लिव-इन रिलेशनशिप / भाग 3 / ए. असफल

Gadya Kosh से
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दो महीने निकाल दिए, घबराहट में डूबे डूबे। तमाम उल्टी सीधी खबरें आ रही थीं। हारकर एक दिन उनके घर जा पहुँची। शाम का वक्त! घर में सिर्फ सुजाता दिख रही थी। आशंकित मन से पूछा, 'कोई है नहीं?'

'15 अगस्त की शापिंग करने बाजार गए हैं।' कहते मुस्करा पड़ी।

'15 अगस्त की शापिंग?' नेहा समझ नहीं पाई।

'कंट्री का 'बर्थ-डे' है ना!' वह खुलकर मुस्कराने लगी, 'पड़ोसी बच्चों को सेलिब्रेट करने गुव्वारे-झंडे वगैरा लेने गए हैं। केक का नक्शा बनाकर बताएँगे...'

'भाई साब!?'

'वे तो हैं...' सुजाता हँसी तो, वह झेंप मिटाती बोली, 'स्कूल के प्रोग्राम से इतनी फुरसत मिल जाएगी!?'

'सब मिल जाएगी,' वह फिर मुस्कराई, 'खेल में थकते कहाँ हैं...' कहती किचेन में उसके लिए चाय बनाने चली गई। और वह आकाश के कमरे में चली आई जहाँ वे उद्भ्रांत से सिर झुकाए बैठे थे। जैसे, सूरज सचमुच डूब गया हो!

नेहा गमगीन हो आई।

आकाश विवशता भरे स्वर में कहने लगे :

'विरोध हद से ज्यादा बढ़ गया है... अब तो सांसद तक मुँह चलाने लगा! शोभिका के हत्यारे उसके संरक्षण में हैं... एनजीओ के हित में यही लग रहा है कि मैं इस्तीफा दे दूँ!'

सुनकर वह विह्वल हो आई : 'जनता इनके लिए तोरणद्वार सजाती है...'

देर बाद आँसू पोंछ निर्णीत स्वर में बोली, 'यों तो शैतानों के हौसले और बढ़ जाएँगे! फिर वे किसी को काम नहीं करने देंगे! आपको मेरी कसम, काम छोड़ो नहीं! मैं साथ हूँ तो! जिसे रोकना हो रोक ले!'

अगले दिन वह जल्द ही टूर के लिए तैयार हो गई। ड्रायवर से उसने रात को ही बोल दिया था। वह भी इतना कटिबद्ध कि हरदम तैयार मिलता। और तो और उनकी पत्नी सुजाता भी नेहा की हाँ में हाँ मिला उठी! झिकझिक करते दोपहर तो हो गई पर उन्हें मजबूर हो उसके साथ निकलना पड़ा! और बेमन ही सही, शाम तक वे लोग तीन-चार गाँवों में घूम आए। इससे हुआ यह कि क्षेत्र में जो भ्रांति फैल रही थी, अभियान ठप हो गया... कुछ हद तक मिट गई। कार्यकर्ता को तो उत्साह का खाद-पानी चाहिए। उन्हें पाकर वे फिर जोश से भर उठे। पर वापसी में जीप एक कच्चे पहुँच मार्ग में फँस गई।

ड्रायवर गियर अदल बदल गाड़ी आगे-पीछे झुलाता रहा। हड़ गया तो इंजन बंद कर दिया।

गर्दन मोडकर नेहा ने आकाश से पूछा, 'अब?'

'कोई ट्रेक्टर मिले तो इसे खिंचवाया जाय!' वे हताश स्वर में बोले।

'गाड़ी यहीं छोडकर मेनरोड तक निकल चलें... अभी तो कोई साधन मिल जाएगा!' वह चिंतित हो आई। गोया, सिर पर पापा का खौफ मँडरा रहा था। तब ड्रायवर ने मोर्चा सँभाल लिया, 'सर! दीदी को लेकर आप निकल जायँ।'

बादल मढ़े थे। दिशाओं में संध्या फूल रही थी...।

कुतूहल से भरे कुदरत के नजारे निरखते कदम-कदम बढ़ ही रहे थे कि बारिश झरने लगी। उन्हें फिर एक बार ड्रायवर का ख्याल हो आया, उस को पापा का। मगर फिसलन से बचने एक-दूसरे का हाथ थाम लिया, दिल में झींसियाँ-सी बज उठीं। फिर पता नहीं चला, अँधेरा कब उनके कदमों से तेज चलकर आ गया!

गिरते-पड़ते वे मुहांड तक आ गए।

ऐसा तिराहा जो तीन प्रांतों को जोड़ता...। इसे दो-तीन सालों से भली-भाँति जानती थी वह। नीमों की बगिया के बावजूद जो अक्सर सूना रहता। जहाँ वर्षों से गड़ी पीडब्ल्यूडी की खिड़कीनुमा दरवाजे वाली रेल के डिब्बे-सी टीन की गुमटी हमेशा कौतूहल जगाती। जब भी इधर से गुजरती, भीतर झाँक लेने की इच्छा हो आती। बारिश तेज हो आई तो उसके खिड़कीनुमा दरवाजे में होकर ही भीतर पड़े पुराने तख्त पर शरण लेना पड़ी! इच्छाएँ किस तरह पूरी होती हैं, वह चकित थी।

