रेत भाग 12 / हरज़ीत अटवाल
इस बार अप्रैल के महीने में बर्फ़ पड़ गयी। अप्रैल के महीने में यद्यपि मौसम बदल जाता है, पर इस मुल्क का यही हाल है कि लम्बी भविष्य वाणी नहीं की जा सकती। पिछले साल अप्रैल में तेज धूप थी और इस वर्ष बर्फ़ पड़ रही थी। बर्फ़ पड़ने के बाद ठंडी हवा चल पड़ी और बर्फ़ मोटी चादर बनकर सड़कों, छतों और पार्कों में जम गयी थी। सड़कों पर तो नमक छिड़क कर गाडि़यों का आना-जाना शुरू कर दिया, पर छतें और दरख़्त सभी सफेद हुए पड़े थे। ज़रा-सा बाहर निकलो तो हवा छुरी की तरह जिस्म को चीरती। ऐसे मौसम में हमारा काम तेज हो जाता है। मौसम खराब हुआ नहीं कि लोगों ने पैदल चलना बन्द किया नहीं। टैक्सी वालों के वारे-न्यारे हो जाते हैं। हम भी बहुत व्यस्त थे। फोन की घंटी लगातार बजे जा रही थी। पर ‘क्राउन मिनी कैब’ में इस बात की किसी को परवाह नहीं थी। वहाँ शराब की छोटी-सी छबील लगी हुई थी। शैम्पेन, व्हिस्की, वोदका, बरांडी, बियर जिसे जो चाहिए, ले ले। ड्राइवर जो कि दफ़्तर में कम ही आते थे, वे भी पैग पी-पीकर जा रहे थे। कई लालची ज्यादा पी गये और कार चलाने योग्य भी न रहे।
मुझे अस्पताल से लौटते ही सबने घेर लिया था। प्रितपाल बाहर से शैम्पेन लेकर आया था, पर एक बोतल से किसी की तसल्ली न हुई तो कैवन दौड़ कर साथ वाले ‘आफ लाइसेंस’ से बहुत कुछ ले आया। स्टाफ में वही सबसे ज्यादा पीने का शौकीन था। कैवन रात लगाकर आया था, पर मेरे अस्पताल जाने के कारण रुक गया था। सब जानते थे कि किरन का आज सवेरे आप्रेशन होना था। बच्चे का वजन अधिक होने के कारण सिजेरियन डिलीवरी होनी थी, जिसका समय पहले ही दे दिया गया था। सोनम का जन्म भी ऐसे ही हुआ था। सब किसी न किसी तरह यह जान चुके थे कि हमने टैस्ट करवाये थे और लड़का ही था। अभी सवेरा होने के कारण अधिक शराब नहीं पी गयी थी और काफी बच गयी थी। बची हुई शराब को बोब मेरे कमरे में रख आया। मैं और प्रितपाल भी बहुत ध्यान से पी रहे थे। पूरा दिन अभी हमारे सामने पड़ा था।
किरन को तो रात से ही अस्पताल में रखा हुआ था। सवेरे हम नौ बजे पहुँच गये थे। किरन को सुबह नौ बजे आप्रेशन थिएटर ले गये और कुछ मिनट बाद ही नर्स ने आकर लड़का होने की ख़बर दी। हम सब खुशी में उछल पड़े। प्रितपाल कोक की बोतल में वोदका मिलाकर संग लाया था और कुछ प्लास्टिक के गिलास भी। उसने ख़बर देने आई नर्स के लिए गिलास भर दिया। फिर, दूसरी के लिए भी। हम वहाँ खड़े होकर पीने लगे। डेढ़-दो घंटे बाद किरन और लड़के को नर्सें वार्ड में ले गयीं। किरन होश में थी, पर निढ़ाल बहुत थी। उठा नहीं जा रहा था। थकावट और दर्द के बावजूद वह मुस्करा रही थी। उसने धीमे स्वर में पूछा, “किसके जैसा है ?”
