लोक कवि अब गाते नहीं / पृष्ठ 9 / दयानंद पाण्डेय
‘इसलिए कि हमने देखा है कि वहाँ अकेले गाना पड़ता है। तो हमको भी अकेले गाना पड़ेगा। संगी साथी होंगे नहीं, बाजा गाजा होगा नहीं। बिना संगी साथी, बाजे गाजे के गा नहीं पाऊंगा। और जो गा दूँगा अकेले बिना बाजा-गाजा, संगी साथी के तो फ्लाप हो जाऊंगा। मार्केट डाऊन हो जाएगा।’ लोक कवि ने बात और साफ की कि, ‘हम कविता नहीं, गाना गाता हूँ, धुन में सान कर जैसे आटा साना जाता है, पानी डाल कर। वइसे ही धुन मैं सानता हूँ गाना डाल कर।’ वह बोले, ‘बिना इसके हम फ्लाप हो जाऊंगा!’
‘गजब! क्या जवाब दिया है लोक कवि आप ने।’ पत्रकार लोक कवि से हाथ मिलाते हुए बोला।
‘लेकिन इसको छापिएगा नहीं।’ लोक कवि बाबू साहब के पांव छूते हुए बोले।
‘क्यों इसमें क्या बुराई है? इसमें तो कोई विवाद भी नहीं है?’
‘ठीक है। बकिर विद्वान लोग नाहक नाराज हो जाएंगे।’
‘क्योंकि यही काम वह लोग भी कर रहे हैं जो कि आप कर रहे हैं इसलिए? इसलिए कि वह लोग यही काम कर विद्वानों की पांत में बैठ जा रहे हैं, और वही काम करके आप गायकों की पांत में बैठ जा रहे हैं इसलिए?’ बाबू साहब बोले, ‘लोक कवि आपकी यह टिप्पणी इन कवियों को एक करारा तमाचा है। तमाचा भी नहीं बल्कि जूता है!’
‘अरे नहीं। ई सब नाहीं।’ लोक कवि हाथ जोड़ कर बोले, ‘ई सब छापिएगा नहीं।’
‘अच्छा जो ये ढपोरशंखी विद्वान आपकी इस टिप्पणी से नाराज हो जाएंगे तो क्या बिगाड़ लेंगे?’
‘ई हमको नहीं मालूम। पर विद्वान हैं, बुद्धिजीवी हैं, समाज के इज्जतदार हैं, उनकी बेइज्जती नहीं होना चाहिए उन का इज्जत करना हमारा धर्म है।’
‘चलिए छोड़िए।’ कह कर पत्रकार ने बात आगे बढ़ा दी। लेकिन बात चलते-चलते फिर कहीं न कहीं फंस जाती और लोक कवि हाथ जोड़ते हुए कहते, ‘बकिर ई मत छापिएगा।’
इस तरह चलते-फंसते बात एक जगह फिर दिलचस्प हो गई।
सवाल था कि, ‘जब इतने स्थापित और मशहूर गायक हैं आप तो अपने साथ डुवेट गाने के लिए इतनी लचर गायिका क्यों रखते हैं? कोई सधी हुई गायकी में निपुण गायिका के साथ जोड़ी क्यों नहीं बनाते हैं अपनी आप?’
‘अच्छा!’ लोक कवि तरेरते हुए बोले, ‘अपने से अच्छी गायिका के साथ डुएट गाऊंगा तो हमको कौन सुनेगा भला? फिर तो उस गायिका की मार्केट बन जाएगी, हम तो फ्लाप हो जाऊंगा। हमको फिर कौन पूछेगा?’
‘चलिए अच्छी गाने वाली गायिका न सही पर थोड़ा बहुत ठीक ठाक गाने वाली सही पर खूब सुंदर कोई लड़की तो अपने साथ डुवेट गाने के लिए आप रख ही सकते हैं?’
