रेत भाग 11 / हरज़ीत अटवाल

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समय थोड़ा कुछ और आगे सरका तो बिन्नी के विवाह के बारे में सब सोचने लगे। डैडी चाहते थे कि बिन्नी का विवाह जल्दी हो जाये। मुझे हालांकि वह अभी छोकरा-सा ही लगता था, बच्चे-सा। मम्मी कहती, “बाप की बीमारी और बहन के दु:ख ने मेरे बेटे को जल्दी बड़ा कर दिया।” मम्मी की यह बात मुझे अच्छी न लगती।

हम इंडिया गये तो कितने ही रिश्तों वाले हमारे आगे-पीछे घूमते थे। लेकिन, डैडी की अस्थियाँ लेकर गये थे इसलिए हमने किसी से बात नहीं की। लड़की वाले भी समझते थे। हम बिन्नी से विवाह के बारे में पूछते कि उसे कैसी लड़की चाहिए थी– इंडिया से हो या यहाँ की। प्रत्युत्तर में वह मुस्करा देता। कभी भी अधिक जवाब न देता। वह दूसरे लड़कों से कुछ हट कर था। वह पबों-क्लबों में भी अधिक न जाता। फुटबाल और फिल्मों का ही उसे शौक था। टेली और वीडियो उसके अपने कमरे में ही रखे हुए थे।

घर में तीन बैडरूम थे। एक बिन्नी के पास, एक हमारे पास और छोटा बॉक्स रूम मम्मी के पास। हमारा कमरा हमारे सामान से भरा पड़ा था। परी के पढ़ने का सामान ही जगह-जगह बिखरा पड़ा था। बिन्नी के कमरे में मैं कम ही जाती थी, मम्मी ही सफाई करती। लेकिन, जब कभी जाती तो देखती कि बिन्नी का कमरा भी बिन्नी के लिए छोटा था। नीचे वाले दोनों कमरे तो बैठक के रूप में ही इस्तेमाल किये जाते। मैं सोचने लगती कि बिन्नी का विवाह हो गया तो हम कैसे गुजारा करेंगे।

बिन्नी के विवाह के बारे में सोचते ही मुझे ख़याल आया कि मुझे इस घर में रहते बहुत समय हो चुका था। अब मुझे अपनी जगह चाहिए थी। अपना घर हो अथवा फ्लैट ही। जहाँ पर परी का अपना अलग कमरा हो। इसे आगे चलकर पूरे कमरे की ज़रूरत पड़ने वाली थी। मेरे मन में अपना घर खरीदने का ख़याल घूमने लगा। आर्च-वे वाला घर बिका तो उसमें से जितने पैसे निकले थे, वे सब मेरे पास जमा पड़े थे, परी के नाम पर। उसके बाद, मैंने जोड़े भी थे। घर में मेरा खर्च ही था या फिर मेरी कार का। कार मैं ज्यादा इस्तेमाल नहीं करती थी। कार शुरू से ही नई रखा करती थी। किस्तों पर ले लिया करती। किस्तें पूरी होतीं, तो उसे बेचकर दूसरी ले लेती।

बिन्नी सयानी बातें किया करता। दूसरे लड़कों वाले ऐब नहीं थे उसमें। घर की चिंता भी करता था। अधिक पढ़ न सकने के कारण उसको कोई ढंग का काम भी नहीं मिलता था। कभी कुछ महीने हीथ्रो एअरपोर्ट पर लगाता। फिर, दूर होने के कारण छोड़ देता। कभी किसी पेट्रोल पम्प पर जा लगता। कभी किसी फर्म की वैन चलाने लग पड़ता। मम्मी, उसके न पढ़ सकने के लिए डैडी की बीमारी को ही कसूरवार समझती। दबी जुबान में मेरा नाम भी ले लेती। एक दिन, मैंने मम्मी से कहा, “मम्मी, मैं घर लेना चाहती हूँ।”

“क्यों ?”

