रेत भाग 1 / हरज़ीत अटवाल

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

उस दिन बंटवारा होना था। मैं समय से पहुँच गयी, पर रवि का कहीं नामो-निशान नहीं था। अगर होता तो बाहर कार खड़ी होती, पता चल जाता। अपनी कार से उतर कर घर के दरवाजे तक पहुँचते-पहुँचते मुझे कितना ही समय लग गया। मेरे पैर उठ ही नहीं रहे थे। बाहर चमकदार धूप थी। गरमी भी पड़ रही थी। मैंने कोटी उतार ली। स्कर्ट के साथ मैंने स्लीव-लैस टॉप पहन रखा था। ऐसे मौसम में, रवि इसे पसन्द करता था। वह कहा करता- “कैजुअल मौसम, कैजुअल कपड़े!” घर के द्वार पर तख्ती लगी हुई थी- ‘यहाँ ढिल्लों रहते हैं।‘ मैंने तख्ती उतार कर दूर फेंक दी और मन ही मन बोली, “लगता कुछ ढिल्लों का!” मुझे याद था कि यह तख्ती रवि ने बड़े यत्नों से लगायी थी। घर का दरवाजा खोलकर अन्दर गयी तो हल्की-सी दुर्गन्ध मेरे नाक में आ घुसी। घर बन्द रहने के कारण ऐसी दुर्गन्ध आने ही लगती है। मैं फ्रन्ट-रूम में गयी, फिर डॉयनिंग रूम और किचन में। सब कुछ वैसे का वैसा था, जैसा मैं छोड़कर गयी थी। जैसे कभी कुछ इस्तेमाल किया ही न गया हो। कितने ही सप्ताह बल्कि महीने हो गये थे, मुझे इस घर से गये। मैं घर में घूमती हुई उस खिड़की के पास जा खड़ी हुई, जहाँ खड़े होना रवि को पसन्द था। इस खिड़की में खड़ा होना मुझे कभी अच्छा नहीं लगा था, पर यहाँ से दृश्य बहुत बढ़िया दिखायी देता था। ऊँचे स्थान से लन्दन बहुत विशाल लगा। तीखी धूप में इमारतें बहुत सुन्दर लग रही थीं। फिर, मैं बाहर गार्डन में आ गयी। गार्डन में एक बूढ़ी गोरी धूप सेंकने की तैयारी कर रही थी। पहले भी, जब धूप निकलती तो वह निर्वस्त्र होकर गार्डन में आ जाया करती थी। मैं रवि को छेड़ने के अंदाज में आवाज़ लगाती और दिखाती। वह नाक चढ़ाकर कहता, “कोई जवान चीज़ दिखायी दे तो बताया कर, यह तो टाइम खराब करने वाली बात है।"

धूप चुभने लगी थी। रवि की पसन्द की धूप थी यह। पहले-पहले तो रवि को यह धूप ना-काफी लगती। वह इंडिया की धूप से तुलना करते हुए इसे ऐसी-वैसी धूप ही समझता। पर, अब तक वह पूरा इंग्लैंडवाला बन चुका था, जैसा कि वह स्वयं भी कहा करता कि अब ऐसी धूप ही उसके मन को भाती है। हम सब की तरह वह धूप को तरसने लगा था। जिधर धूप का कोई टुकड़ा दिखायी देता, वह उधर ही दौड़ पड़ता।

मैं घड़ी देखते हुए फिर अन्दर आ गयी। रवि को मैंने फोन पर ताकीद की थी कि समय से पहुँच जाये। घर का सामान आधा-आधा बांटना था। मैं नहीं चाहती थी कि बाद में वह कहे कि मैंने ये लेना था, मैंने वो लेना था। बड़ी कठिनाई से तो उसके साथ बात हो पाई थी। उसका कोई अता-पता भी तो नहीं था कि सम्पर्क कर सकती। अब वह आ ही जाये तो ठीक था। कल, घर की चाबी एस्टेट एजेंट को दे देनी थी और यहाँ नये मालिक को आ जाना था।

घर का बिकना मेरे लिए बहुत दु:खदायी था, पर मेरे पास दूसरा विकल्प नहीं था। इस घर को उसने अपने हाथों से संवारा था। खुद, घर की चिमनियाँ निकालकर कमरों को खुला किया। रसोई बड़ी की और शॉवर-रूम बनवाया। आधा गार्डन पक्का कर के परी (बेटी) के साइकिल चलाने के लिए ट्रैक बनवाया। मुझे भी घर संवार कर रखने का शौक था। साफ-सफाई में तो मैं अपने डैडी की तरह ही थी। घर में मेहमान आते तो गंद पड़ता। मुझे बहुत बुरा लगता। कई मेहमान तो खीझ भी उठते, कहते- “कंवल, हमें जा तो लेने दे।"

मुझे घर के बिकने का दु:ख था तो रवि को भी कम नहीं था। उस दिन वकील के यहाँ खड़ा होकर मिन्नतें कर रहा था, “जान, प्लीज़ डोंट सेल द हाउस।" मैं चुप रही थी। मुझसे प्रत्युत्तर में कुछ बोला ही नहीं गया था। अब बोलती भी क्या? इतना सब कुछ हो गया। अब यह कहने का क्या लाभ था। पहले उसने बात सुनी नहीं। मैं तो सिर्फ़ खर्चा ही मांगती थी। वह भी उसकी बेटी के लिए।

मैं ख़यालों में से निकलकर घर के सामान के बारे में सोचने लगी कि कैसे बांटा जाए। रवि आएगा, ऐसी कोई आशा नहीं थी। अगर आएगा भी तो पता नहीं कब आएगा। मैंने कागज-कलम लिया और खाने बनाकर बांटे जाने वाले सामान की लिस्ट बनाने लगी। तीन बैडों में से दो उसे दे दिए। साथ में डॉयनिंग टेबल दे दिया और सैटी मैंने रख ली। टी.वी., वीडियो उसे देकर वीडियो-कैमरा मैंने रख लिया। फिश-टैंक भी मैंने रख लिया, क्योंकि मैं जानती थी कि उससे इसकी सफाई नहीं हो सकेगी। रवि अपने कपड़े तो पहले ही ले जा चुका था, मैंने अपने कपड़े पैक कर लिए और रजाइयाँ और कम्बल बाँट लिए। इसी प्रकार बर्तन ही नहीं, चम्मच तक आधे-आधे कर लिए। रवि के वर्जिश करने वाले डंबल देखकर मैं हँसने लगी। एक डंबल उसके हिस्से में रखकर कहा, “अब रवि, इसी डंबल से कसरत करना।" फिर, मेरा ध्यान फ्रन्ट-रूम की खिड़की में पड़े मनी-प्लांट पर गया। इसे संदेशां ने तोहफे के रूप में दिया था। इसके अधिकांश पत्ते सूख चुके थे। इसकी मिट्टी को अंगुली लगाकर देखा तो वह गीली थी। इसका मतलब कि रवि पानी तो देता रहा था, पर बेल थी कि हरी नहीं रही थी। संदेशां ने बेल देते समय कहा था, “जितना घर में खुशी होगी, उतना ही यह बेल हरी रहेगी, इसके पत्ते बढ़ेंगे, फूलेंगे।" संदेशां ने यह तो बता दिया था कि खुशी में यह बेल हरी रहेगी, पर यह नहीं बताया था कि गमी में इसका क्या होगा। गमी संदेशां ने देखी ही नहीं थी, बताती भी क्या। ज़िन्दगी के हर उतार-चढ़ाव में वह चहकती रहती। इंडियन पति तो उसने कब का छोड़ रखा था। अब जब दिल करता था, कोई आदमी तलाश लेती थी। दो-चार रातें रखकर चलता करती। वह समाज से बाहर जा खड़ी हुई थी। उसे कोई डर नहीं था। डर नहीं था तो गम भी नहीं था। फिर, उसका स्वभाव था कि वह कभी गंभीर नहीं होती थी। वह मुझे भी कहा करती, “कंवल, यूँ ही दिल पर नहीं लगाते, बी हैप्पी।"