“काला, बेढ़ब, माँ की तरह।”
“चलो, ठीक है, सोनू तुम्हारे जैसी है, मुझे लड़का चाहिए था मेरे जैसा ही।”
वोदका पीकर नर्सों की रफ़्तार तेज हो चुकी थी। प्रितपाल ने उन्हें और पेशकश की, पर वे ड्यूटी पर थीं। इस तरह उन्हें किसी किस्म के नशे की पेशकश करना गै़र कानूनी था। हम जानते थे, पर बेटे के जन्म की खुशी में अपने आप को हमने माफ कर लिया था। एक काली नर्स छिपकर एक गिलास और पी गयी। उसके बाद ही हम दफ़्तर आ गये थे।
दफ़्तर से ही हमने फोन करके इंडिया यह खुशखबरी दी। मेरे से अधिक प्रितपाल खुश था। शैरन भी। कुलवंत और अजीत भी उसी दिन आकर लड़के को देख गये थे। सभी कुछ ज्यादा ही खुशी मना रहे थे।
मैं शराब से बचने की कोशिश में था। मैंने काम की ओर अधिक ध्यान दिया। मेरा प्रयास होता कि सारा काम मेरे हाथों से ही निकले, पर मेरा मन अधिकतर कंट्रोलर का काम करने को होता या फिर वेतन आदि तैयार करने वाले काम में रमता। कभी कम्प्यूटर पर कुछ लिखने बैठ जाता या फिर इंटरनेट खोल लेता। लेकिन, जैसे मैं कंपनी का एक हिस्सा बनकर फिट होना चाहता था, वैसा नहीं हो पा रहा था। मैं एक ‘रिलीव मैन’ की तरह था। अर्थात जो भी छुट्टी करता, मैं उसकी जगह जा लगता। जूडी के साथ भी चला जाता। मैं और जूडी इकट्ठे जाते तो काम कम करते, हँसी-मजाक ज्यादा चलता। वैसे, मेरा रूटीन बढि़या हो गया था, अब मैं हर रोज़ ही काम पर आता।
बेटे के जन्म ने मेरा रूटीन एक बार फिर अस्त-व्यस्त कर दिया था। कभी सोनू को स्कूल छोड़ रहा होता, कभी किरन और बेटे को देखने अस्पताल चला जाता। कोई बधाई देने वाला मिल जाता तो पीने बैठ जाता। किरन घर वापस आई तो कई दिन काम न कर सकी। मुझे उसकी मदद करनी पड़ी। मैं घर सम्भालता रहा। बेटे का नाम तो हमने उसके जन्म के समय ही रख दिया था, लेकिन किरन की माँ बाबा से वाक्य लेकर अक्षर निकलवाना चाहती थी। उसने फोन पर ही बताया कि ‘हाहा’(गुरुमुखी वर्णमाला के पाँचवें अक्षर का उच्चारण) अक्षर निकला था। यह अक्षर बेटे के नाम के साथ यूँ फिट हो गया जैसे इसी के लिए बना हो। नाम रजिस्टर करवा दिया– हरलाल सिंह ढिल्लों।
जन्म के समय बेटे का चेहरा सूजा-सूजा था, जो कि अब ठीक हो गया था। अब उसके नक्श निकलने शुरू हो गये। नाक तीखा निकल रहा था। एक दिन, किरन उसे उठाकर शीशे के सामने आ खड़ी हुई और अपने चेहरे से उसका चेहरा मिलाते हुए बोली, “देखो मेरा बेटा, लाखों में एक!”