हवा के झोंकों के साथ पानी की तेज बौछार भी भीतर आने लगी तो आकाश ने गुमटी का वह खिड़कीनुमा द्वार भी बंद कर लिया...। संझा-आरती का वक्त। दूर किसी देवालय से शंख-झालर की मधुर ध्वनि आ रही थी। मुरली बजाते श्याम और उन पर मुग्ध राध जहन में नाच उठे :

'ओह! राधकृष्णा का प्यार भी क्या गजब फिनोमिना है, यार!' तिलिस्म में डूबते-उतराते उसने आकाश से कहा। और जवाब में ओठ ओठों में भर लिए उन्होंने! गुमटी पर बजता बूँदों का संगीत दिल के भीतर उतर आया! वेणु बजने लगी, गोया! फिर पता नहीं कितनी बिजली कड़की, कितनी झड़ी लगी रही! एक के बाद एक कई एक वाहनों की घरघराहट गुजर गई ऊपर से तब देर बाद गुमटी से बाहर आए। जहाँ से ट्रक में चढ़कर शहर। लगता था ट्रक ड्रायवर ने जिसकी अभी मसें भीग रही थीं, उसे देखकर ही लिफ्ट दी थी! सड़क से बार-बार नजरें हटाकर वह इधर ही टिका लेता जहाँ वोनट के पार वह भीगी हुई बैठी थी! आकाश उसके भोलेपन पर रह-रहकर मुस्करा लेते।

मगर उत्साहबर्धन के बावजूद वे लाइन पर नहीं आए। महीने, दो महीने में वह जब भी मिलने जाती, वही आदर्शवादी बातें करने लगते। कहते हम सब तो सिपाही हैं। एक के गिर जाने पर दूसरे को कंधे नहीं झुका लेना चाहिए, बल्कि उसकी जगह लेकर मोर्चे पर पहले से ज्यादा मजबूती से डट जाना चाहिए। पर उसके लिए यह सब इतना आसान नहीं था। एक सामान्य से अभियान को जीवन का लक्ष्य और उसके तईं एक युद्ध जिस सेनापति ने बना दिया था, वही मँझधर से लौट पड़े तो कोई अथाह सागर को कैसे पार करे! अलबत्ता, उनकी जगह कार्यकारी समन्वयक ने ले ली थी। जीप फिर आने लगी। मगर उसने लौटानी शुरू कर दी। एक अजीब-सी नर्वसनेस और गुस्से ने उसे अपनी गिरफ्त में ले लिया था। सोचती कि यह सब मेरे कारण हुआ है। सब की मुझी पर नजर थी कि एक कुआँरी लड़की कब से रात-बिरात एक विवाहित पुरुष के संग छुट्टा घूम रही है...। समाज तो दूध का धुला है! व्यभिचार कब तक बर्दाश्त करता...?

दिन-ब-दिन उसका अफसोस गहराता जा रहा था। उसने उनके यहाँ जाना और उनसे मिलना भी बिल्कुल बंद कर दिया था। महीनों से उसे घर में और लगातार घर में पाकर घर खुद हैरान था। क्योंकि घर तो उसे काटने को दौड़ता था। रेलमपेल काम निबटा, सदा रस्सी तुड़ाकर गाय-सी भागती रही थी। दिन छह महीने का होता तो शायद, छह-छह महीने न लौटती! वह तो रात की आवृत्ति ने पैर बाँध रखे थे घर की चौखट से!

पापा ताज्जुब से पूछते, 'तुमने काम छोड़ दिया...?'

वह रुआँसी हो आती। माँ टोह लेती। भीतर खुशी, बाहर चिंता जताती, 'बैठे से बेगार भली थी...। दिन भर घुसी रहती हो घर में।'

तब शायद, उसकी बनावटी पहल की दुआ से ही एक दिन उनका फोन आ गया :

'नेहा! कैसी हो-तुम...?'

'जी अच्छी हूँ!' उसका दिल धड़कने लगा।

'देखो,' वे हकलाते-से बोले, 'तुम्हें रिप्रजेंटेशन के लिए दिल्ली जाना है!'

'मुझे! कब...?' जैसे, यकीन नहीं आया।

'हाँ, हमें! मई में... मंत्रालय से फैक्स मिला है।'

'पर आप तो...'

'वापसी हो गई है... ब्लॉक अध्यक्ष और महिला मोर्चा की सदस्य ने मिलकर अपील जारी की थी कि ब्लाक जागरूकता समिति द्वारा विकास खंड में चलाए जा रहे जागरूकता अभियान में विगत छह-सात माह से काफी गतिरोध आ गया है। इसका मुख्य कारण प्रशासन एवं स्थानीय जनप्रतिनियों के दबाव में जिला जागरूकता समिति द्वारा अनावश्यक हस्तक्षेप - साधन, सुविधाओं सम्बंधी असहयोग, कार्यकर्ताओं का चरित्र हनन तथा मॉनीटरिंग के नाम पर अनाधिकृत लोगों को क्षेत्र में भेजकर कार्यकर्ताओं को हतोत्साहित करना है। इसी कारण जबकि ग्राम स्तर पर संचालित ट्रेनिंग सेंटर बंद होने लगे, जिला समिति की गैर जिम्मेदारी के चलते विकास खंड समन्वयक ने गत वर्ष 23 अगस्त को इस्तीफा दे दिया। इन दुर्घटनाओं से वर्तमान में विकास खंड में जागरूकता अभियान खतरे में पड़ गया है। सचिव एवं अध्यक्ष से माँग की जाती है कि तत्काल कार्यकारिणी समिति की बैठक बुलाई जाय ताकि समस्याओं का हल खोजा जा सके।' और फिर बैठक में सारे जुझारू लोगों ने तय किया कि मीडिया की परवाह न कर भ्रष्ट प्रतिनिधियों और स्थानीय प्रशासन से पंगा लिया जाय!'

