लोक कवि अब गाते नहीं / पृष्ठ 8 / दयानंद पाण्डेय

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रास्ते में जब दो पेग लोक कवि पी चुके तो बोले, ‘चेयरमैन साहब ई बताइए कि हम कलाकार हूँ कि नहीं?’

‘त का भिखारी हो!’ चेयरमैन साहब लोक कवि के सवाल का मर्म जाने बिना बिदक कर बोले।

‘त कलाकार हूँ न!’ लोक कवि फिर बेचारगी में बोले।

‘बिलकुल हो।’ चेयरमैन साहब ठसके के साथ बोले, ‘एहू में कवनो शक है का?’

‘तब्बै न पूछ रहा हूँ।’ लोक कवि असहाय हो कर बोले।

‘तुमको चढ़ गई है सो जाओ।’ चेयरमैन साहब लोक कवि के सिर पर थपकी देते हुए बोले।

‘चढ़ी नहीं है चेयरमैन साहब!’ लोक कवि थोड़ा ऊंचे स्वर में बोले, ‘त इ बताइए कि हम कलाकार हैं कि नचनिया पदनिया!’

‘धीरे बोल साले। हम कोई बहरा हूँ का जो चिल्ला रहा है।’ वह बोले, ‘पंडितवा का डंक तुमको अब लग रहा है?’ वह लोक कवि की ओर मुंह करके बोले, ‘किसी अंडित पंडित के कहने से तुम नचनिचा पदनिया तो नहीं हो जाओगे। कलाकार हो, कलाकार रहोगे। ऊ पंडितवा साला का जाने कला और कलाकार!’ वह तुनके, ‘हम जानता हूँ कला और कलाकार। मैं कहता हूँ तुम कलाकार हो। और मैं क्या कला के सभी जानकार तुम्हें कलाकार मानते हैं। भगवान ने, प्रकृति ने तुम्हें कला दी है।’

‘वो तो ठीक है।’ लोक कवि बोले, ‘पर मेरे गाँव ने आज मुझे मेरी औकात बता दी है। बता दिया है कि नचनिया पदनिया हूँ।’

‘राष्ट्रपति के साथ अमरीका, सूरीनाम, फिजी, थाइलैंड जाने कहाँ-कहाँ गए हो। गए हो कि नहीं?’ चेयरमैन साहब ने तल्ख़ हो कर पूछा।

‘गया हूँ।’ लोक कवि संक्षिप्त सा बोले।

‘त का गांड़ मराने गए थे कि गाना गाने गए थे?’

‘गाना गाने।’

‘ठीक।’ वह बोले, ‘कैसेट तुम्हारे बाजार में हैं कि नहीं?’

‘हैं।’

‘तुम्हारे सरकारी, गैर सरकारी कार्यक्रम होते हैं कि नहीं?’

‘होते हैं।’

‘मुख्यमंत्री ने आज तुमको सम्मानित किया कि नहीं?’

‘किया चेयरमैन साहब!’ लोक कवि आजिज हो कर बोले।

‘तो फिर काहें मेरी तभी से मार रहे हो? सारा नशा, सारा मजा ख़राब कर रहे हो तभी से।’ चेयरमैन साहब थोड़ा प्यार से लोक कवि को डपटते हुए बोले।

‘एह नाते कि हम नचनिया पदनिया हूँ।’

‘देखो लोक कवि मारनी है तो उस पंडित की जा कर मारो जिसने तुम्हें यह नचनिया पदनिया का डंक मारा है। मुझे बख्शो!’ चेयरमैन साहब ने बात जारी रखी, ‘अच्छा चलो उस पंडित ने तुम को नचनिया पदनिया जो कह ही दिया तो उसकी माला लिए क्यों फेर रहे हो?’ वह कार की खिड़की से सिगरेट झाड़ते हुए बोले, ‘फिर नचनिया पदनिया कोई गाली तो है नहीं। और फिर तुम्हीं बताओ क्या नचनिया पदनिया आदमी नहीं होता का? और यह भी बताओ कि नचनिया भी कलाकार के खाते में आता है कि नहीं?’ चेयरमैन साहब बिना रुके बोले जा रहे थे, ‘फिर जो तुम आर्केस्ट्रा चलाते-चलवाते हो वह क्या है? तो तुम भी नचनिया पदनिया हुए कि नहीं?’