“बिन्नी का विवाह करेंगे, बच्चे होंगे।”

“देख ले भाई।”

मैं बिन्नी से कहने लगी, “बिन्नी, आज काम पर से लौटते हुए एस्टेट एजेंट के पास होकर आना।”

“क्यों ?”

“मैं सोचती हूँ कि घर ले लूँ।”

“यह घर नहीं ?”

“है तो यह भी घर ही, पर तेरे विवाह के बाद छोटा पड़ जाएगा।”

“हम इसे बेचकर बड़ा ले लेंगे। तू फिक्र क्यों करती है ?”

“मुझे फिक्र तो यह है कि तेरी वाइफ आएगी, फैमिली बढ़ेगी।”

“जितनी फैमिली बढ़ेगी, उतना ही बड़ा घर लेते जाएँगे, पर रहेंगे इकट्ठे।”

मैं उसकी बात पर हँसी और कहा, “तेरी वाइफ क्या कहेगी ?”

“मैं उसको सब कुछ क्लियर कर दूँगा, अगर फिर भी कुछ कहेगी तो अपनी राह जाएगी।”

“तू मेरी खातिर घर में प्रॉब्लम खड़ी करेगा ?”

“सो व्हट !”

“अब तू बड़ा हो गया है, तुझे और तेरी वाइफ को प्राइवेसी की ज़रूरत पड़ेगी। और फिर, परी भी बड़ी हो रही है, इसे भी अपना रूम चाहिए, इसकी आगे की पढ़ाई भी सख्त होती जाएगी।”

बिन्नी कुछ न बोला। उसने मुँह फुला लिया। उसे मेरी बातें अच्छी नहीं लगी थी।

मैंने परी के साथ घर खरीदने की बात की तो वह खुश-सी हो गयी। वह बोली, “एक कमरे में मैं कम्प्यूटर रखूँगी, गेम्स और किताबें रखूँगी, एक में खिलौने और एक में मैं सोया करुँगी।”

“सोएगी तू मेरे साथ ही।”

“तुम तो कहती हो, मैं टांगें बहुत मारती हूँ।”

“कोई बात नहीं, है तो तू मेरी बेबी ही।” कहकर मैंने उसे अपनी छाती से लगा लिया।

मैं घर की बात करके चुप हो गयी। कई दिन तक कोई बात नहीं की। परी मुझसे आये दिन पूछने लगी, “मम्मी, अपने घर कब जाएँगे।”

बिन्नी ने मुझे घरों की कीमतों के पेपर लाकर नहीं दिये। मैं काम पर आते-जाते या शॉपिंग पर जाते समय या फिर मम्मी के संग गुरुद्वारे जाते हुए, उन घरों को ध्यान से देखती जिनके आगे ‘फॉर सेल’ के बोर्ड टंगे होते। मैंने बिन्नी को गुस्सा-सा होकर कहा, “तूने दुबारा घरों की लिस्ट की बात क्यों नहीं की ?”

पहले उसने मेरी ओर तिरछी नज़र से देखा, फिर बोला, “घरों की कीमतें तू सुनेगी तो तेरे होश ठिकाने आ जाएँगे।”

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मैं अपनी रोज़ाना की ज़िन्दगी को दो हिस्सों में बांटकर देखती। आधी काम पर और आधी घर में। मैं घर में ही अपनी असली ज़िन्दगी तलाशती, जहाँ परी थी, मम्मी और बिन्नी थे, डैडी की यादें थीं। काम पर जाती, अपने काम से काम रखती। लड़कियों में अधिक घुलती-मिलती नहीं थी। कई लड़कियाँ थीं जिनका काम पर ही दिल लगता। कभी छुट्टी होती तो घर बैठे वे बोर हो जातीं।