'नहीं!' उसका स्वर काँप गया।

'क्यों?' वे जैसे, आफत में पड़ गए।

'जा नहीं पाऊँगी।' उसने फोन रख दिया।

वह अपने पापा को जनम से जानती थी कि उनके पास एक पुलिसिए की आँख भी है। वे कभी इजाजत नहीं देंगे। उसका दिल बैठ गया था...। यह कैसी खुशखबर थी कि वह रो रही थी! दिन भर से उसने खाना भी नहीं खाया। मगर शाम को एक दूसरा ही चमत्कार हो गया! आकाश मौसी जी को लेकर घर आ गए! वे मानीटरिंग सैल में थीं। उनके होने से ही उसे इतनी छूट भी मिली हुई थी। उन्होंने आते ही पापा को झाड़ा, 'आपने उसे रोक क्यों दिया...?'

'किसे...?' उन्हें कुछ पता नहीं था।

मौसी ने आकाश की ओर देखा, वे सकपका गए, 'जी वो नेहा ने खुद मना किया है...'

'नेहा का दिमाग खराब है - क्या! कोई बच्ची है जो इतनी गैर जिम्मेदारी दिखाती है! प्रेजेंटेशन के लिए तो जाना ही पड़ेगा। हम लोग कब से लगे हुए हैं...!'

वह अंदर छुपी हुई सारा वार्तालाप सुन रही थी। खुशी से दिल में दर्द होने लगा। माँ ने आकर टेढ़ा मुँह बनाया, 'जाना अब! इसी के लिए इतने दिनों से बहानेबाजी हो रही थी।' और उसने उसकी बड़बड़ाहट को नजरअंदाज कर हवाई पुल बनाने शुरू कर दिए। कोई प्यास थी जो लगातार धकेल रही थी।

तभी पापा ने अचानक मौसी जी का अपमान कर दिया! सख्ती से बोले, 'आप जाइए यहाँ से... वह कहीं नहीं जाएगी।'

'कैसे नहीं जाएगी,' वे तिलमिला गईं, 'बालिग है...'

'हाँऽ! ले जाना, तेरी दम हो तो!' वे हाँफ गए। फिर आकाश पर झपट पड़े, 'आप जाइए यहाँ से, उठिएऽऽ!' उन्होंने मानों डंडा लेकर उन्हें खदेड़ दिया। तब मौसी भी अपना मुँह लाल किए बड़बड़ाती उठ गईं कि - बड़े आए पुलिसिए... हम तुम्हें कोर्ट में घसीट लेंगे।'

'घऽसीट लेना, जाऽ!' पापा सड़क तक पीछा करते, चिल्लाते चले गए!


कॉलोनी भर में थूथू हो गई। घर में माहौल इतना कड़वा और खौफनाक हो गया कि उसे दहशत होने लगी। मई अभी दूर थी! अभी से धमाल मचाने की क्या जरूरत थी? रोते-रोते बुरा हाल था... आँखें सूज गईं।

बात यहीं निबट जाती तो गनीमत थी। उन्होंने तो भाई से कह दिया :

'हाथ-पैर तोड़ दे इसके। बाँध के डाल दे कमरे में। देखें कैसे जाती है बाहर... कैसे मिलती है उससे।'

और वह खूँख्वार कुत्ते की तरह लग गया पीछे।

अब तो सिट्टी-पिट्टी गुम थी नेहा की! फोन तक करने में रूह काँपती। मौका लगाकर एक दिन आकाश को हकीकत बतलाई। उन्होंने धीरज बँधाया और रास्ता सुझाया कि - एक स्वतंत्र देश की स्वतंत्र न्याय व्यवस्था में अपाहिज नहीं है कोई! तुम कानून की मदद ले सकती हो। पर ख्याल रखना, अपने अभियान का नाम न ले दीगर गतिविधियों का हवाला देना। नहीं तो हमारे जातीय संबंधों की आड़ ले वे केस कमजोर करा देंगे!'

तब उसे एक उपाय सूझा। शहर से बाहर के एक कॉलेज ने परीक्षा ड्युटी के लिए गेस्ट फैकल्टी में उसे बुलाया था। पुलिस और आकाश को आवेदन की कॉपी दे वह ज्वाइन करने चली गई। पर उसके लौटने के पूर्व ही एक दीवान उसकी रिपोर्ट मि. के एम शुक्ला को वापस कर गया। जिसे भाई माँ तक को जोर जोर से पढकर सुनाने लगा :

'यह कि मैं कुमारी नेहा शुक्ला पुत्री श्री के एम शुक्ला एक शिक्षित युवती हूँ। मैंने एम.ए., बी.एड किया है तथा वर्तमान में पीएचडी कर रही हूँ। एनवायके ब्लॉक अटेर की युवा समन्वयक रही हूँ। मैं ऑल इंडिया वोमैन एसोसियेशन (एपवा) की जिला संयोजिका होने के नाते 5 व 6 अप्रेल को लखनऊ में होने वाले महिला सम्मेलन में भाग लेने वाली मध्यप्रदेश की दो महिलाओं में से एक हूँ। 33 फीसदी महिला आरक्षण के सवाल पर 30 अप्रैल को राष्ट्रीय संसद मार्च में जिले से मैं अपने संगठन की ओर से 200 महिलाओं को ले जाना चाहती हूँ, जिसके लिए मैं सक्रिय प्रयास कर रही हूँ...।

