लड़ैती / सौमित्र सक्सेना / पृष्ठ 1

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<<पिछला भाग वो तो अपने मियाँ की लड़ैती है। माँ ने मुस्कान के साथ, चद्दर झाड़ते हुए कहा।

लड़ैती बाप की होती है लड़की या पति की? पिता पास में चलते हुए आ गए और शयन कक्ष कि एक कुर्सी पर पसर गए।

जो लाड़ करे, वो उसकी लड़ैती। इसमें बाप-पति कहाँ से आ गए। क्या मैं आपकी लड़ैती नहीं हूँ?

माँ को अपने पुराने दिन याद आ गए जैसे। वो नज़रें तिरछी करके और प्यार की उम्मीद में उनकी तरफ देखने लगी।

सही बात है। पिता ने माँ की बात का कोई विरोध नहीं किया।

याद करूँ तो, मैं जब ब्याह के आई तो कुल सत्रह की थी। बी.ए. फ़स्ट इयर के इम्तहान भी पूरे नहीं किए थे कि बाबू जी ने कहा, तुझे लड़के वाले देखने आ रहें हैं। मुझे लगा था कि मेरा सारा जीवन किसी अनजानी राह पर निकलने वाला है। पर देखो, बाद में सब ठीक हो गया। बचपन तो जैसे हवा की तरह छूने आया और चला गया। माँ की आँखों में किसी बात की हरियाली दिखी और वो बिस्तर पर तकिये के सहारे बैठ गईं। पिता ने उठाई किताब रैक पर वापस रख दी। वो माँ की तरफ़ स्नेह भरी दृष्टि से देखने लगे।

'कौन कहता है कि तुम्हारा बचपना चला गया? वो तो अड़ोस-पड़ोस के नाती-पोते दौड़े रहते है इसलिए बड़प्पन बनाए रहती हो। वरना तुम्हारा बस चले तो तुम गोद में ही छिपी रहो।

गोद में! किसकी गोद में?

मेरी और क्या पड़ोसी की?

क्या बोल रहे हैं आप। मैं कब आपकी गोद में आई। अब बुढापे में यही सब रह गया है मुझे करने को।

किसका बुढापा! बूढ़े होंगे तुम्हारे दुश्मन, तुम तो आज भी ऐसी लगती हो जैसी ब्याह के लाया था तुमको।

हाँ! और नहीं कुछ! ये ढलती हुई खाल देखी है। ये आँखों का चश्मा देखा है। ठीक से साड़ी-कपड़ा न पहनू तो पक्की दादी-अम्मा लगूँ।

पिता खुद बिस्तर पर आ गए। सिरहाने तकिया लगाया और माँ का सिर अपनी गोद में रख लिया। माँ भी गुड़-मुड़ाई, घुटने समेट के पेट की तरफ़ मोड़ लिए दोनों हाथों को छाती में समेट लिया और वहीं पति की गोद में दुबक गई। पिता ने माँ के सिर पे हाथ फेरा, अब बोल! कौन बच्चा है यहाँ?

माँ ने कुछ नहीं कहा हँसी और आँखे बंद कर ली।

तुम्हे याद है, कैसे चुहिया-सी हुई थी ये। बोड़े की फली-सी पतली-पतली उँगलियाँ थी इसकी। नन्ही-नन्ही आँखें। एक हथेली में पूरी समा गई थी इसकी देह। फिर सात दिन वेन्टीलेटर पर रखा था। मुझे भी देखने नहीं देते थे किसी किसी दिन तो। मैं, कमज़ोरी से आधी देह, बाहर शीशे से इसको देखती थी। रोज़ बोलती थी, आई हो तो रुक जाना। इतनी जल्दी क्या है लौटने की।

अम्मा आतीं थीं तो बोलतीं थीं, मरोगी तो नाय? और ये हँस देती थी।

उस ज़माने की औरतें लड़कियों को ऐसे क्यों खिलातीं थी?

अरे जाने दो। तुम भी बीसियों साल पुरानी बातें लेके बैठ गई। वो ज़माना ही ऐसा था।

तुम्हें याद है इसके होने पर तुम कितना रोए थे।

मैं रोया था! कब?

