लिव-इन रिलेशनशिप / भाग 4 / ए. असफल
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कन्जेक्शन के कारण ट्रेन इतनी लेट पहुँची कि उन्हें सीधे मीटिंग में पहुँचना पड़ा। थकान और घबराहट दोनों एक साथ! मगर बड़े से प्रोजेक्टर पर जब उनके परियोजना क्षेत्र का नक्शा दिखलाया गया और रौशन बिंदुओं को स्ट्रिक से छू-छूकर नेहा-आकाश के नाम के साथ उल्लिखित किया गया तो दिल में खुशी से दर्द होने लगा...।
लंच के बाद ग्रुप डिस्कशन हुआ। संयोग से उसे ग्रुप लीडर के रूप में बोलने का मौका मिला। तब सेक्रेटरी ने एक ऐसा प्रश्न खड़ा कर दिया कि वह चकरा गई। आकाश ने अपनी सीट से हाथ उठाकर बोलने की अनुमति चाही, पर उसने उन्हें वरज दिया और नेहा को चैलेंज करने लगा, 'येस-मैडम! सपोज कि आपको प्रोजेक्ट मिल गया, आपका एचीवमेंट भी सेंट-परसेंट रहा... मगर क्या गारंटी है कि आफ्टर समटाइम, रेट जहाँ का तहाँ नहीं पहुँच जाएगा?'
'नो स-र! इसकी तो कोई गारंटी नहीं है...।' कहते श्वास फूल गया।
पार्टिसिपेटर्स हूट करने लगे।
आकाश का मुँह उतर गया था। मगर अगले ही पल उसने साहस जुटा कर आगे कहा, 'लेकिन-सर! इतिहास गवाह है कि बुद्ध ने अहिंसा का कितना बड़ा तंत्र खड़ा कर दिया था, गांधी ने स्वदेशी का जाल बुन फेंका और आंबेडकर ने मुख्य रूप से जातिगत असमानता से निबटने के लिए ही समाज को ललकारा पर हम देख रहे हैं, सब उल्टा हो रहा है...। सर! मैं कहना चाहती हूँ कि समाज अपनी गति से चलता है सर!'
तो तालियाँ बजने लगीं। और सेक्रेटरी ने कहा, 'साफगोई के लिए शुक्रिया। पर हमें किसी निगेटिव पाइंट ऑफ व्यू से नहीं सोचता है, दोस्तो! ओके। अटेंड टु योर वर्क!'
आते समय उन्हें बताया गया कि कुछेक प्रोजेक्टस पर आज नाइट में ही मंत्रालय की मुहर लग जाएगी। वे लोग आज डेली में ही रुकें। और यह बात सभी जिलों से नहीं कही गई थी। इसलिए उन्होंने कयास लगा लिया कि कम से कम हमें तो हरी झंडी मिल ही गई!'
उत्साह और हर्ष के कारण दम फूल-सा रहा था। उसके रोल से आकाश तक इतने इंप्रेस हुए कि आदरसूचक शब्दों का इस्तेमाल करने लगे। रोके गए प्रतिनिधियों को एक रिप्युटेड गेस्टहाउस में ठहराया गया! वहीं पदाधिकारियों के साथ रात्रिभोज की व्यवस्था थी। फ्रेश होकर वे वीआईपीज की तरह डाइनिंग हॉल में पहुँचे। बैरे तहजीब से पेश आ रहे थे। कुछ ऐसा माहौल बन गया था कि उसे खुद पर गर्व महसूस हो रहा था। कॉन्फिडेंस के साथ, मैच करते ब्लाउज में पहली बार उसने साड़ी पहनी। हाई हील के सेंडिल और कलाइयों में चूड़ियाँ। इंप्लीमेंटेशन को लेकर दिमाग में नए-नए आईडियाज कौंध रहे थे। अब वह समझ सकती थी कि - तनाव मुक्त मस्तिष्क ही बैटर प्लानिंग दे सकता है।'
आकाश ने जोड़ा - अफसरों को इसीलिए सुविधाएँ मुहैया कराई जाती हैं, ताकि पीसफुली सोच सकें, बेहतर कर सकें। सर्वहारा के मसीहा लेनिन तक बड़ी ग्लैमरस लाइफ बिताते थे। क्योंकि जनता को आकर्षित करने का यही एक तरीका है। जब तक उसे नहीं लगे कि नेतृत्व अवसर और सुरक्षा दे सकता है, वह साथ नहीं देने वाली।'
इन्ज्वाइमेंट की गरमी में जोड़े चिड़ियों से चहक रहे थे। उनकी आँखों में उड़ान, बदन में बिजलियाँ कौंध रही थीं।
- मतलब, गरिष्ठ भोजन और खुले मनोरंजन से ही शरीर को बल, दिमाग को ऊर्जा मिल सकती है, ना! होटल तभी आबाद हैं।' उसने विनोद किया।
झेंपकर वे मुस्कराने लगे। मौसम खुशगवार हो गया।
डाइनिंग हाल से निकल कर वे होटल के पार्क में आकर बैठ गए थे। मैथ्यू सर वहाँ पहले से बैठे हुए थे। नेहा को देख खासा चपल हो उठे। थोड़े से नशे के बाद वे काफी खुल भी गए थे। आकाश से कहने लगे, 'इस लड़की में बहुत ग्रेविटी है... तुम इसकी आर्गनाइजिंग केपेसिटी नहीं जानते... जानते हो, टु अवेल ए चांस!'
और आकाश हर बात पर 'जी' 'जी' कर रहे थे, क्योंकि उन्होंने असेस किया था, सैंक्शन उन्हीं की रिकमंडेशन पर मिलने जा रही थी। बीच में वे किसी शारीरिक जरूरत के लिए उठ गए तो मैथ्यू सर ने उसका दिमाग चाट लिया!
