लोक कवि अब गाते नहीं / पृष्ठ 11 / दयानंद पाण्डेय

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यह लतीफा ढोलक मास्टर ठेंठ भोजपुरी में पूरे ड्रामाई अंदाज में ठोंकते और पूरा रस भर-भर के। सो लोग अघा जाते। और इस अघाए में ही सुर्ती ठोंक कर गणेश तिवारी की हारमोनियम बज जाती और वह गाने लगते, ‘रात अंधियारी मैं कैसे आऊं बालम!’ वह सुर में और मिठास घोलते, ‘सास ननद मोरी जनम की दुश्मन कैसे आऊं बालम!’ फिर वह गाते, ‘चदरिया में दगिया कइसे लागल / ना घरे रहलें बारे बलमुआ, ना देवरा रहै जागल / फिर कइसे दगिया लागल चदरिया में दगिया कइसे लागल!’ यह और ऐसे गाने गा कर वह लोगों को जैसे दीवाना बना देते। क्या पढ़े-लिखे, क्या अनपढ़। वह फिल्मी गानों को दुत्कारते फिर भी बहुत फरमाइश पर कभी कभार फिल्मी भी गा देते पूरा भाष्य दे-दे कर। जैसे कि वह जब पाकीजा फिल्म का गाना ‘इन्हीं लोगों ने ले लीना दुपट्टा मोरा’ गाते तो इस गाने में छुपी तकलीफ और उसका तंज भी अपने वाचन में बांचते और कहते कि, ‘पर लोग इस गाने में उस औरत की तकलीफ नहीं देखते, मजा लेते हैं। तब जब कि वह बजजवा, रंगरेजवा और सिपहिया सब को घेरे में लेती है। उसका दुपट्टा, दुपट्टा नहीं उसकी इज्जत है।’ उन के इस वाचन में डूब कर इस गाने को सुनने का रंग ही कुछ और हो जाता। ऐसे ही तमाम निर्गुण भी वह इसी ‘ठाठ’ में सुनाते और रह-रह जुमलेबाजी भी कसते रहते। और अंततः तमाम क्षेपक कथाओं को अपनी गायकी में गूंथते हुए गाते, ‘अंत में निकला ये परिणाम राम से बड़ा राम का नाम।’ कुछ पौराणिक कथाओं को भी वह अपनी गायकी में लाते। जैसे पांडवों के अज्ञातवास का एक प्रसंग उठाते जिसमें अर्जुन और उर्वशी प्रकरण आता। और अंततः उर्वशी जब अर्जुन से एक वर माँगती हुई अर्जुन से एक बेटा माँग बैठी तो अर्जुन मान जाते हैं। और जो युक्ति निकालते हैं उसे गणेश तिवारी ऐसे लयकारी में गाते, ‘तू जो मेरी माँ बन जा, मैं ही तेरा लाल बनूं।’ इस गायकी में वह जैसे इस प्रसंग का दृश्य-दर-दृश्य उपस्थित कर देते तो लोग लाजवाब हो जाते। वह अपने ‘प्रोग्राम’ में तमाम भोजपुरी के पांरपरिक लोकगीतों को भी थाती की तरह इस्तेमाल करते। सोहर, लचारी, सावन, गारी कुछ भी नहीं छोड़ते। और पूरे ‘पन’ से गाते।

बात ही बात में कोई लोक कवि की चर्चा छेड़ देता है तो वह कहते, ‘अरे ऊ तो हमारा चेला है! बहुत सिखाया पढ़ाया।’ वह जैसे जोड़ते, ‘पहले बहुत बढ़िया गाता था। इतना कि कभी कभार हमको लगता कि हमसे भी बढ़िया न निकल जाए। आगे न निकल जाए, मैं यह सोच कर जलता था उस से। पर ससुरा बिखर गया।’ वह कहते, ‘अब तो लखनऊ में आर्केस्ट्रा खोल कर लौंड़ियों को नचा कर कमा खा रहा है। इन लौड़ियों को नचा कर दो चार गाने खुद भी गा लेता है।’ कहते हुए वह आह भरने लगते, ‘पर ससुरे ने भोजपुरी को बेंच दिया है। नेताओं की चाकरी कर नाम और इनाम कमा रहा है तो लौड़ियों को नचा कर रुपया कमा रहा है। मोटर गाड़ी से चलता है। हवाई जहाज में चढ़ता है। विदेश जाता है। मनो कुल ई कि बड़ा आदमी बन गया है। नसीब वाला है। पर कलाकार अब नहीं रहा, व्यापारी बन गया है। तकलीफ एही बात का है।’ वह कहते, ‘हमारा चेला है सो हमारी भी नाक कटती है।’

लेकिन लोक कवि?