मैं सामान का बँटवारा करके रवि की प्रतीक्षा करने लगी। पता नहीं वह आएगा या नहीं। मैंने सोच रखा था कि मैं अपने हिस्से का सामान, शमिंदरजीत के पति को कहकर मम्मी के घर ले जाऊँगी। वहाँ गैरेज में मैं पहले ही जगह बनाकर आयी थी। जब मैं पहले जैसी हालत में रवि से सामना होने की बात सोचती तो डर भी जाती। रवि हिंसक भी हो सकता था। पहले भी तो वह मुझे पीट चुका था। लेकिन, मैंने डर को उतार फेंका। सोचने लगी - हाथ तो लगाकर देखे अब, पुलिस को बुला कर अन्दर करवा दूँगी। मैं अब पहले वाली कंवल नहीं रही थी।

रवि भी पहले वाला रवि नहीं रहा था। बहुत बदल गया था। पता नहीं, उसे कौन भड़काता था। उसका भाई, बहन, माँ-बाप या कोई और। अगर उसकी माँ न आयी होती, तो भी शायद बात यहाँ तक न पहुँचती। मेरे डैडी ‘पार्किन्सन डिजीज’ के मरीज़ न बनते, तब भी शायद सब ठीक रहा होता। अब तो सब हो चुका था। हम अलग-अलग हो चुके थे। हमारा घर बिक चुका था। नये मालिक आ रहे थे।

दरवाजे में चाबी के लगने की आवाज़ हुई। मैं उठकर खड़ी हो गयी। रवि ही था। रवि ने मेरी ओर देखा और कुछ पल देखता ही रहा। मैंने ‘हैलो’ कहा, पर उसने जवाब नहीं दिया। पहले उसका चेहरा कुछ ढीला था, पर बाद में कसने लगा। मैं फ्रन्ट-रूम की ओर बढ़ी तो वह मेरे पीछे ही आ गया। मुझे थोड़ी तसल्ली थी कि वह गुस्से में नहीं था, लेकिन मैं डर रही थी। उसे क्रोध बहुत आता था। मैंने कहा, “रवि, मैंने सारा सामान डिवाइड कर दिया है, जो भी हिस्सा तुझे चाहिए, ले ले। या फिर, जैसे तुझे अच्छा लगे, कर ले।"

उसने पड़े हुए सामान की ओर देखा और वह अचानक बदल गया। उसकी आँखों में लाल डोरे उतर आये। उसने मेरी ओर क़हर भरी नज़रों से देखा और एक जोरदार किक बर्तनों में मारी। फिर, मुझे थप्पड़ मारने के लिए हाथ उठाया। मैं घबरा उठी। मैं नीचे बैठ गयी। उसने जोरदार घूंसा दीवार में मारा और मुझे गंदी गालियाँ बकता बाहर निकल गया।

रवि का गुस्सा मैं पिछले पाँच-छह साल से देखती आ रही थी। दो बार मेरे ऊपर हाथ भी उठा चुका था। मैं भी मुकाबला करने के लिए विवश हो जाती। पहलीबार जब उसने मुझ पर हाथ उठाया था तो बाद में बहुत पछताता रहा था। रातभर माफी मांगता रहा था। उस वक्त मैं सोच रही थी कि घर छोड़कर चली जाऊँ। डैडी के घर जाना मुझे अच्छा नहीं लगता था। वहाँ जाकर मैं उनकी मुसीबतें ही बढ़ाती। डैडी-मम्मी को मानसिक कष्ट झेलना पड़ता। रवि के पश्चाताप भरे व्यवहार ने मेरा गुस्सा कम कर दिया था। दूसरी बार रवि ने हाथ उठाया तो मुझसे सहन न हुआ। मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि मैं क्या करूँ, किधर जाऊँ। बहुत कुछ सोचने के बाद आखिरकार मैंने अपने आपको खत्म कर लेने का फ़ैसला कर लिया। मेरे हाथ पैरासीटामोल की गोलियाँ लग गयीं। मैंने सारी की सारी निगल लीं। रवि घर पर ही था। वह मेरी ओर एकटक देख रहा था। उसने एक बार भी मुझे नहीं रोका। उस दिन, उसकी माँ भी घर में ही थी। मुझे चक्कर आने लगे। मेरी बिगड़ती हालत देखकर उसने ऐम्बूलेंस बुला ली।

मैं तीन दिन अस्पताल में रही। सभी मुझे देखने आये। उसकी माँ भी आयी, पर रवि न आया। मैंने उसे अस्पताल से फोन करके अपनी सेहत के बारे में बताया, पर उसे मुझमें जैसे कोई दिलचस्पी ही न रही हो। इतना कुछ हो जाने के बाद भी वह गुस्से में था। मेरी मम्मी और अन्य लोग कहते थे कि मैं मौत के मुँह से लौटी थी, पर रवि पर इसका कोई असर नहीं था। वह मुझे मार-पीट कर भी अकड़ा बैठा था। मैं अस्पताल में पड़ी खीझती रही। मैंने फ़ैसला किया कि अगर रवि लेने आएगा, तभी घर जाऊँगी, नहीं तो मम्मी के घर चली जाऊँगी। वहाँ बैठकर सोचूँगी कि आगे क्या करना है। रवि का व्यवहार असहनीय था। दूसरे इंडियन पतियों की तरह मैं उसे नहीं करने दूँगी। दोबारा मुझे हाथ लगाने की उसकी हिम्मत नहीं पड़नी चाहिए। मुझे स्वयं पर भी गुस्सा आने लगता कि मैंने गोलियाँ क्यों खायीं? क्यों नहीं पुलिस को बुलाया और उसे घर से बाहर निकाला?

डॉक्टर ने मुझे अस्पताल से छुट्टी दे दी। मैंने रवि को फोन किया। वह नहीं आया। मैं मम्मी के घर चली गयी। परी पहले से ही मम्मी के पास थी। वह नीता और बिन्नी के संग रात में रह लेती थी। काम पर जाने के कारण रवि ने परी को माँ को ही सौंप दिया था। मेरे घर लौट आने के बाद डैडी के हाथ-पैरों में और अधिक कंपन होने लगा था। आवाज़ भी थुथलाने लगी। लेकिन वे जल्दी ही संभल गये। मुझे हौसला देने लगे। मम्मी मेरे से खुश नहीं थी। वह सदैव ही रवि का पक्ष लेती, पर उसने भी कहना आरंभ कर दिया, “लड़का तो बिलकुल ही मुँह मोड़ गया, आया ही नहीं।"

कभी-कभी मम्मी कहती, “कंवल, तू ही उसे फोन कर ले, ये मर्द ज़रा अकड़खोर होते हैं।"

“मेरी जाने जूती, मैं नहीं करती।"

“ऐसे कैसे चलेगा!... तू अपनी बुआ वाली अकड़ न कर।"

मम्मी और भी बहुत सारी नसीहतें देने लगती। मैं उसकी बात कभी ध्यान से नहीं सुनती थी। वह कई बार फोन उठाकर मेरे हाथ में थमाती कि मैं रवि को फोन करूँ, पर मैं नहीं करती। शनिवार को रवि का ही फोन आ गया। मैंने पूछा, “हमारा ख़याल है अभी?”

