रेलगाड़ी / अशोक अग्रवाल

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बुढ़िया सहमी हुई एक तरफ़ खड़ी थी और बूढ़ा थरथर काँप रहा था। ट्रेन कभी की जा चुकी थी। प्लेटफॉर्म पर उमड़ता शोर-शराबा थम गया था। भीड़ का तीन-चौथाई हिस्सा गेट के बाहर निकल चुका था। बूढ़ा बीच-बीच में छिपी निगाहों से चैकर की तरफ़ देख लेता। बुढ़िया साथ न होती तो शायद वह चुपके से चैकर को धोखा दे बाहर निकल जाने में कामयाब हो जाता, लेकिन... उसने बुढ़िया की तरफ़ देखा, जो कातर आँखों से टकटकी लगाए उसी को देख रही थी। अब क्या होगा? क्या चैकर उन्हें सिपाहियों के हवाले कर देगा? बूढ़े ने देखा — एक सिपाही कंधे पर बंदूक लटकाए धीरे-धीरे उन्हीं की तरफ़ आ रहा था। बूढ़े की धुकधुकी बढ़ गई।

सारी मुसीबतों की जड़ बुढ़िया ही थी। उसने आज तक रेलगाड़ी को नहीं देखा था, उसमें सवारी करने की कौन कहे! किस्मत का मारा बूढ़ा उल्लास में अपनी मत गँवा बैठा। वह बुढ़िया को लेकर स्टेशन आ पहुँचा। सवारी गाड़ी अभी नहीं आई थी। दूसरे प्लेटफॉर्म पर एक मालगाड़ी खड़ी थी। बुढ़िया देर तक उसे देखती रही।

‘‘इसमें दम नहीं घुट जाता होगा? कोई दरवाज़ा तक दिखाई नहीं देता। इसके भीतर कैसे जाते होंगे?’’ बुढ़िया हैरान थी। बूढ़ा हँसने लगा। बुढ़िया अकबकाई कुछ समझ न पायी। ‘‘मूरख, इसमें आदमी नहीं, गेहूँ और चावल के बोरे लादे जाते हैं। यह मालगाड़ी है। सवारी गाड़ी अभी थोड़ी देर में आएगी।’’ बूढ़ा अभी भी हँसे जा रहा था।

बुढ़िया अब पटरियों को देख रही थी और उन पर भागते रेलगाड़ी के पहियों की कल्पना कर रही थी। नन्ही-नन्ही पटरियों को देखते वह आश्चर्य में डूबी थी कि इतने भारी भरकम बोझ को ये कैसे बर्दाश्त कर पाती होंगी? उसने आँखों को दूर ले जाते पटरियों की दूरी नापने की कोशिश की। उसकी प्रत्येक शंका और जिज्ञासा का उत्तर सिर्फ़ बूढ़े के पास था।

‘‘ये पटरियाँ कहाँ तक जाती होंगी?’’ बुढ़िया की जिंदगी का समूचा अनुभव एक अबोध शिशु में सिमट आया।

‘‘समुद्र किनारे तक...’’, बूढ़े ने गर्व से बताया, ‘‘उसके आगे पानी के जहाज़ चलते हैं।’’

बुढ़िया अबूझी पहेलियों में उलझकर रह गई। रेल की पटरियाँ...पानी के जहाज़... समुद्र की लहरें... सभी उसके लिए जलपरियों की तरह थीं, जिन्हें उसने सिर्फ़ क़िस्सों में जाना-बूझा था।

उसी वक़्त सवारी गाड़ी धड़धड़ाती हुई प्लेटफॉर्म पर आ गई। बुढ़िया को लगा जैसे कोई भूकम्प उसके पैरों के नीचे से गुज़र रहा है। वह घबड़ाकर दो-तीन कदम पीछे हट गई। वह ग़ौर से इंजन, लाल डिब्बों और खिड़कियों से झाँकते असंख्य चेहरों को देखने लगी। पूरा प्लेटफॉर्म शोर में डूब गया था। स्त्री-पुरुष और बच्चों की भीड़ तेज़़ी से लपकती गाड़ी से उतरने-चढ़ने की कोशिश कर रही थी।