“तेरे जैसा जो हुआ।”
“हाँ, बिलकुल मेरे जैसा, बड़ा होकर हीरो बनेगा, देखना तुम।”
“तेरा बेटा हीरो और तू हीरो की माँ, घर की ही फिल्म इंडस्ट्री बन गयी।”
मैंने कहा और हम हँसने लगे। वह फिर बोली, “देखो, बेटा कितनी किस्मत वाला निकलेगा।”
“यह बात भी बाबा ने बताई होगी।”
“नहीं, मेरा मन कहता है।”
संयोग की बात यह हुई कि वाकई छोटी-सी घटना बेटे के जन्म के साथ जुड़ गयी। हमारा दफ़्तर किराये पर था। इसके मालिक को हम कई बार लिखकर दे चुके थे कि अगर वह चाहता है तो हमें बेच दे, हम ‘फ्री-होल्ड’ दुकान खरीदना चाहते थे। जिस दिन बेटा घर में आया, उस दिन ही दुकान के मालिक की चिट्ठी आई कि वह बेचने के लिए तैयार था, एजेंट से कीमत डलवाकर उसको आगे की सूचना दे दी जाये। जितना अब किराया देते थे, कर्जे की किस्त इससे भी कम बनती और फिर, कर्ज़ा खत्म होते ही इमारत हमारी हो जाती। किरन कहती, “देखा, मेरे बेटे की किस्मत।” एक दिन उसने बेटे को दूध पिलाया और मुझे थमाते हुए बोली, “बताओ, जो कुछ मैंने तुम्हें दिया, कोई और दे सकता था ?”
मैं उसका इशारा समझकर भी बेसमझ रहा और कहा, “क्या मतलब ?”
“बताओ, जो कुछ मेरे पास है, उसके पास है ?”
“क्यों मूर्खता वाली बात करती है, मैंने कभी उसकी बात भी की है।”
“और कही नहीं तो, कभी शराब पीकर, कभी सोये हुए उसका नाम जपते रहते हो।”
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बेटे के जन्म की खुशी में हमने सभी रिश्तेदारों के बच्चों और औरतों को कुछ न कुछ लेकर दिया। शैरन, कुलवंत और उनके बच्चों को। मैंने बीटर्स और उसके बच्चों को भी कपड़े लेकर दिये। उस समय मुझे प्रतिभा की याद आई। एक बार तो मन में आया कि कुछ भेज दूँ, पर फिर सोचा, पता नहीं उसकी माँ उस तक पहुँचाएगी भी कि नहीं। मैं आम तौर पर यही सोचता कि प्रतिभा को जब तक अपने हाथ से चीज़ न दी जाये, तब तक कोई फायदा नहीं।
एक दिन, मैं बीटर्स के घर गया, उसे और कैथी को बेटे के जन्म की पार्टी देने। बीटर्स बहुत खुश थी। कैथी ने भी मुझे बहुत खुश होकर बधाई दी। बीटर्स पूछने लगी, “बेटा पैदा होने पर तसल्ली हुई ?”
“मुझे तो लड़की के जन्म पर भी तसल्ली थी।”
“नहीं इंदर, जब तेरी बेटी हुई थी, सीधा तू मेरे पास ही आया था, तू लड़की होने पर बहुत रोया था।”
“सच! मुझे याद नहीं। तूने पहले नहीं बताया ?”
“इसलिए कि शराब छोड़कर तू बदल गया था।”
मैं सोचने लगा कि शराबी होकर पता नहीं मैं क्या-क्या करने लग जाता हूँ। पता नहीं, मेरे कौन-कौन-से रूप उजागर हो जाते थे। मैं बात को बदलने के लिए कैथी से तरसेम का हाल चाल पूछने लगा। वह बोली, “बिलकुल निकम्मा आदमी है, इतना निकम्मा कि मेरा छोटा-सा काम नहीं कर सका, अब मेरी गालियों से डरकर कई हफ्तों से नहीं आया।”
“कौन-सा काम ?”
“मैंने अपने भाई के घर से थोड़ा-सा सामान लाना है, बस वही नहीं ला सका।”
“कितना है ?”
“कार में ही आ जाएगा, म्युजिक सेंटर है, एक वीडियो और टेलीविज़न। पॉल के लिए कम्प्यूटर है, पर सैंडी कार का इंतजाम नहीं कर सका। एक दिन घरवाली की कार लाया भी, पर शराब पीकर सो गया।”
“मैं करवा देता हूँ तेरा काम, बता कब करना है ?”
