लोक कवि अब गाते नहीं / पृष्ठ 10 / दयानंद पाण्डेय

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पर पंडिताइन अड़ गईं। पैसा लेने से इंकार कर दिया। बताया कि पंडित जी ने तुम पर का उपकार किया हम नहीं जानते। पर ई तुम्हारा एहसान भी हम नहीं लेंगे। वह सिर पर पल्लू खींचती हुई बोलीं, ‘गाँव का कही भला? केकर-केकर ताना सुनब!’ वह बोलीं, ‘बेटवा के कलंक क ताना अबहिन ले नइखै ख़त्म भइल। त अब नतिनी ख़ातिर ताना हम नाई सुनब।’ वह बोलीं, ‘ताना सुनले के पहिलवैं कुआँ में कूद के मरि जाब!’ कह कर वह रोने लगीं। बोली, ‘पंडित जी बेचारे जेल भले भुगत रहल बाटैं बकिर उन के केहु कतली नइखै कहत। सब कहला जे उन्हें गलत फंसावल गइल बा! त उन का इज्जत से हमरो इज्जत रहे ले। बकिर बेटा बट्टा लगा गइल त करम फूट गईल!’ कह कर पंडिताइन फिर रोने लगीं।....बोलीं, ‘एतना रुपया हम राखब कहाँ? हम नाई लेब!’

‘आखि़र समस्या का है?’

‘समस्या ई है कि सुनेलीं तू लड़किन क कारोबार करेला और हमार नतिनी ई कारोबार नाहीं करी। ऊ नाईं नाची कूदी तोहरे कारोबार में!’

सुन कर लोक कवि तो एक बार सकते में आ गए। पर बोले, ‘आप के नतिनी के हम कहीं ले नहीं जाऊंगा।’ लोक कवि पंडिताइन की मुश्किल समझते हुए बोले, ‘शादी भी आप अपनी मर्जी से जहाँ चाहिएगा, जइसे चाहिएगा तय कर के कर लीजिएगा। पर ई पैसा रख लेईं आप। कामे आई!’ कह कर लोक कवि ने पंडिताइन के पैरों पर अपना सिर रख दिया, ‘बस ब्राह्मण देवता क आशीर्वाद चाहीं!ऽ

पर पंडिताइन अड़ी रहीं तो अड़ी रहीं। पैसा लेना तो दूर, छुआ भी नहीं।

लोक कवि दुखी मन से वापस आ गए।

चेयरमैन साहब के घर जा कर उन को उनका पैसा वापस करने लगे। तो चेयरमैन साहब भड़के, ‘ई का हो गया है रे तुम को!’

‘कुछ नाहीं।’ लोक कवि उदास हो कर बोले, ‘दरअसल हमारा गाँव हम को समझ नहीं पाया!’

‘हुआ का?’

‘तब की सम्मान के बाद गया था तो लोग नचनिया पदनिया कहने लगे थे!’

‘अब की का हुआ?’ चेयरमैन साहब लोक कवि की बात बीच में ही काटते हुए बोले।

‘अब की लड़कियों का दलाल बन गया!’ कह कर लोक कवि रोए तो नहीं पर क्षुब्ध हो गए।

‘कौन बोला तुम्हें लड़कियों का दलाल? उस का ख़ून पी जाऊंगा!’ चेयरमैन साहब उत्तेजित होते हुए बोले।

‘नहीं कोई एकदमै से दलाल शब्द नहीं बोला!’

‘तो?’

‘पर ई कहा कि मैं लड़कियों का कारोबार करता हूँ।’ लोक कवि निढाल होते हुए बोले, ‘सीधे-सीधे इस का मतलब दलाल ही तो हुआ?’

‘कौन बोला कि तुम लड़कियों का कारोबार करते हो?’ चेयरमैन साहब की उत्तेजना जारी थी।

‘और कौन!’ लोक कवि बोले, ‘वही पंडिताइन बोलीं। और ई पैसा लेने से इंकार कर दिया।’’

‘क्यों?’