‘‘मेरे पीछे-पीछे आओ... गाड़ी के अन्दर चलते हैं।’’ बूढ़ा सामने के डिब्बे की तरफ़ लपका ही था कि बुढ़िया ने भय से काँपते उसका हाथ कसकर पकड़ लिया।

‘‘नहीं... नहीं... डर लगता है।’’ वह डरी हुई भीड़ को देखने लगी, जो उतरने-चढ़ने के लिए धक्कामुक्की कर रहे थे।

‘‘गाड़ी यहाँ देर तक खड़ी रहती है। हम इधर से चढ़कर उधर से उतर आएँगे।’’ बूढ़े ने हाथ से इशारा किया और बुढ़िया का हाथ पकड़े आगे की तरफ़ लपक लिया।

डिब्बे में प्रवेश करने तक बुढ़िया भय से घिरी रही। हाथ की पोटली को उसकी अँगुलियों ने कसकर जकड़ लिया था। बूढ़ा ललक के साथ उसे डिब्बे की एक-एक चीज़ दिखा रहा था।

‘‘इस ज़ंजीर को खींचते ही चलती हुई गाड़ी रुक जाती है।’’ बूढ़े ने बताया तो वह एक बार फिर सोच में डूब गई।

‘‘मैं यहाँ बैठ जाऊँ?’’ बुढ़िया ने खिड़की के पास बैठे एक नौजवान से प्रार्थना की।

‘‘देखती नहीं हो, यहाँ जगह नहीं है।’’ नौजवान ने लापरवाही से बाहर झाँकते हुए कहा।

‘‘यह पहली बार रेलगाड़ी देख रही है। दो मिनट के लिए बैठकर देखना चाहती है।’’ बूढ़े ने नौजवान से गिड़गिड़ाते हुए कहा।

नौजवान कौतुक से बुढ़िया की तरफ़ देख मुस्कराता हुआ खड़ा हो गया। बुढ़िया लपककर सीट पर बैठ गई। खिड़की के बाहर झाँककर देखने लगी। पटरियों की तरफ़, दूर फैले मकानों की तरफ़ और फिर आकाश की ओर, जहाँ इक्का-दुक्का पक्षी ऊँचाईयों को लाँघ रहे थे। उसे लगा वह भी उन पक्षियों की तरह हवा में उड़ रही है। दूर... दूर... बहुत दूर, वहाँ तक, जहाँ तक यह ट्रेन जाती है... आगे सिर्फ़ पानी के जहाज़ चलते हैं।

‘‘बेटा, तुम किधर लौ जाओगे?’’ बुढ़िया ने गदगद होते नौजवान से पूछा।

‘‘कलकत्ता... चलो बूढ़ी अम्मा, तुम भी मेरे साथ चलो।’’ नौजवान मुस्करा रहा था।

‘‘कित्ता टैम लगेगा?’’ बुढ़िया उलझन में पड़ गई। इस शहर का नाम इससे पहले उसने कभी सुना तक न था।

‘‘पूरी रात और पूरा दिन...’’, नौजवान अब बुढ़िया में पूरी दिलचस्पी लेने लगा था।

ट्रेन ने सीटी दी। सीटी की आवाज़ सुनते ही बूढ़ा और नौजवान दोनों एक साथ बोले, ‘‘उठो... गाड़ी चलने ही वाली है।’’

बुढ़िया कुछ भी नहीं समझ सकी, लेकिन हड़बड़ाते उठ खड़ी हुई। बूढ़ा दरवाज़े की तरफ़ लपका, प्लेटफॉर्म पर खड़े लोग डिब्बे के अन्दर तेज़़ी से आने लगे थे। बूढ़ा धक्कामुक्की में घिर गया। वह डिब्बे से नीचे उतरा ही था कि गाड़ी चल दी। बुढ़िया अभी डिब्बे के अन्दर ही थी।