“अगर तू यह मदद कर दे तो मेरे पर अहसान होगा, कभी भी कर दे, जब भी तेरे पास समय हो। यह सैंडी हरामी तो बस एक ही काम के लिए है।”
मुँहफट कैथी फिर कितना कुछ ही बोल गयी। तरसेम इतने सालों में भी बदला नहीं था। मैं और प्रितपाल उसके घर बेटे के जन्म की खुशी में लड्डू देने गये, तो जीती हमारे संग उसकी बातें करने बैठ गयी और बहुत देर तक अपने दुखड़े रोती रही। ऐसे ही, कैथी के अपने दु:ख थे। पर तरसेम को कोई परवाह नहीं थी।
मैंने कैथी से दिन तय किया और उसका सामान लेने जाने के लिए उसके घर पहुँच गया। मैंने उससे पूछा, “कैथी, हमने जाना कहाँ है ? मेरा मतलब है, किस इलाके में ?”
“टोटनहैम।”
“टोटनहैम!”
सुनकर मुझे करंट-सा लगा। मैंने सोचा, अगर कैथी ने पहले बताया होता तो मैं टाल देता। मैंने फिर पूछा, “कौन-सी रोड पर जाना है ?”
“माउंट प्लैजेंट रोड पर, तू तो जानता ही होगा। टैक्सी वालों को तो पता ही होता है।”
“हाँ कैथी, टोटनहैम के बारे में तो मुझे काफी जानकारी है, उस इलाके के साथ तो मेरी बहुत सारी यादें जुड़ी हैं।”
“तू भी रहा है उधर ?”
“हाँ, मैं भी रहा हूँ, मेरी एक्स अभी भी रहती है।” कहकर मैं टोटनहैम की गलियों में घूमने लगा और कभी होर्स-शू हिल पर भी जा खड़ा होता।
हम कार में बैठे तो मैं पुराने दिनों में गुम हो गया। कैथी मुझे बता रही थी कि कैसे पॉल के जन्म के समय उसके सारे घरवालों ने उसका बॉयकाट कर दिया था। पर उसका भाई उससे मिलता रहता था। लेकिन, मैं कैथी की कोई बात नहीं सुन पा रहा था। मैं कहीं और खोया हुआ था। मैं कंवल के घर के सामने खड़ा था, उसके स्टोर के बाहर जहाँ वह काम करती थी। कंवल इतनी सुन्दर थी कि मैं उसकी ओर देख-देखकर ही उम्र बिता देता। जैसे अब बेटे की खुशी मनाई जा रही थी, कंवल होती तो मुझे बेटे की क्या, अन्य बच्चे की भी ज़रूरत नहीं पड़ती। मेरी और कंवल की जोड़ी को देखकर हर कोई कहता था, क्या जोड़ी है! पता नहीं किसकी नज़र लग गयी। पता नहीं, कंवल के मन में क्या आया कि एकदम ही किनारा कर गयी। ऐसी दूर हुई कि दिनोंदिन दूर होती चली गयी।
जैसे-जैसे मेरी कार टोटनहैम की ओर बढ़ रही थी, मैं भावुक होता जा रहा था। मन को दूसरी ओर लगाने की कोशिश की, पर सफल नहीं हुआ। मुझे अब लगता था कि सारी बातचीत में मेरा कसूर अधिक था। अगर कंवल पागल थी तो मुझे गलती नहीं करनी चाहिए थी। मैं यूँ ही जिद्द करके अड़ गया। आखिर में आकर तो मैंने बहुत ही अकड़ दिखाई। मुझे समझना चाहिए था कि बेटियाँ अपने पिताओं के साथ अधिक जुड़ी होती हैं। जैसे अब सोनू मेरे साथ थी। अगर मैं कंवल से प्यार करता था तो उसकी इच्छा पूरी हो लेने देता। अगर उसने कहीं गलती की भी थी तो मुझे भूल जाना चाहिए था। आखिर, वह मेरी पत्नी थी। ऐसी पत्नी कि ज़िन्दगी में दोबारा नहीं मिल सकती। किरन तो उसके सामने कहीं भी खड़ी नहीं होती।