‘ऊंची जाति के लोग ऐसा क्यों सोचते हैं?’ लोक कवि हताश हो कर बोले।

‘हे साला तुम कहना का चाहता है?’ वह बोले, ‘क्या मैं ऊंची जाति का नहीं हूँ। राय हूँ और फिर भी तुम्हारी गांड़ के पीछे-पीछे घूम रहा हूँ तो मुझे भी कोई नचनिया पदनिया कह सकता है। और जो कह भी देगा तो हम क्यों बुरा मानूंगा?’ वह बोले, ‘हम तो हंस के मान लूँगा कि चलो हम भी नचनिया पदनिया हैं।’ वह बोले, ‘इसको गांठ में बांधो तो बांधो दिल में मत बांधो।’

‘चलिए आप कहते हैं तो ऐसा ही करता हूँ।’

‘फिर देखो, लखनऊ में या और भी बाहर कहीं तो तुम को जाति से तौल कर नहीं देखा जाता?’ वह बोले, ‘नहीं देखा जाता न? तो वहाँ तो बाभन, ठाकुर, लाला, बनिया, नेता, अफसर, हिंदू, मुसलमान सभी तुम को एक कलाकार के तौर पर ही तो देखते हैं। तुम्हारी जाति से तो नहीं आँकते तुम्हें। बहुतेरे तो तुम्हारी जाति जानते भी नहीं।’

‘एही से, एही से।’ लोक कवि फिर उदास होते हुए बोले।

‘एकदमै पलिहर हो का!’ चेयरमैन साहब बोले, ‘मैं छेद बंद करने में लगा हूँ और तुम रह-रह बढ़ाते जा रहे हो।’ वह बोले, ‘कुछ और हमसे भी कहलाना चाहते हो का!’

‘कहि देईं चेयरमैन साहब। आप भी कहि देईं!’

‘तो सुन! हई मुख्यमंत्री और उसका समाज जो तुम को यादव-यादव लिखता है पोस्टर, बैनर पर और एनाउंस करता है यादव-यादव तो हई का है?’ वह बोले, ‘इस पर तुम्हारी गांड़ नहीं पसीजती? काहें भाई? तुम सचहूँ यादव हो का!’

‘ई बात का चर्चा मत कीजिए चेयरमैन साहब।’ हाथ जोड़ते हुए लोक कवि बोले।

‘तो तुम इस का प्रतिवाद काहें नहीं करते हो एको बार?’ वह बोले, ‘इस बात का बुरा नहीं लगता तुमको और नचनिया पदनिया सुन लेने पर बुरा लग जाता है। डंक मार जाता है। इतना कि पूरा रास्ता ख़राब कर दिया, सारा दारू उतार दिया और अपने इतने बड़े सम्मान की खुशी को खुश्क कर दिया! और तो और 440 वोल्ट वाली सखी से बरसों बाद मिलने की खुशी भी राख कर ली!’ सखी की बात सुन कर लोक कवि थोड़ा मुसकुराए और उनका अवसाद थोड़ा फीका पड़ा। चेयरमैन साहब बोले, ‘भूल जाओ इ सब और लखनऊ पहुँच कर खुशी दिखाओ, खुश दिखो और कल इस को जम कर सेलीब्रेट करो और करवाओ। कवनो छम्मक छल्लो बुला के भोगो!’ कहते हुए चेयरमैन साहब आँख मारते हुए मुसकुराए और दूसरी सिगरेट जलाने लगे।

लखनऊ पहुँच कर लोक कवि ने सांस ली। चेयरमैन साहब के घर उतरे। जा कर उन की पत्नी को प्रणाम किया। चेयरमैन साहब से कल मिलने की बात की और उनके भी पैर छू लिए। तो चेयरमैन साहब गदगद हो कर लोक कवि को गले लगा लिए। बोले, ‘जीते रहो और इसी तरह ‘यश’ कमाते रहो।’ उन्होंने जोड़ा, ‘लगे रहो इसी तरह तो एक दिन तुम को पद्मश्री, पद्मभूषण में से भी कुछ न कुछ मिल जाएगा।’ यह सुन कर लोक कवि के चेहरे पर जैसे चमक आ गई। लपक कर चेयरमैन साहब के फिर पैर छुए। घर से बाहर निकल कर अपनी कार में बैठ गए। चल दिए अपने संगी साथियों के साथ अपने घर की ओर।