‘‘रोको... रोको’’, बूढ़ा डिब्बे के साथ-साथ भागता हुआ तेज़ आवाज़ में चिल्लाया, ‘‘रोको... रोको...।’’

डिब्बे के किनारे खड़ी बुढ़िया रोने लगी थी।

नौजवान तेज़़ी से नीचे उतरा और अपने दोनों हाथ बुढ़िया की तरफ़ फैलाए। बुढ़िया किसी छोटे बच्चे की तरह एकदम हल्की-फुल्की थी। बुढ़िया को प्लेटफॉर्म पर टिका वह लपककर डिब्बे में चढ़ गया और देर तक हँसता हुआ उनकी तरफ़ अपना हाथ हिलाता रहा।

बुढ़िया की धड़कनें बहुत देर बाद सामान्य हुईं। बूढ़ा उसकी तरफ़ देखता मुस्करा रहा था।

‘‘वह छोकरा न होता तो मैं डिब्बे में ही छूट गई थी।’’ बुढ़िया ने खाली पटरियों की तरफ़ देखा।

‘‘मुफ़्त में सैर कर लेती’’, बूढ़ा हँसा। बुढ़िया देर तक उस हँसी में खोई रही। पता नहीं, कितने अरसे बाद वह बूढ़े के चेहरे पर यह हँसी देख रही थी।

‘‘चाऽय पीएगी?’’ बूढ़े ने पूछा और समीप खड़े ठेलीवाले से बोला, ‘‘दो चा... खूब गरम।’’

चाय पीने के बाद वह इत्मीनान से टहलते हुए बाहर निकलने के लिए गेट तक पहुँचे। बूढ़ा आगे-आगे था। वह पूरी तरह अपने पैरों को गेट के बाहर निकाल भी नहीं पाया था कि टिकट चैकर ने उसका हाथ पकड़ लिया, ‘‘टिकट निकालो।’’

बूढ़ा अचकचा गया और उसके पीछे-पीछे आती बुढ़िया ठिठककर रुक गई। वह कुछ भी नहीं समझ सकी।

‘‘हम ट्रेन से नहीं उतरे हैं।’’ बूढ़े ने साहस कर कहा।

‘‘यहीं ठहरो... अभी देखता हूँ।’’ टिकट चैकर ने बूढ़े को पीछे की तरफ़ खींचते हुए अपनी बगल में खड़ा कर लिया और बाहर निकलने वाले यात्रियों के टिकट बटोरने में जुट गया।

ट्रेन की भीड़ साफ़ हो चुकी थी। सिर्फ़ पाँच-छह ठलुए कौतुक के साथ उन दोनों की तरफ़ देखते हुए वहीं जमे रहे। कुछ देर के लिए मुफ़्त का तमाशा उनके हाथ लग गया था।

चैकर अब भीड़ से छुट्टी पा बूढ़े की तरफ़ मुड़ा, ‘‘टिकट निकालो।’’

‘‘मैं इसे रेलगाड़ी दिखाने लाया था।’’ बूढ़े ने बुढ़िया की तरफ़ इशारा किया। ठलुओं की भीड़ खिलखिलाकर हँस पड़ी और बुढ़िया की तरफ़ देखने लगी। बुढ़िया अपने भीतर और सिमट गई।

‘‘प्लेटफॉर्म टिकट कहाँ है?’’ चैकर ने बूढ़े को घुड़का, ‘‘क्या इसे गाँव का मेला समझ लिया है?’’

बूढ़ा निरुत्तर खड़ा रहा। टिकट चैकर ने स्टूल पर रखी कापी उठाई और उसे खोलते हुए बोला, ‘‘दिल्ली से यहाँ तक के दो टिकट सोलह रुपए और बीस रुपए जुर्माना। कुल छत्तीस रुपए...। जल्दी से निकालो। मेरे पास फालतू टाइम नहीं है।’’

बूढ़े की आँखें हैरत में खुली रह गईं। बुढ़िया दूर खड़ी सिर्फ़ इस नाटक को देख रही थी। छत्तीस रुपए... सुनते ही उसका हृदय अन्दर-ही-अन्दर हौल खाने लगा। क्या इस मुई रेलगाड़ी को देखने भर के इतने रुपए लगते हैं? बूढ़े ने उसे पहले ही क्यों नहीं बता दिया था? वह कभी इधर का मुँह ही नहीं करती। अब क्या होगा?