काम पर किसी मर्द के साथ तो मैं मतलब की ही बात किया करती। वह भी तब जब काम से संबंधित कुछ कहना-सुनना होता। वैसे इतने इंडियन थे जो मेरी निजता में दिलचस्पी लेते थे। मेरे ही नहीं, वे तो हर किसी के निजी जीवन में झांकते रहते। कोई बात हाथ लगी नहीं कि छानबीन शुरू। ब्रेक के समय एशियन मर्द टोलियाँ बनाकर बैठते और आती-जाती औरत के बारे में बातें करते। मुझे अहसास था कि इनमें मेरे बारे भी बातें होती ही होंगी, पर मैंने कभी किसी की परवाह नहीं की थी। मुझे पुरुषों से कभी डर नहीं लगता था। जब ऐंडी से मैं मिला करती थी, उस समय मैं नोट किया करती थी कि टोलियों में बैठकर लोग मेरी ओर देखकर हँसा करते थे। इसी तरह, हैरी धनोये के समय भी। मुझे पता था कि बोलकर खुद ही हट जाएँगे। जिस बात के लिए मैं तैयार रहती थी, वह यह थी कि सबको मालूम था कि मैं अकेली और तलाकशुदा थी और हो सकता था कि कोई मेरा फायदा उठाने की काशिश करता, मुझे तंग करता। मैं ऐसे मौके के लिए तैयार थी। मैं तो यहाँ तक तैयार रहती थी कि अगर मुझे राह में कोई फिजूल तंग करेगा तो जोरदार थप्पड़ दे मारुँगी। बाद में जो होगा, होता रहे।

ऐसा बुरा समय आ ही गया। एक अधेड़ उम्र का आदमी मेरे पीछे लग गया। पहले गुस्सा तो इसी बात पर आया कि यह कोई जवान लड़का नहीं, चढ़ी उम्र का आदमी था। शुरू में मैंने इतना ध्यान नहीं दिया यह सोचकर कि इसके लिए तो एक झिड़की की मार ही बहुत है। पर मैंने देखा कि वह कुछ अधिक ही बेशरम किस्म का आदमी था। मैं करीब से गुजरती तो कहने लगता, “मेरा नाम सैम है, याद रख लो।” इस उच्चारण से इंडियन या पाकिस्तानी नहीं लगता था या हो सकता था, बहुत पहले से यहाँ आया हुआ हो।

जितना मैं चुप रहती, उतना ही वह बढ़ता जा रहा था। मुझे घर पहुँचकर भी बेचैनी रहने लगी। यह बात मुझे अच्छी न लगती। मैं काम की बात काम पर ही छोड़ आती थी। मैंने उसे दो-एक बार बात-बात में समझाया। वह न माना तो एक दिन कैंटीन में बैठे हुए को मैंने गालियाँ बकीं और उसकी बेइज्ज़ती कर दी। वह सुधरने के बदले और बिगड़ने लगा। मैं उठते-बैठते इस समस्या के बारे में सोचती रहती। पहले सोचा, बिन्नी से कहूँ कि उसका कोई इंतजाम करे। फिर सोचा कि बिन्नी इस लायक नहीं था। उस समय, मुझे रवि की बहुत याद आई। रवि को पता चलता तो वह सैम को राह में घेर कर उसके होश ठिकाने लगा देता। यहाँ तक सोचने लगी कि दो लोगों में बैठा हो तो उसके थप्पड़ मार दूँ। उसके बाद जो होगा, देखा जाएगा। लेकिन, इस तरह बड़ा मसला खड़ा हो सकता था। हमारी फर्म का उसूल था कि शारीरिक झगड़े के समय दोनों को ही काम पर से निकाल दिया जाता था। मुझे अभी काम की ज़रूरत थी। काफी सोच-समझकर मैंने सुपरवाइज़र के पास शिकायत करना ही उचित समझा।