“ख़याल तो तुम्हारा मुझे सदा ही रहता है, मुझे काम पर जो जाना था, मैंने सोचा- मम्मी के घर रह कर पहले तू अच्छी तरह ठीक हो ले।"

मैं कुछ न बोली। उसने फिर पूछा, “अब ठीक हो तो आ जाऊँ लेने?”

“नहीं, मैं ठीक नहीं। तू न आना।"

“क्यों?”

“इतने दिन नहीं आया तो अब क्या करना है।" कहकर मैंने फोन रख दिया, पर मेरा मन करता था कि रवि आ जाये। अब मुझे उसकी याद आने लगी थी। मेरा मन घर जाने के लिए उतावला हो रहा था। बेशक यहाँ मैंने अपना पहले वाला कमरा सम्भाल लिया था, पर वह पराया-पराया लग रहा था। परी ने यह परायापन महसूस नहीं किया था। वह पहले भी मम्मी के पास रह लेती थी।

घंटे भर बाद ही रवि आ गया। सबसे सरसरी-सी ‘हैलो’ कर वह मेरे करीब आ खड़ा हुआ। परी को चूमता हुआ बोला, “जान, चल चलें।"

“कहाँ?”

“घर।"

“मैं नहीं जाती अब। मैं तेरे जैसे आदमी के साथ नहीं रह सकती। मारा क्यों?” मैं अड़ गयी। वह सबसे ऐसे पेश आ रहा था, जैसे कुछ हुआ ही नहीं था। मेरी `न´ सुनकर वह बोला, “चल, हिल पर होकर आते हैं।"

मुझे पता था कि वह अपने किये का पश्चाताप करना चाहता था। मैं उसके संग हिल पर जाने के लिए तैयार हो गयी। परी को मम्मी के पास ही छोड़ दिया।

‘होर्स शू हिल’ हमारे घर के नज़दीक ही थी। टोटनहैम की यह मशहूर जगह थी। जहाँ प्रेमी-युगल अक्सर ही बैठे रहते। ठंड अधिक होती तो लोग कारों में ही कई-कई घंटे गुजार देते। यहाँ से आसपास का खूबसूरत नज़ारा दिखायी देता था। पर नज़ारे की ओर किसी का ध्यान कम ही होता। भरपूर सर्दी के दिन होने के कारण हम भी कार में ही बैठे रहे। रवि ने कार एक ओर एकान्त में पॉर्क कर ली थी। वह मुझे एकाएक बेतहाशा चूमने लगा, मानो कई दिनों की कमी पूरी कर रहा हो। मैंने उसे दूर हटाते हुए पूछा, “तुझे इतने दिन हमारी याद नहीं आयी?”

“आयी क्यों नहीं, हर वक्त तुम्हें ही तो याद करता हूँ।"

“फिर आया क्यों नहीं?”

“अब आ तो गया।"

“अस्पताल में क्यों नहीं आया?”

“ये जो तूने आत्महत्या की कोशिश की थी, मैं इस बात पर गुस्से था।"

“मैंने यह कोशिश भला क्यों की थी?... क्या रीज़न था?”

“कोई भी रीज़न था, चल, अब घर चलें।"

“डोंट यू फील ऐनीथिंग?”

“जान, चल, घर चलकर बात करेंगे।"

“नो, टैल मी नाउ, हाउ यू फील?”

“आई फील नथिंग।"

“नो अपॉलाजी?”

“नो ! मैंने गलती की कि तुझे मारा, तूने गोलियाँ खाकर गलती बराबर कर दी।"

“रवि, यू आर रोंग, यू आर वैरी रोंग।"

मुझे क्रोध आ गया। मेरा पूरा शरीर कांपने लगा। मैं उससे दूर हटते हुए बोली, “रवि, मुझे घर पर उतार दे, एकदम अभी। नहीं तो मैं पैदल चली जाऊँगी।"

उसने कार स्टार्ट की और मुझे डैडी के घर ले आया। मैं कार से उतरने लगी तो उसने मेरी बांह पकड़ ली और बोला, “जान, चल घर चल, प्लीज़... जैसा तू कहेगी, करुँगा। प्लीज़...।"

मैं कुछ न बोली और मैंने अपनी बांह छुड़ा ली। मेरे कार से उतरते ही उसने कार यूँ दौड़ाई कि कार की चीखें निकल गयीं। मैंने मन में कहा, “देखो तो, गुस्सा कैसे आता है!”

रवि चला गया। मैं उसकी कार को दूर तक देखती रही। मैं हैरान थी कि उसे कोई पछतावा नहीं हुआ था।

मैं घर के अन्दर घुसी तो मम्मी पहले ही दरवाजे में खड़ी थी। शायद, वह खिड़की से, पर्दे के पीछे खड़ी होकर बाहर देख रही थी। वह बोली, “लड़का चला गया?” मैं खामोश रहकर आगे बढ़ गयी। उसने फिर कहा, “तुझे अपनी लैफ (लाइफ) की बिलकुल भी फिक्र नहीं?”

“फिक्र है मम्मी, फिक्र है, पर उसका गुस्सा तो देख।"

“गुस्सा तो तेरा भी देखे जा रही हूँ...।"

मम्मी मुझे लेकर बहुत गुस्से में थी। वह रवि को कभी गलत कहती ही नहीं थी। पुराने फैशन की पूरी इंडियन पत्नी जो थी। वह बताने लगती, “तेरा डैडी भी बहुत बुरा हुआ करता था। अगर तेरे जैसी होती तो एक दिन न काटती। औरत का फ़र्ज़ है कि ठंडी रहे।" डैडी पिछले कमरे में बैठे टेलीविज़न देख रहे थे। उनका हाथ एक मिनट के लिए हिलना बन्द हुआ। उन्होंने मुँह उठाकर मेरी ओर देखा और फिर टेली देखने लगे। उनके हाथ-पैर के हिलने की रफ्तार भी बढ़ी हुई थी। मैं समझ गयी थी कि वे गुस्से में थे। मैं परी को उठाकर लोरियाँ देने लगी। नीता ने मुझसे कोई बात करनी चाही, पर मैं परी को लेकर ऊपर अपने कमरे में चली गयी।


अब मुझे इधर आये कई सप्ताह हो चुके थे, पर रवि का गुस्सा कम नहीं हुआ था। कभी-कभी रवि की याद मुझे बहुत तंग करती। मैं सो न पाती, पर स्वयं को समझाती कि उसे तो हमारी परवाह ही नहीं। मेरी नहीं तो अपनी बेटी परी की फिक्र करता। वह न जाने क्या सोचे बैठा था, मैं यूँ ही मरी जा रही थी।