‘‘सुना नहीं... जल्दी करो। नहीं तो तुम्हें पुलिस के हवाले करना होगा।’’ चैकर खिजला उठा था।

एक आदमी बूढ़े की तरफ़ बढ़ता हुआ धीरे-से फुसफुसाया, ‘‘इसके हाथ पर एक दस का नोट रख दो। यह बिना पर्ची के जाने देगा।’’

‘‘मेरे पास रुपए नहीं हैं’’, बूढ़ा रुआँसा हो आया। उसने चैकर के आगे हाथ जोड़ दिए, ‘‘मुझे मालूम नहीं था। आगे से ऐसी भूल नहीं होगी। माई-बाप... इस बार हमें जानें दें।’’

‘‘तुम लोगों को मैं अच्छी तरह जानता हूँ। चेहरे से भोले नज़र आते हो, लेकिन अन्दर से एकदम घुटे हुए होते हो। अभी पता चल जाता है।’’ चैकर ने सिपाही को पास आने का इशारा किया।

सिपाही पास चला आया। बूढ़े की रुआँसी आवाज़ धीरे-धीरे गिड़गिड़ाहट में बदल गई। गिड़गिड़ाहट हल्के-हल्के रुदन में पलटने लगी। वह चैकर के पैरों की तरफ़ लपका, ‘‘आगे से ऐसी भूल कभी नहीं होगी सरकार।’’

‘‘इसकी जेब टटोलकर देखी जाए। इसने रुपए ज़रूर कहीं छिपाकर रखे होंगे। बूढ़ा पक्का घाघ दिखाई दे रहा है’’, एक आदमी चैकर से बोला। सिपाही बूढ़े की तरफ़ लपका। बूढ़ा सिर झुकाए उसी तरह खड़ा रहा। सिपाही ने बूढ़े की जेब में हाथ डाल दिए, लेकिन जब उसने हाथ बाहर निकाले तो उसके चेहरे की हँसी बुझ गई। उसके हाथ में सिर्फ़ दो रुपए का एक चिक्कट नोट, दस-दस के चार सिक्के, बीड़ी का आधा बंडल और माचिस की डिब्बी चले आए थे। उसने उन्हें चैकर की तरफ़ बढ़ा दिया।

‘‘इसकी धोती के नेफ़े को टटोलकर देखो। ज़रूर बड़े नोट इसने वहाँ छिपाकर रखे होंगे’’, दूसरा आदमी बोला। बूढ़ा धोती को सख़्ती से पकड़कर खड़ा हो गया। उसे लगा, उसे दूसरे क्षण नंगा किया जाएगा।

दूसरे आदमी की बात सुनते ही सिपाही उत्साह में आ गया। उसने बूढ़े की धोती के ऊपर तेज़़ी से हाथ घुमाए और झुँझलाहट में एक कोने से उसे तेज़़ी से खींच दिया।

‘‘कहीं ऐसा तो नहीं है कि सारे रुपए बुढ़िया के पास हों और यह बूढ़ा बेवकूफ बना रहा हो?’’ एक आदमी ने शंका प्रकट की।

‘‘बुढ़िया की पोटली को देखा जाए।’’ सिपाही ने कहा।

बुढ़िया का एक हाथ पोटली पर और दूसरा हाथ अपनी धोती पर कस गया। क्या उसकी भी बूढ़े की तरह तलाशी ली जाएगी?

