रेत भाग 10 / हरज़ीत अटवाल

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सवेरे नींद तो खुल जाती, पर उठना मुश्किल हो जाता। सारा शरीर दर्द कर रहा होता। सिर ऐसे होता जैसे हथौड़े बज रहे हों। हालांकि शराब खून में रच चुकी थी लेकिन, हिसाब से ज्यादा पी लेता तो ऐसी ही तकलीफ़ होती। अगर कभी शराब एक से अधिक किस्म की पी लेता, तब तो तकलीफ़ और बढ़ जाती। अगर कभी शराब का असर खत्म होने से पहले सो कर उठना पड़ता तो और भी मुश्किल होती। बल्कि उठा ही न जाता।

उन दिनों तो बात यहाँ तक पहुँच गयी कि सवेरे सोकर उठने पर यह सोचना पड़ता कि मैं था कहाँ। मेरे साथ कौन लेटा था ? किरन या बीटर्स ? बीटर्स किरन से पतली थी। दो बच्चे होने के कारण शरीर भी झड़ चुका था और वह नाइटी भी न पहनती। आँखें खोलने से पहले निशानदेही करनी पड़ती कि कहाँ पड़ा था। किरन और बीटर्स के जगाने के तरीके भी अलग-अलग थे। बीटर्स सिर के बालों में हाथ फेरती हुई जगाया करती। किरन कंधा हिला कर। ये बातें अकेले बैठकर सोचता तो मुझे अपने आप पर गुस्सा आता और सारा दोष कंवल के सिर मढ़ने लगता। कंवल के साथ सोते हुए मुझे कभी ऐसी परेशानी नहीं होती थी। असल में तो कंवल ने मुझे सोये हुए शायद ही कभी देखा हो। मैं उससे बाद में सोता और उससे पहले उठ जाता।

उस दिन, किरन मुझे कंधे से पकड़कर हिला रही थी। मैं नींद की दलदल में से निकल नहीं पा रहा था। किरन की आवाज़ मानो बहुत दूर से आ रही हो। उसकी आवाज़ में आम तौर से कुछ ज्यादा ही गुस्सा था। ज़रूर कहीं कुछ गलत था। मैंने हिम्मत कर आँखें खोलीं। यह तो बीटर्स का बैड था। बीटर्स का घर। मैंने देखा कि किरन मेरी ओर क़हर भरी नज़रों से देख रही थी। मैंने सिर झटका। होश में आने की कोशिश की। दीवार पर टंगा क्लॉक एक बजा रहा था। किरन मुझे कमीज पकड़ाते हुए बोली, “शर्म करो, शर्म... तुमने तो सारी शर्म-हया उतारकर रख दी है, अब भी कहो कि इस चुड़ैल से तुम्हारा कोई वास्ता नहीं। कपड़े पहनकर बाहर आओ ज़रा, दो हाथ करूँ तुम्हारे साथ, तुमने तो हद ही कर दी।”

यह कहकर वह बाहर चली गयी और सीढ़ियाँ उतर गयी। गहरी नींद में से निकला था। मैं उठकर बैठ गया, पर खड़ा नहीं हुआ जा रहा था। मैं हैरान था कि किरन यहाँ कैसे पहुँच गयी। यहाँ का पता किसने दिया और आयी कैसे।

मैं शर्मिन्दगी से भरा हँसने लगा। बीटर्स पहले तो चोरों की तरह खड़ी थी। मुझे हँसता देखकर वह भी हँसने लगी। फिर, वह चिंतित होकर पूछने लगी, “अब क्या होगा ?”

“अब क्या होना है। बस, हँसती चल, कल अस्पताल में मेरी ख़बर लेने आ जाना।”

मैं हँसते हुए सीढ़ियाँ उतर आया। किरन बाहर सड़क पर जाकर खड़ी हो गयी थी। बाहर आया तो तरसेम की पत्नी जीती और उसका लड़का चन्ना भी खड़े थे। सारी कहानी मेरी समझ में आ गयी। जीती के पास कैथी का पता था। उसने तो तरसेम का पीछा एक किस्म से छोड़ रखा था, पर जब किरन को पता चला होगा तो रह नहीं सकी होगी। जीती बाहर सड़क पर खड़ी होकर उसको गालियाँ बक रही थी, “बास्टर्ड, माँ की बगल में छिपा बैठा है, बाहर निकल ज़रा, तुझे बताऊँ, अब रह इस कंजरी के पास, घर में घुसा तो तेरी टांगें तोड़ दूँगी।”

फिर वह ‘सुआहली’ भाषा में कुछ कहने लगी। वे कीन्या से आये थे, इसलिए यह बोली जानते थे। किरन ब्याह कर इधर आयी तो वे हमारे घर एक-दो बार आये थे और हम भी खाने पर उनके घर गये थे। जब उन्होंने पर्दे में काई बात करनी होती थी, तो ‘सुआहली’ में किया करते। अब भी वह कैथी के घर की ओर बाँह उठा-उठाकर कुछ कहे जा रही थी। उसका बेटा चन्ना कह रहा था, “मम्मी, चुप हो जा तू।”

कैथी और तरसेम अन्दर दुबके बैठे थे। बीटर्स खिड़की में से देखते हुए अभी भी हँसे जा रही थी। उसे देखकर मुझे फिर हँसी आ जाती। चन्ने के ज्यादा कहने पर जीती कार में जा बैठी। किरन ने मुझे भी धक्का-सा देकर कार में बिठा लिया। मेरा नशा तो उतर चुका था, पर मैं शराबी होने की एक्टिंग कर रहा था। मैंने कहा, “मैडम, तुझे यहाँ आने की क्या ज़रूरत थी, अक्ल है कि नहीं ?”

“मुझे कहाँ अक्ल है, तुम्हारी अक्ल से ही काम चलाना है।”

“यह बहुत रफ एरिया है।”

“तुम इस रफ एरिये में क्या करने आते हो ?”

