रावी के उस पार / भाग 2 / कमलानाथ
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पुरवा मुझे बेहद मासूम, सुन्दर और कोमल लगी थी। निश्चित ही वह थी भी। यहाँ की प्रकृति की सारी सुंदरता जैसे उसमें बस गयी थी और खुशनुमा मौसम का सारा निखार उसमें सिमट आया था। उसकी बड़ी बड़ी भोलीभाली आंखें समन्दर सी गहराई लिए हुए थीं और लहरों की तरह ही चंचलता से डोलती हुई बिखर भी पड़ती थीं। जब वह पलकें झपकती थी तो समंदर शांत होजाता था और आँखें खोलते ही लहरें हिलोरे भरने लगती थीं। जब वह ऊपर सीढ़ी पर बैठे हुए मेरे साथ साथ धीरे धीरे खिसक रही थी और मैं नीचे पानी में, ऐसा लग रहा था उसका दुपट्टा नहीं बल्कि उसकी खूबसूरत आँखों की रेशमी डोरियाँ मुझे खींच कर किनारे की ओर ले जारही हैं। रावी और सेवा नदियों के मुहाने पर पहुँचने तक दो तीन किलोमीटर मैं चुप ही रहा और पुरवा के बारे में ही सोचता रहा। लगता था शेरसिंह तब भी सदमे में ही था और चुप था। कोई भी अनहोनी घट सकती थी। उसने बड़े संकोच और नम्रता के साथ बताया कि कभी भी बहाव की तरफ़ नहीं देखना चाहिए, बल्कि सामने की तरफ़ ही देखना चाहिए नदी पार करते समय। नीचे देखने से पानी के बहाव की दिशा में ही चलने का भ्रम होजाता है और हम अपना संतुलन खो बैठते हैं। मेरे साथ यही हुआ था। लौटते वक़्त मैंने बिना नीचे सेवा के बहाव की तरफ़ देखे आसानी से सीढ़ी पार करली थी।
अगले दिन जी एंड डी साइट से ज़्यादा मुझे पुरवा को देखने की उत्सुकता हो रही थी। पता नहीं ऐसा क्यों हो रहा था। मुझे पुरवा अच्छी लगी थी। उसके चेहरे में कुछ था कि कोई भी आकर्षित हुए बिना नहीं रह सकता था। हो सकता है उसके प्रति कृतज्ञता का भाव मुझे खींच रहा था। मैं नहीं चाहता था शेरसिंह मेरे साथ आये। पर उसे डर था कि फिर कोई हादसा न होजाए। हालाँकि मैंने उसे समझाया अब मुझे पता लग गया किस तरह सीढ़ी पार करनी चाहिए, जी एंड डी साइट का रास्ता भी मुझे पता था, और फिर उसे कैम्प का दूसरा काम भी सम्हालना चाहिए, पर फिर भी वह मेरे साथ सेवा नदी तक आया और जब मैं सीढ़ी पार कर गया तभी लौटा।
मैं सेवा के किनारे किनारे रावी नदी की तरफ़ एकाध किलोमीटर ही चला होऊंगा कि मुझे फिर से वही मीठी आवाज़ हवा की तरंगों के साथ बहती हुई सुनाई दी। चीड़ के घने जंगल में कहीं अंदर से गाने की यह आवाज़ आरही थी। मैंने धीरे धीरे उसी तरफ़ रुख किया। पेड़ों की खुशबू, हवा से पत्तों की खड़खड़ाहट, सूखे पत्तों की मेरे जूतों से निकली चरमराहट, उस वक़्त सब कुछ संगीत सा ही लग रहा था। मुझे संकोच हो रहा था उधर जाने में। पता नहीं कौन होगी, क्या सोचेगी मेरे बारे में। पर मैं अपने आपको वहाँ जाने से रोक नहीं पा रहा था। जैसे जैसे मैं झुरमुट की तरफ़ बढ़ा, गाने की आवाज़ और साफ़ होती गयी। मुझे कुछ इस तरह समझ में आरहा था -
“सोण महीने जियाँ जो बरखा लगियाँ, छम छम बरसे नीर” .....”दो पल बै जायाँ.....”