मुझे डैडी के घर में कोई तकलीफ़ न्हीं थी। बस, यही कि रवि नहीं था। रात में मैं और परी अकेले सोती थीं। कई बार परी मम्मी के संग पड़ जाती तो मैं बहुत अकेली हो जाती। यहाँ मुझे यह तसल्ली थी कि डैडी को समय से दवा खिला देती थी। उनके और भी छोटे-बड़े काम बगै़र किसी फिक्र के कर देती थी।

लेकिन, एक मसला जो मेरे सामने आ खड़ा हुआ था, वह था- आर्थिक मसला। यानी जेब खर्च का मसला। डैडी तो ‘सिक-बेनेफिट’ पर गुजारा कर ही रहे थे। बाकी सारा परिवार भी सरकारी खर्चे के सिर पर ही पल रहा था। वे हमारा- मेरा और मेरी बेटी का- बोझ उठाने में असमर्थ थे। मुझे हालाँकि हिसाब से खर्च करना आता था, पर कभी तंगी नहीं देखी थी। रवि की तनख्वाह अच्छी थी। वह सारे पैसे लाकर मेरे हाथ में रख देता था। लेकिन यहाँ आकर मैं रुपये-पैसे को लेकर तंग हो गयी। छोटे-छोटे खर्चे करने भी कठिन थे।

मैं प्रतीक्षा करती रही कि रवि वापस आएगा या फिर फोन ही करेगा। पर ऐसा कुछ न हुआ। एक दिन, मैंने ही फोन किया। रवि घर में ही था। मैंने खर्चा मांगा तो कहने लगा, “क्यों मूर्खता कर रही है, घर लौट आ।"

“मैं नहीं आऊँगी, तू मुझे खर्चा दे और लगातार दे।"

“जिस बाप की सेवा करने में तू बिजी है, वो अब तेरा खर्चा भी नहीं उठा सकता?”

“मैं तेरे संग ब्याही हूँ, तेरी बेटी की माँ हूँ, अब खर्चा भी तू ही दे।"

“मेरे संग ब्याही है तो मेरे पास आकर रह।"

“तूने रखने वाले काम जो किये हैं!”

“जान, तू पैरों को हाथ लगवा ले, वापस आ जा।"

“नहीं, मैं नहीं आती।"

“असल में तेरा कसूर नहीं, तेरे बाप कंजर का...।"

वह डैडी को और फिर मुझे गंदी गालियाँ बकने लग पड़ा। मैंने फोन रख दिया और सोचने लगी कि रवि सुधरने से रहा। इसे अभी तक अकेला रहकर भी सबक नहीं मिला था। घंटे भर के बाद रवि का फोन आ गया। वह शराबी-सा लग रहा था। उसने कहा, “जान, आई लव यू, आई कांट लिव विदाउट यू बोथ।" “दैन गिव अस मनी।"

“तुझे मनी से आगे कुछ दिखाई नहीं देता। तेरा घर, तेरा फ्यूचर...?”

“मेरा प्रजेंट तूने खराब कर रखा है, फ्यूचर का क्या करूँ ?... परी के कपड़े खरीदने हैं, पैसे दे।"

“तुम वापस घर आ जाओ।"

“नहीं।"

“क्यों?”

“क्योंकि यू आर सेम ऐंगरी ईडीयट! ब्लडी इंडियन हसबैंड!”

मुझे गुस्सा आने लगा। मेरी बात को जैसे उसने ध्यान से सुना हो। वह बड़े धैर्य से बोला, “जान, सारी बात तू ठंडे दिमाग से सोच...नथिंग सीरियस बिटविन अस।"

“यह सीरियस नहीं कि जब तेरा दिल करता है, तू मुझे पीट देता है, फिर अस्पताल तक नहीं आता। अब खर्चा नहीं दे रहा। वट् यू थिंक युअर सैल्फ ? हू यू आर ?”

“जान, प्लीज़ कम बैक... इट´ज नॉट युअर फॉल्ट ऐट ऑल। आई नो दैट।"

“वट् यू मीन ?”

“जब बंदा हैंडीकैप हो जाता है, तो उसका माइंड भी हैंडीकैप हो जाता है, और वह दूसरों को भी... तेरे बाप ने तुझे भी मैंटली हैंडीकैप कर दिया है, यू कांट थिंक परोपरली।"

मुझे उसकी इस बात से बहुत तकलीफ़ हुई। मैंने भी गाली निकाली और फोन पटक दिया और मन ही मन बोली- ‘मिस्टर ढिल्लन, यू आर फिनिश्ड नाउ।'



पैसों की तंगी के कारण मैं बहुत परेशान हो गयी। मम्मी से बात करने का कोई लाभ नहीं था। मैंने डैडी से ही बात की, “डैडी, रवि तो हमें कोई खर्चा दे नहीं रहा, सोशल-सिक्युरिटी से ही क्लेम कर के देखूँ?”

“बेटे, वो भी इतनी जल्दी नहीं देने वाले। कहेंगे कि हसबैंड से क्लेम करो, वे कहेंगे कि कोर्ट में जाओ।"

हमारी बातों में मम्मी भी आ बैठी थी। वह भड़क कर बोली, “कुछ शर्म करो। बसते घर को क्यों बरबाद करने पर तुले हो?... तुमने तो बिलकुल ही उतार कर रख दी है।"

“मम्मी, तुम तो यों ही बोलती रहती हो... देख तो, हम खर्चे से कितने तंग हैं।"

“तू बता, क्या चाहिए?”

“यह बात नहीं, जिस पर हमारा राइट है, वह दे।"

“कंवल, तू ज्यादा ही आगे बढ़ रही है। तेरे बाप की भी मति मारी गयी है। तू बेटी, अपने घर जा। तेरे डैडी को हम सम्भाल लेंगे, मैं हूँ, नीता है, बिन्नी भी अब बराबर का हुआ समझ।"

मम्मी यह समझ रही थी कि मैं डैडी की बीमारी के कारण ही वापस नहीं जा रही। रवि की गलती को वह गलती नहीं कहती थी। मैं सोचती कि मैंने रवि से बहुत रियायत की। उस दिन जब उसने मुझे मारा-पीटा था, तो मुझे तभी पुलिस बुला लेनी चाहिए थी।

मुझे लेकर मम्मी-डैडी में बहस होने लगती। डैडी क्रोध में आकर ज्यादा कांपने लगते। मैं मम्मी को शान्त कराती। जब डैडी की सेहत ठीक हुआ करती थी तो मम्मी इतना नहीं बहसती थी। डैडी की ‘हाँ’ में ‘हाँ’ मिलाती रहती। उस वक्त, मैं यहाँ तक सोचने लगती कि इंडियन औरतों का दिमाग ही काम नहीं करता। पर, अब मम्मी बगै़र बात ही बहस किए जाती।