‘फेर वही बात!’ लोक कवि मुसकुराते हुए तिड़के, ‘देख रहे हैं जमाना एतना ख़राब हो गया है। टीम में लड़कियां न रखूं तो कोई हमारा पोरोगराम न देखे, न सुने और फिर सोने पर सुहागा ई करूं कि अपने साथ डुएट गाने वाली ख़ूब सुंदर लड़की रखूं!’ वह बोले, ‘हम तो फिर फ्लाप हो जाऊंगा। हम बुढ़वा को सुनेगा कौन, सब लोग तो उस सुंदरी को ही देखने में लग जाएंगे। ज्यादा हुआ तो गोली बंदूक चलाने लग जाएंगे!’ वह बोले, ‘तो चाहे देखने में बहुत सुंदर, चाहे गाने में बहुत जोग्य हमारे साथ चल नहीं पाएगी, हमको तो दोनों ही मामलों में अपने से उन्नीस ही रखना है।’
कहने को तो साफ साफ कह गए लोक कवि लेकिन फिर पत्रकार के पैर पड़ गए। कहने लगे, ‘इसे भी मत छापिएगा।’
‘अब इसमें क्या हो जाएगा?’
‘क्या हो जाएगा?’ लोक कवि बोले, ‘अरे, बड़ा बवाल हो जाएगा। लड़कियां सब नाराज हो जाएंगी।’ वह बोले, ‘अभी तो सभी को हूर की परी बताता हूँ। बताता हूँ कि हमसे भी सुंदर गाती हो। पर सब जब असलियत जान जाएंगी तो सिर फोड़ देंगी हमारा। टूट जाएगी हमारी टीम। कौन लड़की आएगी हमारी टीम में भला?’ लोक कवि पत्रकार से बोले, ‘समझा कीजिए। बिजनेस है ई हमारा! टूट गया तो?’
तो इस तरह कुछ क्या तमाम अप्रिय लेकिन दिलचस्प सवालों के जवाबों को काट पीट कर लोक कवि का इंटरव्यू छपा मय फोटो के।
इससे लोक कवि का ग्रेस बढ़ गया और मार्केट भी।
अब लोक कवि के कार पर उनके सम्मान के नाम की प्लेट जो उन्होंने पीतल की बनवाई थी, लग गई थी। बिलकुल मंत्री, विधायक, सांसद, कमिश्नर, डी.एम. या एस.पी. की प्लेट की तरह!
लोक कवि के कार्यक्रम भी इधर बढ़ गए थे। इतने कि वह संभाल नहीं पा रहे थे। कलाकारों में से एक हुसियार लवंडे को उन्होंने लगभग मैनेजर सा बना दिया। सब इंतजाम, सट्टा-पट्टा, आना जाना, रहना-खाना, कलाकारों की बुकिंग, उनको पेमेंट आदि लगभग सभी काम उन्होंने उस मैनेजर कम कलाकार को सौंप दिए।
किस्मत संवर गई थी लोक कवि की। इसी बीच उनको बिहार सरकार ने भी दो लाख रुपए के सम्मान से सम्मानित करने की घोषणा कर दी। बिहार में भी एक यादव मुख्यमंत्री का राज था। यादव फैक्टर वहाँ भी लोक कवि के काम आया। साथ ही बिहार में भी उनके कार्यक्रमों की माँग बढ़ गई।
चेयरमैन साहब अब लोक कवि को चिढ़ाते भी कि, ‘साले अब तुम अपना नाम एक बार फिर बदल लो। मोहन से लोक कवि हुए थे और अब लोक कवि से ‘यादव कवि’ बन जाओ!’
जवाब में लोक कवि कुछ कहते नहीं बस भेद भरी मुसकान फेंक कर रह जाते। एक दिन पत्रकार से चेयरमैन साहब कहने लगे कि, ‘मान लो लोक कविया की किस्मत जो अइसेही चटकती रही तो एक न एक दिन हो सकता है इसको ले कर रिसर्च भी होने लगे। यूनिवर्सिटी में पी.एच.डी. होने लगे इसके बारे में।’
‘हो सकता है चेयरमैन साहब बिलकुल हो सकता है।’ चेयरमैन साहब के मजाक के वजन को और बढ़ाते हुए बाबू साहब बोले।
‘तो एक विषय तो इस लोक कवि की पी.एच.डी. पर सबसे ज्यादा पापुलर रहेगा।’
‘कौन सा विषय?’