चलो बनों मत।

मानों पानी पड़ रहा था उस दिन और तुम बारिश में लतर-पतर आए थे जाने कहाँ से। सारे शरीर से पानी चू रहा था। मैं तो आँखे भी ठीक से नहीं खोल पा रही थी। तुम्हे देख के घबरा गई थी। फिर जब तुम्हे उसे देखने की इजाज़त नहीं मिली तो तुम फूटफट के रोयें थे।

पिता के चेहरे पर हल्की-सी मुस्कान दिखाई दी। आँखे शून्य में स्थिर हो गई। उन्हे उस दिन अपने भावुक होने का पहली बार पता चला था।

क्या करता। एक तो अचानक तुम हस्पताल में भरती। ऊपर से तार से सूचना मिली मुझे। मैं तो घबरा के कानपुर से भागा था।

माँ थोड़ी देर के लिए खामोश हो गई। अठारह की उम्र में पहली लड़की- अपनी ऋचा। क्या भयानक दर्द था। साल भर पहले तक कालिज की नई-नवेली सहेलियों के साथ चाट-पकौड़ी खाया करती थी। कहाँ अब ये गर्भ और जन्म। कैसे सम्हाला था मैंने ये सब। ईश्वर ही जानता है। माँ की आँखे झपकी। विचारों का प्रवाह दूसरी दिशा में हो गया।

इसका ब्याह भी क्या खूब हुआ। कितनी सुंदर लग रही थी ये उस दिन। पिता ने उँ हूँ किया। मैंने लहंगा पसंद किया था। वो साड़ी वाला तो पता नहीं क्या-क्या दिखा रहा था। हरे-नीले रंग। शादी में कोई दुल्हन हरे-नीले कपड़े पहनती है क्या। ऊपर चुन्नी में काली धारियाँ काली धारी वाले कपड़े तो वैसे ही सुहागिनों को नहीं पहनने चाहिए। और यहाँ तो शादी-ब्याह का मामला।

तुमने भी उस दिन हद कर दी थी। पिता शाबासी की लिपी में मुस्कुराएँ।

सौ-ढेड़ सौ लहंगे-चोली देख डालें। शहर की इतनी बड़ी दुकान के मालिक से लेकर पानी पिलाने वाले छोकरों तक, सब तुम्हारी खातिर तवाज़ों में जुटे थे। ये कपड़ा दिखाओं, वो सिल्क, ये झरी, वो गोटा, ये बार्डर। न जाने क्या-क्या। शुक्र मना रहे होंगे हमारे जाने पर।

'शुक्र! और नहीं तो! इतनें सब कपडे ख़रीद डाले उसका क्या?'

सच में! ख़रीद डाले थे या देख डाले थे।

तो क्या ख़रीदे नहीं थे? पर ऋचा को जो पसंद आया उसके शेड भी नहीं मिले उसके यहाँ। छोटे शहरों की यहीं कमी है। अभी लखनऊ-दिल्ली हो तो देखो क्या एक से एक वैराइटी दिखाते हैं।

सही बात है।

माँ को शादी के दृश्य याद आने लगे। उन्हें अपनी पसंद वाला लाल लहंगा याद आया। कितनी प्यारी लग रही थी ऋचा उसमें। फिर उन्हें याद आए फेरों के दृश्य जिनमें ऋचा पीली रेशमी साड़ी में अग्नि के सामने पति के साथ बैठी थी। फिर उन्हें याद आई विदा। लाल साड़ी में लिपटी ऋचा ने रो-रो के सारा सिंदूर माथे पे लिपटा लिया था।

मैं भी कैसे बिखर के रोई थी उस दिन।माँ की आँखों में आँसू आ गए। पिता ने माँ की आँखों को टटोला। उनमें लबालब भरी हुई बूँदे थी। उनकी ऊँगलियाँ गीली हो गई।

तुम माँ-बेटी की ये रोने की खूब आदत है। अभी क्यों रो रही हो?

कुछ नहीं ऐसे ही। पिता को कुछ ध्यान आया। वो हँसे। याद है उस दिन ड्राइंगरुम में बैठी तुम दोनों कैसे रो रही थीं।

किस दिन?

अरे! उस दिन ही जब ऋचा ने पहली बार प्रतीक के बारे में तुमसे कहा था।

हाँ! मेरी तो छाती धक्क से हो गई थी। लगा था प्रलय हो गई। कैसे-कैसे पाल-पोस के बड़ा किया और लड़की अपनी शादी खुद करने को तैयार! मैंने उससे कह दिया था तुम्हारे पिता जान दे देंगे अगर उस लड़के का नाम लिया तो। वो चुप हो गई थी। तुम्हारे अचानक आ जाने पर जाने क्या बहाना किया था हमने।

मैं सब समझ गया था उसी वक्त पर थोड़ा बहुत तो मैं भी घबरा गया था।

बेटी की ऐसी बात से कौन नहीं घबरा जाएगा।

नहीं ऐसा नहीं हैं। बच्चों को ठीक से पढ़ा लिखा दो ये हमारा काम है बाकी वो जाने।

तुम्हारी ऐसी बातों से मुझे डर लगता है। अब ऋचा की लड़की तो उससे भी एक ज़माना आगे निकलेगी। वो तो पता नहीं क्या-क्या करेगी? अगला भाग >>