डैडी के कहने पर मैंने सूजी बैरिमन से मिलने का समय नियत कर लिया। सूजी बैरिमन हमारी वकील थी। जब से डैडी इंग्लैंड आये थे, अपने सभी काम इसी वकील की मार्फ़त करवाया करते थे। वह ‘वुमेन-लिबरेशन’ की स्पीकर भी थी। स्त्रियों के केस को वह बढ़कर हाथ में लिया करती। वैसे तो रवि भी हर समय स्त्रियों के लिए बराबरी के हक की बात किया करता था, पर अपनी बारी पर पीछे हट जाता। सूजी बैरिमन के दफ़्तर जाने से पहले मैंने रवि को कई बार फोन किया, पर वह घर पर नहीं मिला। ‘आंसरिंग मशीन’ में कितने ही संदेशे छोड़े। परी के तुतलाते शब्द भी मशीन में भरे, पर रवि ने हमें फोन नहीं किया और न ही पैसे भेजे। मैंने बैरिमन से परामर्श करके खर्चे का दावा ठोक दिया।

हमारा केस होलबोर्न कोर्ट में लग गया। मुझे नोटिस आ गया था। रवि को भी सम्मन मिल गये होंगे। कचहरियों-सम्मनों के बारे में सोचकर पहले-पहले तो मेरे अन्दर बेचैनी-सी होने लगती थी, पर शीघ्र ही सब ठीक हो गया। अब मैं रवि के फोन के इंतजार में थी। मैं जानती थी कि सम्मन मिलते ही वह तिलमिला उठेगा। लेकिन, मैं भी क्या करती, वह सीधी तरह से मान ही नहीं रहा था तो मुझे यह रास्ता अपनाना ही था। मुझे आशा थी कि वह फोन करेगा और पहले की भांति गालियाँ बकेगा। डैडी को भी बुरा-भला कहेगा। मैं उसके बुरे फोन का उत्तर देने के लिए तैयार रहती।

पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। एक शाम रवि खुद ही आ गया। नीता ने दरवाजा खोला। वह खुशी में मम्मी को पुकारने लग पड़ी – ‘भाजी आया, भाजी आया।' मैं भी खुशी-खुशी अपने कमरे में से दौड़ी आयी। मम्मी तो जैसे झूम ही उठी। उसे फ्रन्ट-रूम में बिठाया। डैडी भी उठकर वहीं आ गये। सभी ऐसा व्यवहार करने लगे मानो कुछ हुआ ही न हो। रवि ने परी को उठाने की कोशिश की, पर परी उसके नज़दीक ही नहीं जा रही थी। मानो परी उसे भूल गयी हो। मैं सोच रही थी कि रवि क्या कहने आया होगा। शायद, खर्चा देने की बात मान जाये और कोर्ट में से केस वापस ले लेने के लिए कहे। परी उसके करीब नहीं जा रही थी, पर उसने उसे जबरन उठाकर गोदी में बिठा लिया और मुझसे बोला, “चल जान, घर चल, मैं लेने आया हूँ।"

मम्मी ने प्रसन्न होकर मेरी ओर देखा और मैंने डैडी की ओर। डैडी अपने हिलते हुए हाथ को नियंत्रण में रखते हुए बोले, “इतने दिनों बाद आया है... सम्मन मिल गये होंगे?”

“डैडी, तुम नहीं चाहते, तुम्हारी बेटी अपने घर में बसे?”

“क्यों नहीं चाहता। कौन बाप नहीं चाहेगा?”

“फिर एतराज़ क्यों करते हो?”

डैडी से पहले मैं कहने लगी, “रवि, इट´स नॉट वे टू टेक मी होम।"

“वट्´स द वे?”

“पहले खर्चा देना स्टार्ट कर।"

“तू घर चल, सब कुछ तेरा ही है। तेरा घर है, तू अपनी मर्जी से खर्च कर।"

हम सब पल भर के लिए चुप हो गये। मम्मी उठकर रसोई में चाय बनाने चली गयी। रवि परी के संग बातें करने लगा, पर उसने रोना शुरू कर दिया। परी उसकी गोद में से उतर कर मेरे पास आ गयी। मैं बोली, “इतने दिन हो गये हैं... तू कहाँ याद रखता है... अगर तुझे ज़रा भी फिक्र हो तो ऐसा न करे।"

“कैसा न करूँ?”

“हमें खर्चा देने लगे।"

“पर तू कोर्ट में क्यों गयी?”

“और क्या करती, तुझे कितनी बार कहा था, पर तू...।"

“लुक जान, ड्रॉप युअर केस।"

“स्टार्ट गिविंग अस मनी।"

“आई विल, ड्रॉप युअर केस फर्स्ट।"

“नो वे!”

डैडी बोले, “रवि, गुस्से में न आ, कुछ अक्ल से काम ले...।"

“अक्ल से काम तुम लो, मेरी वाइफ को मेरे साथ जाने नहीं देते।"

“हम कब रोकते हैं, तेरे चाल-चलन ही ठीक नहीं। देख, अब तू इन्हें खर्चा ही नहीं दे रहा।"

“इन्हें तुमने अपने घर में रखा हुआ है अपनी सेवा के लिए, अब इनका खर्च भी नहीं उठा सकते?”

रवि क्रोध में बोलता हुआ उठ खड़ा हुआ। मैं भी उठकर खड़ी हो गयी। रवि डैडी की तरफ हाथ उठा-उठाकर तानें-उलाहनें देने लगा। मुझे लगा कि रवि कहीं हिंसक ही न हो जाये। मैंने कहा, “रवि, चुपचाप यहाँ से चला जा, नहीं तो पुलिस बुला लूँगी।"

वह गालियाँ बकता हुआ चला गया। मैं सिर थाम कर बैठ गयी कि उफ्फ! इतना गुस्सा! डैडी भी हैरान हो रहे थे। नीता और बिन्नी भयभीत-से खड़े थे। मम्मी रसोई में बर्तन इधर-उधर फेंकती बड़बड़ाये जा रही थी, “पागलों का टब्बर! मूरख ही मूरख!”


केस की 24 तारीख थी। मैं भयभीत थी कि पता नहीं क्या होगा। रवि का उस दिन गुस्से में आ जाना और मेरी ओर से पुलिस को बुला लेने की धमकी देना, दोनों बातें ही मुझे बहुत बुरी लग रही थीं। कभी-कभी मैं सोचती कि यह अच्छा ही हुआ। इससे रवि को भी पता चल गया होगा। मैं जानती थी कि रवि अब फोन नहीं करेगा, फिर भी मुझे प्रतीक्षा रहती।

कभी अकेली बैठी होती तो सोचने लग पड़ती कि अब क्या होगा। मुझे विश्वास था कि थोड़ा घूम-फिर कर रवि सुधर जाएगा। कभी चिंता होने लगती कि बात बिगड़ ही न जाये। मैंने कई बार रवि को फोन किया। वह उठाता ही नहीं था। मेरा मन होता, मैं रोज़बरी गार्डन का चक्कर लगाकर आऊँ, देखूँ कि रवि घर पर ही है कि नहीं। जब जाने के लिए तैयार होती तो सोचती- डैडी क्या कहेंगे। ऐसा करने पर रवि के अंहकार को ही बल मिलता। मैं मम्मी को शॉपिंग के लिए लेकर जाती तो कई बार अपने आप आर्च-वे की तरफ़ हो जाती। डैडी को क्लीनिक लेकर जाना होता तो उधर से ही घूमकर जाती। मैंने रवि की कार भी कहीं नहीं देखी थी जबकि उसे घूमते रहने का शौक था। कई बार रवि को देखने के लिए मन उतावला हो उठता। मैं हर रोज़ उसका सपना देखती। उस पर क्रोध भी आता कि वह हमें बिलकुल ही आँखों से ओझल किए बैठा था।