‘पंडिताइन बोलीं कि सुना है तुम लड़कियों का कारोबार करते हो और हमारी नतिनी ई कारोबार नहीं करेगी!’ लोक कवि खीझते हुए बोले, ‘बताइए हम लोग सोचे थे कि उस को गरीबी के फेर में रंडी बनने से बचाया जाए और पंडिताइन ने उलटे हम पर ही आरोप लगा दिया कि हम उन की नतिनी को रंडी बना देंगे!’ वह बोले, ‘तो भी हम बुरा नहीं माने। ई सोच के कि पुण्य के काम में बाधा आती है। तो इस को बाधा मान कर टाल गए। फिर हम यह भी बताए कि उन की नतिनी को हम कहीं ले नहीं जाएंगे और कि बियाह भी ऊ अपनी मर्जी से जहाँ चाहें करें। हम से कोई मतलब नहीं। उन के पैरों पर सिर रख कर कहा भी कि बस ब्राह्मण देवता क आशीर्वाद चाही!’

‘निरे बऊड़म हो तुम!’ चेयरमैन साहब बोले, ‘देवी को देवता कहोगे और आशीर्वाद माँगोगे तो कौन देगा?’

‘एहमें का गलत हो गया?’ लोक कवि दरअसल चेयरमैन साहब की देवी देवता वाली बात समझे नहीं।

‘चलो कुछ भी गलत नहीं किया तुम ने!’ वह बोले, ‘गलती हम से हो गई जो एह काम ख़ातिर तुम को अकेले भेज दिया।’

‘तो का अब आप चलेंगे?’

‘हाँ हम भी चलेंगे और तुम भी चलोगे।’ वह बोले, ‘लेकिन दस बीस दिन रुक कर।’

‘हम तो नहीं जाएंगे चेयरमैन साहब!’ लोक कवि बोले, ‘जब गाँव जाता हूँ बेइज्जत हो जाता हूँ।’

‘देखो, नेक काम के लिए बेइज्जत होने में कोई बुराई नहीं है। एक नेक काम को हाथ में लिया है तो उसे पूरा कर के छोड़ो।’ वह बोले, ‘फिर तुम हर बात में इज्जत बेइज्जत मत ढूंढ़ा करो! उस बार नचनिया पदनिया पर दुखी हो गए तुम। सम्मान का सारा मजा ख़राब कर दिया।’ वह जरा रुके और बोले, ‘ई बताओ कि तुम अमिताभ बच्चन को कलाकार मानते हो!’

‘हाँ, बहुत बड़े कलाकार हैं वह!’

‘तुम से भी बड़े हैं?’ चेयरमैन साहब मजा लेते हुए बोले।

‘अरे हम कहाँ चेयरमैन साहब, और कहाँ ऊ! काहें मजाक उड़ाते हैं।’

‘चलो किसी को तो तुमने अपने से बड़ा कलाकार माना!’ चेयरमैन साहब बोले, ‘तो यही अमिताभ बच्चन जब 1984 में इलाहाबाद से चुनाव लड़ा बहुगुणा के खि़लाफ तो क्या अख़बार, क्या नेता सभी यही कहते रहे कि नचनिया पदनिया है चुनाव का जीतेगा। हाँ, थोड़ा नाच कूद लेगा। लेकिन उस ने बहुगुणा जैसे दिग्गज को जब धूल चटा दिया, चुनाव हरा दिया तो लोगों के मुंह बंद हो गए।’ चेयरमैन साहब बोले, ‘तो जब इतने बड़े कलाकार को यह जमाना नचनिया पदनिया कह सकता है तो तुम्हें क्यों नहीं कह सकता?’ वह बोले, ‘फिर वह इलाहाबाद जहाँ अमिताभ बच्चन का घर है वह अपने को इलाहाबादी मानता है और इलाहाबाद वाले उसे नचनिया पदनिया। तो भी वह बुरा नहीं माना। क्योंकि वह बड़ा कलाकार है। सचमुच में बड़ा कलाकार। उसमें बड़प्पन है।’ वह बोले, ‘तुम भी अपने में बड़प्पन लाओ और तनिक और विनम्रता सीखो!’

‘बाकि पंडिताइन....!’