'पता है, विवाह के समानांतर एक नई व्यवस्था चल पड़ी है, लिव-इन रिलेशनशिप!?'
'जी!'
'अगला प्रोजेक्ट इसी पर लाना है तुम्हें!'
'पर उधर तो अभी शुरुवात नहीं हुई, सर!'
'उसमें क्या, तुम्हीं कर-दो!'
'...'
'बोलो-तो...?' नशे में वे अड़ गए।
पैसठ-छियासठ की उम्र। कलाइयाँ भूरे रोमों से आच्छादित। भारतीय प्रशासनिक सेवा से रिटायर्ड, योजना आयोग के सदस्य। उनके खिलंदड़ेपन पर वह शर्म से मुस्कराने लगी। पर रूम में आकर यकायक सीरियस हो गई। फैसला याद आने लगा :
'पिटीशनर इज ए मेजर लेडी... इज एट लिबर्टी टु मूव एंड टु लिव अकार्डिंग टु हर विल, सिंस शी हेज द केपेसिटी टु डिसाइड व्हाट इज रोंग एंड व्हाट इज राइट फोर हर वेलफेयर।'
आकाश से कुछ देर पाक-अमेरिका की बातें करने के बाद साड़ी पहने ही बिस्तर पर अधलेटी हो आई, जैसे सजधज कर फिर किसी समारोह में जाना हो!
वे भी सजे-धजे सोफे पर बैठे न्यूज देख रहे थे।
टीवी की आवाज, रातदिन की थकान और भोजन के नशे के कारण उसकी पलकें झुकने लगीं...। कुछ देर तो आँखें ताने स्क्रीन देखती रही, फिर झपक गई और सपना देखने लगी कि - घर में भीड़ भरी है और मेरी उनसे शादी हो रही है!
मम्मी मान नहीं रहीं। मैं रो रही हूँ...।
फिर देखा, कि वे अचानक बहुत छोटे हो गए है...। उससे आधी उम्र के! महज दस-बारह बरस के! तो, मम्मी हँसकर मान गई हैं! पर वह घबराई हुई पड़ोस के घर में जा छुपी है...आकाश ढूँढ़ते फिर रहे हैं!'
झंझावात में नींद टूट गई। टीवी पर न्यूज नहीं, 'लव-यू लव-यू, किस-मी किस-मी' का दौर चल रहा था। और वे सोफे से टिके उसी को ताक रहे थे! स्वप्न और यथार्थ के मेल से घबराई, कपाट से काँख में वस्त्र दबा बाथरूम में चेंज करने चली गई। तब उन्होंने भी परदे के पीछे जाकर कपड़े बदल लिए। मगर संकोचवश फिर से सोफे पर आ बैठे। बिस्तर पर जाने की हिम्मत न हुई। नेहा चेंज करके लौटी तो, वे उसे फूलों-से हल्के श्वेत गाउन में देख ठगे-से रह गए।
कपाट बंद कर वह सोफे के नजदीक से गुजरती मंद मुस्कान के साथ बोली, 'आज सोना नहीं है!'
'नहीं, आज तुम सुंदर लग रही हो!'
'अच्छा...' कहते हँस पड़ी। और वे उसके कंधें पर झूलते गोलाकार शेप के स्याह बालों पर मुग्ध, अभियान का एक गीत गुनगुना उठे, 'सारी दुनिया अपनी है, बस बाँहें फैलाना तुम...'
'कोर्टफीस चुकानी पड़ेगी क्या?' चहक कर पूछा उसने और बत्ती बुझा पहुँच गई बिस्तर में।
इशारा समझ दिल में हूक उठने लगी।
सुबह जब चिड़ियाँ बोल रही थीं, वे पीसफुली सो रहे थे। और वह थकान और जगार से उनींदी बिस्तर में एक अप्रतिम सुख से सराबोर सोच रही थी कि अब शायद वह एक ऐसी स्त्री बन जाय जो उनसे संबंध बनाए रखकर भी अपने परिवार में बनी रहे। अपनी संतान को अपने नाम से चीन्हे जाने के लिए संघर्ष करे। शायद उसे सफलता मिले! परिस्थिति-वश एक सामाजिक क्रांति के बीज उसके मन में उपज रहे थे। और फूल से झड़ते चेहरे में तमाम पौराणिक स्त्रियों के चेहरे आ मिले थे...।
पर दिल्ली से लौटकर उसका अपने घर में रहना मुश्किल हो गया। पिता, भाई, माँ और बहनों को वह बेहया, कुल्टा और बंचक नजर आती थी। एक ऐसी स्वेछाचारिणी स्त्री जो बारिश से बौराई छुद्र नदी की भाँति किनारे तोड़ बह उठी हो। महसूस होता कि उसके तो रंग-ढंग ही बदल गए! अब वह निर्भीक हो जाने-आने लगी थी...। कोई कुछ इसलिए न कहता कि हाईकोर्ट का डंडा था। पुलिस का आदमी यों भी घर और समाज के लिए शेर मगर कोर्ट के लिए गीदड़ होता है। भाई, बहनें और माँ भी शिकंजा कसतीं तो क्या पता कोई बवाल उठ खड़ा होता! वे उस दुराचारिणी को पहले की तरह डिटेंशन में नहीं रख सकते थे। मारपीट से तो बड़ा लफड़ा हो जाता। कहो, केस लग जाता... पंडिज्जी की नौकरी चली जाती।
बेरुखी बरत सकते थे, सो बरतने लगे। कोई उससे बात न करता। न कोई खाने-पीने की पूछता। दीदी की अबोध बालिका कंचन जरूर उसके मुँह आ लगती। पर नजर पड़ते ही वे उसे पीटते हुए घसीट ले जातीं। माहौल इतना कसैला हो गया था कि घर में कदम रखते ही उसका दम घुटने लगता। रात जैसे-तैसे गुजारती, सुबह होते ही भाग खड़ी होती। यों भी स्वीकृति और फंड मिल जाने से काम जोरों पर था। उसके लिए अलग से एक जीप मिल गई थी। वह स्वयं ही अपना टूर प्रोग्राम बनाती और लगातार दौरे कर अभियान को रफ्तार देती जाती...। मगर घर की बेरुखी बर्दाश्त नहीं होती। आकाश से कहती और वे चिंतित हो जाते।
एक दिन उन्होंने पत्नी से कहा, 'सुजाता, तुम कहो तो नेहा को हम यहीं रख लें!'