आज दिनांक 17 मार्च को मैं शासकीय महाविधालय मेहगाँव में अतिथि विद्वान के रूप में ज्वॉइन होने जा रही हूँ।

मेरे घर वाले, पिता व माँ व भाई मेरी सक्रियता और महिला आंदोलन में भागीदारी के कारण अत्यंत नाराज हैं। वे मेरे विकास में बाधक बन गए हैं। वे नहीं चाहते कि मैं घर से बाहर सामाजिक व राजनैतिक कार्य करूँ। मेरे कॉलेज में अध्यापन कार्य करने के भी वे खिलाफ हैं। वे मेरे अपूर्ण पीएचडी अध्ययन को भी रोक देना चाहते हैं।

मुझे अपने जीवन, सम्मान तथा अधिकारों के लिए अपने घर वालों से अत्यंत खतरा है। उन्होंने मुझे गंभीर परिणामों की भी धमकी दी है। वे मुझे घर में बंद करके मेरे साथ कुछ भी अनिष्ट कर सकते हैं। मैं अपने घर वालों की महिला विरोधी मानसिकता से परिचित हूँ। मैं बहुत आतंकित हूँ व अपने आपको असुरक्षित महसूस कर रही हूँ। अतः निवेदन है कि उक्त तथ्यों के आलोक में मेरे जीवन, सम्मान व अधिकारों की सुरक्षा करने की कृपा करें ताकि मैं निर्बाध रूप से पूर्व की भाँति अपने विकास और महिला आंदोलन में सक्रिय भागीदारी कर सकूँ।'

भाई ने अपने माथे से पसीना पोंछा और एक लंबी साँस खींचकर दैत्यों सा कठोर चेहरा बनाकर बैठ रहा। बचपन में जो बड़ा भोला और मासूम दिखता था, नेहा से बात-बात में लड़ता-झगड़ता रहता था, पिता के साथ मम्मी से छुपकर सफेद आलू गपागप कर जाता था, वही अब पूरा पोंगा पंडित हो गया है। ब्रह्मगाँठ वाला जनेऊधारी, आसाराम बापू की बड़ी तस्वीर के आगे घंटों हाथ जोड़े खड़ा रहने वाला भीरु! बाबाओं के मकड़जाल में उलझा, सिद्ध-स्थानों के चक्कर काटता मूर्खानंद! नेहा को उसकी सूरत तक नहीं भाती अब...।

और माँ तो रिपोर्ट का नाम सुनकर ही सन्न रह गई थी। जिस पर उसमें दर्ज शिकायती बयान ने तो उसके हाथ-पाँव ही फुला डाले। वह मि. के एम शुक्ला से तकरीबन 5-7 साल छोटी एक प्रौढ़ स्त्री है जो घरेलू होने के कारण मोटी-थुलथुल और चिड़चिड़ी हो गई है... स्वर कतई बेसुरा... कि राहत मिलते ही काँख उठना जिसकी प्रकृति हो गई है! वह माँ अपनी कौड़ी सी आँखें निकालकर बोली, 'जि सब तुम्हरी ढील का मजा हय, दारोगा जी... अब भुगतौ!'

पंडिज्जी बीड़ी पीते-पीते खाँसने लगे, जैसे पत्नी को मुँहतोड़ जवाब दे रहे हों। भाई उठकर तंबाखू मलते-मलते गोया अपने हाथ मलने लगा।

हालात बेकाबू बेशक होगए, पर लड़की आज लौट तो आए... अब तो उसकी छाया भी नहीं जाएगी इस घर से बाहर, लाश भी नहीं।'

बहन सोचती कि इसके भाग्य में तो काँटे बदे हैं। यह निर्लज्ज, कामपिपासु हमारे खून की प्यासी बन बैठी है। यह लड़की नहीं राक्षसी जन्मी है। दुनिया भर की छोत, कुल्टा, बेहया, पिछले जन्म की बैरिन, डायन, साक्षात मसान!'

ऐसी जली-कटी सुनते बहुत दिन हो गए हैं। अब तो जैसे आदी हो गई है वह। ये बातें घर में न हों तो, बहम होता है कि यह उसका ही घर है! और यूँ तो ये बातें पिछले लगभग तीन बरस से चल रही हैं, लेकिन डेढ़-दो महीने से तो इनकी हद हो गई है। कैसेट जैसे, बार-बार रिपीट की जा रही है। रिकार्ड प्लेयर कभी भाई बन जाता है, कभी पिता तो कभी दोनों बहनें।

ऐसा क्यों कर हुआ? वह खुद नहीं समझ पा रही। वह तो बहुत आज्ञाकारिणी थी। कॉलेज से लौटी हो या बाजार से... धूप में तमतमाया चेहरा, कपड़ों-बालों और शरीर से चिनगारियाँ और चाहे आग की लपटें क्यों न फूट रही हों... कि माँ ने सख्ती से कहा, 'जा, बरफ ले आ!' मेहमान को भी दया आ जाती, 'ए, उसे न भेजो, दम ले लेने दो। बाहर आग बरस रही है!' लेकिन माँ, साक्षात चंडी, आँखें निकाल उठती, 'जा, सुनाई नहीं दी?' और वह पलट लेती।