चैकर शायद अब तक इस निरर्थक खेल से ऊब चला था।

‘‘छोड़ो... छोड़ो... इन्हें जेल भिजवाकर भी क्या होगा? आराम से हराम की रोटी ही तोड़ेंगे।’’ वह बूढ़े की तरफ़ देखते हुए गुर्राया, ‘‘भागो... आगे कभी ऐसा किया तो उमर भर जेल की चक्कियाँ पीसोगे।’’

बूढ़ा धीरे-धीरे सिर झुकाए गेट से बाहर हो गया। वह आगे बढ़ा ही था कि उसे चैकर की आवाज़ सुनाई दी, ‘‘अपना खज़ाना तो साथ लेते जाओ।’’

पूरी भीड़ चैकर का मज़ाक सुनते ही खिल-खिल करती हँस पड़ी। बुढ़िया ने स्टूल पर रखे नोट, रेजगारी और बीड़ी के बण्डल को समेटा और बूढ़े की दिशा में लपकी। माचिस की डिब्बी वहीं स्टूल पर छूट गई।

बूढ़ा एकदम ख़ामोश और गुमसुम धीरे-धीरे आगे बढ़ रहा था। सारी सृष्टि से अछूता और अपने में ही खोया हुआ। उसने अपने पीछे आती बुढ़िया का कोई अहसास तक नहीं था, जैसे वह इस दुनिया में अकेला आया था और अकेला ही चला जाएगा। कुछ क्षण पहले जो घटना हुई थी, उस अपमान, लांछना और प्रताड़ना से मुक्त हो वह वीतरागी हो आया था।

बुढ़िया ने आकाश की ओर देखा। जेठ का सूरज ठीक सिर के ऊपर आ पहुँचा था। गरम लू के थपेड़े पूरे शरीर में सुइयाँ चुभोने लगे थे। प्यास हलक में उतर आई थी। बूढ़ा सड़क किनारे एक पेड़ के नीचे खड़ा हो गया था। वह हाँफते हुए उसके पास पहुँची, ‘‘तनिक सुस्ता लो, थके होंगे।’’ बुढ़िया ने आर्द्र आवाज़ में धीरे से कहा।

बूढ़ा चुपचाप पेड़ के नीचे बैठ गया, उकडूँ जैसे उसने बुढ़िया की आवाज़ सुनी तक न हो। उसने स्टेशन से बाहर आने के बाद एक बार भी बुढ़िया के चेहरे की तरफ़ नहीं देखा था। बुढ़िया ने पोटली से लोटा बाहर निकाला। इधर-उधर देखा और सड़क पार करती दूसरी तरफ़ जा पहुँची। वहाँ एक खोखा खड़ा था — चाय, बीड़ी, सिगरेट का। खोखे के बाहर लगे हैण्डपम्प से पानी भरा और सड़क पार करती हुई बूढ़े के पास आ खड़ी हुई।

‘‘हलक सूख रहा होगा, पानी पी लो।’’ लोटा बूढ़े के हाथ में थमाते हुए उसने पोटली खोल गुड़ की डली बाहर निकाली।

बूढ़े के हाथ में लोटा अभी भी उसी तरह टिका था।

‘‘उन सभी के कीड़े पड़ेंगे, जिन्होंने तुम्हारे हिय को चोट पहुँचाई है। देख लेना, एक दिन उन्हें अपने किए का फल मिलेगा...’’, बुढ़िया ने लोटे को उसके मुँह तक पहुँचाते हुए कहा, ‘‘मन के काँटे को बाहर निकाल दो। हमने कोई बुरा काम थोड़े ही किया है।’’

बूढ़े ने पहली बार आहत आँखों से बुढ़िया की तरफ़ देखा। लोटे को उसने अपने हाथ में पकड़ लिया। बूढ़े ने गट-गट ढेर सारा पानी पिया और जब थोड़ा-सा पानी शेष रह गया तो पहली बार बोला, ‘‘तू भी पी ले, प्यास लगी होगी।’’

बूढ़े के बोलते ही बुढ़िया की आँखों में पानी छलक आया। लोटा अपने हाथ में लेते हुए धीरे से कराही, ‘‘आग गिरे मेरी जुबान पर, मैंने ही शहर आने की जिद्द पकड़ी थी। अपने गाँव में ही भले थे।’’

बूढ़े ने कसकर बुढ़िया का हाथ पकड़ लिया।