“और फिर हमारा लड़का हमारे साथ था, हमारे लिए कैसा रफ।” जीती ने कहा। फिर, अपनी बात जारी रखते हुए जीती बोली, “भाजी, तरसेम ने सारी उम्र ऐसे ही निकाल ली, किसी बात की वरी नहीं की, हमारी लाइफ हैल बनाकर रखी, पर तुम क्यों ऐसी सोसायटी में पड़ते हो।”

“भैण जी, मैं कब आता हूँ, तरसेम नहीं माना।”

“हाँ-हाँ, तुम तो बहुत पाक-साफ हो, भाजी को क्यों दोष दिये जा रहे हो, चैन तुम्हारे अन्दर नहीं, आग तुम्हें लगी है।”

“मैडम, तू मुझे गलत समझती है, मैं तो बिजनेस डिस्कस करने आया था कि अधिक पी लेने के कारण यहीं पड़ गया।”

“कपड़े उतार कर कौन-सा बिजनेस डिस्कस कर रहे थे।”

मैंने चन्ने की ओर देखा, जो अपने ध्यान में कार चला रहा था, लेकिन हल्के-हल्के मुस्करा भी रहा था। मैंने किरन से कहा, “कुछ शरम कर, साथ में बैठा लड़का क्या सोचेगा ?”

जीती कहने लगी, “जब लड़के के बड़े-बुजुर्ग उल्टे काम करेंगे, तो लड़का क्या करेगा और क्या सोचेगा!”

मैंने चन्ने से कहा, “यंग मैन, मुझे तो ईलिंग मेरे दफ्तर उतार देना। मैं रात वहीं काट लूँगा। तेरी अंटी तो मेरे पर यकीन ही नहीं करती।”

“चन्ने, तू घर ही चल, अब सेवा से न डरो, मैं तुम पर बहुत यकीन करती हूँ।”

चन्ने ने कार हमारे घर के सामने ला खड़ी की। किरन फुर्ती से दरवाजा खोलकर अन्दर जा घुसी। शायद, सो रही सोनम को देखने गयी हो। मैंने जीती और चन्ने को अन्दर आने के लिए कहा, पर वे रुके नहीं, चले गये। रात बहुत हो चुकी थी। मैं अन्दर घुसा तो किरन बिफरी खड़ी थी और मेरी ओर देख रही थी। बोली, “अब भी कहो कि उसके साथ तुम्हारा कोई वास्ता नहीं। इतने दिन हो गये तुम्हारी तरफ देखते, मैंने सोचा, सुधर जाओगे, पर तुम कब सुधरने वाले हो। मैं तो थक गयी, तुम्हें टोलरेट कर-करके, अब नहीं कर सकती, जाओ, बेशक जाओ, उस गोरी के पास या जहाँ तुम्हारा मन करे।”

“मैडम, तू तो मेरी जान है, मैं गोरी से ज्यादा काली को ही पसन्द करता हूँ। अब मैं तुझे सॉरी कहूंगा तो तू मेरी बात नहीं सुनेगी।”

मैंने अल्मारी में से बोतल निकाल बड़ा-सा पैग बनाकर पिया और उससे कहा, “देख, मैं जा रहा हूँ सोने, मुझे इस वक्त नशा इतना है कि तेरी कोई बात सुनाई नहीं देती। दूसरी बात, अगर तूने मुझे पीटना है तो ज़रा धीरे मारना, आखिर मैं तेरी माँ का जवाई हूँ! मुँह पर न मारना, चूतड़ पर बेशक मार लेना।”

मैंने सोने का बहाना कर लिया। वह कुछ न कुछ बोलती रही। शोर सुनकर सोनू उठ गयी। किरन चुप हो गयी। इसके बाद मुझे कुछ नहीं पता, मैं सो गया था।

सवेरे मैंने सौगंध खाकर, सॉरी कहकर किरन को खुश कर लिया। जब बीटर्स के बेटे हमारे घर आते या बीटर्स मिलती, तो किरन की शक की निगाह काम करने लगती। मुझसे कई सवाल पूछती।

लेकिन, मैंने कभी पैरों पर पानी नहीं पड़ने दिया था। किरन से वायदा करते हुए अब मैं सच्चे मन से सोच रहा था कि आज के बाद बीटर्स के घर नहीं जाना। किरन इतनी खफा हो रही थी कि डर था कि कहीं कुछ कर ही न बैठे।

किरन का गुस्सा कुछ कम हुआ तो कहने लगी, “जाओ, पहले नहाकर आओ, गन्दी औरत, गन्दा घर, गन्दगी... छी छी छी...।”

मैं नहाकर नाश्ते के लिए बैठा तो किरन अभी भी मेरी ओर क़हर भरी नज़रों से देख रही थी। वह कुछ पकाने के लिए तैयार ही नहीं थी। मैंने कहा कि रात से कुछ नहीं खाया, तब भी वह न पिघली। सोनू के बहाने भी खुशामद की। कुछ देर बाद उसके मन में दया आई, तो कुकर चढ़ाकर आटा गूंधने लगी। मैं खुश हो गया कि अब परांठे मिलेंगे।

टेलीविजन चल रहा था। बिल्लियों के खाने का विज्ञापन आया तो स्क्रीन पर एक सुन्दर-सी बिल्ली चलती दिखाई दी। सोनम बोल उठी, “डैडी, बिल्ली लेनी है।”

“बेटा, बिल्ली तो तेरे डैडी के पास है, एक बार माँ को मना ले।”

किरन ने हाथ वाला आटा वहीं फेंक दिया। कुकर बन्द करके फिर से सैटी पर आ बैठी और बड़बड़ाने लगी।

00


हर बिजनेस के भेद होते हैं। उसमें पड़ने पर ही पता चलता है। कुछ चुस्तियाँ, चालाकियाँ भी बरतनी पड़ती हैं। यह ध्यान भी रखना पड़ता है कि कोई तुम्हारे साथ चुस्ती न बरत जाये। मेरी कोशिश होती कि साफ खेल खेला जाये। लेकिन, कैवन के मामले में मुझे थोड़ा टेढ़ापन इस्तेमाल करना पड़ा। हुआ यूँ कि मुझे कंट्रोलर की कई बार कमी पड़ जाती। कभी मैं स्वयं बैठता, कभी प्रितपाल को बिठाता। कंट्रोलर जो माइक पर बैठा ड्राइवरों को कंट्रोल कर रहा होता है। बॉब और पॉल दो कंट्रोलर थे, पर वे घंटों के हिसाब से पैसे मांगते और उन्हें घर भागने की जल्दी रहती थी। कम से कम छुट्टी करने की जल्दी तो ज़रूर होती। मुझे एक ऐसे आदमी की आवश्यकता थी जिसे घर जाने की या छुट्टी करने की जल्दी न हो। ईलिंग में मिनी कैब के कई दफ्तर थे। थोड़ा आगे चलकर ‘मैक्रो मिनी कैब’ था। मेन रोड पर ‘फास्ट मूव’ था, ‘एक्सप्रेस’ था। इनसे हमारा कम्पीटिशन चलता रहता था। एक-दूसरे का कारोबार छीनने की दौड़ भी लगती। मुझे कारोबार छिनने की चिंता नहीं थी, पर ‘फास्ट मूव’ वालों के कंट्रोलर कैवन को हथियाने का ख़याल मन में रहता।