मेरा सुपरवाइज़र अभी भी ऐंडी ही था। ऐंडी से मेरे संबंध कभी बिगड़े नहीं थे। वह हमेशा हँसकर मिलता। उसे नई सहेली मिलती तो मुझसे अवश्य मिलवाता। कभी-कभी परी का हालचाल भी पूछ लेता। मैंने ऐंडी को सैम वाली बात बताई और उससे मदद मांगी। ऐंडी ने सैम को ऐसा खींचा कि ऊपर मैनेजमेंट तक ले गया। आख़िर, सैम मिन्नतें करके छूटा।

इस घटना के बाद मैं और भी सावधान रहने लगी। मर्द के बुरेपन का क्या पता, किस वक्त जाग उठे। मुझे रवि पर अधिक गुस्सा आने लगा कि वह मेरे साथ होता, तो सैम जैसे मरियल बन्दे की हिम्मत न होती कि मेरी हवा की ओर भी देख सकता।

इस घटना के बाद, ऐंडी ने एक बार फिर मेरी ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाया, पर मैंने तरीके से ठुकरा दिया। इस ढंग से कि उसे बुरा भी न लगे।

रानी चड्ढ़ा ने इन गोरों के बारे में एक निष्कर्ष निकाल रखा था। वह कहती, “ये गोरे बड़े टेम्परेरी होते हैं। पता नहीं इनका मूड किस वक्त बदल जाये। हमारी लड़कियाँ खुश होकर विवाह तो करवा बैठती हैं, गोरी चमड़ी देखकर, पर ये साल, दो साल में छोड़कर अलग हो जाते हैं, ऊब जाते हैं। नई औरत ढूँढ़ लेते हैं।”

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रानी चड्ढ़ा से मेरी दोस्ती कुछ समय पहले ही हुई थी। पहले उसने और उसकी रिश्तेदार लड़की जगदीश ने मेरे साथ ही ब्रैडफील्ड में काम शुरू किया था। फिर, वे दोनों यहाँ से बदलकर बाहर वेअर-हाउस में चली गयी थीं। वह वेअर-हाउस उन्हें घर के नज़दीक पड़ता था। ब्रैडफील्ड का बहुत बड़ा वेअर हाउस सेंट्रल लंदन से बाहर पड़ता था। वहीं इसका सारा सामान पहुँचता था, वहाँ से यहाँ लाया जाता था। वहाँ भी काफी स्टाफ काम करता था। जब वेअर हाउस में छटनी हुई तो रानी चड्ढ़ा वापस विक्टोरिया आ गयी। मैं पुराने स्टाफ में से थी इसलिए मेरे कुछ अधिक ही करीब हो गयी थी।

रानी चड्ढ़ा एक अनुभवी औरत थी। मेरे से उम्र में दस साल बड़ी होगी। उसके साथ मेरी दोस्ती का कारण था कि वह बहुत बोलती नहीं थी। दूसरी औरतों की तरह बढ़-चढ़कर बतियाती नहीं घूमती थी। जो बातें करती, उनमें कोई शेखी न होती बल्कि एक वजन होता। हमारी जल्द ही दिल साझा करने वाली दोस्ती हो गयी। वह अपने आदमी को छोड़कर दो बरस एक गोरे के साथ रही थी। उसके पास मेरे से अधिक अमीर अनुभव थे, इसलिए मैं उसकी बात प्यार से सुना करती कि शायद कोई काम की बात सीख सकूँ।

ऐंडी और हैरी के बारे में मेरे बताने से पहले ही उसे पता था। ब्रैडफील्ड का स्टाफ वेअर-हाउस में या फिर वापस स्टोर में बदलियाँ करवाता ही रहता था और खबरें भी इधर-उधर पहुँचती ही रहती थ। रानी चड्ढ़ा के बारे में मुझे अधिक जानकारी नहीं थी। जब वह बदली करवाकर यहाँ आई तो कांता ने ही बताया था कि इसने आदमी छोड़ रखा था और किसी दूसरे के संग रहती थी। उसके खुद के कहने के अनुसार, उसके दोनों लड़के घर छोड़कर जा चुके थे और वह अकेली ही रहती थी। लेकिन, सच क्या था, मुझे इसकी कोई चिंता नहीं थी।

मुझे किसी और की भी बहुत चिंता नहीं थी। सैम वाली घटना के बाद से मुझे रवि के ख़याल अधिक आने लगे थे। एक दिन, रानी चड्ढ़ा ने पूछा, “क्या बात है कंवल, गुमसुम रहती है ?”