‘कुछ नहीं पंडिताइन ने तुम को कुछ नहीं कहा। वह तो अपनी नतिनी की हिफाजत भर कर रही हैं। उस में कुछ भी बुरा मानने की बात नहीं है।’ वह बोले, ‘दस बारह रोज बाद मैं चलूँगा तुम्हारे साथ तब बात करना। अभी घर जाओ आराम करो, रिहर्सल करो और ई सब भूल जाओ!’

और सचमुच लोक कवि चेयरमैन साहब के साथ कुछ दिन बाद इस नेक अभियान पर एक बार फिर निकले। चेयरमैन साहब ने जरा युक्ति से काम लिया। पहले वह लोक कवि को साथ ले कर जेल गए। वहाँ पंडित भुल्लन तिवारी से मिले। पंडित जेल में थे जरूर पर माथे पर उन के तेज था। विपन्नता की चुगली उनका रोआँ-रोआँ कर रहा था पर वह कातिल नहीं हैं, यह भी उनका चेहरा बता रहा था। वह कहने लगे, ‘दो जून भोजन के लिए जरूर मैं इधर-उधर जाता था पर किसी अन्यायी के सामने, किसी स्वार्थ, किसी छल के लिए शीश झुका दूं यह मेरे खून में नहीं है, न ही मेरे संस्कार में।’ वह बोले, ‘रही अन्याय-न्याय की बात तो यह तो ऊपर वाले के हाथ है। मैं खूनी हूँ कि नहीं इस का इंसाफ तो अब ऊपर की ही अदालत में होगा। बाकी रही इस जेल के अपमान की बात तो जरूर कहीं मेरे किसी पाप का ही यह फल है।’ साथ ही उन्होंने जोड़ा, ‘और यह भी जरूर मेरे किसी पाप का ही कुफल था कि गोपाल जैसा कुलंकी वंश मेरी कोख से जनमा!’ यह कहते हुए उन की आँखें डबडबा आईं। गला रुंध गया। फिर वह फफक कर रो पड़े।

‘मत रोइए!’ कह कर लोक कवि ने उन्हें सांत्वना दी और हाथ जोड़ कर कहा कि, ‘पंडित जी एक ठो विनती है, मेरी विनती मान लीजिए!’

‘मैं अभागा पंडित क्या तुम्हारी मदद कर सकता हूँ?’

आशीर्वाद दे सकते हैं।’

‘वह तो सदैव सब के साथ है।’ वह रुके और बोले, ‘पर इस अभागे के आशीर्वाद से क्या तुम्हारा बन सकता है?’

‘बन सकता है पंडित जी!’ लोक कवि बोले, ‘पहले बस अब आप हाँ कह दीजिए।’

‘हाँ है, बोलो!’

‘पंडित जी एक ब्राह्मण कन्या का विवाह करवाने का पुण्य पाना चाहता हूँ।’ वह बोले, ‘बियाह आप लोग अपने समाज में अपनी मर्जी से तय कीजिए। बाकी खर्चा बर्चा हमारे ऊपर छोड़ दीजिए।’

‘ओह समझा!’ भुल्लन पंडित बोले, ‘तुम मुझ पर उपकार करना चाहते हो!’ यह कहते हुए भुल्लन पंडित तल्ख़ हो गए। बोले, ‘पर किस खुशी में भाई?’

‘कुछ नहीं पंडित जी यह मूर्ख है!’ चेयरमैन साहब बोले, ‘यह नाच गा कर तो बड़ा नाम गाँव कमा चुका है और अब कुछ समाज सेवा करना चाहता है। एक पंथ दो काज। ब्राह्मण का आशीर्वाद और पुण्य दोनों चाहता है।’ वह बोले, ‘मना मत कीजिएगा!’

‘पर यह तो पंडिताइन ही बताएंगी।’ तौल-तौल कर बोलते हुए भुल्लन पंडित बोले, ‘घर गृहस्थी तो अब वही देख रही हैं। मैं तो कैदी हो गया हूँ।’

‘लेकिन मीर मालिक तो आप ही हैं पंडित जी!’

‘था।’ वह बोले, ‘अब नहीं। अब कैदी हूँ।’

मुलाकात का समय भी ख़त्म हो चुका था। भुल्लन पंडित के पांव छू कर दोनों जेल से बाहर आ गए।

‘घर में भूजी भांग नाईं, दुआरे हरि कीर्तन!’