उसने सोचा, मजाक कर रहे हैं, बोली, 'रख लो, तुम में ताकत हो तो!'
'सो तो है...' वे मुस्कराने लगे। मगर हिम्मत नहीं पड़ी। पत्नी के अलावा बेटा-बेटी भी तो थे। बेटी दसवीं में, बेटा आठवीं में...। आजकल के बच्चे माँ-बाप से ज्यादा होशियार हो गए हैं। पति-पत्नी के झगड़े वाले टीवी सीरियल्स और पत्र-पत्रिकाओं में आएदिन छपने वाले तलाक के वाकयों ने उन्हें सजग कर दिया है। वे सब जान जाएँगे। कैसे स्वीकारेंगे यह सब!' उन्हें तनाव रहने लगा।
हारकर फिर यही रास्ता निकाला कि एक रेजीडेंसियल कार्यालय बनाया जाय...।
महिला समन्वयक के लिए यों भी एक स्वतंत्र कार्यालय की जरूरत थी। वही नेहा का घर भी हो जाएगा! सो, उन्होंने एक पॉश कॉलोनी में ऐसा एक घर किराए पर ले लिया। उद्घाटन पर स्थानीय विधयक और जिला कलेक्टर के साथ क्षेत्रीय महिला कार्यकर्ताओं को भी बुलाया गया। कॉलोनी को जोड़ने वाली मुख्य सडक पर तोरणद्वार और वहाँ से कार्यालय तक सड़क पर रंगत डाली गई। द्वार पर छोटी-बड़ी कई रंगोलियाँ बनाई गईं। महिलाओं का उत्साह उस रोज देखते ही बनता था। नेहा हीरो थी उस आयोजन की। वही संचालिका भी। उसी ने विधायक और कलेक्टर को गुलदस्ते भेंट किए। झनझना देने वाली स्पीच भी। जिसके बाद सभी एक ऐसे जुनून से भर उठे कि परिवर्तन की आँधी को अब कोई रोक नहीं सकेगा।'
गा-बजाकर वह उसी घर में रहने लगी। घर वालों को अब कोई उज्र न था। जैसे, उससे कोई नाता ही न था। नाक कट गई समझो। केस हाईकोर्ट न गया होता तो काटकर नदी में बहा देते। पर अब तो हाथ बँधे थे। उन्होंने आँखें मूँद लीं। और आकाश के लिए यह सरलता हो गई कि वे टूर से लौटकर यहाँ निर्विघ्न ठहर जाते। दो कमरे कार्यालय के लिए और दो रहने के लिए। क्षेत्र की महिला कार्यकर्ता आ जातीं तो वे भी ठहर जातीं। दो किचेन, दो बाथरूम थे। छत पर बरसाती। मेहमान बढ़ जाने पर वहाँ भी फर्श डालकर सोने में भी कोई संकट न था। यों सब कुछ गिरफ्त में था लगभग...। पर उनकी पत्नी मानसिक रूप से बीमार हुई जा रही थी। आकाश को फिर से पाने के लिए वह बाबाओं, तंत्र-मंत्र, मठ-मंदिरों के मकड़जालों में फँसी जा रही थी। खाँद के नीचे सड़क से लगा बूढ़े हनुमान का मंदिर उन दिनों काफी मशहूर हो गया था। सुजाता अपने बेटे हनी के साथ वहाँ दो-तीन बार हो आई थी। वहाँ उस जैसे वक्त के मारों की भीड़ लगी रहती थी।
सुजाता एक अधपकी औरत। जिसकी जवानी चली गई थी मगर बुढ़ापा अभी आया नहीं था। वह तो नितांत एक घरेलू स्त्री रही आई थी। थकान और ऊब के कारण बरसों से जिसने अपने शौहर के कमरे में जाना छोड़ दिया था...। पर इसका मतलब यह होगा, यह तो उसने सोचा भी नहीं था। वह तो समझती रही कि जैसे मैं घर-गृहस्थी में खप कर देह का जादू भूल बैठी, वे भी वकालत के बोझ और आंदोलन की चखचख से थक-हारकर विरक्त हो गए होंगे!
पर यह क्या हुआ?
अचानक पता चला कि उन्होंने दूसरा ब्याह कर लिया...।
उसने धरती-आसमान एक कर दिया। भाई को तार देकर बुला लिया और अदालत जाने की तैयारी कर ली! तब पता चला कि ब्याह नहीं किया। वे तो 'लिव-इन रिलेशनशिप' में रह रहे हैं।
- यह क्या होता है!' वह हतप्रभ थी...।
जानकारों ने बताया कि स्त्री-पुरुष अपनी मरजी से बिना किसी अनुबंध के साथ रहना शुरू कर देते हैं। यद्यपि उनका आपसी संबंध पति-पत्नी सरीखा ही होता है, पर इसमें कानूनी या सामाजिक विवाह जैसा कुछ नहीं होता। स्त्री को अदालत से माँगने पर अधिकार मिले तो मिले... दोनों में से कोई किसी और के साथ जाना चाहे तो कोई दावा नहीं चलता!' पर उसके तईं तो यह भी कम खतरनाक न था। उसके होते वे किसी और के हो जायँ, यह उसके स्त्रीत्व के लिए चुनौती थी!
