लड़ैती / सौमित्र सक्सेना / पृष्ठ 2
<<पिछला भाग दिन २
माँ सवेरे सो के उठी तो पाया पिता पहले से ही उठे चुके थे। पिता को सैर की आदत थी। मुँह अंधेरे निकल गए थे। इन गलियों में बरसों बरस बीत गए है उनके जीवन के। सब परिचित लोग। लोगों की पीढ़ियाँ उनके सामने बड़ी हुई है। सामने की हलवाई की दुकान से गरमा-गरम जलेबी तुलवाई, दही लिया और घर की तरफ़ चल दिए। जलेबी और तर माल के क्या शौकीन रहे हैं वो पर आजकल सब कम हो गया है। कभी कभार मुँह में चटखार आने पर ले आते हैं वरना सेहत के कारण सब मना है। बहुत पहले ऋचा के साथ आते थे इसी दुकान पर। पैयां-पैया दौड़ती थी ऋचा सारी सड़क पर दलेबी-दलेबी करती हुई। दुकान पे पहुँच के ऐसी मचलती थी कि सम्हालना भारी पड़ जाता था। कल माँ के साथ ऋचा की खूब बातें हुई हैं। सो मन में उसका ध्यान कुछ ज़्यादा गीला है। वो आते-आते यही सोच रहे है कि अब कितने महीने हो गए हैं उसे देखे और कितने महीने और है उसके आने में। पिता माँ को आवाज़ देते हुए घर के अंदर घुसे। माँ नहा-धो के तैयार बैठी थी। पिता के हाथों में जलेबी और दही देख के एकदम बोली- ये आप क्या ले आए? कुछ नही ऐसे ही मन कर रहा था। आप भी जैसे मन की सब पढ़ लेते हैं। मैंने सुबह सुबह एक सपना देखा है। कैसे सपना? बताती हूँ - ऋचा यहाँ आई हुई है प्रतीक के साथ। भूखी है। हम लोग कही और हैं। किसी दूसरे शहर में रि तेदारों के साथ, पता नहीं कौन-कौन से लोग हैं। अम्मा बाबू जी, दीदी और न जाने कौन-कौन बच्चे। सब सुबह-सुबह ढेर सारा ना ता खा रहे है। अपनी अपनी प्लेट लगाए घूम रहें है। ऋचा आई है और उसने ब्रश भी नहीं किया है तब तक। वहाँ लोगो की भीड़ बढ़ती जा रही है। वहाँ कुछ गोल-गोल सफेद रंग की कोई बड़ी सुंदर-सी चीज़ है जो बड़ी तेज़ी से खत्म होती जा रही है। उसने मुझसे कहा कि माँ ये आप मेरे लिए बचा के अपनी प्लेट मे रख लो तब तक मैं ब्रश कर के आती हूँ। माँ अपने सपने में पूरी तरह डूब गईं। पिता खामोश सुनने लगे। मैंने उस चीज़ को अपनी प्लेट में रख लिया पर एक टुकड़ा तोड़ के खा लिया। ऋचा को मुझ पर गुस्सा आ गया। बोली, मैंने इसे आपके पास बचाने के लिए रखा था पर आप तो इसे खुद खाने लगीं। जाओ! मैं अपनी प्लेट अलग लगा लेती हूँ। ऋचा ने बिना कुल्ला किये खाना भी शुरू कर दिया है पर प्रतीक भूखे है। मैं रोने लगी हूँ। इतने में आप गरमा-गरम पूड़िया लेके आ गए। वहाँ इतने लोग हैं कि ट्रे मे पूड़ियाँ आते ही ख़त्म हो जाती हैं। आपने चार पूड़िया कहीं से झपट ली हैं और ऋचा को देदी और कहा कि प्रतीक को खिले दो। ऋचा पूड़िया प्रतीक को देने बाहर गई तो वो उसके हाथ से छूट गई। वो फिर रोने लगी। तभी किसी ने बताया कि रोने की कोई बात नहीं है। यहाँ एक हलवाई है वो खूब अच्छी पूड़िया बनाता है। ऋचा उसके पास गई है और बोल रही है, भइया हम अमरीका में रहते है और हमें अच्छा खाना खाने को नही मिल पाता है। बुहत दिन हो गए हैं हमें पूड़ी खाए। तभी मैं उसे ढूँढ़ती हुई उसी हलवाई की दुकान में पहुँच गई हूँ। मेरे हाथ में थाली है उसमें जलेबियाँ है। ऋचा खुशी से बोली, अरे वाह जलेबी और झट से एक जलेबी उसने उठा ली है। मैंने बोला है, ध्यान से बटा! गरम है। वो थाली लेके चली गई है। बोल रही है कि प्रतीक भूखे है।
माँ चुप हो गई। सारी कथा एक सॉंस में बोलके शान्त हो गई। पिता के चेहरे का भाव उस सपने के प्रति शुरू में मज़ाक से होता हुआ गम्भीर मुस्कान में बदल गया। उन्होने माँ को थपथपाया। चलो प्लेट ले के आओ। ऋचा को वहाँ ज़रूर कुछ खाने का जी किया होगा। इसलिए हमें तुम्हें उसका ध्यान आया माँ विचार शून्य अवस्था में रसोई की तरफ़ मुड़ गई। अगला भाग >>