माउंट प्लैजेंट रोड का रास्ता सीधा ही था। भीड़भाड़ से बचकर बाहर-बाहर ही जाया जा सकता था। लेकिन, मैं कार हाईरोड की ओर ले गया। शायद, कंवल और प्रतिभा कहीं दिखाई दे जाये। प्रतिभा को तो मैं पहचान न पाऊँ, बेशक मेरे करीब से निकल जाये, लेकिन कंवल को तो मैं हजारों-लाखों के बीच भी पहचान लूँ। टोटनहैम हाईरोड पर काफी भीड़ थी। मेरी नज़रें भीड़ पर तेजी से दौड़ रही थीं, पर कहीं टिक नहीं रही थीं। मेरा मन हो रहा था कि उनकी रोड पर एक चक्कर लगा आऊँ। अगर मालूम हो कि प्रतिभा कौन-से स्कूल में जाती थी, तो वहीं का फेरा लगा आऊँ। इतने बरस से मेरा उनके साथ कोई सम्पर्क नहीं था, पता नहीं वहाँ रहती भी होंगी कि नहीं। शायद, घर बदल लिया हो। उसका बाप तो कुछ अरसा पहले मर गया था। खुशवंत से प्रितपाल को पता चला था। उसके बाद उनके घर में भी कितना कुछ बदल चुका होगा। शायद, कंवल ने विवाह करवा लिया हो। मैं न जाने कितने ख़यालों में डूबा माउंट प्लैजेंट रोड पर जा पहुँचा और कैथी के भाई के घर के सामने कार खड़ी कर दी। कार में से उतरती कैथी पूछने लगी, “इंदर, तू उसे बहुत प्यार करता होगा ?”
“तू कैसे कह सकती है ?”
“घंटा हो गया इन सड़कों पर कार दौड़ाये घूमते को, जैसे किसी को तलाश रहा हो, नहीं तो टोटनहैम से तो मैं भी अच्छी तरह वाकिफ हूँ।”
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उस दिन के बाद जैसे ठहरे हुए पानी को छेड़ दिया गया हो। मन में कई प्रकार की तरंगें उठने लग। बैठते-उठते कंवल की याद आने लगी। मैं सोचता कि किसी तरह पता तो चले कि वह किस हाल में थी। कहाँ रहती थी। मुझे सभी कहते थे कि मैं बहुत गंभीर और शान्त-सा हो गया था। काम पर भी मन न लगता। घर लौटकर बेटे से या सोनू के साथ खेल रहा होता या किरन से ही कोई बात करता, पर ध्यान किसी दूसरी तरफ ही रहता। एक दिन, प्रितपाल कहने लगा, “अगले इतवार, हरलाल की पार्टी रखी है, पब में, लाइटों वाले पब में, याद रखना, सातेक बजे आ जाना।”
लाल के जन्म की प्रितपाल को इतनी खुशी थी कि कई महीनों तक वह पार्टियाँ ही करता रहा। महीने में एक-दो पार्टी तो वह अवश्य रख लेता। मैं उसकी बात का कोई जवाब न देता। वह पूछने लगता, “तू ठीक है न ? चेहरा उतरा हुआ है, क्या बात है ?”
“यार छोटे, कंवल बहुत याद आ रही है।”
“क्यों दबे मुर्दे उखाड़ता है ?”
“नहीं यार, एक दिन घूमते-घुमाते उसके इलाके में चला गया था।”
“मिलकर आया ?”