बीमार पड़ती, तो पिता होम्योपैथी के ज्ञान से साबूदाने-सी गोलियाँ चुगने को दे देते और वह लोटपीट कर दुरुस्त हो लेती। और फिर से छोटी को रोज स्कूल-कॉलेज-ट्यूशन ले जाती, ले आती साइकिल पर धर कर। बड़ी को गाइड के घर ले जाती और भैंस सी मोटी मम्मी को बैंक, तो कभी दरगाह-मंदिर और शहर भर की रिश्तेदारियों में घुमाती फिरती...। जैसे, वह बँध हुआ साइकिल-रिक्शा हो घर का। इसके अलावा पिछले पाँच बरस से डाकघर बचत योजना की एस.ए.एस. भी। अकेले दम पर सवा तीन सौ बचत खाते खुलवा रखे थे। सबका हिसाब, सभी खातेदारों से हर माह चक्कर लगाकर किस्त वसूलना और डाकखाने में एलोट जमा करना। रोज खड़ी रहती वह डाकखाने की खिड़की पर बाबुओं के आगे लेजरों में सिर खपाती। बाद में यह काम तो भाई ने सँभाल लिया। लेकिन घर की छोटी-मोटी सिलाई, बर्तन, दोनों वक्त का खाना। आए-गए के लिए चाय। नियमित झाड़ू-पोंछा और खाट-बिछौना तक...। यह सब तो अब तक नहीं छूटा। गोया, वह कोई खानदानी बेगारी हो! उसके रहते हैंड पंप से कोई पानी नहीं निकालता।

उसकी दुर्दशा पर आकाश चिढ़ते तो वह आत्मविश्वास से भरकर कहती, 'मैं अपने काम करने की आदत बनाए रखना चाहती हूँ।'

वे कहते, 'तुम प्रेसर में हो...'

वह कहती, 'नहीं, मुझे कोई प्रेसर में नहीं रख सकता। मैं तो इसलिए इन सब की नौकर बनी हुई हूँ, ताकि जब मैं इस घर से काला मुँह कर जाऊँ, तो ये बत्ती जलाने-बुझाने तक के लिए मेरे नाम की आहें भरें।'

अजीब फलसफा था उसका। आकाश कायल हो जाते, 'तुम जिसे मिलोगी, बहुत भाग्यशाली होगा।'

वह चिढ़ जाती, 'मैं व्यक्ति नहीं हूँ क्या...? मेरी स्वतंत्र सत्ता नहीं है क्या...? क्या जरूरी है कि मेरे नाम के आगे कोई उपनाम चस्पाँ हो...?'

और आकाश उसकी विचारधारा से अभिभूत मूक रह जाते। ऐसे ही तीन साल कट गए। पता भी नहीं चला!

रिपोर्ट डालने के बाद उसने सोचा, अब तो राहत की साँस मिलेगी। पुलिस कुछ तो मदद करेगी। डर गए होंगे उसके पापा, भैया और मम्मी वगैरह। किंतु उस अनुभवहीन को यह पता नहीं था कि उन लोगों के साथ पूरी दुनिया है!

लौटते ही उसे कैद कर लिया गया। न किसी से मिलने दिया जाता, न घर की देहरी लाँघने दी जाती। तब वह जबरन निकली और भाई से पिटी। माँ से बोल-कुबोल सुने। पिता से गँवारू डाँट खाई...। एक दिन छत से पड़ोस के घर में कूदकर वह एक एजेंट-कम-पत्रकार को अपने डिटेंशन का प्रेसनोट बनाकर दे आई। लेकिन उस बुजदिल ने उसे प्रकाशित नहीं कराया।

अपनी मुक्ति के लिए वह सीजेएम के यहाँ भी पेश होना चाही, पर कायर वकील ने ऐसा नहीं होने दिया। आकाश इसलिए सामने नहीं आए कि फिर लड़ाई आमने-सामने की हो जाती।

तब घर लौटकर उसने फिर एक बड़ी मार खाई और नौ दिन तक भूख हड़ताल रखी। संयोग से वे नौ दिन चैत्र नवरात्र में पड़ गए। सो वे 'सर्वमंगल मांगल्ये' जाप करते कट गए। पर घर नहीं पिघला। उल्टे उसे छत के कमरे में बंद कर दिया गया। रोज सुबह नैमेत्तिक क्रिया के लिए निकाला जाता और फिर से वहीं ठूँस दिया जाता। जैसे किसी खूँख्वार कुत्ते की जंजीर खोलते हैं फरागत भर के लिए और फिर बाँध देते हैं खूँटे से। खिड़की से खाना डाल दिया जाता।

यों दिन पर दिन गुजरते चले गए। उन दिनों नेहा जेल की काल कोठरी के अनुभवों से गुजर रही थी। उसे फिर एक सुराग हाथ आया। अब की बार उसने पिछली खिड़की से नीचे गली में कागज के पुर्जे लिख-लिखकर फेंक दिए :

कि - यह मेरे लिए कालापानी की सजा है।

कि - मैं यहाँ घुट रही हूँ।

कि - यहाँ मेरी लाश भी नहीं बचेगी।

हाय - अब मैं और देरी सहन नहीं कर पाऊँगी...।

पुर्जे महिला संगठनों तक पहुँचे। क्रांतिकारी दलों तक पहुँचे। बैठकें हुईं। समीक्षाएँ हुईं। और अंततः नुमाइंदे यह निष्कर्ष निकाल कर चुप हो गए कि यह घरेलू मामला है। आखिर माँ-बाप ने जन्म दिया, पढ़ाया, पाला-पोसा, बड़ा किया - वे जो चाहें सो करें उसका। हम क्यों अगुआ बनें...?'