लोक कवि यह तो मानते कि गणेश तिवारी जी उन से बहुत अच्छा गाते हैं और कि बहुत मीठा गला है उन का। पर ‘चेला’ की बात आते ही लोक कवि लगभग बिदक जाते। कहते, ‘ब्राह्मण हैं। पूजनीय हैं पर हम उन का शिष्य नहीं हूँ। उन्होंने हमको कुछ सिखाया नहीं है। उलटे गाँव में था तो नान जात कहके ‘काटते’ थे। हाँ, ई जरूर था कि हमको दुई चार गाना जरूर ऊ बताए जवन हम नहीं जानते थे और पीपर के पेड़ के नीचे गाना बजाना में भी हमको गाने का मौका देते थे।’ वह जोड़ते, ‘अब एह तरह ऊ अपने को हमारा गुरु मानते हैं तो हमको भी ऐतराज नाहीं है। बाकी गाँव के बुजुरुग हैं, ब्राह्मण हैं, हम आगे का कहीं।’

पर लोक कवि यह सब कुछ गणेश तिवारी के पीठ पीछे कहते। सामने तो चुप रहते। बल्कि जब गणेश तिवारी लोक कवि को देखते तो देखते ही गुहारते, ‘का रे चेला!’ और लोक कवि उन के पैर छूते हुए कहते, ‘पालागी पंडित जी!’ और वह ‘जियो चेला! जीते रहो ख़ूब नाम और यश कमाओ!’ कह कर आशीर्वाद देते। लोक कवि अपनी जेब के मुताबिक सौ-दो सौ, चार सौ पांच सौ रुपए धीरे से उन के पैरों पर रख देते जिसे गणेश तिवारी उसी ख़ामोशी से रख लेते। बात आई गई हो जाती।

एहसान फरामोशी की यह भी एक पराकाष्ठा थी।

पर गणेश तिवारी तो ऐसे ही थे, ऐसे ही रहने वाले थे। गाँव में उन की पट्टीदारी का एक व्यक्ति फौज में था। रिटायर होने के कुछ समय पहले वह जवानों की भर्ती का काम पा गया। ख़ूब पैसा पीटा। गाँव में आ कर ख़ूब भारी दो मंजिला घर बनवाया। पैसे की गरमी साफ दिखाई देती थी। जीप वगैरह भी ख़रीदी। फौजी की पत्नी ने खेत ख़रीदने की बात चलाई तो फौजी ने इन्हीं विलेज बैरिस्टर गणेश तिवारी से खेत ख़रीदने की चर्चा की। क्यों कि गणेश तिवारी को गाँव भर का क्या पूरे जवार के लोगों की खसरा खतियौनी, रकबा, मालियत पुश्त-दर-पुश्त जबानी याद था। इसी बिना पर वह कब किस को भिंड़ा दें, किसको किसमें फंसा दें, कुछ ठिकाना नहीं होता। तो फौजी ने यही सुरक्षित समझा कि गणेश तिवारी की उंगली पकड़ कर खेत ख़रीदा जाए। गणेश तिवारी ने आनन फानन उन्हें पांच लाख में पांच बिगहा खेत ख़रीदवा भी दिया। रजिस्ट्री वगैरह हो गई तो भी फौजी ने गणेश तिवारी के मद में गांठ नहीं खोली। तो फिर एक दिन गणेश तिवारी ने खुद ही मुंह खोल दिया, ‘बेटा पचीस हजार रुपया हमको भी दे दो।’

‘वो तो ठीक है।’ फौजी बोला, ‘पर किस बात का?’

‘किस बात का?’ गणेश तिवारी बिदके, ‘अरे कवनो भीख या उधार थोड़े ही माँग रहे हैं। मेहनत किए हैं। अपना सब काम बिलवा कर, दुनिया भर का अकाज कर दौड़ भाग किए हैं तो मेहनत का माँग रहे हैं?’

‘तो अब हमहीं रह गए हैं दलाली वसूलने ख़ातिर? फौजी भड़क कर बोला, ‘शर्म भी नहीं आती पट्टीदारी में दलाली माँगते?’

‘शर्म करो तुम जो मेहनताना को दलाली बता रहे हो।’

‘काहे को शर्म करें?’

‘तो चलो दलाली समझ कर ही सही पैसे दे दो!’ गणेश तिवारी बोले, ‘हमहीं बेशर्म हुए जा रहे हैं।’

‘बेशर्म होइए चाहे बेरहम। हम दलाली के मद में एक पइसा नहीं देंगे।’

‘नहीं दोगे तो बाद में झंखोगे।’ गणेश तिवारी ने जोड़ा, ‘रोओगे और रोए रुलाई नहीं आएगी!’