‘का हुआ रे लोक कवि?’

‘कुछ नाई। ई पंडितवे एतना अड़ियाते काहें हैं? मैं आज तक नहीं समझ पाया।’ लोक कवि बोले, ‘रस्सी जल गई, ऐंठन नहीं गई। जेल में नरक भुगत रहे हैं, पंडिताइन भूखों मर रही हैं। खाने के लिए गाँव में चंदा लग रहा है पर हमारा पैसा नहीं लेंगे।’ लोक कवि खीझते हुए बोले, ‘‘घीव दै बाभन नरियाय! कहाँ फंसा दिए चेयरमैन साहब। अब जाने भी दीजिए। ई पैसा कहीं और दान दे देंगे। बहुत गरीबी है। पैसा लेने ख़ातिर लोग मार कर देंगे।’’

‘घबराते काहें हो!’ चेयरमैन साहब बोले, ‘धीरज रखो जरा!’

फिर चेयरमैन साहब लोक कवि के घर पहुंचे। लोक कवि का घर क्या था पूरी सराय थी। वह भी लबे सड़क। दरअसल लोक कवि से गाँव के लोगों के जलने का एक सबब उन का यह पक्का मकान भी था। छोटी जाति के व्यक्ति का ऐसा बड़ा पक्का मकान बड़ी जाति के लोगों को तो खटकता ही था छोटी जाति के लोगों को भी हजम नहीं होता था। चेयरमैन साहब ने भी इस बात पर अबकी दफा गशैर किया। बहरहाल, थोड़ी देर बाद वह लोक कवि को उन के घर पर ही छोड़ कर अकेले उन के गाँव में निकले। कुछ जिम्मेदार लोगों से जिन को वह जानते भी नहीं थे, उन से मिले। उन का मन टटोला। फिर अपना मकसद बताया। बताया कि इस के पीछे कुछ और नहीं बस मन में आई मदद की मंशा है। फिर इन लोगों को ले कर लोक कवि के साथ वह भुल्लन तिवारी के घर गए। पंडिताइन से मिले। उन की खुद्दारी को मान दिया। बताया कि जेल में पंडित जी से भी वह लोग मिले थे। अपनी मंशा बताई थी तो पंडित जी ने सब कुछ आप के ऊपर छोड़ दिया है। फिर उन से चिरौरी करते हुए कहा कि, ‘रउरा मान जाईं त समझीं कि हमन के गंगा नहा लेहलीं।’ पंडिताइन कुछ बोलीं नहीं। थोड़ी देर तक सोचती रहीं फिर बिन बोले आँखों ही आँखों में बात गाँव के लोगों पर छोड़ दिया। गाँव के एक बुजुर्ग बोले, ‘पंडिताइन भौजी एहमें कौनो हरजा नइखै!’

‘जइसन भगवान क मर्जी!’ हाथ ऊपर उठाती हुई पंडिताइन बोलीं, ‘अब ई गाँव भर क बेटी है!’

लेकिन पैसा पंडिताइन ने नहीं लिया। बताया कि जब शादी तय हो जाएगी तभी पैसे के बारे में देखा जाएगा। फिर गाँव के ही दो लोगों की सुपुर्दगी में वह पचासी हजार रुपए रखवा दिए गए। दो तीन और लोगों ने शादी खोजने का जिम्मा लिया। सब कुछ ठीक-ठाक कर लोक कवि और चेयरमैन साहब वहाँ से उठे। चलते-चलते लोक कवि ने पंडिताइन के पैर छुए। कहा कि, ‘शादी में हमहूँ के बोलावल जाई!’

‘अ काहें नाहीं!’ पंडिताइन पल्लू ठीक करती हुई बोलीं।

‘एतने ले नाहीं। कुछ औरो उत्तम मद्धिम, घटल बढ़ल होई, ऊहो बतावल जाई!’

‘अच्छा, मोहन बाबू!’ पंडिताइन की आँखों में कृतज्ञता थी।

लोक कवि अपने गाँव से जब लखनऊ के लिए चले तो उन्हें लग रहा था कि सचमुच बड़े पुण्य का काम हो गया। वह ऐसा कुछ चेयरमैन साहब से बुदबुदा कर बोले भी,

‘सचमुच आज बड़ा खुशी का दिन है!’