वह टूटने लगी। आकाश से अवैध संबंधों को लेकर शहर में अफवाहों का बाजार गर्म हो उठा। अब एक चिड़िया भी नहीं थी उसकी तरफ। आकाश की भी लानत-मलामत होने लगी। मित्रों और परिचितों ने अपने दरवाजे बंद कर लिए उनके तईं। सहायता की कोई किरण न बची। तब जाकर उन्होंने नेहा की रिपोर्ट निकाली और उच्च न्यायालय का द्वार खटखटाया। 'बंदी प्रत्यक्षीकरण' याचिका दायर करा दी।

पर पहली पेशी का नोटिस आते ही माँ-बहनों ने उसका ब्रेनवास करना शुरू कर दिया :

'जानती हो, तुम आजाद होकर अलग रहीं तो, हमारा हुक्कापानी बंद हो जाएगा। एक भाई तो चला ही गया। इसका भी ब्याह न हुआ तो वंश की नाठ हो जाएगी। छोटी का भविष्य बिगड़ जाएगा। बिरादरी बाहर हो जाएँगे हम लोग। तुम्हारे बयान से पापा और भैया जेल में सड़ जाएँगे। हम सब जहर खाकर मर जाएँगे। बोलो, इसी में राजी है तुम्हारी?'

उसे दिन रात एक ही गीत सुनाया जाने लगा।

वह विचलित होने लगी।

किंतु जब गहराई से सोचती तो पाती कि आकाश सत्यारूढ़ हैं। वैयेक्तिक स्वातंत्र्य के पक्षधर। अस्मिता के पोशक। न्यायहित शहीद होने को तत्पर। और पिता, बहन, भाई और माँ हैं जाति और परंपरा के रक्षक। स्त्री को स्त्री और आश्रिता बनाए रखने वाली पुरुष प्रधन व्यवस्था के पहरेदार।

क्या करे वह...? अनिर्णीत है वह! इधर कुआँ और उधर खाई है। काश! उसे इसी क्षण मौत आ जाए। सारे द्वंद्व, सारा संत्रास घुल जाय एकदम।


गर्मियों की सुबहें। चिड़ियाँ जल्दी बोलने लगीं। घर में जगार हो गई थी। टट्टी-दातून का क्रम जारी हो रहा था। अदालत में पेशी थी। सब लोग जल्दी जल्दी तैयार हो रहे थे। उसके मन में कोई उत्साह नहीं। वह प्रार्थना कर रही थी कि पेशी से पहले खुदा उससे उसकी आखिरी साँस छीन ले तो ठीक रहे।'

घर वाले कहते, यह विडंबना उसने स्वयं बुलाई है। हाँ! उसी का तो किया धरा है यह सब! उसी ने तो अपने माँ-बाप और भाई की पुलिस में रिपोर्ट लिखाई! पापा की बदौलत कोई सुनवाई न हुई तो हाईकोर्ट में याचिका दायर करवा दी कि उसे घर में कैद कर लिया गया है। उसका अध्ययन और नौकरी छुड़ा दी गई है। उसके बाहर आनेजाने पर सख्त पाबंदी लगी है। उसे अपने भाई और पिता से जान का खतरा है...। और यह कि - वह स्वतंत्र होकर अलग रहना चाहती है इन लोगों से!'

पर यह संभव नहीं है। उसका वकील भी यही कहता था, सभी बुद्धिजीवी मित्र और सहेलियाँ भी... कि एक अविवाहित लड़की का इस समाज में स्वतंत्र होकर अकेले रहना संभव नहीं है। और उसका मानना है कि - जब तक आत्मनिर्भर स्त्रियाँ और स्वतंत्र माताएँ अस्तित्व में नहीं आएँगी, तब तक महान संतान जन्म नहीं लेगी। जिसके अभाव में हँसती हुई मनुष्यता कभी पैदा नहीं होगी संसार में...।'

स्वजन उसे मूर्ख, पागल, सिरफिरी और न जाने क्याक्या समझते हैं। सबसे ज्यादा तो यह कि - उसके सिर पर उसके पुरुष मित्र का जादू चढ़ गया है...।

वह विक्षिप्त है। वह सामान्य नहीं है। सामान्य और समझदार लड़की गहना चाहती है। अच्छा घर-वर चाहती है। सुविधाओं से लक्दक और सम्मान से भरपूर गृहस्थ जीवन चाहती है। उच्चकुल का सुंदर-सुशील, ओहदेदार और रॉयल पुरुष चाहती है। सचमुच इसका तो सिर फिर गया है!