हायतौबा से आकाश मानने को बाध्य हुए कि उनसे गलती तो हुई है। पर ये बड़ी जरूरी गलती थी। वे फिसले नहीं, बल्कि अपनी भीतरी जरूरत-वश नेहा से जुड़े। उनके लिए इस रिश्ते को नकार पाना अकल्पनीय है...। वे नेहा को साथ लेकर भी पहले की तरह अपने घर में रह सकते हैं। अपने दायित्वों को निभा सकते हैं।'
पर उनकी बेटी श्रेया ने इस प्रस्ताव पर थूक दिया। वह माँ की जगह खुद को देख रही थी। तय यही हुआ कि उन्हें उनके हाल पर छोड़ दिया जाए।
आकाश-नेहा के लिए यह परीक्षा का वक्त था। बेटी बहक सकती थी। बेटा भटक सकता था। कहाँ वे जमाने भर को भटकने बहकने से बचा रहे थे! एकजुट कर उन्हें उनके अधिकार दिला रहे थे। समाज से अन्याय, शोषण, जहालत, अंधविश्वास मिटा रहे थे। कहाँ उनके बेटा-बेटी ही हक से महरूम हो रहे... पत्नी अंधविश्वास की गुंजुलक में जकड़ने को विवश!
वे अलग रहकर भी सुजाता के घर आते-जाते रहे। यह अलग बात थी कि इस आवाजाही के कारण उनका कोई त्यौहार सुख से नहीं मना। सुजाता की आँखों में अपमान का प्रतिशोध और जुबान पर हक मार लेने की कुंठा का तलछट जमा रहता।
यहाँ आकर हर बार आकाश-नेहा बुरी तरह आहत हो जाते। बेटी, नेहा को हिकारत से देखती। आकाश, बेटे तक से नजर नहीं मिला पाते। जिंदगी अवसाद का घर हो गई थी। इसके बावजूद आकाश-नेहा एक-दूसरे को ऐसे पकड़े थे, जैसे डूबने वाले तिनके को पकड़ लेते हैं!
सुजाता को अब वे ही रातें याद आतीं, जिनमें वह अनिच्छा प्रकट किया करती थी। और वे अवसर जिन पर वह पति के साथ जाना टाल जाती। उनकी पसंद को दरकिनार कर बच्चों की पसंद बन गई सुजाता को अब वे कोमल क्षण भी याद आते जिनमें आकाश की भावुकता और चाहत को बड़े हल्के से ले लेती वह और सहेलियों, डिजाइनों, पकवानों, मर्तबानों में बिजी बनी रहती...।
वह खुद पर खूब खीजती, पर ये बातें किसी को नहीं बताती अब...। उसे अच्छी तरह एहसास हो गया था कि वह पति को भरपेट भोजन नहीं दे पाई। भोजन केवल सेक्स नहीं होता। उसकी अभिरुचि बनना और दोस्त बनना भी होता है, शायद!
यह मौका अब फिर से पाना चाहती थी, वह!
श्रेया भी खूब टैंज रहती।
हनी इन दोनों की बिगड़ती शक्लों, चिड़चिड़ेपन और घर के बिगड़े रूटीन को झेलते-झेलते बड़ा संवेदनशील हो चला था। अपने मन की किसी से कह नहीं पाता। उसे कोई दोस्त चाहिए था, संबल की तरह, वह ज्यादातर घर से गायब रहता।
सुजाता ने हरचंद कोशिश की, बिगड़े घर को बनाने की, पर उसका प्रयास उल्टी दिशा से चालू हो रहा था। उसने बच्चों को सहेजने और दांपत्य की यथास्थिति को स्वीकारने के बजाय अपने बनाव-शृंगार पर ध्यान केंद्रित कर दिया। वह नेहा से ज्यादा जवान और खूबसूरत दिखने के प्रयास में ब्यूटीपार्लरों में जाने लगी। उसने टीवी के सीरियलों पर भी ध्यान केंद्रित किया और भावुक प्रसंगों के सेंटिमेंटल कर देने वाले डायलोग रट लिए।
सजधज कर एक बार वह नेहा के कार्यालय जा पहुँची जहाँ आकाश रहने लगे थे। नेहा थी नहीं, वह फील्ड में गई थी और वे कंप्यूटर पर बैठे डाटा भर रहे थे। सुजाता के आते ही कमरे में खुशबू भर गई। वे उसकी दुल्हन-सी सजधज बड़े कौतुक से देखते रहे। पर कोई आकर्षण न बना। वे उन लोगों में थे ही नहीं जो स्त्री को देखते ही लट्टू हो जाते। उनके तईं मन का मेल अहम था...। मुस्कराए जरूर पर जैसे भिड़े थे, भिड़े रहे। इस बीच सुजाता ने उनके करीब अपनी कुर्सी खींच सटने की नाकाम कोशिश भी की। भावुक प्रसंगों के भावुक कर देने वाले सारे डायलोग भी बोले, मगर वे हँस मुस्करा कर रह गए।
सुजाता इन प्रयासों से भी आकाश को न रिझा सकी तो मोहल्ले-पड़ोस की सलाह पर उसने खाँद वाले बूढ़े हनुमान की तरफ रुख कर लिया...।
और चमत्कार यह कि पहली बार में ही बाबा ने भाँप लिया कि वह एक परित्यक्ता स्त्री है। बाबा का क्लीनशेव्ड गुलाबी मुख, ऊपर को काढ़े गए बेहद काली चमक वाले घुँघराले बाल, काली चमकदार आँखें और बेहद आकर्षक चितवन, केशरिया बाना... कुल मिलाकर इतना सम्मोहक व्यक्तित्व कि वह ठगी-सी रह गई। कुछ कहते न बना।
मुस्करा कर बाबा ने उसे एक काला चमकदार मनिया दे दिया, इस हिदायत के साथ कि - काली नख में डालकर अपनी कमर में बाँध ले!'