रात के ग्यारह बज गए थे।

उधर लोक कवि घर चले। इधर चेयरमैन साहब ने लोक कवि के घर फोन किया, तो लोक कवि के बड़े लड़के ने फोन उठाया। चेयरमैन साहब ने उसे बताया कि, ‘लोक कवि घर पहुँच रहा है, हमारे यहाँ से चल चुका है।’

‘एतना देरी कैसे हो गया?’ बेटे ने चिता जताते हुए पूछा, ‘हम लोग शाम से ही इंतजार कर रहे हैं।’

‘चिंता की कोई बात नहीं है। सम्मान समारोह के बाद हम लोग तुम्हारे गाँव चले गए थे। वहाँ लोक कवि का बड़ा स्वागत हुआ है। औरतें लोढ़ा ले-ले कर परीछ रही थीं। बिना किसी तैयारी के बड़ा स्वागत हो गया। पूरे गाँव ने किया।’ चेयरमैन साहब बोले, ‘फोन इसलिए किया हूँ कि यहाँ तुम लोग भी थोड़ा उसका टीका मटीका करवा देना। आरती वारती उतरवा देना।’

‘जी, चेयरमैन साहब।’ लोक कवि का बेटा बोला, ‘हम लोग पूरी तैयारी से पहले से हैं। बैंड बाजा तक मंगाए बैठे हैं। ऊ आएं तो पहिले!’

‘बक अप्!’ चेयरमैन साहब बोले, ‘त रुको मैं भी आता हू।’ उन्होंने पूछा, ‘कोई और तो नहीं आया था?’

‘कुछ अधिकारी लोग आए थे। कुछ प्रेस वाले भी आ कर चले गए।’ उसने बताया पर मुहल्ले के लोग हैं। कई कलाकार लोग हैं। बैंड बाजा वाले हैं। घर वाले हैं।’

‘ठीक है तुम बाजा बजवाना शुरू कर दो। मैं भी पहुँच रहा हूँ।’ वह बोले, ‘स्वागत में कसर नहीं रहनी चाहिए!’

‘ठीक चेयरमैन साहब।’ कह कर बेटे ने फोन रखा। बाहर आया। बैंड वालों से कहा , ‘बजाना शुरू कर दो, बाबू जी आ रहे हैं।’

बैंड बाजा बजने लगा।

फिर दौड़ कर घर में माँ को चेयरमैन साहब का निर्देश बताया। और यह भी कि गाँव में भी बड़ा धूम-धड़ाका हुआ है सो कोई कसर नहीं रहे। लोक कवि जब अपने घर के पास पहुंचे तो थोड़ा चौंके कि बिना बारात के ई बाजा गाजा! पर बैंड वाले, ‘बहारों फूल बरसाओ मेरा महबूब आया है,’ की धुन बजा रहे थे और मुहल्ले के चार, छ लाखैरा लौंडे नाच रहे थे।

ठीक अपने घर के सामने वह उतरे तो समझ गए कि माजरा क्या है!

उनकी धर्मपत्नी अपनी दोनों बहुओं और मुहल्ले की कुछ औरतों के साथ सजी-धजी आरती लिए खड़ी थीं लोक कवि के स्वागत के लिए। लोक कवि के पहुँचते ही उन्होंने चौखट पर नारियल फोड़ा, ‘बड़ी आत्मीयता से लोक कवि के पैर छुए और उन की आरती उतारने लगीं। मुहल्ले के लोग भी छिटपुट बटुर आए।

गाँव जैसा भावुक और ‘भव्य’ स्वागत तो नहीं हुआ यहाँ, पर आत्मीयता जरूर झलकी।

लोक कवि के संगी साथी कलाकार नाचने गाने लगे। घर में पहले ही से रखी मिठाई बांटी जाने लगी। तब तक चेयरमैन साहब भी आ गए। लोक कवि के एक पड़ोसी भागते हुए आए। हाँफते हुए बधाई दी और बोले, ‘बहुत अच्छा रहा आप का सम्मान समारोह।’ उन्होंने जोड़ा ‘हमारे पूरे घर ने देखा। मुख्यमंत्री और राज्यपाल के साथ आप को।’

‘का आप लोग भी आए थे वहाँ?’ लोक कवि चकित होते हुए बोले, ‘लेकिन कैसे?’