सिर भारी था। लेकिन वह फ्रेश हो ली।

धूप निखर आई थी...। छोटी का जब से ऑपरेशन हुआ है, पलंग पर ही पानी माँगती है। पर आज उसने छोटी की तीमारदारी नहीं की। भाई कमाता है, तो अपने लिए भी नहाने को बाल्टी नहीं भरता। वही रखती थी। पर आज उसकी भी बाल्टी नहीं खींची उसने हैंड पंप से। दौड़-दौड़ कर पापा को निकर, बनियान, तौलिया, साबुन, तेल नहीं दिया। कौर तोड़ने के बीच उठकर मम्मी का ब्लाउज या छोटी की सलवार मशीन पर नहीं धरी, उधड़ी सींवन के लिए! किसी काम को हाथ नहीं लगाया। आज जैसे कि रुखसत हो रही थी वह इस घर से सदा के लिए...।

लगभग आठ बजे वह पिता और बड़ी बहन के साथ बस में आ बैठी, हाईकोर्ट जाने के लिए। बस के आगे पीछे मोटरसाइकल पर अपने एक दोस्त के साथ भाई भी चल रहा था। वह सामने वाले शीशे से और कभी खिड़की से उसे गुजरता हुआ देख लेती। आज कतई गुमसुम थी वह। आंतरिक तनाव में पता ही नहीं चला कि कब हाईकोर्ट पहुँच गई...। गैलरी में आकाश मिले। कनखियों से देखा - चेहरे पर हवाइयाँ उड़ रही थीं।

वकील ने बताया, 'पेशी लंच के बाद होगी।'

ऊपर से मरघट-सी शांति पर भीतर अखंड कोलाहल...। आकाश बद नहीं पर बदनाम हो चुके थे। उनकी इमेज, उनकी सोसायटी मिट गई। यह केस हारकर कैसे जिएँगे वे! और पिता, भाई, बहन भी कैसे जिएँगे अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा, जातिगत सम्मान खोकर?

- ऐसी परीक्षा ईश्वर किसी की न ले।' सीने में हौल मची थी। एक घंटा एक युग-सा बीता। इजलास भरने लगा। मामला डबल बैंच में था। वकील ने कहा, 'अंदर चलिए।' वे सब भारी कदमों से भीतर आ गए। फाइल पटल पर रख दी गई। मामला पेश हुआ। पिता भरे गले से बोले, 'हुजूर! संतान जब कुमार्ग पर चल उठे तो उसे सद्मार्ग पर लाना अभागे पिता का वश या कुवश फर्ज बन जाता है। मैंने यही किया है, इसकी जो भी सजा मिले!' पंडिज्जी रोने लगे।

जज ने गौर किया कि बाप गलत नहीं है।

फिर भाई की बारी आई, तो उसने भी तीखे लहजे में यही कहा। तब वकील ने नेहा को पेश किया, पूछा, 'क्या शिकायत है आपको कुमारी जी... अदालत को स्पष्ट बताएँ।'

'कुछ नहीं!' उसके मुँह से बरबस ही निकल गया जिसे सुनकर वकील तैश खा गया, 'फिर ये याचिका क्यों दायर कराई? बच्चों का खेल समझ रखा है अदालत को?'

'ये लोग निकलने नहीं देते,' उसने रुँधे गले से कहा, 'मुझे समाज में बहुत काम करना है।'

'वह तो आप मैरिज के बाद भी कर सकती हैं?' वकील ने जिरह की।

और वह फट पड़ी, 'आज इस खूँटे से बँधी हूँ, कल दूसरे से बाँध देंगे। इस समाज में पारंपरिक शादी का यही अर्थ है। न औरत अपना कैरियर चुन सकती है और न समाज-हित में अपनी मौलिक भूमिका... इस घुटन से बाहर निकल कर मैं खुले आसमान में जीना चाहती हूँ। अपना संघर्ष खुद करना चाहती हूँ। आश्रिता होकर, अपमानित होकर, दूसरों की इच्छा पर निर्भर रहकर नही...।'

'सवाल यह है कि आपकी यह एडॉल्टरी बर्दाश्त कौन करेगा,' वकील ने कुरेदा, 'क्या आप इस धर्मसम्मत व्यवस्था को तोड़ने पर आमादा हैं...?'

'जो समय के साथ नहीं चलता, समय उसे खुद मिटा देता है,' उसने तैश में कहा, 'किसी पुरुष के लिए यह बंधन कहाँ है? मेरी माँ मेरे भाई के लेट आने पर कोई सवाल खड़ा नहीं करती... पिता को भी इस बारे में कोई उज्र नहीं... और मुझ पर संदेह के पहाड़ खड़े किए जाते है,' वह रुआँसी हो उठी, 'मैं अलग रहूँगी! फिर जियूँ या मरूँ।'

इजलास में शांति छा गई।

दोनों न्यायाधीशों ने अंग्रेजी में कुछ गुफ्तगू की। फिर वरिष्ठ न्यायाधीश ने दोनों हाथ जोड़, नेत्र मूँद, गर्दन झुका, 'ऊँ कृष्णम् वंदे जगद्गुरु' बोलकर फैसला लिख दिया।

कहा - 'यू आर मेजर लेडी। आप जा सकती हैं। आप कहीं भी आने-जाने और रहने के लिए स्वतंत्र हैं, क्योंकि आप में अच्छा-बुरा समझने की समझ और अपने हित में निर्णय लेने की क्षमता है।'

और वह चल दी तो बुलाकर पूछा, 'पुलिस की मदद तो नहीं चाहिए...?'

'नहीं!' उसने ओठ भींच लिए। उसकी आँखें भर आईं। उसे तीन इंद्रधनुष एक साथ दिखाई देने लगे :

- पिता गर्दन झुकाकर और भाई, बहन उसे घूरते, सीढ़ियाँ उतरते हुए!