अब मैं उसको ठीक तरह देख सकता था। यह पुरवा ही थी। देवदार के एक पेड़ के नीचे उसने अपने दोनों हाथ घुटनों में बांध रखे थे और अपनी ही सुध में आगे पीछे ताल से हिल रही थी। उसकी तीन बकरियां पास ही चर रही थीं। मेरे जूतों से सूखे पत्तों की चरमराहट से चौंक कर उसने मेरी तरफ़ देखा और खड़ी होगई।
“साब जी, आप इधर?”
“ मैंने तुम्हें बेकार ही चौंका दिया। मैं रावी के मुहाने तक जारहा था, तुम्हारी प्यारी प्यारी सी आवाज़ सुनी तो चला आया”।
वह शर्मा गयी। उसके गुलाबी चेहरे पर एक लाल रंग की सी लहर दौड़ गयी।
“नहीं साब जी, मुझे गाना नहीं आता, यूं ही गुनगुना लेती हूँ”। फिर कहा –“बैठो साब जी”।
हम वहीँ पेड़ के नीचे बैठ गए।
“अभी छम छम पानी बरसने में तो देर है, और सोण महीना भी नहीं आया” – मैंने वैसे ही बात बढ़ाते हुए कहा।
वह फिर बेहद शर्मा गयी और उसने दोनों हाथों से अपना मुंह ढांप लिया।
“ये कोई गाना है?” मैंने फिर पूछा।
“हाँ साब जी यहाँ का लोकगीत है। जब भी बादल घिर आते हैं तो लगता है पानी बरसेगा। एक बार चम्बा में थी तो इतनी तेज़ बारिश हुई कि हम दौड़ कर भी घर नहीं पहुँच सके। पर फिर हम बारिश में ख़ूब नहाये – तब तक, जब तक कि बारिश होती रही” - उसने कहा।
“चम्बा में तुम्हारा कोई है?” – मैंने उसे उकसाया।
“हाँ साब जी, है। मेरा मंगेतर। उसका नाम रोशन है, चम्बे में रहता है” – उसने कहा।
“ओ हो, तो रोशन के साथ बरसात में भीग रही थीं। क्या करता है रोशन?” – मैंने पूछा।
“खेतों में उपज का हिसाब किताब रखता है”।
“अपने खेतों में या सबके खेतों में?”
“उसके बाबा का तो छोटा सा खेत है। सबके खेतों का ही रखता होगा”।
“पटवारी है?”
पता नहीं। उसने कुछ बताया तो था, मुझको याद नहीं, क्या”।
“रोशन यहाँ आता रहता है?”
“नहीं, चार महीने पहले आया था, जब हम दूसरी बार मिले थे। मेरे बाबा उसके बाबा को जानते हैं। मुझे वो बहुत अच्छा लगा” – उसने लजाते हुए कहा।
“और वो तुम पर लट्टू होगया होगा” – मैंने कहा।
“पता नहीं, पर मैं भी उसे अच्छी लगी। उसके बाबा ने उसके लिए मेरा हाथ माँगा” – वह बोली।
“तो तुम्हारी सगाई होगई?” – पता नहीं मैंने ये सवाल क्यों पूछा।
“नहीं, अगले साल होगी। अभी तो बात पक्की हुई है” – उसने फिर भी बताया।
“कैसा है रोशन?”