‘धमकी मत दीजिए। फौजी आदमी हूँ कोई ऐरा गैरा नहीं।’

‘फौजी नहीं, कलंक हो!’ वह बोले, ‘जवानों की भरती में रिश्वत कमा कर आए हो। गवर्मेंट को बता दूँगा तो जेल में चक्की पीसोगे।’ उन्होंने एक बार फिर चेताया कि, ‘पैसे दे दो नहीं बहुत पछताओगे। बहुत रोओगे।’

‘नहीं दूँगा। फौजी झिड़कते हुए बोला, ‘एक बार नहीं, सौ बार कह रहा हूँ कि नहीं दूँगा। रही बात गवर्मेंट की तो मैं अब रिटायर हो चुका हूँ। फंड-वंड सब ले चुका हूँ। गवर्मेंट नहीं, गवर्मेंट के बाप से कह दीजिए मेरा कुछ नहीं बिगड़ने वाला।’

‘गवर्मेंट की छोड़ो, खेतवै में रो जाओगे।’

‘जाइए जो उखाड़ना हो उखाड़ लीजिए। पर मैं एक पैसा नहीं देने वाला।’

‘पैसा कइसे दोगे?’ वह हार कर बोले, ‘तुम्हारे नसीब में रोना जो लिखा है।’ कह कर गणेश तिवारी चुपचाप चले आए अपने घर। ख़ामोश रहे कुछ दिन। पर सचमुच वह ख़ामोश नहीं रहे। इधर फौजी ने अपने पुश्तैनी खेतों के साथ ही साथ ख़रीदे खेत की बड़ी जोरदार तैयारी कर बुवाई करवाई। खेत जब जोत बो गया तो गणेश तिवारी एक दिन ख़ामोश नजरों से खेत को देख भी आए। पर जाहिरा तौर पर कुछ फिर भी नहीं बोले।

एक रात अचानक उन्होंने अपने हरवाहे को बुलवाया। वह आया तो उसे भेज कर उस आदमी को बुलवाया जिससे फौजी ने खेत ख़रीदा था। वह आया भी। आते ही गणेश तिवारी के पांव छुए और किनारे जमीन पर ही उकडूं बैठ गया।

‘का रे पोलदना का हाल है तोर?’ किंचित प्यार की चाश्नी घोल कर आधे सुर में ही पूछा गणेश तिवारी ने।

‘बस बाबा, राउर आशीर्वाद बा।’

‘और का हो रहा है?’

‘कुछ नाहीं बाबा! अब तो खेतियो बारी नाहीं रहा। का करेंगे भला? बैठे-बैठे दिन काट रहे हैं।’

‘काहें तुम्हारा लड़का बंबई से वापस आ गया का?’

‘नाहीं बाबा ऊ तो वोहीं है।’

‘तो तुम भी काहें नाहीं बंबई चले जाते?’

‘का करेंगे उहाँ जा के बाबा! उहाँ बड़ी सांसत है।’

‘कवने बात का सांसत है?’

‘रहने खाने का। हगने, मूतने का। पानी पीढ़ा का। कुल का सांसत है।’

‘त का इहाँ सांसत नाहीं है का?’

‘एह कुल का सांसत तो नहियै है।’ वह रुका और बोला, ‘बस खेतवा बेंच देने से काम काज कम हो गया है। निठल्ला हो गया हूँ।’

‘अच्छा पोलादन ई बता कि जो तुम्हारा खेत तुमको फिर से वापिस मिल जाए तो?’

‘अरे का कहत हईं बाबा!’ वह आँखें सिकोड़ता हुआ बोला, ‘अब तो ढेर पइसो चट कर गया हूँ।’

‘का कर डाला रे?’

‘घर बनवा दिया है।’ वह मुसकुराता हुआ बोला, ‘पक्का घर बनवाया हूँ।’

‘त कुल रुपया घर ही में फूंक दिया?’

‘नाहीं बाबा! दू ठो भईंस भी ख़रीदले बाड़ीं।

‘त कुच्छू पइसा नाहीं बचाया है?’ जैसे आह भर कर गणेश तिवारी ने पूछा, ‘कुच्छू नाहीं!’