मैंने पता किया कि कैवन किस पब में बियर पिया करता था। मैं वहाँ पहुँच गया। कैवन अपंग था। एक टांग खराब थी जिसके कारण लंगड़ा कर चलता और बांह भी एक ही थी। दूसरी बालिश्त भर मांस का लोथड़ा-सी। वैसे, वह होशियार था। मैंने दो दिन उसके संग बियर पी और तीसरे दिन हफ्ते में बीस पोंड अधिक तनख्वाह पर पटा लिया। कैवन के मेरे संग काम करने के बहुत फायदे हुए। वह पूरी रात और फिर आधा दिन माइक पर बैठ सकता था। उसकी आवाज़ भी प्रभावशाली थी। ग्राहकों पर भी अच्छा असर पड़ता, ड्राइवर भी उसकी बात को आसानी से समझ जाते। कैवन के बाद मैंने जूडी को खींचा। उसको मैं डिस्को पर ले जाया करता। उसके साथ टेनिस खेलने जाता। मुझे टेनिस आती नहीं थी, जूडी की खातिर सीख ली। फिर, हमारी एक बढि़या टीम बन गयी। जूडी के हमारे साथ मिल जाने से हमने अस्थायी तौर पर रखी दो औरतें हटा दी थ। जूडी ने दफ्तर के बहुत सारे काम उसने सम्भाल लिए थे। सबका वेतन तैयार करने से लेकर अकाउंटेंट के लिए सभी पेपर सीधे कर देती। हिसाब में बहुत साफ और तेज थी। उसका मन दफ्तर से अधिक बाहर से काम इकट्ठा करने में था। वह रैप डेविड ऐंडरसन वाला काम करना चाहती थी।

डेविड ऐंडरसन बड़ी-बड़ी फर्मों के चक्कर लगाता और काम इकट्ठा करता। जिनके लिए हम टैक्सियाँ भेजते या फिर वैन गाडि़याँ। उनके पार्सल इधर-उधर ले जाने के लिए। वे महीनेभर बाद इकट्ठा चैक भेजा करते। इन फर्मों का काम हालांकि हमें सस्ता करना पड़ता, पर बंधे हुए पैसों की बरकत हो जाती। ऐसे ही, हम कोरियर सर्विस वाली कंपनियों को ड्राइवर, कारें, वैनों की सप्लाई करने लगे थे। डेविड ऐंडरसन अपने काम में माहिर था। वह कार अपनी इस्तेमाल करता, पर उसका अलाउंस लेता था। वह कमीशन पर काम करने के बदले स्थायी वेतन पर काम करना पसन्द करता। काम करते हुए लगता मानो कुछ गुस्से में है। सामने वाले पर यह प्रभाव पड़ता कि वह अपने काम में बहुत निपुण होगा।

इस बढ़िया टीम का मुझे नुकसान यह होता कि मैं शराब ज्यादा पी लेता क्योंकि काम की चिंता कम हो गयी होती। वैसे, अगर दो दिन शराब पीने में खर्च हो जाते तो मैं अगले दो दिन काम भी अधिक करता। काम पर मैं बहुत कम पीता था। मेरा अपना अलग कमरा था। किसी खास दोस्त के आने पर वहाँ बैठ भी लेता, पर स्टाफ के साथ अधिक घुलता-मिलता नहीं था।

एक दिन, जूडी कम्प्यूटर में से पिछले महीनों की कारगुजारी निकाल लाई। पिछले दो महीने में डैविड एक भी नया ग्राहक नहीं लाया था। उसने कोई भी नया कंट्रेक्ट साइन नहीं किया था। मैंने देखा कि डेविड दिखाई भी कम देता था। तनख्वाह लेने वाले दिन स्टाफ के साथ हँसी-मजाक कर रहा होता। फिर, जूडी ने पड़ताल की तो पता चला कि नये आर्डर तो क्या आने थे, पुराने भी हाथ में से निकल गये थे। मैंने डेविड को बुलाया, “बहुत दिन हो गये कोई आर्डर नहीं आ रहा ?”

“क्या करें, काम बहुत कम हो गया है, सारी मार्किट ही खराब है।”

“पर ये पिछले दो महीने में एक भी आर्डर नहीं, क्यों ?”

“इसमें मेरा क्या कसूर ?”

“कसूर नहीं मेरे दोस्त, कंपनी तुझे तनख्वाह देती है, सवाल भी तो पूछना पड़ेगा। यह भी तो देखना पड़ेगा कि जो तनख्वाह तुझे दी जाती है, उसका कोई फायदा भी है कि नहीं ?”

“मैं पिछले आर्डरों को कायम रख रहा हूँ, मैं न होऊँ तो सारा काम हाथ से निकल जाये। मैंने जा-जाकर, मिल-मिलकर ये आर्डर बचा रखे हैं। तुझे क्या पता, तुझे तो काम में कोई दिलचस्पी ही नहीं।”

उसकी बात ने मुझे थोड़ा शर्मिन्दा कर दिया, पर साथ ही गुस्सा भी आया। मैंने कहा, “अगर मैं काम में दिलचस्पी नहीं लेता तो इसका मतलब यह तो नहीं कि तू कंपनी का काम ठीक से न करे।”

“क्या मतलब ?”

“यह देख, एटलस वालों का आर्डर गया, गीनस और कंटीनेंटल वालों का भी।”

“इसमें मेरा क्या कसूर ? तू मुझे चोर तो नहीं समझ रहा ?”

“मैं सवाल का जवाब मांग रहा हूँ कि ये आर्डर हमारे हाथ में कैसे निकल गये ?”