‘यही कि लोक कवि के जीवन में यादवों का योगदान!’ चेयरमैन साहब थोड़ी तफसील में आते हुए बोले, ‘इसकी सबसे पहली 440 वोल्ट वाली प्रेमिका यादव, इसने सबसे पहला गाना बनाया यादव प्रेमिका पर, इसने सब से पहले संभोग किया यादव लड़की से, इसका जो पहला लड़का पैदा हुआ यादव औरत से।’ चेयरमैन साहब बोले, ‘पुरस्कार तो इसने बहुत पाए लेकिन सबसे बड़ा और राजकीय पुरस्कार पाया तो यादव मुख्यमंत्री के हाथों, फिर दूसरा पुरस्कार भी यादव मुख्य मंत्री के हाथों।’ वह बोले, ‘एतना ही नहीं आजकल कार्यक्रम भी जो खूब काट रहा है वह भी यादव समाज में ही।’ चेयरमैन साहब सिगरेट की लंबी कश लेते हुए बोले, ‘निष्कर्ष यह कि यादवों की मारते हुए भी यादवों का राजा बेटा बना हुआ है!’
‘यह तो है चेयरमैन साहब।’ बाबू साहब मजा लेते हुए बोले।
पर लोक कवि हाथ जोड़े आँख मूंदे यों बैठे हुए थे गोया प्राणायाम कर रहे हों!
जो भी हो इन दिनों लोक कवि की चांदी थी। बल्कि यों कहें कि दिन उनके सोने के थे और रातें चांदी की। जैसे-जैसे उम्र उनकी बढ़ती जा रही थी लड़कियों का व्यसन भी उनका बढ़ता जा रहा था। पहले कोई लड़की उनकी पटरानी की स्थिति में महीनों क्या साल दो साल रहती थी पर अब दो महीना, चार महीना, ज्यादा से ज्यादा छ महीना में बदल जाती। कोई टोकता भी तो वह कहते, ‘मैं तो कसाई हूँ कसाई।’ वह जोड़ते, ‘व्यवसाय करता हूँ, व्यवसायी हूँ। जो जितना बिकती है, उसे बेचता हूँ। कसाई माँस नहीं काटेगा, बेचेगा तो खाएगा क्या?’
जाने क्यों दिन-ब-दिन वह कलाकारों के प्रति निर्दयी भी होते जा रहे थे। पहले उनके छांटे, निकाले हुए कलाकारों में से लोग मिल जुल कर साल दो साल में एक दो टीम अलग-अलग बना कर गुजारा करते। लोक कवि भी उन्हें अपनी टीम से भले अलग करते लेकिन अपने गानों को गाने से मना नहीं करते। तो यह नई टीम अलग भले ही रहती, लेकिन रहती लोक कवि की बी टीम बन कर ही। लोक कवि के ही गानों को गाती बजाती। लोक कवि का मान सम्मान करती हुई।
पर अब?
और आखि़र तब तक लोक कवि परेशान रहे, बेहद परेशान! जब तक कि कमलेश मर नहीं गया। कमलेश बंबई में मरा तो विद्युत शवदाह गृह में फूंका गया। इसी तरह बैंकाक में गोपाल तिवारी भी फूंका गया। लेकिन गाँव में तो विद्युत शवदाह गृह नहीं था। तो जब कोइरी, बरई के परिवार वाले मरे तो लकड़ी से उन्हें फूंका जाना था।
घर परिवार में जल्दी कोई तैयार नहीं था उन्हें अग्नि देने को। भय था कि जो फूंकेगा, उसे भी एड्स हो जाएगा। फूंकना तो दूर की बात थी, कोई लाश उठाने या छूने को तैयार नहीं था। बात अंततः प्रशासन तक पहुंची तो जिश्ला प्रशासन ने इन सब को बारी-बारी फूंकने का इंतजाम करवाया। अभी यह सब निपटा ही था कि बैंकाक से लोक कवि के गाँव के दो और नौजवान एड्स ले कर लौटे।
यह सब सुन कर लोक कवि से रहा नहीं गया। उन्होंने माथा पीट लिया। चेयरमैन साहब से बोले, ‘ई सब रोका नहीं जा सकता?’