24 तारीख को मैं समय से कोर्ट पहुँच गयी। डैडी मेरे साथ थे। वे धीरे-धीरे चल पा रहे थे मानो उनकी सेहत इजाज़त न दे रही हो। वह छड़ी के सहारे चलते थे। बीच-बीच में मैं भी सहारा देती। कई बार वे छड़ी से अधिक मेरा सहारा लेकर चलने लगते। उनका ऐसा करना मुझे अच्छा लगता।

इमारत की तीसरी मंजि़ल पर कचहरी या दफ़्तर था, जहाँ हमारा केस सुना जाना था। मेरी नज़रें रवि को तलाश रही थीं, पर वह कहीं भी नहीं था। डैडी बार-बार सूजी बैरिमन को ढूँढ़ने के लिए कहते। वह शायद लेट हो गयी थी या फिर किसी दूसरी अदालत में हाज़िरी लगवा रही होगी। फिर, वकील तो पहुँच गयी, पर रवि अभी भी नहीं आया था। मेरा मन कुछ और ही सोचने लगा कि ख़ैरिअत हो, जज्बाती किस्म का आदमी है, कुछ कर ही न बैठा हो। एक बार तो मेरा मन किया कि केस वापस ही ले लूँ। खर्चे की देखी जाएगी। कुछ-न-कुछ तो सोशल-सिक्युरिटी देगी ही। कुछ पार्ट-टाइम काम कर लूँगी।

सूजी बैरिमन कोर्ट-क्लर्क से कुछ बात करके आयी और मुझे अन्दर चलने के लिए कहने लगी। मेरे पैर नहीं उठ रहे थे। उसने मेरे कंधे को पकड़ कर कहा, “कंवल, लैट्स गो इन साइड।"

“बट ही इज नॉट हिअर यट।"

“ही इज ऑल रेडी दिअर।"

उसकी बात सुनकर मुझे शर्म-सी महसूस हुई। रवि पहले ही अपने वकील के साथ अन्दर आया बैठा था। उसने चेहरा मेज पर झुका रखा था, मानो कुछ पढ़ रहा हो। कभी-कभी वह अपने वकील से बात कर लेता। मेरी ओर उसने एक बार भी नहीं देखा। उसका चेहरा बुत की तरह सख़्त था। मैं मेज के दूसरी ओर बैठी थी, बिलकुल उसके सामने। मैं कई बार हिली-डुली, खटर-पटर भी की, पर उसने एक बार भी मेरी ओर नहीं देखा।

मेरी वकील ने मेरे और परी के खर्चे का केस जज के सामने रखा। जज सारी बात को ध्यान से सुन रहा था। रवि के वकील ने बताया कि रवि के पास कोई नौकरी नहीं थी। परेशानी के कारण वह काम पर नहीं जा सका था। गै़र-हाज़िरी के कारण उसे काम से निकाल दिया गया था। इस वक्त वह स्वयं सोशल-सिक्युरिटी पर निर्भर था, हमारा खर्च कैसे उठाता! सूजी बैरिमन ने खूब हल्ला मचाया कि रवि ने खर्चे से बचने के लिए काम छोड़ा था। जज ने उसकी एक न सुनी और खर्चे की बात बीच में ही लटका दी। सूजी बैरिमन केस न जीत सकने के कारण अफ़सोस जता रही थी, पर मुझे अफ़सोस इस बात का था कि रवि ने मेरी ओर देखा तक नहीं था। हम सब वहाँ से उठ खड़े हुए। रवि और उसका वकील पहले निकले। वह डैडी की ओर बहुत क़हर भरी नज़रों से देख रहा था। उसकी ऐसी दृष्टि मैंने पहले बहुत कम ही देखी थी। उसने एक बार मेरी ओर देखा और यों मुँह बनाया मानो थूकने जा रहा हो। मैं भी मन ही मन बोली, “मेरी जाने जूती!”

हम अपनी वकील के साथ बातें कर रहे थे कि रवि कहीं छुपन-छू हो गया। मुझे लगा कि वह कोर्ट के बाहर खड़ा होकर मेरा इंतजार कर रहा होगा। हम लिफ्ट से नीचे उतरे तो सच में ही रवि वहाँ खड़ा था। हमारी ओर लगातार देखे जा रहा था। मैं डैडी को सहारा देते हुए स्टेशन की ओर बढ़ी तो वह हमारे पीछे-पीछे चलने लगा। बराबर आकर बोला, “ये ड्रामा बन्द करना है कि नहीं ?... घर चलेगी कि...।" कहते हुए वह मेरी ओर इस तरह बढ़ा जैसे मुझे बांह से पकड़ कर घसीटते हुए ले जाएगा। मैं डर कर डैडी के पीछे हो गयी। डैडी छड़ी उठाते हुए बोले, “तेरी जान निकाल दूँगा अगर लड़की को हाथ लगाया।"

रवि डैडी को गंदी गाली देते हुए कहने लगा, “यह सब तेरे ही बखेड़े हैं बुड्ढ़े! तू ही हमारी लाइफ से खेल रहा है।" इसके बाद उसने डैडी को ज़ोरदार धक्का दिया। डैडी संभल न सके और गिर पड़े। रवि तेजी से आगे निकल गया और मैं डैडी को सम्भालने लगी। दो-एक राही मेरी मदद के लिए आ गये। हमने डैडी को दुबारा खड़ा किया। वह ठीक थे। कोई चोट नहीं लगी थी। वह बार-बार यही कह रहे थे, ‘ऐसे दामाद से तो लड़की कुआंरी ही भली थी।' मुझे भी बहुत गुस्सा आ रहा था कि आज तो रवि सारी हदें ही पार कर गया।


कोर्ट वाली घटना से मैं बहुत क्षुब्ध थी। गुस्सा इतना था कि मैं रात में सो न सकी। घर में भी किसी से बात करने को मन नहीं करता था। परी के नयन-नक्श रवि जैसे थे। जब वह रोती तो मुझे अच्छा लगता, पर शीघ्र ही उसे उठाकर छाती से लगा लेती। डैडी भी अब रवि से बहुत दु:खी थे। उससे इतनी नफ़रत करते कि उसका घर में ज़िक्र तक न होने देते। रवि के संग अभी भी किसी को हमदर्दी थी तो वह थी- मम्मी।

एक शाम मैं डैडी को लेकर डॉक्टर के पास गयी हुई थी। वापस लौटी तो मम्मी खुश होकर बताने लगी, “लड़के का फोन आया था, तेरे और परी के बारे में पूछ रहा था।"

मैं चुप रही और मैंने मुँह दूसरी ओर घुमा लिया। मम्मी मेरे करीब आते हुए बोली, “री कंवल, लड़का खूब रोता था, उसकी तो बहुत ही बुरी हालत है। कहता था- परी बग़ैर दिल नहीं लगता, कंवल बिना घर सूना है, और सॉरी भी कह रहा था।" “रहने दे तू।"

“बेटी, क्या रहने दूँ?… तुझे घर बैठे देखकर मेरा अन्दर हिलता है।"

“मम्मी, तुझे नहीं पता, वह आदमी ठीक नहीं।"

“एक तू ठीक है और दूसरा तेरा बापू, बाकी सारी दुनिया...।"

“हमारे साथ तो इसने जो की, सो की, पर डैडी को धक्का क्यों मारा?”