‘चलो भगवान की दया से सब कुछ ठीक-ठाक हो गया!’ चेयरमैन साहब बोले। और ड्राइवर से कहा कि, ‘लखनऊ चलो भाई!’

लेकिन इस पूरे प्रसंग पर अगर कोई एक सब से ज्यादा उद्वेलित था, सब से ज्यादा दुखी था तो वह था लोक कवि का छोटा भाई जो कमलेश का पिता था। कमलेश के पिता को लगता था कि कमलेश की मौत का अगर कोई जिम्मेदार था तो वह गोपाल था। और उसी गोपाल की बेटी को ब्याहने को बेमतलब का खर्चा उस का बड़ा भाई मोहन कर रहा था जो अब लोक कवि बन कर इतरा रहा था। कमलेश के पिता को यह सब फूटी आँख नहीं सुहा रहा था। पर वह विवश था और चुप था। और उस का ही बड़ा भाई उस की छाती पर मूंग दल रहा था। नाम गाँव कमाने के लिए। पर इधर लोक कवि मगन थे। मगन थे अपनी सफलता पर। कार में चलते हुए ठेका ले-ले कर वह कोई अपना ही गाना भी गुनगुना रहे थे। सांझ घिर आई थी। डूबते हुए सूरज का लाल गोला दूर आसमान में तिर रहा था।

लेकिन वो कहते हैं न कि ‘बड़-बड़ मार कोहबरे बाकी!’

वही हुआ।

सिर्फ पैसे भर से किसी का शादी ब्याह तय हो जाता तो फिर क्या बात होती? लोक कवि और चेयरमैन साहब पैसा दे कर निश्चिंत हो गए। पर बात सचमुच में निश्चिंत होने की थी नहीं। भुल्लन पंडित की नतिनी की शादी इतनी आसानी से होने वाली थी नहीं। बाप गोपाल का कलंक अब बेटी के सिर डोल रहा था। शादी के लिए वर पक्ष से सवाल शुरू होने के पहले ही एड्स का सवाल दौड़ कर खड़ा हो जाता। कहीं भी लोग जाते चाहे गाँव के लोग होते या रिश्तेदार उन से पूछा जाता कि, ‘आप बेटी के पिता हैं, भाई हैं, क्या हैं?’ लोग बताते कि, ‘नहीं गाँव के हैं, पट्टीदार हैं, रिश्तेदार हैं।’ तो सवाल उठता कि, ‘भाई, पिता कहाँ हैं?’ बताया जाता कि पिता का निधन हो गया है और कि....! अभी बात पूरी भी नहीं होती कि वर पक्ष के लोग खुद ही बोल पड़ते, ‘अच्छा-अच्छा ऊ एड्स वाले दोखी कलंकी गोपला की बेटी है!’ वर पक्ष के लोग जोड़ते, ‘ऊ गोपाल जिस का बाप भी कतल के जुर्म में जेल काट रहा है?’

रिश्तेदार, पट्टीदार जो भी होता निरुत्तर हो जाता। एकाध लोग तर्क भी देते कि इसमें लड़की का क्या दोष? लेकिन एड्स जैसे भारी शब्द के आगे सारे तर्क पानी हो जाते। और वर पक्ष के लोग कसाई।

