रावी के उस पार / भाग 3 / कमलानाथ

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इस दौरे के बाद प्रोजेक्ट की मीटिंगों के लिए हालाँकि दो बार बनीखेत गया था, लेकिन लगभग डेढ़ वर्ष बाद ही फिर खैरी जाने का मौक़ा आया। इस बीच अन्वेषण का काम लगभग ख़त्म होने को था लेकिन जल सम्बन्धी सभी नापजोख चलती रहनी थी, आगे तक। इन डेढ़ वर्षों में सौभाग्य से इस क्षेत्र के पर्यावरण में कोई ख़ास बुरा परिवर्तन नहीं आया था। केवल उन्हीं जगहों के आसपास का हिस्सा साफ़ किया गया था जहाँ ड्रिलिंग मशीनें लगी थीं। बहरहाल जहाँ सुरंगें बनाई गयी थीं वहाँ ज़रूर काफ़ी बड़े क्षेत्र में वन की कटाई हुई थी, मशीनों को पहाड़ों तक पहुँचाने के लिए सड़क बनाने के कारण।

पिछली बार की तरह ही मैंने अकेले रावी तक जाने का फ़ैसला किया और उसी तरह सेवा नदी को सीढ़ी के ज़रिये पार करके मैं किनारे किनारे चलने लगा। मुझे आखिरी बार पुरवा को देखने की भी इच्छा थी। अब तक तो उसकी सगाई भी होगई होगी – या होसकता है रोशन भी उसके साथ ही हो। रावी तक जाते समय मुझे आसपास या दूर तक पुरवा कहीं नहीं दिखाई दी। लौटते वक़्त भी मैं बेकार ही कल्पना कर रहा था कि वहीँ कहीं बकरियां चराते हुए मुझे पुरवा मिल जायेगी। पर सचमुच मुझे कुछ ऐसा ही आभास हुआ मानो किसी गाने की आवाज़ मेरे कानों तक पहुंची हो। ध्यान से सुनने पर लगने लगा यह पुरवा की ही आवाज़ थी जो कोई लोकगीत गुनगुना रही थी। आसपास देवदार, शीशम, और साल के पेड़ थे – कुछ दूर दूर, कुछ पासपास। एक बड़ा सा रंगबिरंगा नीला सा पक्षी ऊपर से उड़ता हुआ दूर किसी पेड़ पर जा बैठा। ऐसा लगा जैसे बिना लंबी पंखों वाला मोर हो। आगे अंदर पेड़ों के झुरमुट की तरफ़ जाने पर पुरवा के गाने के कुछ कुछ शब्द साफ़ सुनाई देने लगे-

“माई ने मेरिये, शिमले दी राहें चम्बा कितनीक दूर..... ओ लाइयां मोहब्बतां दुर दराजे, अँखियाँ तों होया कसूर.....”

हाँ, यह पुरवा की आवाज़ ही थी। वैसी ही मधुर, कोमल। उसने दूर से मुझे देखा और गाना बंद कर दिया। उसके पास पहुँच कर मैंने उससे पूछा –“पुरवा कैसी हो?”

उसका चेहरा कुछ फीका सा पड़ गया था, आँखों में पहले वाली शरारत भी नहीं थी।

“तुम्हारी तबियत खराब है क्या?” –मैंने फिर पूछा।

“नहीं साब जी, मैं ठीक हूँ” – उसने कहा।

वही पक्षी उड़ कर फिर आगया था। मैं उसे कौतूहल से देख रहा था। पुरवा ने बताया उस पक्षी का नाम था मोनल।

“तुम कोई नया लोकगीत गा रही थीं? वो बरखा वाला भूल गयीं क्या? या अब उसकी ज़रूरत ही नहीं है, अब तो हर महीना सोण महीना है, तुम्हारा रोशन जो आगया है” – उसे देखने की खुशी में मैं बोलता गया।

वह सिर्फ़ मुस्करा दी।

“आज तुम्हारी बकरियां दिखाई नहीं दे रहीं। दूर कहीं निकल गयीं क्या चरते चरते?”