“मैं अपने एक्स के बारे में सोचती रहती हूँ।”

“क्या ?”

“यही कि मेरी बेटी बड़ी हो गयी है। इसे भी बाप की थोड़ी-बहुत ज़रूरत है, पर उसने कभी खबर ही नहीं ली।”

“यह तो अच्छी बात है, तुझे या तेरी बेटी को किसी किस्म की डिस्टरबेंस तो नहीं। तू तो किस्मत वाली है कि तेरा एक्स तुझे तंग नहीं करता, नहीं तो ये नाक में दम कर देते हैं।”

रानी मुझे किस्मत वाली कह रही थी। मैं मन ही मन हँसी कि यह अच्छी किस्मत है कि बन्दा जाये तो मुड़कर पीछे देखे ही नहीं। यह भी न देखे कि हम जीते हैं या मर गये। मैं सोचने लगती कि रवि को किस बात ने पत्थर बना दिया था। भगवंत के मुताबिक अगर वह अपने घर में खुश नहीं था, तो हमारे संग कोई संबंध रखता।

रानी के साथ बातें करके मुझे तसल्ली मिलती। वह अकेली रहती थी और किसी का उसे डर नहीं था। मुझे भी अकेले अलग घर में रह सकने की कोई फिक्र नहीं थी। रानी की ओर देख कर मेरा हौसला बढ़ जाता था।

जब हम काम से छुट्टी करत तो सब की सब अपने-अपने रस्ते चल पड़ते। काम छोड़ते समय दौड़ते हुए पशुओं के झुंड की तरह किसी को किसी की कोई खबर न रहती, कोई किसी से न मिलता। एक दिन, मैं मेन डोर से बाहर निकल रही थी तो रानी खड़ी मिल गयी। मैंने कहा, “वेट कर रही हो किसी का ?”

“हाँ, जगदीश का। वह लड़का देखने इंडिया जा रही है। उसी का वेट कर रही हूँ। वह मेरे मामाजी की बेटी ही है।”

“लड़का देखने जा रही है ?”

“कंवल, सारी दुनिया तेरे जैसी सीधी नहीं, जगदीश की दो बेटियाँ है, फिर भी आदमी बग़ैर खुद को सैटल नहीं समझती।”

“कितनी बड़ी हैं बेटियाँ ?”

“एक तो यूनिवर्सिटी जाती है, पर जगदीश को लगता है कि आदमी का होना ज़रूरी है। मैंने तो समझाया था कि आदमी निरा सिरदर्द ही होता है, और कुछ नहीं।” उसने हाथ घुमाकर पंजा खड़ा करते हुए कहा। अपने नुक्ते पर जोर डालने के लिए वह ऐसा ही किया करती।

मैं पूरे रास्ते जगदीश के बारे में ही सोचती रही कि मेरे से तो वह बहुत बहादुर थी। दो बराबर की बेटियाँ होते हुए भी अपने लिए लड़के देखती घूमती थी। मैं रानी के कहने के मुताबिक सीधी ही थी। अगले रोज़ काम पर पहुँचकर रानी चड्ढ़ा से जगदीश के बारे में पूछा, “जगदीश चढ़ गई फिर ?”

“हाँ, मैं फिर एअरपोर्ट तक ही चली गयी उसके साथ।”

“अब उसे लड़का देखने की क्या सूझी ?”