‘का?’ चेयरमैन साहब सिगरेट पीते हुए अचकचा गए।
‘कि बैंकाक से आना जाना ही बंद हो जाए हमारे गाँव के लोगों का!’
‘तुम अपने गाँव के राजदूत हो का?’ चेयरमैन साहब बोले, ‘कि तुम्हारा गाँव कौनो देश है? भारत से अलग!’
‘त का करें भला?’
‘चुप मार के बैठ जाओ!’ वह बोले, ‘अइसे जइसे कहीं कुछ हुआ ही न हो!’
‘आप समझते नहीं हैं चेयरमैन साहब!’
‘का नहीं समझते हैं रे?’ सिगरेट की राख झाड़ते हुए लोक कवि को डपट कर बोले चेयरमैन साहब।
‘बात तनिको जो इधर से उधर हुई तो समझिए कि मार्केट तो गई हमारी!’
‘का तुम हर बात में मार्केट पेले रहते हो!’चेयरमैन साहब बिदकते हुए बोले, ‘ई सबसे मार्केट नहीं जाती। क्योंकि पूरे गाँव का ठेका तो तुम लिए नहीं हो। और फिर पंडितों को भी एड्स हो गया। ई बीमारी है, इसमें कोई का कर सकता है? केहू को दोष देने से तो कुछ होता नहीं!’
‘आप नहीं समझेंगे!’ लोक कवि बोले, ‘आप का समझेंगे? आप तो राजनीति भी कब्बो मेन धारा वाला नहीं किए। तो राजनीतियै का दर्द आप नहीं जानते तो मार्केट का दर्द का जानेंगे आप?’
‘सब जानता हूँ!’ चेयरमैन साहब बोले, ‘अब तुम हम को राजनीति सिखाएगा?’ वह किंचित मुसकुरा कर बोले, ‘अरे चनरमा के बारे में जानने के लिए चनरमा पर जा कर रहना जरूरी है का। या फेर तुम्हारा गाना जानने के लिए, गाना सुनने के लिए गाना गाने भी आए जरूरी है का?’
‘ई हम कब बोले!’
‘त ई का बोले तुम कि राजनीति का मेन धारा!’ वह बोले, ‘अब हमारी पार्टी का सरकार नहीं है तब भी हम चेयरमैन हूँ कि नाहीं?’ उन्होंने खुद ही जवाब भी दिया, ‘हूँ न? तो ई राजनीति नहीं तो का है बे?’
‘ई तो है!’ कह कर लोक कवि ने हाथ जोड़ लिया।
‘अब सुनो!’ चेयरमैन साहब बोले, ‘जब-तब मार्केट-मार्केट पेले रहते हो तो जानो कि तुम्हारा मार्केट कैसे ख़राब हो रहा है?’
‘कैसे?’ लोक कवि हकबकाए।
‘ई जो यादव राज में यादव मुख्यमंत्री के साथ तुम नत्थी हो गए!’ वह बोले, ‘ठीक है तुमको बड़का सरकारी इनाम मिल गया, पांच लाख रुपया मिल गया, तुम्हारे नाम पर सड़क हो गया! यहाँ तक तो ठीक है। पर तुम एक जाति, एक पार्टी विशेष के गायक बन कर रह गए हो।’ वह उदास होते हुए बोले, ‘अरे, तुम्हारे लोक गायक को मारने के लिए ई आर्केस्ट्रा कम पड़ रहा था कि तुम वहाँ भी नत्थी हो कर मरने के लिए चले गए पतंगा के मानिंद!’
‘हाँ, ई नोकसान तो हो गया।’ लोक कवि बोले, ‘मुख्यमंत्री जी की सरकार जाने का बाद तो हमारा पोरोगराम कम हो गया है। सरकारी पोरोगरामों में भी अब हम को उनका आदमी बता कर हमारा नाम उड़ा देते हैं!’