हनी साथ में था। बाबा ने उसे देखा तो कुछ देर देखते रहे। फिर संकेत से निकट बुलाकर बैठा लिया। पहले सिर पर, फिर उसके चिकने गालों पर देर तक हाथ फेरते रहे और आँखें मूँद लीं। अस्थान पर जाने से सुजाता को बाबा के अभ्युदय के बारे में विस्तृत जानकारी मिल गई थी...।
अस्थान तो नया था, पर मंदिर पुराना था। शहर से कोई आठ-दस किलोमीटर चलने के बाद खाँद उतरते ही दाएँ बाजू बूढ़े हनुमान का एक प्राचीन मंदिर था। जहाँ आकाश के साथ वह बाल-बच्चे होने से पहले दो-चार बार घूम गई थी। हनुमान की इस विराट और चेहरे पर झुर्रियाँ पड़ी मूर्ति को देखकर उसका मन बड़ा आप्त हो आता था। वासना दूर भाग जाती थी। और वह श्रद्धावनत होकर वैराग्य भाव से सराबोर हो उठती थी। यह मूर्ति की ही खासियत थी कि उसका दर्शन दर्शक के चित्त को संसार की असलियत यानी नश्वरता से अवगत करा देता।
वे जब भी मंदिर आते, रोड पर ही एकाध किलोमीटर और आगे तक बढ़ आते। सड़क किनारे ही एक गाँव पड़ता। उसके बाद नदी। और नदी पर रपट। रपट पर पहुँच कर वे नदी की किलकती धर में अपने पाँव डाले रहते। वहीं किनारे पर बैठकर लंच लेते, कपल्स की भाँति पिकनिक का पूरा आनंद उठाते। उन्हें दोस्तों की जरूरत न होती थी उस कालखंड में।
पर वह सब बहते पानी के साथ बह गया है... दूर-दूर तक अब तो उसके अवशेष भी नहीं दिखते। सुजाता के पास अतीत के चित्रों से उपजी निश्वासों के सिवा कुछ नहीं बचा अब तो...। रेत जैसे, मुट्ठी से फिसल गया है! क्या बटोरे, क्या घर ले जाए, वह? वक्त के साथ रपट भी टूट गई है। और सड़क भी। खाँद के ऊपर से ही दूसरी सड़क समानांतर पड़ गई है, जो एक पुल से होकर गुजरती है। नदी नीचे पड़ी रह जाती है।
माँ के इन उठते-गिरते उच्छवासों से बेटा अनभिज्ञ नहीं था। पर उसे अतीत का कुछ भी ज्ञान नहीं था कि कैसे, सड़क ऊपर डल जाने से मंदिर बेचिराग हो गया था...? जब दर्शनार्थी नहीं, भेंट-चढ़ावा नहीं तो ठाकुर टहल और मंदिर की झाड़ा पोंछी कौन करता? सो, मंदिर के आसपास जंगली झाड़ियाँ खड़ी हो गईं। जानवर भी तरस गए बूढ़े हनुमान के दर्शन को। क्योंकि नजदीकी गाँव भी अपनी पूँछ साइड से नई सड़क से जुड़ गया था और गाँव के इस पार आमदरफ्त न रहने से मंदिर जंगल का हिस्सा हो गया।
सुनाई पड़ता कि बूढ़े हनुमान की मूर्ति बड़ी सिद्ध मूर्ति है! यहाँ पहले जमाने में एक बड़े पुराने बाबा रहा करते थे। उनकी दाढ़ी घुटनों तक, भौंहें दाढ़ी में मिल गई थीं। समाधि उपरांत उन्होंने झाँसी मंडल के जतारा नामक कस्बे में पुनर्जन्म लिया और वहीं के एक मंदिर पर ठाकुर टहल करने लगे।
पुण्योदय न होने के कारण जब उन्हें बहुत दिनों तक पूर्वजन्म की स्मृति प्राप्त नहीं हुई तो एक रात बूढ़े हनुमान ने उन्हें सपना दिया। बस, उसी से बाबाजी को सुरति प्राप्त हो गई और वे बस में बैठकर चंबल वेली चले आए। ढूँढ़ते-ढूँढ़ते यहाँ उन्हें खाँद वाले हनुमान जी आखिर मिल ही गए...।
बाबा के प्रताप से मंदिर फिर से आबाद हो गया।
आसपास के भक्तों के सहयोग से अखंड रामायण और अखंड कीर्तन आयोजनों से यहाँ आदमी की चहलपहल इतनी बढ़ गई कि तमाम बिसाती आ जुटे जो भक्तों को प्रसाद और गाँव को रोजमर्रा का सामान बेचने लगे।
फिर एक दिन पीएचई का एक ठेकेदार आया। उसके साथ असिस्टेंट इंजीनियर भी। उन्होंने दरस-परस कर बाबा से 'हम लायक कोई सेवा' की बात पूछी तो उन्होंने इशारे में भक्तों को पानी की व्यवस्था करने को कह दिया। दोनों ने एक-दूसरे को देखा और वचन देकर चले गए। तब पंद्रह दिन के भीतर बोरिंग होकर पंप चालू हो गया। एक बड़ी प्याऊ टंकी भी बन गई।
फिर एक दिन एमएलए आया और पुरानी सड़क की मरम्मत का वचन दे गया।
उन्हीं दिनों बीहड़ समतलीकरण का काम चल रहा था, चंबल वेली में। बाबा के प्रभाव से दो बुल्डोजर मंदिर के आसपास लग गए और दसियों हेक्टेयर जमीन निकाल दी टीले खोद-खादकर। देखते-देखते बड़ा भव्य मैदान निकल आया भरखों में। फिर और भी बड़े-बड़े लोग आने लगे, जिनमें संभाग के मंत्रियों और प्रदेश के मुख्यमंत्री का भी नाम जुडने लगा।
