लोकल ट्रेन: मुम्बई की जीवन रेखा / संतोष श्रीवास्तव
शायद यही वजह है कि मुम्बई की जीवन रेखा कही जाने वाली लोकल ट्रेन चौबीसों घंटे में से कभी भी खाली नहीं मिलती। प्रत्येक प्रहर अलग-अलग तरह की भीड़ ट्रेन में सफ़र करती नज़र आती है। सुबह शाम दफ़्तर के कर्मचारियों और विद्यार्थियों की भीड़, दोपहर को शॉपिंग, बिज़नेसवालों को रात को फ़िल्मी दुनिया में संघर्ष करने वालों, कॉल सेंटर में काम करने वालों, बार डांसर्स, सैक्स वर्कर्स की और राततीन बजे से सब्ज़ी, भाजी, फूल विक्रेताओं की। रात में बस डेढ़ बजे से तीन बजे तक ही लोकल ट्रेन विश्राम करती है। वरना तो लोकलहर वक्त खचाखचभरी... लेकिन मुम्बई कर ज़िन्दग़ी की हर आपाधापी को एंज़ॉय करते हैं। दरवाज़ों-खिड़कियों से लटका आदमी, छतों पर बैठा आदमी... फिर भी बेफ़िक्र... कभी कोई आतंकित नहीं हुआ। घंटे, डेढ़ घंटे की दूरी तमाखू मलते, ब्रीफकेस आमने-सामने रख ताश के पत्ते फेंटते या मंजीरे बजा-बजाकर भजन गाते तय हो जाती है। इसी भीड़ में किसी अंधे भिखारीके गले में लटके हारमोनियम पर तान सुनाई देती है। हारमोनियम पर रखे कटोरे में सिक्के भी टन-टन आ गिरते हैं। औरतों के डिब्बों में पूरा बाज़ार साथ चलता है। चूड़ी, बिंदी, मैक्सी, चादर, चॉकलेट, फल, नमकीन हर चीज़ बिकती है। खिड़की से चिपकी युवा पीढ़ी पुराने फ़िल्मीगानों पर अंताक्षरी खेलती है। गृहणियाँ सब्ज़ी तोड़-छीलकर प्लास्टिक में भर लेती हैं ताकि समय की बचत हो। दरवाज़े पर भीड़ का ये आलम कि अगर शरीर में कहीं खुजली हो रही हो तो कर्ण की तरह दम साधकर अपने स्टेशन आने का इंतज़ार करना पड़ता है वरना हमारी चप्पल किसी और की पिंडलीको अपनी समझ खुजा सकती है और लेने के देने पड़ सकते हैं। इसीभीड़ में कई बार औरतों की डिलीवरी तक हो जाती है और पूरा डिब्बा उसकी तीमारदारी में जुट जाता है। वट सावित्री का त्यौहार ट्रेन में बरगद की डाल की पूजा कर मना लिया जाता है, करवा चौथ परकार्यालयों में छुट्टीतो होती नहीं अतः ट्रेन से चाँद दिखते ही बोतल का पानी कलश में डाल औरतें चाँद को अर्ध्य चढ़ाकर व्रत का पारायण कर लेती हैं। महिला दिवस पर विभिन्न संस्थाएँ लेडीज़ स्पेशल ट्रेन में गिफ़्ट बाँटती हैं। स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस पर भी मुफ़्त उपहार बाँटे जाते हैं। जहाँ एक ओर प्लेटफार्म पर तीस सेकेंड के लिए रुकी ट्रेन में चढ़ने-उतरनेवाले न बच्चे देखते, न बुज़ुर्ग ज़ोरदार धक्का देकर चढ़ते उतरते हैं वहीं मुसीबत पड़ने पर सब एक हो जाते हैं।
सब्र और सह अस्तित्व की पाठशाला है लोकल। 70 लाख मुम्बई करों के लिए समय की पाबंदी और सुरक्षा तो मुम्बई लोकल की यात्रा का मर्म है हमारा ट्रेन एबली और ट्रेन फ्रेंडली होना। ट्रेन एबली होना आपके बाहुबल, दौड़ती ट्रेन में चढ़ने, फुटबोर्ड से चिपटे रहने, अपने पैरों पर खड़ा रहने व लांग जंप की आपकी लियाकत और तीन इंच की जगह में काम चला लेने के संतोष पर निर्भर करेगा। ट्रेन फ्रेंडली होना पंगा लेने व उसे शांत करने की सामर्थ्य और लोकल के अघोषित कायदों के पालन की आपकी मजबूरी है। फिर चाहे दुर्घटना हो, दंगा फ़साद हो, आतंकवादी हमला हो, बमविस्फोटहो या फ्रेंडशिप ताज़िंदगी आपके काम आएगी।
याद करती हूँ मुम्बई का वह दिन जब मैं नई-नई आई थी। साँताक्रुज़ में पेइंग गेस्ट थी और चर्चगेट से आकाशवाणी में रिकॉर्डिंग के बाद सांताक्रुज़ लौट रही थी। मैं तो आराम से अपनी सीट पर बैठी थी कि सांताक्रुज़ आने से पहले उठ जाऊँगी। भीड़ का बिल्कुल भी अंदाजा नहीं था। एक तो पीक ऑवर ऊपर से नौसिखिया मैं, सांताक्रुज़ आते ही भीड़ ने मुझे ऐसा ढकेला कि साड़ी का पिन खुलकर कँधे में धँस गया लेकिन प्लेटफॉर्म पर मुझे उतनी भी ख़ाली जगह नहीं मिली जहाँ खड़े होकर मैं उमड़ आए आँसुओं को पोछ सकूँ। उस दिन मुम्बई ने मुझे वह हौसला दिया कि अब तो काँटों भरी राह पर भी आसानी से चल लेती हूँ।