फिर गाँव में एक विलेज बैरिस्टर थे। नाम था गणेश तिवारी। ऐसी बात जहाँ न भी पहुंची हो गणेश तिवारी पूरा चोखा चटनी लगा कर पहुंचाने में पूरी प्रवीणता हासिल रखते थे। न सिर्फ बात पहुंचाने की प्रवीणता हासिल रखते थे बल्कि बिना सुई, बिना तलवार, बिना छुरी, बिना धार वह किसी भी का सर कलम कर सकते थे, उस को समूल नष्ट कर सकते थे। और ऐसे कि कटने वाला तड़प भी न सके, मिटने वाला उफ्फ भी न कर सके। वह कहते, ‘वकील लोग वैसे ही थोड़े किसी को फांसी लगवा देते हैं।’ वह वकीलों के गले में बंधे फीते को इंगित करते हुए कहते, ‘अरे, पहले गटई में खुद फंसरी बांधते हैं फिर फांसी लगवाते हैं!’ फिर गणेश तिवारी बियाह काटने में तो इतना पारंगत थे जितना किसी के प्राण लेने में यमराज। वह किसी भी ‘वर’ को मिर्गी, दमा, टी.वी., जुआरी, शराबी वगैरह वगैरह गुणों से विभूषित कर सकते थे। ऐसे ही वह किसी भी कन्या का भले ही उसे मासिक धर्म भी न शुरू हुआ हो तो क्या दो, चार गर्भपात करवा सकते थे। इस निरापद भाव, इस तटस्थता, इस कुशलता और इस निपुणता के साथ कि वह भले ही आप की बेटी या बेटा क्यों न हो, एक बार तो आप भी मान ही लें। इस मामले में उनके दो चार नहीं ढेरों, सैकड़ों किस्से गाँव जवार में किंवदंती बन चले थे। इतना कि जैसे कोई शुभ काम शुरू करने के पहले लोग ‘ऊं गणेशाय नमः’ कर के श्री गणेश करते थे ताकि कोई विघ्न बाधा नहीं पड़े ठीक वैसे ही यहाँ लोग शादी ब्याह का लगन निकालने ख़ातिर पंडित और उनके पंचांग को बाद में देखते, पहले यह देखते कि गणेश तिवारी किस तिथि को गाँव में नहीं होंगे!

फिर भी जाने लोगों का दुर्भाग्य होता कि गणेश तिवारी के गाँव में आने का दुर्निवार संयोग वह अचानक ऐन मौके पर प्रकट हो जाते। ऐसे कि लोगों के दिल धकधका जाते।

तो गणेश तिवारी का दुर्निवार संयोग भुल्लन तिवारी के बेटे गोपला की बेटी की शादी काटने में भी खादी का जाकेट पहन कर, टोपी लगा कर कूद पड़ा। ख़ास कर तब और उनके नथुने फड़फड़ा उठे जब उन्हें पता चला कि लोक कविया इसमें पैसा कौड़ी खर्च कर रहा है। लोक कविया को वह अपना शिष्य मानते थे। इस लिहाज से कि गणेश तिवारी खुद भी गवैया थे। एक कुशल गवैया। और चूंकि गाँव में वह सवर्ण थे सो श्रेष्ठ भी थे और उम्र में भी लोक कवि से वरिष्ठ थे लेकिन चूंकि जाति से ब्राह्मण थे सो शुरू में वह गाँव-गाँव, गली-गली घूम-घूम कर नहीं गा पाए। चुनावी सभाओं में नहीं जा पाए गाना गाने। जब कि लोक कवि के लिए ऐसी कोई पाबंदी न पहले थे, न अब थी। और अब तो ऐसी पाबंदी गणेश तिवारी ने भी तोड़ दी थी। रामलीलाओं और कीर्तनों में गाते-बजाते अब वह ठाकुरों, ब्राह्मणों की शादियों में महफिल सजाने लगे थे। बाकायदा सट्टा लिखवा कर। पर बहुत बाद में। इतना कि जिले जवार से ज्यादा कोई उन्हें जानता भी नहीं था। तब जब कि इस उमर में भी भगवान ने उन के गले में सुर की मिठास, कशिश और गुण बख़्श रखा था। लोक कवि की तरह गणेश तिवारी के पास कोई आर्केस्ट्रा पार्टी नहीं थी, न ही साजिंदों का भारी भरकम बेड़ा। वह तो बस खुद हारमोनियम बजाते और ठेका लगाने के लिए एक ढोलक बजाने वाला साथ रखते। जो ब्राह्मण ही था। वह ढोलक बजाता और बीच-बीच में गणेश तिवारी को ‘रेस्ट’ देने की गरज से लतीफागोई भी करता। जिनमें ज्यादातर नानवेज लतीफे होते धुर गंवई स्टाइल के। लेकिन ये लतीफे सीधे-सीधे अश्लीलता छूने के बजाय सिर्फ संकेत भर देते सो ‘ब्राह्मण समाज’ में ‘खप-पच’ जाते। जैसे कि एक लतीफा वह अकसर ही सुनाते कि, ‘बलभद्दर तिवारी बड़े ही मजाकिया थे। पर वह अपने छोटे साले से कभी मजाक नहीं करते थे। छोटे साले को यह शिकायत हरदम बनी रहती कि, ‘जीजा हमसे मजाक क्यों नहीं करते?’