‘तब?’
‘त अब का करें?’
‘कुछ मत करो! सब समय और भगवान के हवाले छोड़ दो!’
‘अब यही करना ही पड़ेगा!’ लोक कवि उन के पांव छूते हुए बोले।
‘अच्छा ये बताओ कि तुम्हारे भाई के जिस बेटे को एड्स हुआ था उस के बाल बच्चे हैं?’
‘अरे नाहीं, उस का तो अभी बियाह नहीं हुआ था।’ वह हाथ जोड़ते हुए बोले, ‘अब की साल तय हुआ था। पर ससुरा बिना बियाह के मर गया! भगवान ने ई बड़ा भारी उपकार किया।’
‘और ऊ बरई के बच्चे हैं?’
‘हाँ, एक ठो बेटा है। घर वाले देख रहे हैं।’ लोक कवि बोले, ‘और ऊ कोइरी के भी दो बच्चे हैं घर वाले देख रहे हैं।’
‘इन बच्चों को तो एड्स नहीं न है?’
‘नहीं।’ लोक कवि बोले, ‘इन सबों के मर मरा जाने के बाद शहर के डाक्टर आए थे। इन बच्चों का ख़ून ले जा कर जांचे थे। सब सही निकले। किसी को एड्स नहीं है।’
‘और ऊ पंडितवा के बच्चों को?’
‘उन को भी नहीं।’
‘पंडितवा के कितने बच्चे हैं?’
‘एक ठो बेटी, एक ठो बेटा।’
‘पंडितवा का बाप तो जेल में है और पंडितवा अपनी बीवी समेत मर गया तो उस के बच्चों की देखभाल कौन कर रहा है?’
‘बूढ़ा!’
‘कौन बूढ़ा?’
‘पंडित जी तो बेचारे बुढ़ौती में निरपराध जेल काट रहे हैं, उन की बूढ़ा पंडिताइन बेचारी बच्चों को जिया रही हैं।’
‘ऊ न्यौता खा कर पेट जियाने वाले पंडित के घर का खर्चा-बर्चा कैसे चल रहा है?’
‘राम जाने!’ लोक कवि सांस लेते हुए बोले, ‘कुछ समय तो बैंकाक की कमाई चली! अब सुनता हूँ गाँव में कब्बो काल चंदा लग जाता है। कोई अनाज, कोई कपड़ा, कोई कुछ पैसा दे देता है!’ वह बोले, ‘भीख समझिए! कोई दान तो देता नहीं है। दूसरे, लड़की भी अब बियाहने लायक हो रही है! राम जाने कइसे शादी होगी उस की।’ लोक कवि बोले, ‘जाने उस का बियाह हो पाएगा कि बाप की राह चल कर रंडी हो जाएगी!’ लोक कवि रुके और बोले, ‘बताइए बेचारे पंडित जी एतना धरम करम वाले थे, एक न्यौता खाना छोड़ के कोई ऐब नहीं था। बकिर जाने कौन जनम का पाप काट रहे हैं। एह जनम में तो कौनो पाप ऊ किए नाहीं। लेकिन लड़का एह गति मरा कलंक लगा कर और अपने बेकसूर हो कर भी बेचारे जेल काट रहे हैं!’
‘तुम पाप-पुण्य में विश्वास करते हो?’
‘बिलकुल करता हूँ!’
‘तो एक पुण्य कर डालो!’
‘का?’
‘उस ब्राह्मण की बेटी के बियाह का खर्चा उठा लो!’
‘का?’
‘हाँ, तुम्हारे कोई बेटी है भी नहीं।’ चेयरमैन साहब बोले, ‘बेसी पैसा मत खर्च करो। पचीस-पचास हजार जो तुम्हारी श्रद्धा में रुचे जा के बुढ़िया पंडिताइन को दे दो यह कह कर कि बिटिया का बियाह कर दीजिए!’ वह बोले, ‘मैं भी कुछ दस-पांच हजार कर दूँगा। हालांकि पचास साठ हजार में लड़की की शादी तो नहीं होती आज कल लेकिन उत्तम मद्धिम कुछ तो हो ही जाएगी।’ वह बोले, ‘नहीं, अभी तुम्हीं कह रहे थे कि बियाह नहीं हुआ तो बाप की राह चल कर रंडी हो जाएगी!’