“उन्हें हमारे से अच्छी कीमत किसी ने दे दी होगी।”

“तूने इस बात का ध्यान क्यों नहीं रखा और फिर मुझे बताया क्यों नहीं ?”

“इंदर, तू काम पर आये तभी तो मैं बताऊँ।”

“तनख्वाह लेने तू हर हफ्ते आता है। मैं यहीं पर होता हूँ।”

“इंदर, तू मुझे चोर कह रहा है जबकि तू खुद चोर है, तू टैक्स चोर है, मैं तेरी शिकायत कर दूँ तो तुझे बहुत सारा जुर्माना हो जाये। तू मेरे देश का टैक्स चोरी कर रहा है।”

“डेविड, तू हद से ज्यादा बोल रहा है, इसका मतलब अवश्य कोई बात है।”

“क्या तू मुझे सैक करने के बारे में सोच रहा है, मैं देखता हूँ, तू मुझे कैसे सैक कर सकता है। मेरे देश में कोर्ट भी है, याद रखना।”

धमकी देकर वह चला गया। मैं परेशान हो उठा, एक तो चोरी कर रहा था, ऊपर से रौब झाड़ रहा था। मेरा मन हुआ कि दो घूंट पीकर परेशानी पर से निजात पा लूँ, पर अभी तो डेविड इसी बात का उलाहना देकर गया था। मैं इस घटना के बारे में चुप रहा और सोचने लगा कि इस बारे में क्या करूँ।

किरन के साथ तो ऐसी बात करनी ही क्या थी। वह मेरे कारोबार में किसी तरह का दख़ल न देती। उसे मेरे काम से कोई सरोकार था ही नहीं। मैं प्रितपाल से मिला। उसने मेरी परेशानी मेरे चेहरे से पढ़ ली। पूछने लगा, “क्या बात है ?”

“यह डेविड है न रैप, अंग्रेज की औलाद, एक तो चोरी करता है, ऊपर से अकड़ता है।”

मैंने उसे सारी बात बताई। वह खीझते हुए बोला, “यह सब तेरी शराब के कारण है। तुझे यकीन है कि वह कोई गड़बड़ करता होगा।”

“बिलकुल, मैंने कुछ कहा ही था कि उसके अन्दर का चोर बोलने लगा। यह ठीक है कि यह सब हुआ मेरी लापरवाही के कारण ही।”

“उसे काम पर से हटा दे।”

“मैंने अकाउटेंट से बात की थी, यह आसान नहीं है। अगर बर्ख़ास्त करना है तो रीज़न होना चाहिए।”

“अगर इसे चोरी करते हुए को पकड़ लें ?”

“वह कैसे ?”

“तू कुछ दिन काम को इग्नोर कर दे। डेविड ऊपर वाले दफ्तर में ही बैठा करता है, मैं फोन टेप कर लेता हूँ। फोन टेपिंग वाली मशीन मेरे एक दोस्त के पास है।”

मैंने ऐसा ही किया। डेविड से दुबारा कोई गिला न किया। जूडी ने दो बार और उसकी शिकायत की, पर मैंने ध्यान नहीं दिया। काम पर कम जाने लगा। शराब पीने का बहाना भी मिल गया। घर में रहकर किरन को भी खुश कर लिया। प्रितपाल पहले भी रात में दफ्तर आ जाया करता था। ऊपर वाले कमरे की चाबी भी उसके पास हुआ करती थी। सारे स्टाफ को उसका पता था। एक दिन, रात में जाकर उसने फोन की तारें किसी तरह जोड़ दीं। वह रोज़ रात में जाकर टेप चैक कर आता।

उस दिन मैं नहा कर निकला ही था कि प्रितपाल का फोन आ गया, “बड़े, रात को चूहा चूहेदानी में फँस गया।”

“दैट्स गुड न्यूज़!”

“फास्ट फूड वाले राजू जैन से डील कर रहा था, ‘बोस्टन मैन’ वाली फर्म पाँच में बेच रहा था और कल को ‘हैनले टैवरन’ में मिल रहे हैं वे।”

“छोटे, छा गया भई तू।”

अगले दिन हमने ‘हैनले टैवरन’ पब के पास जाकर कार खड़ी कर ली, थोड़ा हट कर। छह बजे के करीब डेविड ऐंडरसन की कार आती दिखाई दी। राजू जैन उससे पहले ही आया बैठा था। प्रितपाल पब का चक्कर लगा आया था। राजू जैन प्रितपाल को नहीं पहचानता था, नहीं तो इधर-उधर हो जाता। डेविड के आने के दसेक मिनट बाद हम पब में गये। डेविड कुछ जेब में डाल रहा था। शायद, वह पाँच सौ पौंड ही हों जिसकी फोन पर बात हुई थी। हमें देखकर डेविड का रंग उड़ गया। राजू जैन भी घबरा गया। मैंने उनके पास जाकर ‘हैलो’ कहा और उनके साथ जा बैठा। प्रितपाल गिलास भरवाने चला गया था।

“तुम्हारी कोई प्राइवेट बात तो नहीं चल रही थी ?”

“नहीं इंदर, ऐसी कोई बात नहीं।”

“लेना-देना हो गया तुम्हारा ?”

“कैसा लेन-देन ?”

डेविड गुस्से में बोला। मैंने कहा, “पाँच सौ पौंड का, जो फोन पर तय हुआ था।”

उन दोनों ने एक-दूसरे की ओर देखा। डेविड कहने लगा, “इंदर, मुझे नहीं पता, तू कहना क्या चाह रहा है ?”

राजू जैन ‘एक्सक्यूज़ मी’ कहकर उठ खड़ा हुआ। मैंने डेविड से कहा, “कल सवेरे अपना इस्तीफा पहुँचा दे, नहीं तो तेरे फोन की रिकाडिग पुलिस में पेश कर दूँगा।”

डेविड कुछ कहे बग़ैर चला गया। प्रितपाल गिलास पकड़े आ गया और पूछने लगा, “किधर गया ?”

“लगता है, भाग गया।”

“तूने बता दिया ?”