“अभी तो उसके शहर की दीवारें ही मिलीं और मेरा बुरा हाल हो गया। अगर कहीं वह मिल जाती तो मेरा क्या होता।”
“तू तो यूँ ही रेत पर जूते खोल लेता है।”
“जो चाहे कह ले, मैंने उसको दिल में दफ़न किया हुआ था, पर वह फिर से उठ खड़ी हुई है।”
“अक्ल कर बड़े, अपने दिल का इलाज करवा, दुनियाभर की औरतें यहाँ दबी पड़ी हैं, जिसको फुर्सत मिलती है, उठ खड़ी होती है। यह साला दिल न हुआ, गाँव का तबेला हो गया। जहाँ गाँव भर के घोड़े बांधे जाते हैं।”
“छोटे, यह दिल है दिल!... कोई खून पम्प करने की मशीन नहीं। और कहते हैं कि दिल दरिया समुन्दरों डूंघे।”
“व्हिस्की की बोतल से भी गहरे ?”
मेरी गंभीर बात को वह मजाक में उड़ा कर चलता बना। मैं सोचने लगा कि प्रितपाल को प्यार के बारे में पता ही क्या था। एक आम-सी ज़िन्दगी जी रहा था। आम-सी पत्नी के साथ आम-सी ज़िन्दगी। काम पर गये, पैसे कमाये, रात को सोये, सवेरे उठे। सोच-समझकर पैसा खर्च करते और बैंकों में बचत करते। मैं प्रितपाल से इस तरह बातें करने लगता था, जैसे अपने आप से कर रहा होऊँ। लेकिन, कभी-कभी वह आज की तरह मेरी बात को हवा में उड़ा देता। मैं उसे दोष देने की बजाय कंवल की याद को फिर से दिल के अंदरूनी खानों में ले जाने की कोशिश करने लगा।
इतवार को मैं लाइटों वाले पब में चला गया। उसके पाँच-छह दोस्त बैठे थे। सबने मुझे बेटे की बधाई दी। अभी पहला-पहला गिलास ही पिया था कि दो लोग और आ गये। एक तो खुशवंत था, भगवंत का भाई। मैंने तुरन्त पहचान लिया। दूसरा, गंजा-सा भी कहीं देखा हुआ लगता था। जब वह मेरी ओर देखकर मुस्कराया तो मैंने पहचान लिया कि वह तो भगवंत ही था। सिर गंजा हो चुका था और पेट भी बाहर निकल आया था। ऐंनक लग गयी थी। वह बड़े तपाक से मिला और बधाई देने लगा।
महफि़ल चलती रही। थोड़ा नशे में हुए तो भगवंत मेरे करीब होता हुआ कहने लगा, “रवि, तेरे से एक बात करनी है, प्राइवेट।”
वह मेरा हाथ पकड़कर पब से बाहर ले गया। बोला, “यार कभी पीछे मुड़कर भी देख लेता कि पीछे वाले कैसे जीते हैं।”
“भाजी, किधर देखता, देखने लायक मुझे किसी ने छोड़ा ही नहीं।”
“देख, तू है तो मेरे से छोटा और छोटी जगह पर भी, पर हालात ऐसे हो गये कि वो पहले जैसी बात रही नहीं।”
“नहीं भाजी, तुम अभी भी मेरे लिए बड़े हो, और तुम्हारा पूरा हक है मेरे पर।”
“जीता-बसता रह। मेरा मतलब यह है कि तेरी एक बेटी थी, कंवल भी कभी तेरी वाइफ थी, कभी उसको फोन ही कर लेता।”
“मैं फोन क्या करता, उसने तलाक ही ले लिया जब।”
“लाइफ बड़ी टेढ़ी चीज है, हम कई बार गाली निकालते हैं, पर कोई मतलब नहीं होता, हम लड़ते हुए भाई को लाठी मार देते हैं, पर ऐसा करना चाहते नहीं।”
“वह भी तो मेरे तक अप्रोच कर सकती थी।”
“तू तो जानता ही है कि वह किस स्वभाव की है, इसी स्वभाव के कारण तो इतना कुछ हो गया।”
“क्या हाल है उसका ?”