“तेरे डैडी की भी गज-भर की जुबान है, बोलते वक्त आगा-पीछा नहीं देखता, आजकल के जवान लड़के कहाँ सहते हैं कुछ।"

मैं उसकी बात की ओर ध्यान न देते हुए ऊपर अपने कमरे में आ गयी। मम्मी भी पीछे-पीछे आते हुए बोली, “तू गुलाबो की राह पर चल पड़ी है।" कहकर वह हिलकने लगी। फिर बोली, “इस टब्बर को तो श्राप ही है...पर श्राप तो इंडिया रह गया। तू मेरी बेटी, सियानी बन।"

मैं कुछ न बोली। मम्मी बड़बड़ाती हुई चली गयी।

रात में मैं फिर न सो सकी। रवि के विषय में ही सोचती रही। मुझे यकीन था कि वह भी जाग रहा होगा। मैं जानती थी कि वह मुझे और परी, दोनों को प्यार करता था, पर अपने स्वभाव को नहीं बदल सकता था। उसकी अकड़ ने हमें टांग रखा था। उस रात मुझे रवि का सपना आया। वह और मैं किसी लम्बे सफ़र पर निकले हुए थे जैसा कि खाली समय में हम अक्सर किया करते थे। रवि को कार चलाने का बहुत शौक था। जब भी समय मिलता, हम गांवों की ओर चले जाते। टेढ़े-मेढ़े रास्तों पर कार चलाना मुझे पसन्द नहीं था, पर रवि का यह शौक था।

मेरी अनुपस्थिति में एक बार फिर रवि का फोन आया। शाम के समय मैंने घर से बाहर निकलना बन्द कर दिया और रवि के फोन की प्रतीक्षा में रहने लगी। फोन की घंटी बजती तो दौड़ कर उठाती, यह सोच कर कि उसी का होगा। कई दिन इंतज़ार करने के बाद मैंने ही फोन घुमा दिया। वह घर पर ही था। मैंने रूखे-से स्वर में पूछा, “क्या बात, फोन किया था ?”

“हाँ, किया था कि तेरा खून पीना है।"

“तूने मेरा खून पी तो रखा है, और कैसे पीना चाहता है!”

“एक हसबैंड अपनी वाइफ को क्यों फोन करता है, तू इतना भी नहीं जानती?”

“जानती हूँ, मैं सब जानती हूँ।"

“अगर जानती होती तो यह सवाल न करती। ख़ैर, आ जा, जान प्लीज आ जा। मैं तेरे या जिसके भी कहे, पैर छूने को तैयार हूँ।"

“तूने डैडी को धक्का क्यों मारा था?”

“तू एक बात को लेकर उसके पीछे ही पड़ी रहती है, ज़रा सोच कि सिच्युएशन यहाँ तक कैसे पहुँची... चल, छोड़ जो हो गया, सो हो गया...तू आ जा प्लीज।"

“तू मेरे आने का रास्ता भी बनाये।"

“कैसे बनाऊँ… कहा तो है कि जिसके कहे, उसके पैर छू लेता हूँ…तेरे बाप कंजर को भी सॉरी कह देता हूँ…”

“तूने डैडी को फिर गाली दी, गैट लोस्ट रवि!” कहकर मैंने फोन रख दिया और अपने आपको कोसने लगी कि क्यों उसे फोन किया।

मुझे लगने लगा था कि रवि के साथ सम्बन्ध इतनी जल्दी नहीं सुधरेंगे। डैडी कहते कि इंडिया जाकर इसके बाप से बात करनी चाहिए। इसकी माँ आयी थी तो उसने रवि को कुछ नहीं समझाया था, बल्कि उसके होते हमारे सम्बन्ध बिगड़े ही थे।

मैंने सोशल-बेनिफिट के लिए अप्लाई कर दिया। कुछेक पैसे मिलने लग पड़े, पर वे काफी नहीं थे। परी के लिए नये कपड़े खरीदने थे। मेरे पास भी अधिक ड्रैस नहीं थीं। मेरे कपड़े अभी उसी घर में पड़े थे। उस ओर मुँह करने को मेरा दिल नहीं करता था। मैं एक बड़ी शॉपिंग करना चाहती थी। चार-पाँच सौ पोंड चाहिए था मुझे। इतने पैसे मैं एकदम कहाँ से लाती। रवि हाथ नहीं आ रहा था। खर्चे की बात को एक तरफ रखकर मैंने कहा, “रवि, परी के लिए शॉपिंग करनी है।" “लिस्ट बनाकर भेज दे, कर दूँगा।"

“पैसे क्यों नहीं भेज देता?”

“पैसे तुझे भेजने होते तो कोर्ट जाने की बदनामी क्यों लेता।"

मैं चुप रही कि कहीं बात किसी दूसरी ओर ही न मुड़ जाये। रवि फिर कहने लगा, “मेरे साथ चल, जो भी चाहिए, अपने लिए और परी के लिए ले ले।"

मुझे उसकी यह पेशकश ठीक लगी। मैंने मंजूर कर ली। एक पल के लिए तो लगा था कि डैडी क्या सोचेंगे। पर मैंने ‘हाँ’ कर दी थी। रवि को फोन करने के बाद मैं उन चीजों की लिस्ट तैयार करने लगी जिनको मैं खरीदना चाहती थी। लेकिन, फिर लिस्ट को बीच में ही छोड़ दिया कि पता नढ़ीं, रवि कितने पैसे खर्च करना चाहे। रवि कभी भी अधिक कैश हाथ में नहीं रखता था। बैंक में खाता तो वह बहुत कम खुलवाता था। जो भी खाते थे, खाली पड़े थे।

हमने शॉपिंग करने का समय नियत कर लिया। रवि बताये गये समय पर आ गया। उसने छोटा-सा हॉर्न दिया। मैं खिड़की में खड़ी होकर उसी का इंतज़ार कर रही थी। परी को मैंने गुलाबी रंग की फ्रॉक पहनाई थी, रवि की पसन्द की और उसकी पसन्द का ही नीले रंग का सूट मैंने पहना। उसके हॉर्न बजाते ही मैं परी को उठाये बाहर आ गयी। रवि ने अन्दर से ही कार का दरवाजा खोला और मैं उसके बराबर बैठ गयी। कार आगे बढ़ाने के बाद वह हमारी ओर ही देखे जा रहा था। आँखें भर कर बोला, “जान, मैं तो डर गया था, सोचा कि सब खत्म। अब तुम मेरे साथ इस तरह नहीं बैठने वाली।"

कार एक ओर लगाकर उसने परी को उठाना चाहा। परी नहीं गयी। उसने फिर कार आगे बढ़ाई और बोला, “तुम्हें क्या पता, तुम्हारे बग़ैर मैं कैसे रहता हूँ। पर जान, तू निरी पत्थर है, तुझे कोई फ़र्क ही नहीं पड़ता।"

मैं ख़ामोश रही। मुझे किसी किस्म की बहस में नहीं पड़ना था। यह भी सोचा था कि इसके दिल का गुबार निकल जाये। फिर, शायद सीधे रास्ते पर आ जाये।

मैं सोच रही थी कि वुड-ग्रीन के शॉपिंग-सेंटर में जायेंगे, पर उसने कार नॉर्थ सरकुलर रोड पर चढ़ा दी। मैंने कहा, “ओ मिस्टर, किधर ले चले हो?”