‘हम लोग ने टी.वी. पर देखा न्यूज में।’ पड़ोसी दांत निकाल कर बोले, ‘वहाँ नहीं आए थे।’

‘रेडियो न्यूज में भी था।’ एक दूसरे पड़ोसी ने बड़े सर्द ढंग से बताया, ‘आप का समाचार।’

रात ज्यादा हो गई थी सो लोग जल्दी ही अपने-अपने घरों को जाने लगे।

बैंड बाजा भी बंद हो गया।

खा-पी कर नाती नातिनों को दुलराते हुए लोक कवि भी सोने चले गए। धीरे से उनकी पत्नी भी उनके बिस्तर पर आ कर बगल में लेट गईं। लोक कवि ने अंधेरे में पूछा भी कि, ‘के है?’ तो वह धीरे से खुसफुसाईं ‘केहू नाईं, हम हईं।’ सुन कर लोक कवि ख़ामोश हो गए।

बरसों बाद वह लोक कवि के बगल में आज इस तरह लेट रही थीं। लोक कवि ने गाँव की बातें शुरू कर दीं तो पत्नी उठ कर ‘हाँ-हूँ करती हुई उनके पैर दबाने लगीं। पैर दबवाते-दबवाते जाने क्या लोक कवि को सूझा कि पत्नी को पकड़ कर अपने पास खींच कर लिटा बैठे। बहुत बरस बाद आज वह पत्नी के साथ संभोगरत थे। चुपके-चुपके। ऐसे जैसे सुहागरात वाली रात हो। गुरुआइन को उन्होंने संभोग सुख दे कर न सिर्फ संतुष्ट किया बल्कि परम संतुष्ट किया। सारा सुख, सारा तनाव, सारा सम्मान उन्होंने गुरुआइन पर उतार दिया था। और गुरुआइन ने अपना सारा दुलार, मान-प्यार, भूख और प्यास आत्मीयता में सान कर उड़ेल दिया था। संभोग के बाद थोड़ी देर लोक कवि की बाहों में पड़ी कसमसाती हुई वह संकोच घोलती हुई बोलीं, ‘टी.वी. पर आज हमहूँ आप के देखलीं।’ उन्होंने जैसे जोड़ा, ‘बड़का बेटऊआ देखवलस!’

सुबह गुरुआइन उठीं तो उनकी चाल में गमक आ गई थी। उनकी दोनों बहुओं ने जब उन्हें देखा, उनकी बदली हुई चाल को देखा तो दोनों ने आपस में आँख मार कर ही एक दूसरे को संदेश ‘दे’ और ‘ले’ लिया। एक बहू मजा लेती हुई बुदबुदाई भी, ‘लागता जे पांच लाख रुपयवा इन्हीं पवलीं हईं।’

‘मनो और का!’ दूसरी बहू ने खुसफुसा कर हामी भरी। बोली, ‘कानि केतना बरिस बाद जोरन पड़ल है!’

सुबह और भी कई लोग लोक कवि के घर बधाई देने आए।

हिंदी अख़बारों में भी पहले पेज पर लोक कवि की मुख्यमंत्री और राज्यपाल के साथ सम्मान लेते हुए फोटो छपी थी। दो अख़बारों में तो रंगीन फोटो। साथ ही रिपोर्ट भी हाँ, अंगरेजी अख़बारों में जरूर फोटो अंदर के पेजों पर थी और बिना रिपोर्ट के।

लोक कवि का फोन भी दन-दन बज रहा था।

लोक कवि नहा धो कर निकले। मिठाई ख़रीदी और पत्रकार बाबू साहब के घर पहुंचे। उनको मिठाई दी, पैर छुए और बोले, ‘सब आप ही के आशीर्वाद से हुआ है।’ बाबू साहब भी घर पर थे, पत्नी सामने थीं सो कुछ अप्रिय नहीं बोले। बस मुसकुराते रहे।

लेकिन रास्ते पर नहीं आए, जैसा कि लोक कवि चाहते थे।

लोक कवि तो चाहते थे कि इस सम्मान के बहाने एक प्रेस कांफ्रेंस कर पब्लिसिटी बटोरना। चाहते थे स्पेशल इंटरव्यू छपवाना। सब पर पानी पड़ गया था। चलते-चलते वह बोले भी बाबू साहब से, ‘त शाम को आइए न!’