“बस, पूछ न रवि, बाहर से तो वह कम उदास रहती है, पर अन्दर से बहुत अकेली है। किसी से अधिक बोलती नहीं। मैंने जितनी बार भी कंवल को देखा है, कभी भी हँसते हुए नहीं देखा, खोयी-खोयी-सी रहती है।”
भगवंत इतनी बात करके फिर से महफि़ल में आकर बैठ गया। शारीरिक रूप से लौट तो मैं भी आया था महफि़ल में, पर मेरा मन वहाँ नहीं था। मुझे अभी भी कंवल के घर का फोन नंबर याद था। मैंने सोचा, कल शाम को करुँगा। प्रतिभा को कुछ देने के बहाने ही सही।
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कई दिन बीत गये। मैं कंवल को फोन न कर सका। मुझे दु:ख था कि वह उदास थी, पर मैं यह भी जानता था कि वह कभी नहीं मानेगी कि वह उदास है।
मैं फोन करुँगा तो प्रत्युत्तर में वह अकड़ेगी। फिर, उसे फोन करने के, उस तक कोई संदेशा भिजवाने के प्रोग्राम आगे बढ़ते चले गये। कई प्रकार की सोच मुझे आ घेरती। इसका असर किरन पर या मेरे व्यापार पर या मेरे रिश्तेदारों पर भी पड़ना था। कभी-कभी, ये बातें छोटी लगने लगतीं, तुच्छ लगने लगतीं और कंवल बड़ी लगने लगती। मन होता कि अभी उसके घर फोन करुँ। प्रतिभा के साथ बात करने का बहाना तो था ही। एक बार कोशिश करके देखनी चाहिए थी। इस तरह सोचते-विचारते कई हफ्ते निकल गये। मेरा जोश भी ढीला पड़ गया।
हमारा रेडियो-एरियल हिल गया था। मैं इसकी रेंज भी बढ़वाना चाहता था। इसके लिए मैंने मैकेनिक बुला रखा था। मैं उसके साथ कोई बात कर रहा था कि मेरे मोबाइल की घंटी बजी। मैं फोन का जवाब देने में थोड़ा लेट हो गया तो कॉल वॉयस-मेल में चली गयी। फुर्सत पाकर मैंने देखा कि कॉल करने वाले ने कोई मैसेज नहीं छोड़ा था। केन्द्रीय लंदन से कोई अपरिचित-सा नंबर था। मैंने क्षणभर सोचा कि किसका हो सकता है यह फोन। शायद, रांग नंबर हो। अगर किसी को ज़रूरत होगी तो दोबारा आ जाएगा। मेरा मोबाइल नंबर बहुत ही कम लोगों के पास था। मुझसे रहा नहीं गया और उसी नंबर पर फोन मिलाया। किसी रेस्ट्रोरेंट का नंबर था। कोई टर्किश लहजे में बोल रहा था। मैंने मान लिया कि कोई फिजूल कॉल होगी।
मैं मैकेनिक से मुक्त हुआ तो मोबाइल फिर बजा। वही नंबर था। मैंने आन करके ‘हैलो’ कहा। दूसरी तरफ किसी औरत की आवाज़ थी। मुझे लगा जैसे कंवल की आवाज़ हो। मैंने खुद को डपटा कि मुझे तो चारों ओर कंवल ही दिखाई देती थी। उधर से फिर ‘हैलो’ हुई। यह तो कंवल ही थी। मैंने हड़बड़ाकर ‘हैलो’ का जवाब दिया और पूछा, “जान, तू है ?”
“पहचान लिया ?”
“तुझे कैसे नहीं पहचानूँगा, तू तो हर वक्त मेरे साथ रहती है।”
“कभी फोन भी नहीं किया ?”
“मैं सोच ही रहा था कि करुँ, बस हैजीटेशन-सी थी, क्या हाल है तेरा ?”
“मैं ठीक हूँ, तू सुना कैसा है ?”
“मैं भी ठीक हूँ, प्रतिभा कैसी है ?”
“वह भी ठीक है। मैंने सोचा, रवि तो हमें भूल ही गया, चलो, मैं ही फोन कर लूँ।”
“जान, कैसे चल रही है तेरी ज़िन्दगी ?”