इन सब की मेहर से वहाँ बूढ़े हनुमान के जीर्णोद्धार के साथ-साथ एक भव्य राम-जानकी मंदिर भी अस्तित्व में आ गया। संतनिवास और बड़ी भव्य यज्ञशाला बन गई। हर साल यज्ञ होने लगा। जिसमें इतना बड़ा मेला लगता कि कई प्रायवेट बसें चल पड़तीं खाँद के लिए। दूर दूर के दूकानदार आ जाते। आयोजन समिति नामी भजनगायकों, प्रवचनकारों के साथ एक प्रसिद्ध रामलीला मंडल और रासलीला मंडल को भी आमंत्रित कर लेती। बीघों जमीन में टेंट लग जाते। अस्थायी पाइप लाइन और विद्युत लाइन पड़ जातीं। बड़ा रमणीक स्थल बन जाता गर्मियों के दिनों में वहाँ...।
जहाँ पहले, कभी-कभार खड़िया साधु रहा करते थे, वहीं अब टकसाली साधुओं की जमात अपना स्थायी डेरा जमाए हुए थी जिसे सिद्धांत पटल और ठाकुर टहल रटी पड़ी थी। एक गौशाला भी थी। यानी खूब गौ सेवा होती और खूब साधु सेवा। बाबाजी अस्थान के महंत थे। सदैव गादी पर विराजते, साधुओं से जटाजूट न बनाते न आड़े-तिरछे तिलक खींचते, वे क्लीनशेव्ड रहते, काले चमकदार घुँघराले बाल ऊपर को काढ़ते, करीने की भौंहें और पलकों की बरौनियाँ... लगता, ओठों पर भी कोई प्राकृतिक रंग वाली लाली लगी हो, जबकि अखाड़े के शेष साधु सूर्योदय से पूर्व उठकर नैमेत्तिक कर्म से निवृत्त हो नदी पर स्नान-ध्यान बनाकर सूर्य को जल देते, गुफाओं में घुसकर समाधि लगाते, बाहर निकल कर पंचाग्नि तापते और देह में भस्म मलकर साँझ तक पंगत में बैठकर प्रसाद पाते!
अस्थान पर दंडवत और साधुशाही जयकारों के स्वर भक्तों को बहुत रोमांचित करते। अगर-धूम्र और चंदन की महक से वातावरण बड़ा पावन बना रहता। बाबा का चमत्कारी व्यक्तित्व, मंदिर-मूर्तियों का भव्य रूप और घंटा-ध्वनि मनुष्य के मन-मस्तिष्क को किसी और ही लोक में ले जा पहुँचती। जहाँ राग, द्वेष, संत्रास, घुटन, पीड़ा, अवसाद और कोई अभाव न रह जाता। रोम-रोम पुलकित और भावना इतनी पावन हो जाती कि शरीर का भान न रहता। ओर छोर आनंद बरस उठता। बाबा के दर्शन में साक्षात ईश्वर के दर्शन होते और बाबा की वाणी में साक्षात ईश्वर की वाणी। वे जब बोलते तो सभी अपने कानों के परदे ढीले छोड़ देते :
'ईश्वर एक है। वह मूर्तियों और पूजाघरों में नहीं है। वह मेरे और तुम्हारे भीतर है। तुम उसे किसी साधना, किसी प्रार्थना, किसी तंत्र-मंत्र, पूजा-विधि से नहीं पा सकोगे। वह तो प्रेम से प्रकट होगा...'
शब्द ऐसे गिरते, जैसे अमृत की बूँदें गिरती हों! कान चौकस खड़े होते उन्हें बटोरने के लिए। हवा तक अपनी साँय-साँय खो बैठती। और वे जिसको छू लेते वह तो मिट ही जाता। एक अजीब पुलक से भरकर भावविभोर हो जाता।
हनी को बाबा के पास बैठना बड़ा सुखद लगता। वह बाबाजी से जब भी अपने पापा को मिलाने बैठता, बाबा के प्रति श्रद्धा से और पिता के प्रति घृणा से भर उठता।
संयोग से जिन दिनों बाबाजी की ख्याति फैल रही थी, उन्हें देवत्व प्राप्त हो रहा था, उन्हीं दिनों में पापा शहर भर में, रिश्तेदारियों में और आसपास के समाज में कामी पशु घोषित हो रहे थे।
उसे अपने पिता और साधुबाबा की उम्र में ज्यादा फर्क भी नहीं दिखता। वह जहाँ भी जाता और परिचय होता - यह आकाश का बेटा है, वहीं, निगाहें उसे भेद उठतीं। उन नजरों में दया, जिज्ञासा, कुतूहल, आश्चर्य और एक मजाक-सा होता। वे जगह जगह उसका उपहास उड़ातीं। उसका पीछा कर उसे निरंतर हेय बनाए उससे चिपकी रहतीं।
श्रेया से उसकी सहेलियाँ पूछतीं, 'आखिर तुम्हारी माँ में ऐसी क्या कमी थी...?' घर आकर वह फूट-फूट कर रोने लगती। माँ की दुर्दशा के लिए नहीं, अपनी इमेज के लिए। उसे नेहा से भारी जलन होती। इस पचड़े में सबकुछ इतना अस्त-व्यस्त हो गया कि उसकी तो खैर, डिवीजन ही बिगड़ी, हनी तो आठवीं में फेल हो गया! वैसे भी उसका मन पढ़ाई में जरा कम ही लगता था। आकाश घेर घार कर बिठाते तब वह होमवर्क कर पाता। अब उनके घर में न रहने से उसने बस्ता जैसे बाँधकर रख दिया था...। स्कूल और दोस्त, दोस्त और स्कूल। घर में सिर्फ खाने-पीने, सोने के लिए आता।
सुजाता अपनी पारिवारिक विभीषिका का हल बाबा की कृपा में खोजने को मजबूर थी। बाबा का दिया हुआ जंत्र अपनी कमर में बाँधकर उसने सोचा कि आकाश पर अपना वशीकरण मंत्र चला लेगी! हनी से उसने फोन कराया कि - मम्मी की तबीयत बहुत खराब है, आज आप घर चले आओ!'