“जगदीश तो पहले से ही ऐसी रही है। आदमी के साथ बनी नहीं, मेरे मामा जी स्पेशल इंडिया से आये थे इनका समझौता कराने के लिए, पर वे रोते हुए वापस लौट गये।”

“तंग होगी बेचारी।”

“हाँ, पर मेरे एक्स जितना बुरा नहीं था, जगदीश की हवा ज़रा ऊँची थी। इसे वह पसन्द नहीं था और असलम नाम के एक पाकिस्तानी के साथ दोस्ती कर ली थी।”

“बड़ी हिम्मत वाली थी।”

“और नहीं तो क्या...एक दिन काले से कपड़े पहनकर आ गयी कि मैं अब जगदीश नहीं, रुखसाना हूँ, मुझे रुखसाना कहा करो। मैंने बहुत फटकार मारी, ये तो बेटियों के भी नाम बदलने को घूमती थी।”

“यह सिक्ख नहीं ?”

“सिक्ख क्या, यह पाठण(पाठ करने वाली) हुआ करती थी किसी वक्त। शोर मचाये रखती थी।”

“फिर भी ?

“और क्या, फिर तो नमाज पढ़नी भी सीख ली थी, मेरे पास लड़कियों को छोड़कर पाकिस्तान भी चली गयी थी। मैं तो डरती थी कि अब नहीं लौटने वाली, कई केस सुन रखे थे कि पाकिस्तान गयीं लड़कियाँ बेच दी जाती हैं, पर यह लौट आई। आई तो बहुत खुश थी, असलम की फैमिली की ही बातें करती रहती, उसकी वाइफ की जो पाकिस्तान में रहती थी, असलम भी यूँ ही था, चूहा-सा।”

मुझे जगदीश की बातें हैरान कर देती थीं। जब भी रानी चड्ढ़ा मिलती तो मैं उसकी ही बातें करने लगती। रानी बताती, “मुझे जगदीश से ज्यादा उसकी बेटियों की फिक्र हुआ करती थी, मुझे डर होता कि असलम कहीं उन्हें पाकिस्तान न ले जाये, उसकी कौन-सा वे सगी बेटियाँ थीं। ये मुसलमान बहुत फनेटिक होते हैं। लेकिन, बात इससे भी आगे बढ़ गयी। जगदीश ने असलम को घर से निकाल दिया।”

“अच्छा! क्या हुआ ?”

“असलम एक दिन इसकी छोटी बेटी के बिस्तर में जा घुसा।”

रानी चड्ढ़ा ने कहानी खत्म करके मेरे दिल को ऐसा झटका मारा कि मेरे लिए सम्भलना कठिन हो गया। मैं कितनी देर तक कुछ बोल ही न सकी।

उस दिन मैं घर लौटी तो देखा, परी मेरी ज़ीन पहनकर देख रही थी। वह खुश होकर उछलती हुई बोली, “देख मम्मी, तेरी ज़ीन मेरे फिट आ गयी।”

मेरा दिल किया कि इससे अपनी ज़ीन छीन लूँ और फ्राक उसे पकड़ा दूँ, पर मैंने हँसकर कहा, “तेरे आ गयी है तो तू पहन लिया कर। और भी ट्राई करके देख ले।”

मेरा मन कर रहा था कि अभी रवि को खोज कर पकड़ लाऊँ और कहूँ- देख अपनी बेटी को। ज़रा इसे भी देख। बेटी पैदा की और भाग गया।

मैं मन ही मन रवि को कोसने लगती। जितना कोसती, उतना ही उसके ख़याल मेरा पीछा न छोड़ते। मैं सपनों में उसके साथ लड़ती, बातें करती, हँसी-मजाक भी करती। मैं दिन में भी ऐसे सपने देखती कि लगता ही नहीं कि मैं रवि से दूर हूँ। मेरा मन होता कि रवि को फोन करके देखूँ, उसको मनाऊँ। रूठा हुआ रवि नाक की सीध में चला करता था। रोक लो तो सब कुछ भूलकर रुक जाता। मैं चाहती कि उसे किसी तरह फोन करुँ। फिर सोचने लगती कि इतने बरस हो गये, पता नहीं वह पहले वाला रवि होगा भी कि नहीं। अब उसके घर दूसरी बेटी आ चुकी थी। परी को भी भूल गया होगा।