“हाँ, टेप की बात सुनकर ही भागा, नहीं तो वह अकड़ता।”

00


अगली सुबह मैं दफ्तर पहुँचा। कई दिन बाद गया था। जूडी दौड़ी-दौड़ी मेरे पास आई। वह बहुत खुश थी, बोली, “इंदर, डेविड आज समय से आकर अपना इस्तीफा दे गया है। नोटिस भी नहीं दिया। लगता है, कहीं दूसरी जगह जॉब मिल गयी होगी।”

“यह अच्छी खबर है।”

“इंदर, अब मुझे उसके वाली जॉब चाहिए।”

“कोई बात नहीं, हम देखेंगे।”

उसकी डेविड वाली जॉब पर पहले से ही आँख थी। मैंने सोच लिया था कि जूडी सिर्फ़ दो दिन काम ढूँढ़ने जाया करेगी, बाकी के तीन दिन दफ्तर में ही काम करेगी। जो नया काम लाएगी, उसका कमीशन दूँगा। मैं एक-दो परिचितों से फोन करके पूछता रहा कि वे मार्किटिंग कैसे करते थे। शायद, कोई अलग ही ढंग अपनाते हों। मैं अपने कारोबार के प्रति गम्भीर होना चाहता था।

जूडी इस जॉब के लिए कहती रहती, पर उससे मैंने कोई ‘हाँ-न’ नहीं की। वह पूरा दिन मुझे खुश करने की कोशिश करती रही। दोपहर के खाने पर भी बाहर लेकर गयी। शाम को चारेक बजे प्रितपाल आ गया। वह पीछे की ओर से सीधा मेरे कमरे में ही आया। उसको पता था कि डेविड के मामले को लेकर मैं काफी परेशान था। वह बोला, “इसी तरह काम पर रहा करे तो एक तो तेरी शराब कम हो जाये, दूसरा डेविड जैसे लोग नुकसान न करें।”

“यार, तू कितनी बार बता चुका है, मैं कितनी बार यह बात खुद को समझा चुका हूँ, पर अमल करना मुश्किल है। दो दिन ठीक रहकर फिर से वही...।”

“डेविड आया था आज ?”

“मेरे आने से पहले ही इस्तीफा दे गया और मोबाइल भी लौटा गया है। चलो, एक प्रॉब्लम साल्व हुई।”

“विनोद को वापस बुला लूँ डेविड की जगह ?”

“नहीं, जूडी है, कुछ दिन फील्ड में जाया करेगी। कांटिनेंटल वालों से बात की थी, वह नहीं जाने वाले अपने हाथ से।”

“फिर, तो राजू जैन का पाँच सौ फिजूल गया।”

“पता नहीं, पाँच सौ पौंड के कितने काम डेविड से करवाये होंगे।”

मैंने बोतल निकालकर पैग बनाये तो जूडी भी आ गयी। वह बोली, “अभी तो इस काम के लिए काफी टाइम पड़ा है।”

“हम तो मुँह का स्वाद बदल रहे हैं, पी नहीं रहे, आ जा तू भी।”

“नहीं, मैंने तो कार चलानी है।”

“कार ही है, ज़मीन पर ही रहनी है, कौन-सा हैलिकॉप्टर चलाना है।” कहते हुए मैंने पैग बनाया तो वह उठाते हुए बोली, “तेरे अंदाज में ?”

“हाँ, खींच ले।”

वह एक ही साँस में पी गयी। पल भर आँखें बन्द किये रही और फिर कहने लगी, “इंदर डार्लिंग, डेविड वाली जॉब।”

“हाँ, बात करेंगे, कुछ सोचेंगे-विचारेंगे।”

“तेरी मर्जी पर ही है।” कहती हुई कमर हिलाकर वह चली गयी। उसे जाते देखकर प्रितपाल बोला, “पीछा बड़ा भारी है।”

“बहुत खूबसूरत! रब ने कुछ सोचकर ही बनाया होगा।”

“बड़े तू कई तरफ टांगें फंसाये बैठा है, उस दो बच्चों की माँ को छोड़कर इसके साथ काम चलाये चल, तेरी बौदरेशन भी कम हो।”

“तेरी बात में तो दम है, पर इसके पास बॉय फ्रैंड है, यूरोप में कहीं बिल्डर है, आता रहता है।”

“तू भी कौन-सा खाली है कि तुझे यह फुल-टाइम चाहिए।”

“वह तो ठीक है, पर बीटर्स के पास दिल लग जाता है, जाऊँ तो लौटने को मन ही नहीं करता।”

“तभी तो कहता हूँ कि पीछे से किरन तड़फने लगती है, तू बीटर्स के पास जाकर डेरा लगाकर बैठा जाता है। अगर तुझ पर इतना ही भूत सवार है कि बाहर औरत रखनी है, तो इस जूडी को रख ले, तेरी तलब भी पूरी हो जाएगी और तेरी फैमिली लाइफ पर भी प्रैशर कम पड़ेगा।”

हम दो-तीन पैग पी चुके थे। कुछ नशा भी था। मैंने कहा, “छोटे, मैं भी चाहता हूँ कि सब कुछ त्याग दूँ, खुद को फैमिली लाइफ में एडजस्ट करूँ, मैं तो कभी-कभी सोचता हूँ कि जिस तरह हमारी ज़मीन थोड़ी थी, उस हिसाब से हमारे ब्याह नहीं होने वाले थे।”

“नहीं, अपने में से एक तो ब्याहा ही जाना था, हम दोनों गुजारा किये जाते।” “तू ब्याहा जाता तो खेती करता रहता, घर मैं सम्भाले रहता।”

“वो पूछती नहीं कि मेरा आदमी कौन है ?”

