लापता लड़की / अरविन्द जैन / पृष्ठ 1

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ये कहानियाँ

वह निस्संग है, आखेटित है, लापता है। वही यहाँ है। परंपराएँ उसे लापता करती हैं। बाज़ार उसे निस्संग और उसका आखेट करता है। हर धर्म, हर जाति उसके संग ऐसा ही सलूक करती है। ये कहानियाँ इसी स्त्री या लिंग संवेदनशीलता से शुरू होती हैं और इस लापता कर दी गई स्त्री की खोज का आवेशमय विमर्श बन जाती हैं। ये औरत को किसी घटना या किस्से के ब्यौरे में नहीं दिखातीं, उसे खोजती हैं, बनाती हैं और जितना बनाती हैं, पाठक को उतना ही सताती हैं।

स्त्री लेखन स्त्री ही कर सकती है यह सच है लेकिन ‘स्त्रीवादी’ लेखन पुरुष भी कर सकता है-यह भी सच है। यह तभी संभव है, जब वह लिंग भेद के प्रति आवश्यक संवेदनाशील हो क्योंकि वह पितृसत्ता की नस-नस बेहतर जानता है। मर्दवादी चालें ! मर्दों की दुनिया में औरत एक जिस्म, एक योनि, एक कोख भर है और मर्दों के बिछाए बाज़ार में वह बहुत सारे ब्रांडों में बंद एक विखंडित इकाई है। अरविंद, जो बहुत बहुत कम कहानी लिखते हैं, इस औरत को हर तरह से, हर जगह पूरी तदाकारिता से खोजते हैं। वैसे ही जैसे आसपड़ोस की गायब होती लड़कियों को संवेदनशील पाठक खोजते-बचाते हैं।

अरविंद कहीं पजैसिव हैं, कहीं कारुणिक हैं, लेकिन प्रायः बहुत बेचैन हैं। यहाँ स्त्री के अभिशाप हैं जिनसे हम गुजरते हैं। मर्दों की दुनिया द्वारा गढ़े गए अभिशाप, आजादी चाह कर भी औरत को कहाँ आज़ाद होने दिया जाता है ? अरविंद की इन वस्तुतः छोटी कहानियों में मर्दों की दुनिया के भीतर, औरत के अनंत आखेटों के इशारे हैं। यह रसमय जगत नहीं, मर्दों की निर्मित स्त्री का ‘विषमय’ जगत है।

अरविंद की कहानी इशारों की नई भाषा है। उनकी संज्ञाएं, सर्वनाम, विशेषण सब सांकेतिक बनते जाते हैं। वे विवरणों, घटनाओं में न जाकर संकेतों व्यंजकों, में जाते हैं और औरत की ओर से एक जबर्दस्त जिरह खड़ी करते हैं। स्त्री को हिन्दी कथा में किसी भी पुरुष लेखक ने इतनी तदाकारिता से नहीं पढ़ा जितना अरविंद ने। ये कहानियों उनके उत्कट उद्वेग का विमर्श हैं और स्त्री के पक्ष में एक पक्की राजनीतिक जिरह पैदा करती हैं। इन कहानियों को पढ़ने के बाद पुरुष पाठकर्ता संतप्त होगा एवं तदाकारिता की ओर बढ़ेगा और स्त्री पाठकर्ता अपने पक्ष में नई कलम को पाएगी-वहाँ भी, जहाँ स्त्री सीधा विषय नहीं है। अरविंद जैन का यह पहला कथा संग्रह बताता है कि हिन्दी कहानी में निर्णायक ढंग से फिर बहुत कुछ बदल गया है।

सुधीश पचौरी