नेहा ने सुना तो उन्हें तत्काल भेज दिया।
आकाश आए तब वह बिस्तर में लेटी थी। लेटी रही...। चेहरा आँसुओं से तर था। वे बैठ गए। देह गर्म थी उसकी। पूछा :
'किसी को दिखाया?'
- नहीं...' उसने सुबक कर न में गर्दन हिला दी।
'चलो, दिखा लाएँ!' उन्होंने हाथ पकड़ उठाया। पर वह उठी नहीं। हाथ खींच अपने सीने पर रखवा लिया और सिसकने लगी। आकाश बैठे रहे ओर वह रोती रही। उसकी इच्छा थी कि वे लेट जायँ। जैसे, भरोसा था कि साथ सो लिए एक भी रात0 तो बँध जाएँगे। उन दिनों में वह बाबा द्वारा दी गई एक चौपाई का भी जाप कर रही थी : 'गई बहोरि गरीब निबाजू। सरल सबल साहिब रघुराजू।'
बाबा ने कहा था : 'वे सरलता की खान दीनबंधु खोई हुई वस्तु को भी वापस दिलाने में समर्थ हैं!'
सुजाता नियम से पूजा-पाठ करने लगी थी।
श्रेया को चिढ़ छूटती। पर हनी कभी-कभी नहा-धेकर उसके साथ बैठ जाता। घी का दीपक जलाकर दोनों जाप करते और ध्यान भी। रोज कल्पना में गई वस्तु वापस आ जाती। पर हकीकत कुछ और थी। आकाश गोया, पत्नीव्रता हो गए थे। पत्नी अब सुजाता नहीं, नेहा थी। सच पूछा जाए तो यह सब मन का ही खेल था...। देह तो कितनी भी धोओ, चमकाओ मैल की खान थी। मैल उससे लगातार सृजित होता। चाहे बढ़िया से बढ़िया मिठाई खाओ, चाहे सुगंधित पेय पियो। अंततः बदलना सब को मैल में ही होता! पर मन-शुद्धि के फेर में ही तो मनुष्य बँधा है!
थोड़ी देर बाद उठकर वे श्रेया के पास चले गए, जिसकी आँखों में हिकारत थी। वह कल की लड़की उन्हें भाभी, चाची की तरह सुजाता के कमरे में धकेल रही थी! तब वे हनी के पास चले गए, जो पढ़ाई की जगह पाँव पसारे, टेढ़ी गर्दन किए खर्राटे भर रहा था...। आकाश उसी के साथ लेट गए और लेटे-लेटे सो गए। सुबह आँख खुली तो उठकर काम पर निकल गए।
बाबा का दिया हुआ जंत्र-मंत्र नाकामयाब हो रहा। आकाश की आँखों में अब उसके लिए दया और सहानुभूति थी। अपनापन था। पर समर्पण का वह भाव न था जो पति-पत्नी के बीच होता है... जो अब नेहा और उनके बीच था। इसके बावजूद वे पहले की तरह अब भी हनी, श्रेया और सुजाता को भरपूर चाहते थे। अलग रहने से उनकी चाहत और भी बढ़ गई थी...।
लेकिन सुजाता को खालिस आकाश चाहिए थे, मिक्स नहीं! यह उसके अहंकार का सवाल था। अहंकार ही तो मैं मेरा, तू तेरा का बोध कराता है! इसे खोकर तो मनुष्य का अस्तित्व ही विलीन हो जाएगा! वह देवों के भी देव और साक्षात ईश्वर के अवतार खाँद वाले बाबाजी की शरण में एक बार फिर जा पहुँची। साथ में उसका बेटा हनी भी। जिसे देखकर बाबाजी की आँखों की चमक बढ़ गई। वे उसे नख से शिख तक अपलक निहारते रहे और फिर आँखें मूँद कर ध्यान-मग्न हो गए। कुछ देर बाद ध्यानावस्था से निकल कर सुजाता से बोले, 'देवि! यह बालक स्वयं तुम्हें तुम्हारा अभीष्ट लौटा सकेगा। किंतु इसके लिए इसे हमारे सानिंध्य में आश्रम पर रहकर अपनी अंतर्निहित परमशक्ति को जगाना होगा...'