“कहाँ पूछना था, उसे पता ही होता कि पुरानी बूढ़ी औरतों को सारी उम्र अपने आदमी का नाम ही पता नहीं चलता।” कहकर वह हँसने लगा और मैं भी। वह फिर बोला, “हँसी के साथ हँसी, मैं किरन की बहुत वरी करता हूँ, तूने उसे कभी प्रॉपर लाइफ नहीं दी।”

“देख छोटे, तेरी तरह बीवी का चमचा तो मैं बन नहीं सकता।”

“चल, चमचा न बन, पर यह हथौड़ा भी न बन, बीटर्स का पीछा छोड़।”

“मैं तो छोड़ दूँ, पर वह बेचारी अकेली रह जाएगी।”

“बड़े मुझे तेरी सेहत की चिंता है, तू इस वक्त बहुत प्रैशर में है। घर का प्रैशर, काम का प्रैशर, बीटर्स का प्रैशर। तभी तो इतनी शराब पीने लग पड़ा है। बीटर्स को छोड़ दे, तेरा कुछ प्रैशर कम हो, नहीं तो कहीं कोई बीमारी ही लगवा बैठेगा, हार्ट-अटैक भी हो सकता है।”

“अच्छा ख़ैर-ख्वाह है तू।”

“मैं सच कहता हूँ। बीटर्स का प्रैशर ज्यादा है। मुझे पता है, वह पैसे भी चाहती होगी और तुझे भी...।”

“मैं सोचता हूँ कि अगर मैंने बीटर्स को छोड़ दिया तो वह बेचारी अकेली रह जाएगी, उसकी कौन लुक-आफ्टर करेगा।”

“उसे बहुत मिल जाएँगे।”

“पर इंदर सिंह नहीं मिलेगा।” मुझे शरारत-सी सूझी। मैंने कहा, “बात सुन यार, तू क्यों नहीं मेरी हैल्प करता।”

“क्या ?”

“तू बीटर्स के पास हो आया कर, मुझे तसल्ली रहेगी।”

“नहीं यार, वह तो मेरी भाभी जैसी हुई।”

“ले, यह क्या बात हुई! अपनी रीतें भूल गया।”

वह सोच में पड़ गया। मैंने फिर कहा, “तू इस तरह जाना कि उसे ऐसा महसूस हो कि इंदर सिंह खुद आया है।”

“अच्छा भई बड़े, अगर तू जोर डालता है तो एक बार मेरी इंट्रोडक्शन करवा दे।”

वह बहुत गम्भीर हो गया। उसे देखकर मेरी हँसी छूट गयी। मुझे हँसता देखकर वह भी हँसने लगा।

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जब मैंने आखिरी बार देखा था तो प्रतिभा चारेक बरस की थी। उसके बाद वह देखने में कैसी लगती होगी, मैंने कभी सोचने की कोशिश नहीं की। प्रतिभा की याद मेरे दिल की बहुत निचली तहों के नीचे पड़ी थी। मैंने कभी उसे छेड़ा ही नहीं। इस मामले में पत्थर बनना मेरे लिए अच्छा भी था और आसान भी। अब सोनू प्रतिभा की उम्र की हो गयी थी। बिलकुल उस जैसी लग रही थी। मैं उस जैसे बाल कटवा लाता और उसके जैसी ही फ्राक्स खरीदता। लेकिन, जब किरन तैयार करती तो मुझे वह कुछ बदली हुई लगती। उसमें से किरन झाँकने लगती, जैसे प्रतिभा में से कंवल दिखाई देती थी। सोनू को देखकर मुझे प्रतिभा की याद आने लगती, पर मैं अपने आप पर काबू रखता।

एक दिन किरन कहने लगी, “सभी कहते हैं कि सोनू बिलकुल प्रतिभा जैसी है, हम किसी दिन लेकर आयें उसे, मेरा दिल करता है उसे देखने को।”

“नहीं मैडम, छोड़ परे, पता नहीं क्या-क्या ज़हर कंवल ने उसके मन में भर रखा हो। ज़रा और बड़ी होने दे, फिर देखेंगे।”

जिस समय प्रतिभा मुझसे अलग हुई थी, मैं हर समय सोचा करता था कि मुझे तो उसे दिन-प्रतिदिन बड़ी होते हुए देखना है, पर अब सोनू को सामने पाकर यह भूख पूरी हो गयी थी। दफ्तर में मैंने सोनू की फोटो लगा रखी थी और साथ ही, प्रतिभा की भी। दफ्तर में कुछ तस्वीरें मैंने कंवल की भी रखी हुई थ। कभी-कभी देख लिया करता था। कभी अधिक पी लेता तो उससे बातें भी कर लेता। कुछ उलाहने भी देने लगता।

किरन के साथ झगड़ा करने का यह भी कारण होता कि मैं उसमें से कंवल तलाशने लगता। मैं उसकी छोटी-छोटी बातों से खीझ जाता। जानते हुए भी मैं खुद को रोक नहीं पाता। प्रितपाल भी आकर मेरे साथ लड़ता इस बारे में। मैं अवचेतन में बैठी बातों को बहुत मुश्किल से खारिज कर पाया था।

किरन का मन होता था कि मैं उसको कंवल के बारे में कुछ बताऊँ कि वह कैसी थी। उसने सुन रखा था कि कंवल बहुत सुन्दर थी। शायद, शैरन कंवल के बारे में बातें करती हो। हम कैसे अलग हुए थे, इस बारे में भी किरन को अधिक जानकारी नहीं थी। वह कहती, “तुम बहुत ज़ालिम हो, देखो, उसे एक मिनट में छोड़कर एक तरफ कर दिया।”

“नहीं मैडम, मैंने ऐसा नहीं किया। मैं तो टूटे हुए को जोड़ने वाला हूँ, अगर आज कंवल आकर कहे कि सॉरी रवि, मैं माफ कर दूँगा।”

“फिर क्या करोगे ?”

“फिर मुझे कुछ नहीं करना, तुझे ही करना होगा।”

वह डर जाती और चुप हो जाती। कुछ महीनों बाद भूलकर फिर से कंवल के बारे में पूछने लगती।

एक दिन किरन बोली, “मुझे इंडिया जाना है।”

‘चली जा, पर एकदम कैसे ख़याल आ गया।”

“सभी कहते हैं, सोनू अब बड़ी हो गयी है, अब बेबी लो।”

“बेबी लेने इंडिया जाना है ?”

“मेरा मतलब है, मैंने बाबों के सामने माथा भी टेकना है।”

मुझे मालूम था कि किरन के घरवाले किसी बाबा को मानते थे। वहाँ मन्नतें मांगते। उससे सलाह लेते। धागा-तावीज़ भी शायद करता होगा। जब इंडिया में थे, मैंने तभी किरन को ऐसी बातों से सख्त मना कर दिया था इसलिए वह मेरे सामने कभी वहम वाली बात नहीं करती थी। लेकिन, उसके मन में वह सब कुछ बैठा हुआ था। मैंने कहा, “बाबा को माथा टेकने से क्या हो जाएगा ?”