“बकरियां नहीं हैं साब जी, मैं अकेली ही आई हूँ”।

“तुम खुश नहीं लग रहीं। सब ठीक तो है? तुम्हारी सगाई होगई?” – मैंने पूछी।

“अभी नहीं हुई साब जी”- उसने कहा।

मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ –“अरे, पिछली बार तुम बता रहीं थीं, एक साल बाद होनी थी तुम्हारी सगाई। रोशन ने धोखा दिया क्या?”

“नहीं साब जी, ऐसा मत कहो। रोशन तो बहुत अच्छा लड़का है। वो मुझको पसंद करता है, मैं उसको पसंद करती हूँ। मैं कोई राली थोड़े ना हूँ।” – पुरवा बोली।

“राली? राली कौन?” मैंने पूछा।

“साब जी, हिमाचल में, कांगड़ा में राली की मिट्टी की मूरत बनाते हैं अप्रेल के महीने में ही”।

“क्यों?”

“इसकी कहानी है साब जी”।

“क्या कहानी है?”

“राली की शादी उसकी मर्ज़ी के बिना ज़बर्दस्ती कर दी गयी थी। अपने ससुराल जाते वक़्त उसने नदी में छलांग लगा दी। उसको बचाने के लिए उसके पति ने भी नदी में छलांग लगा दी। फिर उन दोनों को बचाने के लिए उसका भाई नदी में कूद पड़ा। पानी का बहाव बड़ा तेज़ था। तीनों डूब कर मर गए। तब से राली की मूरत बनाते हैं वहाँ। कुंवारी लड़कियां अपना मनपसंद पति पाने के लिए प्रार्थना करती हैं और शादीशुदा नईनवेली लड़कियां अपनी खुशहाली के लिए”।

मुझे लगा मैंने बेकार ही रोशन के बारे में ऐसी बात कह कर उसका दिल दुखाया।

“हाँ, तुमने ठीक कहा, रोशन तो तुम्हारा मनपसंद मंगेतर है” – मैंने बात सम्हालते हुए कहा।

अचानक पुरवा ने कहा- “साब जी, आप मेरा एक काम करोगे? आप कुछ पूछना मत।”

“बताओ क्या काम है?”

उसने अपनी कुर्ती की जेब टटोली और उसमें से एक चांदी का छल्ला बाहर निकाला।

“साबजी, आपको रोशन मिलेगा। ये उसको देदेना। वह सब समझ जाएगा। साब जी, वादा करो आप उसे ज़रूर दे दोगे।”

मुझको बड़ा अजीब लगा। वह खुद ही क्यों नहीं दे देती?

“पर मैं तो कल निकल जाऊँगा, रोशन नहीं मिला तो? और मैंने तो उसे देखा ही नहीं, मैं उसे कैसे पहचानूंगा?” – मैंने पूछा।

“साब जी, आप उसे देखते ही पहचान जाओगे। मेरा रोशन ऐसा ही है। वर्ना वो ही मिल लेगा आपसे, आज ही” – उसने कहा।

मैंने वो छल्ला लेलिया और अपने पर्स की ज़िप वाली जेब में सम्हाल कर रख लिया।

“ठीक है”- मैंने कहा।

वह उठी। बोली –“नमस्ते साब जी, अब मैं चलती हूँ”। और वो चली गयी रावी की तरफ़।

पीछे से मैंने कहा – “ठीक है पुरवा, अपना ख्याल रखना”।

मैं वापस खैरी कैम्प में लौट आया।

अगले दिन सुबह ही हेलिकॉप्टर को आना था मुझे लेने बनीखेत के लिए। शाम को खाना खाते समय मैंने शेरसिंह से पूछा पुरवा के बारे में। क्या वो खुश नहीं है? उसकी सगाई क्यों नहीं हुई? पिछली बार वो कह रही थी होने वाली है एक साल में।

शेरसिंह एक दो क्षण खामोश रहा, फिर बोला – “क्या बताएं सर जी, बहुत बड़ा हादसा होगया।”

मुझे धक्का सा लगा – “क्या हादसा?”