“साब जी, बहुत अच्छा है, भला है और खूबसूरत। मैं एक बार चम्बा गयी थी बाबा के साथ। तब वहाँ पहली बार रोशन से मिली थी और वो मुझे गद्दी बंजारों के मेले में लेगया था। वहाँ बड़े अच्छे अच्छे नाच और गाने हो रहे थे। पता है साब जी, गद्दी लोगों के लोकगीत बड़े प्यारे होते हैं” – वह बोली।
“तुमको आता है उनका कोई गीत?” – मैंने वैसे ही पूछा।
“नहीं जी, पर ये मालूम है उस दिन उन्होंने कुंजू और चांचलो के गीत गाये – लड़कों और लड़कियों ने मिल कर”।
“कौन कुंजू और चांचलो?” – मैंने पूछा।
“चम्बा के प्रेमी और प्रेमिका” – वह फिर शर्माई।
“जैसे हीर-रांझा, सोहनी-महिवाल?”
“पता नहीं, शायद हाँ” – उसने कहा।
“गद्दी लोग चम्बा के होते हैं?” – मैंने फिर पूछा।
“हाँ जी, जन्माष्टमी के बाद मणिमहेश की यात्रा भी होती है चम्बा में। वहाँ भारमौर में गद्दियों का छः दिन का मेला भी होता है। गुग्गा नाग देवता का”।
“।।हूँ।। इसीलिए तुमको चम्बा अच्छा लगता है। इतना सब होता है वहाँ”।
“नहीं साब जी, मुझे तो चम्बा इसलिए अच्छा लगता है क्योंकि वहाँ रोशन रहता है”।
मैंने बात बदलते हुए कहा –“ तुमको यहाँ अकेले डर नहीं लगता?”
“डर काहे का और अकेली क्यूं साब जी? यहाँ सब मेरे ही तो हैं - मेरी बकरियां, मेरे पेड़, मेरे पंछी, मेरा जंगल, मेरा पहाड़, मेरी नदियाँ, मेरी पुरवैया...” – बड़े भोलेपन से उसने कहा।
मुझे पुरवा उस समय फिर से बेहद सुन्दर लग रही थी। जिस मासूमियत से वो बात कर रही थी, ऐसा लगता था उसने यह क्रूर और मक्कार दुनियां अभी देखी ही नहीं थी। गाँव का ठेठ भोलापन, निश्छल और कोमल उमंगें, उत्साह, बेलौस खुलापन...शहर की लड़कियों से कितना कुछ अलग। वहाँ भीड़ और चहलपहल में रहते हुए भी वे डरी डरी सी रहती हैं- सहमी, असहज, असुरक्षित, कृत्रिम। यहाँ ये बिल्कुल स्वाभाविक। मेरी इच्छा होरही थी उसका कोमल हाथ अपने हाथ में लेकर सहलाऊँ – पर फिर मुझे लगा कहीं मेरा शहरीपन मुझ पर हावी तो नहीं होरहा? उसके अल्हड़ शोखपन पर यह एक भद्दी गाली की तरह लगने लगा खुद मुझे ही। वो क्या सोचेगी?
“साब जी, आप यहीं रहते हैं?” – उसने पूछा।
“नहीं, मैं दिल्ली रहता हूँ। यहाँ तो कभी कभी आता हूँ। बिजली का प्रोजेक्ट बन रहा है उसी सिलसिले में”।
“हाँ, बाबा ने बताया था”।
“मैं कल वापस जाऊँगा”।
“फिर कब आओगे साब जी ?”
“देखो, काम थोड़ा आगे बढ़ेगा तब”।
मुझे लगने लगा यहाँ बातों में कहीं देर न होजाए वापस लौटने में। मैंने कहा – “पुरवा, अभी मैं जाता हूँ। रावी के मुहाने तक जा कर लौटना है। अपना ध्यान रखना”।
“नमस्ते साब जी” – भोलेपन से पुरवा ने कहा। वह भी खड़ी होगई और अपनी बकरियों को इकठ्ठा करने के लिए इधर उधर दौड़ने लगी। मैं पुरवा के बारे में सोचता हुआ रावी की तरफ़ बढ़ गया।
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