“लड़का।”

“बेवकूफ औरत! अगर ये बाबा लड़के देने लग पड़ें तो फिर लड़कियाँ पैदा ही न हों। यह तो बस चांस होता है सब।”

मैं उसको ‘बॉयलोजिकल सिस्टम’ समझाने लग पड़ा। वह खीझ कर बोली, “यह तो मैं भी जानती हूँ, पर बाबा के सिस्टम के बारे में तुम्हें नहीं पता। मैंने मन्नत मांगी हुई है, मुझे रोको नहीं।”

“मैडम, यह गलत है।”

“तुम दुनिया भर के गलत काम करते हो, कुछ छुपकर, कुछ सरेआम, अगर मैं एक काम गलत कर लूँगी तो क्या है।”

मैं उसके तर्क के आगे कुछ न कह सका। मैंने कहा, “कितनी मन्नतें मांग रखी हैं ?”

“तुम्हें क्यों बताऊँ ?”

“कभी पूरी भी हुई कोई मन्नत ?”

“होंगी ही, अगर सच्चे मन से मांगूंगी तो पूरी होंगी ही।”

“कहीं राख की पुड़िया लाकर मेरे सिर में न डाल देना।”

“तुम्हारे लिए तो पानी बनाकर लाऊँगी और तुम्हें तकले की तरह सीधा करुँगी।”

“चल बता, मुझे सीधा करने के लिए क्या-क्या कर रही है ?”

“एक तो तुम्हारी शराब छुड़वानी है, दूसरा, गोरी के पर काटने हैं।” कहकर वह हँसी।

मैंने कहा, “भागवान, उस बेचारी के पर तो कब से कट चुके हैं, शराब तो मैं खुद कब से छोड़ने की सोच रहा हूँ। बेचारे बाबा लोगों को तकलीफ़ देने की क्या ज़रूरत है।”

बाबों के प्रति उसकी श्रद्धा मैं किसी भी तरह से कम नहीं कर सकता था। मैं चाहता नहीं था, पर रोक-टोक हो ही जाती थी। मैंने किरन और सोनू के जाने की तैयारी कर दी। उनके जाने से पहले मास्टर मोहन सिंह और मौसी बख्शो मिलने आये। उन्होंने अपनी ख़ैर-खबर भेजनी थी। मोहन सिंह जब भी आता, हम पब जाते और बहुत-सी बातें करते। इस बार वह मेरे साथ कुछ अधिक ही सामाजिक हो रहा था। मेरे पर यूँ भरोसा कर रहा था, जैसे मैं उसे बहुत सालों से जानता होऊँ या उसका सगा भाई-भतीजा होऊँ। वह कहने लगा, “इंदर, हमने बेटियाँ ब्याहनी हैं, लड़का देखना कोई पढ़ा-लिखा हो, तमीज वाली फैमिली से हो, बाकी सब ठीक है, बच्चे अपने कहने में ही हैं।”

“लोकल अखबार में देकर देख लो।”

“अखबारी रिश्तों पर मेरा यकीन नहीं। अगर कोई रास्ता न मिला तो पंजाबी की अखबार में देखेंगे, पर पता नहींह क्यों इंदर, लड़कियाँ ब्याहने की जल्दी पड़ी हुई है।”

“ऐसी भी क्या जल्दी है अंकल जी ?”

“पता नहीं, कई दिनों से छाती में दर्द हुए जाता है, शराब साली छूटती नहीं।”

“वरी न करो अंकल जी, तुम ठीक हो, लड़के का मैं ध्यान रखूँगा, अगर कोई मिल गया तो...।”

“बड़ी टीचर है, उसका पहले कर दें, कुछ ज्यादा ही शरीफ है।”

मास्टर मोहन सिंह तो रात में लौट गया, पर मुझे नई जिम्मेदारी दे गया। मैंने सोचा कि अगर कोई लड़का मिले तो बिचौलिया बनने का तजुर्बा भी कर लूँ।

किरन जा रही थी तो सोचा था कि अब बीटर्स के पास रहूँगा। खूब लम्बी तानकर सोया करुँगा उसके घर। पर मैं जा न सका। शाम को घर की ओर ही भागता। बेशक घर बहुत सूना-सूना था, पर बहुत प्यारा लगता। किरन मुझे जगह-जगह पर खड़ी दिखाई देती। एक-एक वस्तु पर उसका स्पर्श महसूस होता। सोनू के रोने और हँसने का भ्रम पैदा होता। किरन मेरे लिए महीने भर के कपड़े प्रैस करके रख गयी थी। मैं वार्डरोब खोलता तो किरन के कपड़े दिखाई देते। उन्हें छूकर देखता तो एक सिहरन-सी दौड़ जाती। कंवल के कपड़े भी वार्डरोब में पड़े होते थे, पर कितने अलग थे। वे स्कर्ट-ट्राउजर आदि पहना करती, सलवार-सूट बहुत कम थे उसके पास। लेकिन, किरन की सब कमीजें-सलवारें ही थीं। घर लौटता तो एक बार किरन के कपड़े अवश्य महसूस करके देखता। मेरी शराब भी कम हो गयी। मैं घर भी जल्दी लौट आता मानो कोई प्रतीक्षा कर रहा हो।

इंडिया गयी किरन फोन करती रहती थी। मैंने एक दिन कहा, “मैडम, बाबों से टोना करवा लिया ?”

“बाबे, टोना नहीं करते… आशीर्वाद देते हैं।”

“ले लिया आशीर्वाद ?”

“कल जाना है, क्यों ?”