सुजाता के लिए इससे ज्यादा खुशी की बात और क्या हो सकती थी! उपस्थित जन समुदाय ने हनी को ईर्ष्यालु नजरों से देखा और हीन भावना से भरकर सुजाता के भाग्य को सराह उठा। महाराज जी की चट्टियों पर माथा नवाकर वह घर लौट आई। माँ से बिछुड़ते वक्त हनी की आँखों में न विरह-भाव आया न भय का कोई अंश। वह तो पवित्र धम में, देवाधिदेव के सानिंध्य में अपने किसी पूर्वजन्म के पुण्य-प्रताप से ही आया होगा!' उसने सोचा...।
माँ के साथ आश्रम आते-आते वह भी भाग्य, पुनर्जन्म, पूर्वजन्म, कर्मफल, पुण्य-पाप आदि की थ्योरी सीख गया था। आज उसे इस बात पर भी यकीन हो गया था कि ईश्वर जो भी करता है - सदैव अच्छा ही करता है, तत्समय वह भले बुरा लगे! पापा का वह कदम कितना बुरा लगा था उसे। पर आज उसकी अच्छाई समझ में आ रही है...। यदि वे ऐसा न करते तो आज उसे यह अवसर कैसे मिलता!
साँझ हो गई थी। उसे बाबा के ध्यान-स्थल पर पहुँचा दिया गया था।
यहाँ सेवक भी कदम नहीं धर सकते। कोई विरला ही भाग्यशाली जिस पर देव खुद रीझ जाएँ, इस साधना कक्ष में आ पाता...। थोड़ी देर पहले किए गए सुस्वादु भोजन की डकार आने से हनी को फनः उसकी स्मृति हो आई। सेवक ने बताया था कि पंगत में यह प्रसाद नहीं बँटता। इसे तो महाराज जी के लिए उनका निजी रसोइया पकाता है। सचमुच उस भोजन की महक हनी की उँगलियों में अब तक जस की तस मौजूद थी।
कक्ष में आकर वह देर तक खड़ा रहा। कक्ष की भव्यता देखते ही बनती थी। क्या आज सदेह क्षीरसागर में उतर आया है, वह!' विस्मृत-सा हनी कुछ देर बाद एक नर्म बिस्तर पर बैठ गया। कक्ष मानों वातानुकूलित था। उसे स्वर्ग का सा आभास हो उठा। इन्हीं ख्यालों में लिपटा आनंदातिरेक में वह कब सो गया, उसे खुद भी पता नहीं चला।
नित्य संझा आरती के बाद अंतिम दर्शन उपरांत बाबाजी अपना सुदर्शन स्वरूप बिखेरते उस साधना बनाम शयन कक्ष में आ विराजे, जहाँ हनी बेखबर सोया पड़ा था। सेवक चरण-वंदन कर सीढियों के ऊपर से ही लौट गए थे।
नर्म बिस्तर पर मासूम हनी निर्विघ्न सो रहा था। और स्वप्न में स्वर्गलोक में भक्त प्रहलाद और ध्रुव की भाँति ईश्वर की गोद में बैठकर परमशांति को उपलब्ध हो रहा था। इधर ईश्वर वेषधरी बाबा को दिखने में वह अपनी माँ जैसा भरे-भरे शरीर वाला दिखा। उसके फूले-फूले गाल, सुर्ख ओठ, भारी-भारी कूल्हे और हाफ पेंट से निकली मोटी-मोटी टाँगें वे देर तक निरखते ही रह गए।
फिर अपना दुशाला उतारकर वे बिस्तर पर ऐसे नमूदार हुए, जैसे घटाटोप बादल को फाड़कर यकायक सूरज दमक उठा हो...। आँखें सिकोड़ कर वे देर तक हनी के फूले-फूले गालों को देखते रहे, फिर उन्हें झुक कर चूस उठे! दाँतों से ऐसे खुरच कर चूस उठे जैसे वे हनी के गाल चित्ती पड़े हुए पके अमरूद हों!
उस वक्त उनकी कामुक आँखों में क्षितिज के इस छोर से उस छोर तक एक सुदीर्घ इंद्रधनुष लहरा रहा था।
इस आघात से हनी का सपना छिन्न-भिन्न हो गया। ध्रुव-प्रहलाद और ईश्वर अलग थलग जा पड़े। विस्फारित नेत्रों से उसने अर्धनग्न दशा को प्राप्त देवाधिदेव को देखा और भय से सफैद पड़ गया।
जैसे, खून सूख गया।
फिर कुछ दिनों बाद वह नदी में डूब कर मर गया।
बाबा ने सुजाता को बताया :
'वह आत्मज्ञान को उपलब्ध हो गया था। जलसमाधि ले ली उसने। जीवात्मा का प्रारब्ध उसके साथ जुड़ा होता है, देवि! तुम व्यर्थ में शोक न करना!'
मगर वह बुक्का फाड़कर रोने लगी...।
रोते-रोते ही कमर में बँधा बाबा का दिया काला मनिया उसने वहीं तोड़ कर फेंक दिया।
शाम तक बेहाल सुजाता को उसके घर पहुँचवा दिया गया।
श्रेया ने रोते हुए पापा को फोन पर बताया सारा किस्सा...। वे दौडकर तुरंत आ गए। नेहा उस वक्त क्षेत्र में थी। खबर मिली तो रात तक वह भी आ गई। रात में किसी ने खाना नहीं खाया। रात भर कोई सोया भी नहीं। रह रहकर सीने में हूक उठती रही। सुजाता सन्निपातिक-सी नेहा की गोद में पड़ी रही और श्रेया पापा की गोद में। आकाश और नेहा ने उसी रात संकल्प ले लिया था कि उस यमदूत को छोड़ेंगे नहीं।'
सुबह वे उठकर जाने लगे तो सुजाता ने नेहा का हाथ पकड़ भर्राए स्वर में कहा, 'यहीं रह जाओ... तुम्हारा बाबा, पाल लेंगे हम!'
आकाश लज्जित हो गए। नेहा गर्भवती थी।
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