शेरसिंह ने बताया - “सर जी, पुरवा और उसके मंगेतर की सगाई होने वाली थी। उसके लिए वो लोग चम्बा से आए थे। पहले दिन दोनों रावी के किनारे घूम रहे थे। अचानक पुरवा का पैर फ़िसला और वो नदी में गिर पड़ी। बड़ा अच्छा तैरना जानती थी पर तेज़ बहाव के कारण बह गयी। पीछे पीछे उसका मंगेतर भी उसको बचाने के लिए कूद पड़ा नदी में। वो भी बेचारा बह गया। दो दिन बाद उन दोनों की लाशें मिलीं बहुत नीचे नदी में। मछलियों ने कई जगह खा लिया था उनको”।

मुझे लगा मैं चक्कर खा कर यहीं लुढ़क जाऊँगा। मेरे रोंगटे खड़े होगये और मुझे लगा मेरे चेहरे का रंग ज़रूर उड़ गया होगा। मैं भौंचक्का सा शेरसिंह की तरफ़ देख रहा था।

“क्या हुआ सर जी?” – शेरसिंह ने मुझे इस तरह देख कर पूछा।

“कुछ नहीं। बड़ा बुरा हुआ उनके साथ। मैं खाना नहीं खाऊंगा, मेरा पेट कुछ गड़बड़ है” – मैंने सिर्फ़ इतना ही कहा और उठ कर अपने कमरे में आगया।

मैंने शेरसिंह को अपनी पुरवा के साथ हुई मुलाक़ात और बातचीत के बारे में कुछ नहीं बतलाया। मैं नहीं चाहता था कि कोई भी पुरवा के अस्तित्व के बारे में शक करके या उसको नकार कर उसका अपमान करे। मुझे कुछ भी सिद्ध करने की ज़रूरत नहीं लगी। मैं सचमुच पुरवा से ही मिला था। पुरवा ने मुझसे कितनी बातें की थीं। राली की कहानी बताई थी। मुझे तो कुछ पता भी नहीं था इनके बारे में। अब किसको बताऊँ? कौन करेगा विश्वास? कभी मुझको लगने लगा था या तो मैं फ़ंतासियां बुन रहा हूँ या पागल होगया हूँ। क्या ये किसी फ़िल्मी कहानी की रीलें चल रही थीं मेरे सामने? यह सब मैं किसी को कह भी नहीं सकूंगा। कभी भी। मैंने अपने पर्स की ज़िप वाली जेब को खोल कर देखा। छल्ला वहीँ था। वह भोलीभाली लड़की जिसको रोशन के साथ सगाई होने का इंतज़ार था - वह मासूम सी लड़की जो रोशन को इस छल्ले का तोहफ़ा देना चाह रही थी, अब भी भटक रही थी इन्हीं जंगलों में। मैं रोशन को कहाँ ढूंढूं? कैसे पहचानूंगा उसे? कैसे ढूंढेगा रोशन मुझे? पुरवा ने कहा था वो आज ही मुझसे मिल लेगा खुद ही। अगर जो कुछ शेरसिंह ने बताया वो सच था तो क्या यह सब संभव था? रोशन कैसे आएगा?

मैं रात भर सोया नहीं, रोशन का इंतज़ार करता रहा। मैं सोच रहा था जिस तरह पुरवा मुझे मिली, हो सकता है रोशन भी आकर मुझसे मिले और ये छल्ला मैं उसे दे दूं पुरवा की तरफ़ से। पर रोशन नहीं आया। मैं सुबह तक उसका इंतज़ार करता रहा था, हेलिकॉप्टर में बैठने से पहले तक। मैं बनीखेत लौट गया और अगले दिन दिल्ली।

पुरवा का वो छल्ला मेरे पास अब भी है अमानत की तरह और मैं अब भी रोशन का इंतज़ार कर रहा हूँ। पुरवा रावी के उस पार अब भी अपनों के बीच ही घूम रही है – उसके अपने पेड़, उसके अपने पंछी, उसके अपने जंगल, उसके अपने पहाड़, उसकी अपनी नदियाँ.... या शायद हमेशा घूमती रहेगी।

पुरवा अब भी जैसे पूछ रही है – “माई ने मेरिये, शिमले दी राहें चम्बा कितनीक दूर?”

रोशन का चम्बा।

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कमलनाथ द्वारा लिखित कहानी "रावी के उस पार" समाप्त