“कुछ नहीं, पर इधर असर होने लगा है। सोनम के बग़ैर दिल नहीं लगता, तेरे भी सपने आये जाते हैं, गोरी ज़हर लगती है।”

“अभी आगे-आगे देखना, मुझे तुम्हारा पूरा इंतजाम कर लेने दो ज़रा।”

किरन ने फोन रखा तो मेरी आँखें भर आयीं। मुझे अपने आप पर गुस्सा आने लगा कि मैं इतना कमजोर हो गया था किरन के लिए। इतना कमजोर तो मैं कभी कंवल के लिए भी नहीं हुआ था, जिससे दिल से प्यार करता था। मैं उठा और बीटर्स की ओर चल पड़ा। बीटर्स के घर भी अधिक देर न बैठ सका और वापस घर लौट आया।

बीटर्स को पता था कि मैं काम में व्यस्त था, इसलिए वह अब मेरी अधिक प्रतीक्षा न करती। तरसेम वहाँ होता तो हम कैथी के फ्लैट में जा बैठते। कई-कई घंटे बात करते। शराबी हुआ तरसेम गाने लगता। कैथी कोई गन्दा-सा लतीफा सुनाकर खड़ी होकर हँसती। कई बार महफिल में बैठे-बैठे मेरा मन उदास हो जाता।

मैं अधिक देर तक काम पर रहता। मेरे करने को बहुत काम नहीं होता था। दफ्तर का कागजी काम मैंने कभी देखा नहीं था। कम्प्यूटर की भी मुझे अधिक जानकारी नहीं थी। मैं जूडी से दफ्तर का काम समझता। उसने कम्प्यूटर की प्राथमिक बातें भी मुझे समझा दीं। कम्प्यूटर मेरे लिए एक नई चीज था इसलिए मेरा मन उसमें लग जाता। जूडी को डेविड वाली जॉब दे दी थी। वह दो नये आर्डर लाई थी। वह दो रातें मेरे घर में आकर बिता गयी थी। मेरा मन जूडी में भी नहीं रम रहा था।


किरन लौट आई। वह बहुत खुश थी। उसका रंग पहले से भी काला था। सोनम का चेहरा और बांहें मच्छरों ने खा रखी थीं। मैं सोच रहा था कि इन्हें यूँ ही गर्मी के मौसम में भेजा। किरन कितना कुछ उठा लाई थी। गुड़, शक्कर, घी, अचार वगैरह। कुलियों को दस पौंड देकर निकाल लायी थी दिल्ली से। यहाँ तो कोई पूछता ही नहीं था। मैंने उसके सामान का मुआयना करते हुए पूछा, “टोने कहाँ छिपा रखे हैं ?”

उसने मेरी ओर मुट्ठी बढा़कर ‘छू...’ किया और हँसने लगी।

किरने को आये दो दिन ही हुए थे कि मौसी बख्शो के घर से फोन आ गया। मास्टर मोहन सिंह चल बसा था। रात को सोया, सवेरे उठा ही नहीं। नींद में ही दिल का दौरा पड़ गया था। हम दौड़ कर पहुँचे। फिर, फ्यूनरल पर भी गये। फ्यूनरल पर तो प्रितपाल और शैरन भी हमारे साथ गये थे। मास्टर मोहन सिंह की मौत ने मुझे बहुत दु:ख पहुँचाया। मैं सोचने लगा कि आखिरी बार मिलने आया पता नहीं इतना अपनापन क्यों दिखा रहा था।

एक दिन, किरन कहने लगी, “मैं प्रेगनेंट हूँ, भूख बहुत लगती है।”

उसने केमिस्ट से किट लाकर चैक किया तो खुशी में उछल पड़ी, “पॉजेटिव!...देखना, लड़का होगा, बाबों ने गारंटी दी थी।”

‘यह तो सुना था कि दर्जी कपड़े की गारंटी देता है, मिस्त्री घर की, बढ़ई कुर्सी की, लुहार दंराती की, पर यह लड़के की गारंटी...।”

“तुम मानो न मानो, पर मुझे यकीन है। तुम भी मानोगे एक दिन।”

“आदमी सीधा करने का क्या तरीका बताया बाबों ने ?”

“कहते हैं, सेवा किये जा।”

“सेवा तो तू कोई करती नहीं।”

“तुम्हें टालरेट करना भी तो सेवा ही है।” कहकर वह व्यंग्य में देखने लगी। उसने फिर कहा, “देखो जी, हँसी की बात हँसी में, अब दो बातें मेरी ध्यान से सुनो, मैंने हमेशा ही तुम्हारी बात मानी है, अब मेरी सिर्फ़ दो बातें मान लो।”

“कौन-सी दो बातें ?”

“बेटे के जन्म तक घर में मीट नहीं बनाना, बाहर जो चाहे खाओ।”

“दूसरी बात ?”

“दूसरी बात कि शराब वाले बर्तन नहीं धोने।”

“तू पागल हो गयी है।”

“नौ महीने मुझे पागल ही रहने दो। और एक बात और, तीसरे महीने मुझे चैक करवाना है कि लड़का ही है या फिर....।”

“जब बाबों ने कन्फर्म कर दिया तो अब क्या चैक करवाना ?”

“तुम्हें यकीन दिलाने के लिए।”

“तू तो सच में गयी काम से।”

मेरी बात उसे सुनाई नहीं देती थी। वह इतनी खुश थी मानो उसकी ज़िन्दगी की हर तमन्ना पूरी हो गयी हो और दूसरी कोई तमन्ना बची न हो। आने वाला बेबी उसकी जिन्दगी की सबसे बड़ी प्राप्ति था। वह बैठते-उठते, रसोई में काम करते आने वाले बेबी के बारे में बातें करती रहती। बेटे का नाम सोचने के लिए कहती। एक कमरे में कृष्ण, गुरु नानक देव, शिव, गुरु गोबिंद सिंह की तस्वीरें लगा लीं। उस कमरे में मुझे जाने की मनाही थी। वह कुछ देर के लिए उस कमरे में जाकर कुछ करती रहती, शायद पाठ करती हो।

उसने एक बार फिर मुझे बच्चे का सेक्स कन्फर्म करवाने के लिए कहा। मैंने स्पष्ट जवाब दे दिया।

एक दिन, शाम को घर पहुँचा तो किरन और सोनू घर में नहीं थे। कहीं गये थे। सोनम अब नर्सरी में जाती थी। नर्सरी में अन्य स्त्रियाँ भी बच्चे छोड़ने आतीं और किरन उनके साथ दोस्ती गांठती रहती। शायद, वह लेट हो गयी हो।

कुछ देर बाद बाहर प्रितपाल की कार आकर खड़ी हुई। उसमें से शैरन, किरन, सोनू भी निकल। प्रितपाल तो था ही। उसके हाथ में कुछ था।

अन्दर आकर बोला, “बड़े, मिठाई लेकर आया हूँ, किरन लड़का एक्सपेक्ट करती है।”