई आई और वहाँ का नज़ारा देखा कर थोड़ा डर गयी। मैंने शेरसिंह से कहा इससे कहो जल्दी से सीढ़ी पर आकर अपना दुपट्टा मेरे गिर्द लपेट दे। यह सुन कर पुरवा सीढ़ी पर चढ़ गयी और उसने अपना दुपट्टा मेरे दोनों हाथों के बीच से निकाल कर पीठ पर कस दिया। मेरा आत्मविश्वास अब लौटता सा दिखाई दिया और मैं धीरे धीरे सीढ़ी को पकड़े हुए इंच इंच खिसकता हुआ सेवा के किनारे तक आगया।

मुझे लगा उस समय पुरवा एक परी की तरह आसमान से उतर कर आई थी मुझे बचाने। मैंने उसे धन्यवाद दिया, शाबाशी दी और कुछ इनाम देने की पेशकश की जो उसने क़ुबूल नहीं की। वह मासूमियत से सिर्फ़ हँस भर दी। शेरसिंह ने कहा “ये हमारे सर जी हैं, हम रावी तक जारहे थे”। पुरवा ने मुझे हाथ जोड़े और बोली –“ साब जी, अच्छा हुआ आज मैं घर से थोड़ा जल्दी निकल आई। आपको बचाना जो था”। वह फिर हँस दी। उसकी बकरियां इधर उधर बिखरने लग गयी थीं, यह देखते ही उसने वहीँ से आवाज़ लगाई –“हुर्र..हुर्र..” और सीढ़ियों से वापस दौड़ती हुई लौट गयी। शेरसिंह ने बताया, दो किलोमीटर दूर पुरवा का घर है। उसका बाप जंगलात महकमे में फ़ोरेस्ट गार्ड था और अब रिटायर हो गया है। पेंशन मिलती है। पुरवा दिन में बकरियां चरा कर शाम से पहले घर पहुँच जाती है। कभी कभी इस तरफ़ से भी निकल जाती है, वर्ना इसका रास्ता कोई तय नहीं है। अच्छा हुआ कि वह आज इधर से ही निकली।

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