“फर्स्ट क्लास।“
“सेकेंड क्लास तो तू कभी कहेगी ही नहीं।”
“कह भी दूँ तो तू क्या करेगा! ऐसा गया कि हमें भूल ही गया।”
“मैं कभी नहीं भूला तुमको, हर कदम पर याद रखा।”
“फिर मुड़कर मिलने की कोशिश क्यों नहीं की ?”
“क्या कोशिश करता! तू मुझे इस तरह फेंककर चली गयी, जैसे फल खाकर छिलका या गिटक फेंकते हैं।”
“देख रवि, मेरी चेंज खत्म हुई जा रही है, जो नंबर तेरे फोन पर आया हुआ है, उसी पर वापस फोन कर मुझे।” कहकर उसने फोन रख दिया। मैंने उसी नंबर पर फोन किया तो कंवल ने उठाया। मैंने कहा, “मैंने पहले भी यहाँ फोन किया था, पर किसी टर्किश-से बन्दे ने फोन उठाया।”
“यह हमारी कैंटीन है।”
“कहाँ काम करती है ?”
“पहले और बातें तो कर ले, फिर काम के बारे में पूछना।”
“तूने मेरा मोबाइल नंबर कहाँ से लिया ?”
“तेरे दफ्तर के किसी गोरे ने दिया।”
“और दफ्तर का ?”
“सारी बातें न पूछ, तेरा काम कैसा है ?”
“काम ठीक है, मिनी कैब आफिस है।”
“इतना तो मुझे पता है।”
“बड़ी खोज-खबर रखती है।”
“रखनी पड़ती है।”
“खाक रखनी है तूने, तुझे तो यह भी नहीं पता कि मैं तुझे कितना प्यार करता हूँ।”
“ये गिले-शिकवे फिर किसी दिन के लिए रख ले।”
“अब बता, कहाँ काम करती है ?”
“ब्रैडफील्ड। पता है इसका ?”
“हाँ-हाँ, ब्रैडफील्ड को कौन नहीं जानता। इतना बड़ा स्टोर है, हम तो अन्दर जाते हुए भी डरते हैं। कितना समय हो गया यहाँ काम करते हुए ?”
“काफी समय हो गया, पाँच-छह साल।”
“तुझे देखने को, मिलने को बहुत दिल करता है।”
“दिल तो मेरा भी करता है पर...।”
“पर क्या ? कभी प्रतिभा को लेकर आ और बता कहाँ मिलूँ ?”
“उसे अभी नहीं।”
“क्यों ?”
“पहले मुझे तो मिल ले, अपनी बेटी से बाद में मिल लेना।”
“बता कब ? कहाँ ?”
“ब्रैडफील्ड स्टोर का पता है ?”
“विक्टोरिया, बताया तो है कि पचास बार इसके सामने से निकला हूँ।”
“मंडे सवेरे, मेन एंट्रेस पर पहुँच जाना, मंडे तेरह तारीख।”
“मंडे में तो कई दिन पड़े हैं, मैं तो अभी आ जाता हूँ, कल सवेरे आ जाऊँ ? इतने दिन बिताने मेरे लिए मुश्किल हो जाएँगे।”
“जहाँ इतने साल गुजार दिये, कुछ दिन और वेट कर ले। कुछ नहीं होता तुझे।”
“मंडे कोई खास दिन है ?”
“हाँ। ओ के रवि, मुझे वापस काम पर जाना है, सी यू मंडे।”
“रिंग मी टुमारो।”
“मैं देखूँगी, कांट प्रॉमिज़।”
“प्लीज जान, आई लव यू।”
“मी टू।” कहकर उसने फोन रख दिया। मेरा पूरा वुजूद एक अजीब से सुरूर में भीग उठा था। कंवल जैसे अभी मेरी बांहों में से निकलकर दूर खड़ी हुई हो। मैं किरन को, बच्चों को और दूसरों को भूल गया था। बस, कंवल ही कंवल को महसूस कर रहा था।