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मैंने नक्शा खोला और देखने लगी कि ग्रीनफोर्ड कहाँ पड़ता था। मैं उस इलाके में कम ही गयी थी। ग्रीनफोर्ड तो साउथॉल के साथ था। नार्थ सरकुलर लेकर हम साउथॉल जाया करते थे, उसी रास्ते से ग्रीनफोर्ड जाया जा सकता था। ग्रीनफोर्ड में ट्यूब भी जाती थी। सेंट्रल लाइन थी। अगर विक्टोरिया से जाना हो तो ‘ए-फोर’ नज़दीक से जाती थी। ग्रीनफोर्ड पहुँचना इतना मुश्किल नहीं था, पर मैंने पहुँचना कहाँ था, यह नहीं जानती थी। रवि का पता क्या था, उसका टैक्सी वाला दफ़्तर कहाँ था, कुछ मालूम नहीं था। फिर सोचती कि अगर पता भी हो और रवि मिल भी जाये, तो मैं उसे क्या कहूँगी। मेरे पास कोई बहाना भी तो होना चाहिए था। वह तो यही कहेगा कि आ गयी अक्ल ठिकाने।

सोचते-सोचते, मुझे एक दिन बहाना सूझ ही गया कि परी के हफ्ते के अभी तक तीस पौंड ही आते थे। इतने साल हो गये थे। अब परी के खर्चे बढ़ गये थे। उसे ज्यादा पैसे चाहिए थे। मैंने शमिंदरजीत को फोन किया। बहाना यह था कि अगले साल परी ने हाई-स्कूल में जाना था, जहाँ उसके भी बच्चे पढ़ते थे। वह स्कूल कैसा था। वह स्कूल भी घर से इतना दूर नहीं पड़ता था हमें। सरसरी बातें हुईं। स्कूल की जानकारी तो दो-एक वार्तालाप में ही खत्म हो गयी। मैंने आगे पूछा, “साउथॉल नहीं गये आजकल ?”

“जाते ही रहते हैं, कोई संदेशा देना है ?”

शमिंदरजीत कभी-कभी रवि का नाम लेकर मुझसे मजाक कर लिया करती थी। वह मुझे थोड़ा-बहुत समझती भी थी। मैंने कहा, “हाँ, परी के बाप ने इसके पैसे नहीं बढ़ाये, मैं सोचती हूँ कि अब कोर्टों में क्या जाना है, ऐसे ही वह मान जाये।”

“मैं इनसे कह देती हूँ, ये उसके भाई से बात कर लेंगे, अगर कहे तो उससे मिल भी लेंगे।”

एक मिनट के लिए मैं चुप हो गयी। मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि कौन-सी बात करुँ। मैंने सोचकर कहा, “कहाँ रहता है ?”

“अगर यह बात है तो उसका एड्रेस भी ला लेते हैं, तू हुक्म कर।”

“फोन नंबर ही पता कर दो, यही बहुत है।”

“उसके घर के नंबर का तो पता नहीं, जहाँ काम करता है, वहाँ का पता है इन्हें। हम तो जब जाते हैं, उधर से भी निकलते हैं, ईलिंग में पड़ता है।”

उसने फोन एक तरफ करते हुए भगवंत को आवाज़ दी और रवि के दफ़्तर का नंबर मांगा। भगवंत को जैसे मुँह-जुबानी ही याद था। वह दूर बैठा ही शमिंदरजीत को नंबर बताने लगा। शमिंदरजीत फोन पर मुझे बताने के लिए दोहराती गयी और टेलिफोन नंबर मेरे मन में अंकित होता गया, एक-एक अंक मेरे अन्दर उतर गया। मुझे लिखने की ज़रूरत ही नहीं पड़ी।