लेकिन जीजा अकसर टाल जाते। पर यह उलाहना जब ज्यादा चढ़ गया तो एक बार रात के खाने के समय बलभद्दर तिवारी ने यह उलाहना उतारने की ठानी। उन का दुआर बहुत बड़ा था। और सामने कुआँ भी। कुएं के पास ही उन्होंने मिर्च के कुछ पौधे लगा रखे थे। सो खाने के पहले ही उन्होंने साले को बताया कि, ‘एक बड़ी समस्या है इस मिर्च की रखवाली।’

‘क्यों?’ साले ने जिज्ञासा जताई।

‘क्योंकि एक औरत परकी हुई है। ज्यों मैं रात खाना खाने जाता हूँ वह मिर्चा तोड़ने आ जाती है।’

‘यह तो बड़ा गड़बड़ है।’ साला बोला।

‘पर आज मिर्चा बच सकता है और जो तुम साथ दो तो उस औरत को पकड़ा जा सकता है।’

‘कैसे भला?’

‘वो ऐसे कि हम लोग आज बारी-बारी खाएं।’ बलभद्दर तिवारी बोले, ‘पहले तुम खा लेना, फिर मैं खाने जाऊंगा।’

‘ठीक बा जीजा!’

‘पर वह औरत बड़ी सुंदर है। उसके झांसे में मत आ जाना।’

‘अरे, नहीं जीजा!’

फिर तय बात के मुताबिक साले ने पहले खाना खा लिया। फिर बलभद्दर तिवारी खाने खाना गए। खाते-खाते वह पत्नी से बोले कि, ‘जरा टटका हरा मिर्च कुएं पर से तोड़ लाओ।’

पत्नी ने भाई की उपस्थिति के बहाने टाल मटोल की तो बलभद्दर तिवारी बोले, ‘पिछवाड़े के दरवाजे से चली जाओ।’

पत्नी मान गई। चली गई पिछवाड़े के दरवाजे से मिर्चा तोड़ने। इधर उन के भाई भी ‘सुंदर’ औरत को पकड़ने की फिराक में उतावले बैठे थे। मिर्चा तोड़ती औरत को देखते ही वह कूद पड़े और उसे कस कर पकड़ लिया। न सिर्फ पकड़ लिया उसके स्त्री अंगों को जहाँ तहाँ दबाने सहलाने भी लगे। दबाते-सहलाते चिल्लाने भी लगे, ‘जीजा-जीजा! पकड़ लिया। पकड़ लिया चोट्टिन को।’

जीजा भी आराम से लालटेन लिए पहुंचे। तब तक साले साहब औरत को भरपूर दबा-वबा चुके थे। पर लालटेन के उजाले में अपनी बहन को पहचान कर उन पर घड़ों पानी पड़ चुका था। बहन जी बड़ी लज्जित हुईं पर यह जरूर समझ गईं कि यह सारी कारस्तानी उन के मजाकिया पतिदेव की ही है। वे तंज करती हुई बोलीं, ‘आप को भी यह सब क्या सूझता है?’ वह बोलीं, ‘भाई-बहन को भी नहीं छोड़ते आप?’

‘कइसे छोड़ते?’ बलभद्दर तिवारी बोले, ‘तुम्हारे इस भाई को बड़ी शिकायत थी कि आप हमसे कोई मजाक क्यों नहीं करते सो सोचा कि सूखा-सूखा क्या करूं, प्रैक्टिकल मजाक कर दूं। सो आज इनकी शिकायत भी दूर कर दी।’ कहते हुए वह साले की तरफ मुसकुराते हुए मुखातिब हुए, ‘दूर हो गया न हो। कि कवनो कसर बाकी रह गया है? रह गया हो तो उहो पूरा करवा दें।’

‘का जीजा!’ कह कर साला बाबू वहाँ से खिसक लिए।