‘नहीं बाबा तीस-चालीस हजार त अबहिन हौ। बकिर ऊ नतिनी के बियाह ख़ातिर बचाए हूँ।’

‘बचाए हो न?’ जैसे गणेश तिवारी को सांस मिल गई। वह बोले, ‘तब तो काम हो जाएगा।’’

‘कवन काम हो जाएगा।’ अचकचा कर पोलादन ने पूछा।

‘तुम बुरबक है। तुम नहीं समझेगा। ले सुरती बना पहले।’ कह कर जोर की हवा ख़ारिज की गणेश तिवारी ने। पोलादन नीचे बैठा चूना लगा कर सुरती मलने लगा। और गणेश तिवारी ने चारपाई पर बैठे-बैठे बैठने की दिशा बदली और एक बार फिर हवा ख़ारिज की पर अबकी जरा धीरे से। फिर पोलादन से एक बीड़ा सुरती ले कर मुंह में जीभ तले दबाया और बोले, ‘अच्छा पोलदना ई बताओ कि अगर तुम्हारा खेत भी तुमको वापिस मिल जाए और तुमको पइसा भी वापिस न देना पड़े तो?’

‘ई कइसे हो जाई बाबा?’ पूछते हुए पोलादन हाँफने लगा और दौड़ कर गणेश तिवारी के पांव पकड़ बैठा।

‘ठीक से बइठ, ठीक से।’ वह बोले, ‘घबराओ जिन।’

‘लेकिन बाबा सहियै अइसन हो जाई।’

‘हो जाई बकिर....!’

‘बकिर का?’ वह विह्वल हो गया।

‘कुछ खर्चा-बर्चा लगेगा।’

‘केतना?’ कहते हुए वह थोड़ा ढीला पड़ गया।

‘घबराओ नहीं।’ उसे आश्वस्त करते हुए वह अंगुलियों पर गिनती गिनते हुए धीरे से बोले, ‘यही कोई तीस चालीस हजार रुपया!’

‘एतना रुपया?’ कहते हुए पोलादन निढाल हो कर मुह बा गया। पोलादन की यह आकृति देख गणेश तिवारी उसका मनोविज्ञान समझ गए। आवाज जरा और धीमी की। बोले, ‘सारा पैसा एक साथ नहीं खर्च होगा।’ वह रुके और बोले, अभी तुम पचीस हजार रुपए दे दो। हाकिम हुक्काम को सुंघाता हूँ। फिर बाकी तुम काम होने के बाद देना।’

‘बकिर काम हो जाई?’ उसकी सांस में जैसे सांस आ गई। बोला, ‘खेतवा मिलि जाई?’

‘बिलकुल मिलि जाई।’ वह बोले, ‘बेफिकिर हो जाओ।’

‘नाई मनो हम एह नाते कह रहे थे जे कि ऊ फौजी बाबा खेतवा जोत बो लिए हैं।’

‘खेतवा बो लिए हैं न?’

‘हाँ, बाबा!’

‘काटे तो नाहीं न हैं?’

‘अबिहन काटने लायक हुई नहीं है।’

‘त जाओ खेत बोया जरूर है उस पागल फौजी ने, बकिर काटोगे तुम।’ वह रुके और बोले, ‘बाकी पइसा तुम जल्दी से जल्दी ला कर गिन जाओ!’

‘ठीक बा बाबा!’ वह जरा मद्धिम आवाज में बोला।

‘इ बताओ कि हमरे पर तुमको विश्वास तो है न?’

‘पूरा-पूरा बाबा।’ वह बोला, ‘अपनहू से जियादा।’

‘तब इहाँ से जो! और हमरे साथे-साथे अपनहू पर विश्वास रख। तोर किस्मत बहुतै बुलंद बा।’ वह बोले, ‘रात भी जादा हो गई है।’

रात सचमुच ज्यादा हो गई थी। वह उन के पैर छू कर जाने लगा।

‘अरे पोलदना हे सुन!’ जाते-जाते अचानक गणेश तिवारी उसे गुहरा पड़े।

‘हाँ, बाबा!’ वह पलट कर भागता हुआ आया।

‘अब एह बात पर कहीं गांजा पी कर पंचाइत मत करने लगना!’

‘नाहीं बाबा!’

‘न ही अपने मेहरारू, पतोह, नात-रिश्तेदार से राय बटोरने लगना।’

‘काहें बाबा!’

‘अब जेतना कह रहा हूँ वोतना कर।’ वह बोले, ‘ई बात हमारे तुम्हारे बीच ही रहनी चाहिए। कोई तीसरा भनक भी न पाने पाए।’

‘ठीक बा बाबा!’