चेयरमैन साहब बोले, ‘तुम यह सोच लो कि उसे रंडी की राह नहीं जाने देना है। तुम कुछ करो, कुछ मैं भी करता हूँ, दो चार और लोगों से भी कहता हूँ बाकी उसका नसीब!’
‘बाकी गाँव में एह तर समाज सेवा करुंगा तो बिला जाऊंगा।’ लोक कवि संकोच घोलते हुए बोले, ‘हर घर में कोई न कोई समस्या है। तो हम किसका-किसका मदद करुंगा? जिसका करुंगा, ऊ खुस हो जाएगा, जिसको मना करूंगा ऊ दुसमन हो जाएगा!’ वह बोले, एह तर तो सगरो गाँव हमारा दुसमन हो जाएगा!’
‘इस पुण्य काम के लिए तुम पूरी दुनिया को दुश्मन बना लो।’ चेयरमैन साहब बोले, ‘और फिर कोई जरूरी है कि तुम यह मदद डंका बजा कर करो। चुपचाप कर दो। गुप-चुप! कोई जाने ही ना!’ वह बोले, ‘दुनिया भर की रंडियों पर पैसा उड़ाते हो तो एक लड़की को रंडी बनने से बचाने के लिए कुछ पैसा खर्च कर के देखो।’
चेयरमैन साहब लोक कवि की नस पकड़ते हुए बोले, ‘क्या पता इस लड़की के आशीर्वाद से, इस के पुण्य से ही, तुम्हारी लड़खड़ाती मार्केट संभल जाए!’ वह बोले, ‘कर के देखो! इस में सुख भी मिलेगा और मजा भी आएगा।’ फिर वह तंज करते हुए भी बोले, ‘न हो तो ‘मिसिराइन’ से भी मशविरा ले लो। देखना वह भी इसके लिए मना नहीं करेंगी।’
लोक कवि ने मिसिराइन से मशविरा तो नहीं किया पर लगातार इस बारे में सोचते रहे और एक दिन अचानक चेयरमैन साहब को फोन मिला कर बोले, ‘चेयरमैन साहब हम पचास हजार रुपया खर्चा काट-काट के जोड़ लिया हूँ!’
‘किस लिए बे?’
‘अरे, उस ब्राह्मण की बेटी को रंडी बनने से बचाने के लिए!’ लोक कवि बोले, ‘भूल गए का आप? अरे, उस की शादी के लिए! आप ही तो बोले थे!’
‘अरे, हाँ भाई मैं तो भूल ही गया था!’ वह बोले, ‘चलो तुम पचास दे रहे तो पंद्रह हजार मैं भी दे दूँगा। दो एक और लोगों से भी दस बीस हजार दिलवा दूँगा!’ वह बोले, ‘कुछ और मैं करता लेकिन हाथ इधर जरा तंग है, पत्नी की बीमारी में खर्चा ज्यादा हो गया है। फिर भी तुम जिस दिन कहोगे, पैसा दे दूँगा। इतना पैसा तो अभी हमारे पास है। किसी लौंडे का भेज कर मंगवा लो!’
‘ठीक बा चेयरमैन साहब!’ कह कर लोक कवि ने पंद्रह हजार रुपए उन के यहाँ से मंगवा लिए। दो जगह से पांच-पांच हजार और एक जगह से दस हजार रुपए चेयरमैन साहब ने दिलवा दिए। इस तरह पैंतीस हजार रुपए यह और पचास हजार रुपए अपने मिला कर यानी कुल पचासी हजार रुपए ले जा कर लोक कवि ने पंडिताइन को दिए। यह कर कर कि, ‘पंडित जी के बड़े उपकार हैं हम पर। नतिनी के बियाह ख़ातिर ले लीजिए! ख़ूब धूमधाम से शादी कीजिए!’