“मेरी वाइफ, मेरी मोटर, जिधर मर्जी ले जाऊँ।"

“तुझे नहीं मालूम, मेरे डैडी कितनी फ़िक्र करते थे।"

“तेरा हसबैंड मैं हूँ, मुझे तेरी फ़िक्र करनी चाहिए। याद है, बाबा के आगे बैठकर क्या बातें हुई थीं? शिक्षा देने वाला भाई क्या कहता था?”

“रवि, शॉपिंग करवानी है तो सीधी तरह करवा...।"

“जान, ब्रिंट-क्रॉस... तेरी पसन्द का शॉपिंग-सेंटर।"

जब ब्रिंट-क्रॉस का शॉपिंग-सेंटर नया-नया बना था, इसका खूब नाम था। हम यहाँ आया करते थे। कार-पॉर्क करते हुए रवि से मैंने पूछा, “रवि, कितना माल है जेब में, भारी भी है कि नहीं?”

उसने जेब में से क्रेडिट-कार्ड निकालकर मुझे दिखाया और कहा, “कंजूसी बरत कर जो मर्जी ले ले।"

जब रवि कार में से निकला तो मैंने देखा, उसकी ट्राउज़र जगह-जगह से मुड़ी हुई थी। कमीज़ के कॉलर भी मुड़े हुए थे। कोटी में भी टांकें लगे हुए थे। यह सब देखकर मेरा दिल पसीज उठा। मैंने कहा, “घर में कोई नहीं है तेरे कपड़े प्रैस करने वाली?”

“एक थी, बाप की बगल में जा बैठी।"

पहले तो मुझे गुस्सा आया, फिर संयम रखकर कहा, “यह जो तू मुड़कर हमारी ओर मुँह नहीं कर रहा, मैंने सोचा- कोई इंतज़ाम किये बैठा है।"

वह मेरी ओर तिरछी निगाहों से देखकर हँसा और चुप रहा। उसने परी को अपने कंधों पर बिठा लिया। अब तक परी से उसकी दोस्ती हो चुकी थी। मैं भी उसके संग सट कर चल रही थी। मेरा दिल चाह रहा था कि मेरे इस सम्पूर्ण परिवार को कोई देखे। कोई परिचित ही मिल जाये। हमने तीन घंटे शॉपिंग की। परी से अधिक मेरी शॉपिंग हो गयी थी। मैंने रवि को भी दो ट्राउज़र और कुछ कमीजें लेकर दीं।

वापस हम कार में बैठे तो रवि ने कहा, “चल, सीधे घर चलें।"

मुझे झटका-सा लगा। मैं सोचने लगी कि अगर रवि मुझे घर ले गया तो मैं क्या करूँगी। मैंने एकदम फैसला कर लिया कि अगर ले गया तो ले गया, चली जाऊँगी। मैं तसल्ली से सीट पर बैठ गयी। कार को आगे बढ़ाते हुए रवि ने एक बार फिर पूछा। मैं चुप रही। बाहर मेन रोड पर कार चढ़ाकर रवि फिर पूछने लगा, “जान, चल घर को चलें।"

“रवि, हमें वहीं छोड़ आ, जहाँ से सवेरे उठाया था।" कहकर मैंने आँखें मूंद लीं। परी थकी हुई थी। वह कार में बैठते ही सो गयी। रवि कुछ कहता रहा, मैं उसे ‘हाँ’, ‘हूँ’ में जवाब देती रही। रवि हमें डैडी के घर के सामने उतार कर चला गया। मैं उसका शुक्रिया भी न कर सकी।

घर के सभी लोग इतनी शॉपिंग देखकर खुश थे। मम्मी खुशी में डूबी सवाल कर रही थी। मेरा मन अधिक बातें करने का नहीं था।


उस दिन के बाद रवि का फोन बीच-बीच में आता रहा, पर सरसरी-सी बातें होतीं। वह घर आने के लिए कहता, मैं खर्चा मांगती। बेशक, एक बार रवि ने मेरी शॉपिंग करवा दी थी, पर रोज़ाना की ज़रूरतें थीं कि बढ़ रही थीं। मेरी ज़रूरत से कहीं कम पैसे मुझे मिलते थे। रवि को दुबारा शॉपिंग करवाने के लिए कहा तो उसने स्पष्ट जवाब दे दिया।

एक दिन, सूजी बैरिमन के दफ़्तर में मैं डैडी की वसीयत के सम्बन्ध में गयी तो वह मेरे बारे में बातें करने लग पड़ी। मैंने बताया कि रवि रुपये-पैसे से ठीकठाक था, कहीं प्रायवेट काम करता था, पर हमें कुछ नहीं देता। उसने पूछा, “तुम्हारे साझे घर में कौन रहता है?”

“मेरा पति ही रहता है, अकेला।"

“उसे बेच दे, या तो दबाव में आकर खर्चा देगा, या फिर घर के आधे पैसे तेरे पास आ जायेंगे और तेरा हाथ भी खुला हो जाएगा।"

मुझे यही रास्ता सही प्रतीत हुआ। पहले सूजी बैरिमन ने रवि को चिट्ठी लिखी और फिर घर को एस्टेट ऐजेंट के ज़रिये बेचने पर लगा दिया। वकील की चिट्ठी का रवि ने कोई उत्तर नहीं दिया, पर जब घर बेचने का नोटिस मिला तो उसका फोन आ गया।

“जान, इसका मतलब ‘द एंड’ आ गया, कहानी खत्म?”

“मैं तो ऐसा नहीं कहती। मुझे खर्चे की ज़रूरत है। मेरे पास घर बेचने के अलावा दूसरा कोई चारा नहीं है।"

“सो, यू डोंट वांट टू कम बैक... परमानेंट सेप्रेशन... डिवोर्स!”

“नहीं रवि, न तो मुझे डिवोर्स चाहिए, न ही कुछ और। मुझे तो सिर्फ़ खर्चा चाहिए।"

इसी बात पर हम बहसने लग पड़े। उसने डैडी को गालियाँ बकना आरंभ कर दिया। मैंने फोन रख दिया।

फिर, घर बिक गया। नये मालिकों को चाबी देने की तारीख निश्चित कर दी गयी।


घर सेल पर लगाने की खबर मम्मी को नहीं थी। डैडी का विचार था कि कहीं और ही बखेड़ा न खड़ा कर बैठे। उसे तभी पता चला जब भगवंत वैन में से सामान उतार कर पीछे वाले गैराज में रख रहा था। मम्मी ने चीखना-चिल्लाना शुरू कर दिया। वह ज़ोर-ज़ोर से रोने लगी, “हाय-हाय री चन्नो ! हाय री गुलाबो ! तुम यहाँ भी आ पहुँची... हाय-हाय री रंडियो... तुम मेरी फूल जैसी बेटी को भी निगल गयीं… कंजरियो, तुम्हारा कुछ न रहे...।"