- आकाश रेलिंग पर झुके, हताश से खड़े, जैसे पिता के पाँव छूकर इस दुर्घटना के लिए माफी चाहते हुए!

- और अनगिनत काले गाउनों की भीड़ उसे घेरने, अपने चेहरे पर कहानी जानने की उत्सुकता लिए हुए!

फिर हुआ यह कि उसने अपना चेहरा हाथों में छुपा लिया और आकाश के बगल से 'सॉरी' बोल कर गुजर गई... मानों सीढ़ियों पर गेंद-सी लुढ़क गई हो!

बाहर खुला आसमान था, धूप थी, पर वह चिड़िया की तरह चहक कर उड़ने के बजाय पिता के साथ हो ली!

भाई-बहन उसे हैरत से देख रहे थे...।


अगले दिन आकाश से उसने रिजर्वेशन की तारीख पूछ ली। जाने की तैयारी ऐसे करने लगी, जैसे खुदमुख्तार हो। पहली बार माँ से पूछे बगैर बाजार जाकर साड़ी, सेंडिल, चूड़ी आदि अटरम शटरम ले आई। छोटी ने पूछा, 'तुम्हें तो चिढ़ थी, साड़ी-गहनों से?' उसने कहा, 'समय के साथ रुचि-विचार सब बदल जाते हैं।' और अगले दिन अपने बाल भी कटा आई तो माँ-बहनें सब देखती रह गईं। माँ को वह सुंदर तो लगी, पर उसने रंजिशन ताना मारा, 'अब कौने मूंड़ें चाहतीं हौ!' गुस्सा पी गई वह, बोली, 'दिल्ली जाना है... जैसा देश वैसा भेष भी बनाना पड़ता है!'

माँ पिता को बताती, इससे पहले उसने बता दिया, 'मुझे जाना पड़ेगा!'

इस बार उन्होंने कुछ नहीं कहा। न माँ को कसा कि इससे कहो - रात में अपने घर में आकर सोए!'

नियत तारीख को वह ट्रेन से एक घंटा पहले अपना लगेज ले स्टेशन जा पहुँची। आकाश प्लेटफार्म पर ही मिल गए। उसे देखकर चकरा गए वे। वह सचमुच, हीरोइन लग रही थी आज! सो, वे उसी में खोए रहे और उसने रिजर्वेशन बोर्ड पर चस्पाँ सूची में अपने नाम देख लिए, पानी की बोतलें, चिप्स-बिस्किट के पैकेट खरीद लिए। फिर वे लोग यात्री बैंच पर बैठ खामोशीपूर्वक ट्रेन की प्रतीक्षा करने लगे। मानों यह तूफान के पहले की खामोशी हो! क्योंकि इस बीच बहुत कुछ घट गया था। चाहत चौगुनी बढ़ गई थी। अगस्त के बाद वे तसल्लीपूर्वक मई में मिल रहे थे। इस बीच सन बदल गया था। ऋतुएँ बदल गई थीं। दोनों के जन्मदिन बिना मनाए निकल गए थे। और वसंत पंचमी का वह यादगार दिन निकल गया था, जब पहली बार दोनों उस सेमिनार में मिले थे, जिसमें वह उनका फाइलों में छुपाकर कार्टून बनाया करती थी।

और... मिल रहे थे, यह गनीमत थी! मिलने की आशा तो क्षीण हो चुकी थी। भविष्य इतना अनिश्चित हो गया था कि किस रूप में मिलेंगे, सोच पाना भी कठिन था। जीवन में ऐसा घोर संकट इससे पहले आया नहीं था। लग रहा था, हर तरह से ऐन रसातल में चले गए! मगर देखिए, कैसे सूखे निकल आए...! ये किस अदृश्य-शक्ति का खेल था?' वे नेहा को कनखियों से देखते सोच रहे थे जो फैसला पक्ष में सुनने के बावजूद पिता के साथ चली गई थी। उसी घर में जो कैद में बदल गया था...। उसके पूर्वानुमान और हौसले से वे चमत्कृत थे, आज!

ट्रेन आ गई तो दोनों बोगी में आ गए। उसे लोअर बर्थ देकर आकाश सामने की ऊपर वाली बर्थ पर चढ़ गए थे। फीमेल के कारण ही एक लोअर मिली थी। नेहा को पहली बार उनके साथ इस तरह जाते हुए भारी संकोच हो रहा था। इसी मारे वह हाँ-हूँ के सिवा, खुलकर बात नहीं कर पा रही थी। दिमाग मम्मी-पापा, भाई-बहनों पर ही घूम रहा था। उनकी नजर में तो वह हनीमून पर जा रही थी...। और यह बात आकाश से कह देने को जीभ खुजला रही थी, पर कहने की सोच कर ही मुस्कराहट छूटी पड़ रही थी। वैसे भी यह महीना उसकी जिंदगी के लिए अहम है। साल भर पहले मई के इसी महीने में तो वह उनके साथ चौक पर कुल्फी खाने गई थी, लॉज में कपड़े धेने, अपने ही घर में जीत का सेहरा बँधने और मंदिर पर रसोई रचाने...। सोते-जागते बराबर एहसास बना रहा कि मुहब्बत निश्चित तौर पर दैहिक आकर्षण से शुरू होती है। देह प्रत्यक्ष नहीं होती वहाँ भी स्त्री के लिए पुरुष और पुरुष के लिए स्त्री की इमेज से ही प्रेमांकुर फूटते हैं हृदय में।