मैं बैठती-उठती वह नंबर मन में दोहराती रहती। दिल हुआ कि अभी फोन करुँ। मैंने कई बार फोन किया और काट दिया। मेरे हाथ कांपने लगते। मेरा हौसला पस्त हो जाता। रवि का फोन नंबर मिल जाना, एक खजाने के मिल जाने जैसा था। मैं उस दिन और उसके अगले दिन काम पर भी एक उमंग में भरकर घूमती रही। इस तरह कई दिन निकल गये। फोन करने का मुझमें साहस नहीं हुआ। हर ब्रेक में मैं फोन बूथ के करीब जाती और लौट आती। रानी चड्ढ़ा मुझसे पूछने लगी, “नर्वस लगती है ?”

“हाँ, एक्स को फोन करने के बारे में सोच रही हूँ, पर बहुत साल हो गये।”

“लीव हिम अलोन, क्या लेना उससे ?”

“मैं चाहती थी कि परी का कुछ खर्चा बढ़ाये।”

“खर्चा तो बढ़ जाएगा, पर तेरी बॉदरेशन भी बढ़ जाएगी। वह आने-जाने लग पड़ा तो ? या फिर कह कि तू अभी भी उसे चाहती है।”

उसने कहा तो मैं लजा-सी आ गयी। वह फिर बोली, “मुझे लगता है कि तू उसे वापस बुलाना चाहती है।”

“पता नहीं, यहाँ तक तो सोचा नहीं।”

“नहीं सोचा तो सोच, अगर तुझे लगता है कि वह बुरा हसबैंड नहीं तो फिर गो एंड ट्राई।”

रानी चड्ढ़ा के उत्साह ने मेरे ख़यालों को और भी पंख लगा दिये। मैं कुछ का कुछ सोचने लग पड़ी।

शाम को जब मैं सोने की तैयारी कर रही थी तो शमिंदरजीत का फोन आ गया। कहने लगी, “रवि को फोन किया फिर ?”

“टाइम ही नहीं मिला अभी।”

“किसी खबर का पता चला ?”

“नहीं तो, क्या है ?”

“तेरे रवि के घर लड़का हुआ है पिछले सोमवार, मैंने सोचा कि बता दूँ, अगर फोन करे तो बधाई दे देना।” उसने हँसते हुए फोन रख दिया। मैं सोचने लगी कि रवि के घर बेटा आया था, इस पर मुझे खुश होना चाहिए था कि उदास। मैं किसी के साथ ज्यादा बात न करके सो गयी। मैंने रानी को बताया, “मेरे एक्स के घर लड़का हुआ है, मुझे रात में किसी ने बताया।”

“कंवल, यह तो तेरे लिए अच्छी खबर नहीं।”

“क्यों ?”

“क्योंकि जो भी प्रोग्राम तूने मन में चाकआउट किया है, उसे दुबारा बनाना पड़ेगा, हालात बदल गये हैं।”

“वह कैसे ?”

“यह जो मर्द जात है, बेटों के पीछे जान देती है। अगर तेरे घर परी की जगह बेटा होता तो तेरा एक्स तुझे कभी न छोड़ता। तेरे तलुवे चाटता घूमता। अब उस औरत के लड़का हो गया, वह अच्छी है या बुरी, पर वह उसे छोड़ेगा नहीं। मुझे पता है कि मैंने अपने एक्स से कैसे पीछा छुड़ाया है, बेटों की खातिर मारा-मारा फिरा करता था।”

मेरे मन में रवि का फोन नंबर घूमने लगा। मेरा दिल कर रहा था कि मैं अपनी उस जुबान को ही छील डालूँ, जहाँ नंबर चिपका पड़ा था।