‘हाँ, नाहीं त बना बनाया काम बिगड़ जाई।’

‘नाहीं हम केहू से कुछ नाहीं कहब।’

‘त अब इहाँ से जो और जेतना जल्दी हो सकै पइसा दे जो!’ वह रुके और बोले, ‘केहू से कवनो चर्चा नाहीं।’

‘जइसन हुकुम बाबा!’ कह कर उस ने फिर से गणेश तिवारी के दोनों पैर छुए और दबे पांव चला गया।

पोलादन चला तो आया गणेश तिवारी के घर से। पर रास्ते भर उनकी नीयत थाहता रहा। सोचता रहा कि कहीं ऐसा न हो कि पइसा भी चला जाए और खेत भी न मिले। ‘माया मिली न राम’ वाला मामला न हो जाए। वह इस बात पर भी बारहा सोचता रहा कि आखि़र गणेश बाबा फौजी का जोता बोया खेत जो उसने खुद बैनामा किया है, पांच लाख रुपया नकद ले कर, कैसे उसे वापिस मिल जाएगा भला?

वह इस बिंदु पर बार-बार सोचता रहा। सोचता रहा पर उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था। अंततः हार मान कर उसने सीधे-सीधे यही मान लिया कि गणेश बाबा की तिकड़मी बुद्धि ही कुछ कर सकती हो तो खेत मिलेगा बिना पइसा वापिस दिए। बाकी तो कवनो रास्ता नइखै दिखाई देता। इसी उधेड़बुन में वह घर पहुंचा।

तीन चार दिन इसी उधेड़बुन में रहा। रातों में भी उसकी आँखों में नींद नहीं उतरती। यही सब वह सोचता रहता। उसे लगा वह पागल हो जाएगा। वह बार-बार सोचता कि गणेश तिवारी कहीं उसको ठग तो नहीं रहे हैं? कि पइसा भी ले लें और कि खेतवो न मिलै? काहे से कि उनकी ठगी विद्या का कोई पार नहीं था। इस विद्या की आड़ में कब वह किसको डंस लें इसका थाह नहीं मिलता था। फिर वह यह भी सोचता और बार-बार सोचता कि आखि़र कौन कानून से गणेश बाबा पइसा बिना वापिस दिए फौजी बाबा द्वारा जोता बोया खेत काटने के लिए वापिस दिया देंगे? तब जब कि वह बाकायदा रंगीन फोटो लगा कर रजिस्ट्री करवा चुका है। फिर उसने सोचा कि का पता गणेश बाबा उसकी आड़ में फौजी बाबा को ठगी विद्या से डंस रहे हों? पट्टीदारी का कवनो हिसाब किताब बराबर कर रहे हों? हो न हो यही बात हो! यह ध्यान आते ही वह उठ खड़ा हुआ। आधी रात हो चुकी थी फिर भी उसने आधी रात का ख़याल नहीं किया। सोई बीवी को जगाया। बक्से का ताला खुलवाया बीस हजार रुपया निकलवाया और लेकर पहुँच गया गणेश तिवारी के घर।

पहुँच कर कुंडा खटखटाया। धीरे-धीरे।

‘कौन है रे?’ आधी जागी, आधी निंदियायी तिवराइन ने जम्हाई लेते हुए पूछा।

‘पालागी पंडिताइन! पोलादन हईं।’

‘का रहे पोलदना! ई आधी रात क का बात परि गईल?’

‘बाबा से कुछ जरूरी बाति बा!’ उसने जोड़ा, ‘बहुत जरूरी। जगा देईं।’

‘अइसन कवन जरूरी बाति बा जे भिनहीं नाहीं हो सकत। आधिए रात कै होई?’ पल्लू और आँचल ठीक करती हुई वह बोलीं।

‘काम अइसनै बा पंडिताइन!’

‘त रुक जगावत हईं।’

कह कर पंडिताइन अपने पति को जगाने चली गईं। नींद टूटते ही गणेश तिवारी बउराए, ‘कवन अभागा आधी रात को आया है?’

‘पोलदना है।’ सकुचाते हुए पंडिताइन बोलीं, ‘चिल्लात काहें हईं?’

‘अच्छा-अच्छा बैठाव सारे के बइठका में और बत्ती जरा द।’ कह कर वह धोती ठीक करने लगे। फिर मारकीन की बनियाइन पहनी, कुर्ता कंधे पर रखा और खांसते खंखारते बाहर आए। बोली में किंचित मिठास घोली। बोले, ‘का रे पोलदना सारे, तोंके नींद नाहीं आवेले का?’ तखत पर बैठते हुए खंखारते हुए धीरे से बोले, ‘हाँ, बोल कवन पहाड़ टूट गइल जवन तें आधी रात आ के जगा देहले?’