‘समय कहाँ है?’ कह कर बाबू साहब टाल गए लोक कवि को। क्योंकि निशा तिवारी को वह अपने मन से अभी टाल नहीं पाए थे।

लोक कवि चुपचाप चले आए।

बाद में आखि़रकार चेयरमैन साहब ने ही दोनों के बीच पैच अप कराया। बाबू साहब ने प्रेस कांफ्रेंस के सवाल को रद्द कर दिया। कहा कि, ‘बासी पड़ गया है इवेंट।’ लेकिन लोक कवि का एक ठीक ठाक इंटरव्यू जरूर किया।

रियलिस्टिक इंटरव्यू।

ढेरों प्रिय और अप्रिय सवाल पूछे। और विस्तार से पूछे। कुछ सवाल इसमें सचमुच बड़े मौलिक थे और जवाब उन के सवाल से भी ज्यादा मौलिक।

लोक कवि जानते थे कि बाबू साहब उनका नुकसान कुछ करेंगे नहीं सो बेधड़क हो कर जवाब दे देते। फिर पैर छू कर कह भी देते कि, ‘लेकिन इस को छापिएगा नहीं।’

जैसे बाबू साहब ने लोक कवि से पूछा, ‘कि जब इतना बढ़िया आप लिखते हैं और मौलिक ढंग से लिखते हैं तो कवि सम्मेलनों में भी क्यों नहीं जाते हैं? तब जब कि आप लोक कवि कहलाते हैं।’

‘ई का होता है?’ लोक कवि ने खुल कर पूछा, ‘ई कवि सम्मेलन का होता है?’

‘जहाँ कवि लोग जनता के बीच अपनी कविता सुनाते, गाते हैं।’ बाबू साहब ने बताया।

‘अच्छा-अच्छा समझ गया।’ लोक कवि बोले, ‘समझ गया ऊ टी.वी., रेडियो पर भी आता है।’

‘तो फिर क्यों नहीं जाते आप वहाँ?’ बाबू साहब का सवाल जारी था, ‘वहाँ, ज्यादा सम्मान, ज्यादा स्वीकृति मिलती। ख़ास कर आपकी राजनीतिक कविताओं को।’

‘एक तो एह नाते कि हम कविता नहीं, गाना लिखता हूँ। एह मारे नहीं जाता हूँ।’ लोक कवि बोले, ‘दूसरे हमको कभी वहाँ बुलाया नहीं गया।’ उन्होंने जोड़ा, ‘वहाँ विद्वान लोग जाते हैं, पढ़े लिखे लोग जाते हैं। हम विद्वान नहीं हूँ, पढ़ा लिखा नहीं हूँ। एह नाते भी जाने की नहीं सोचता हूँ!’

‘लेकिन आपके लिखे में ताकत है। बात बोलती है आपके लिखे में।’

‘हमारे लिखने में नहीं, हमारे गाने में ताकत है।’ लोक कवि बड़ी स्पष्टता से बोले, ‘हम कविता नहीं लिखता हूँ, गाना बनाता हूँ।’

‘तो भी अगर कवि सम्मेलनों में आप को बुलाया जाए तो आप जाएंगे?’

‘नहीं, कब्बो नहीं जाऊंगा।’ लोक कवि हाथ हिला कर मना करते हुए बोले।

‘क्यों?’ पत्रकार ने पूछा, ‘आखि़र क्यों नहीं जाएंगे?’

‘वहाँ पैसा बहुत थोड़ा मिलता है।’ कह कर लोक कवि ने सवाल टालने की कोशिश की।

‘मान लीजिए आपके कार्यक्रमों से ज्यादा पैसा मिले तो?’

‘तो भी नहीं जाऊंगा।’

‘क्यों?’

‘एक तो कार्यक्रम से बेसी पइसा नहीं मिलेगा। दूसरे, हम गाना वाला हूँ, कविता वाला विद्वान नाहीं।’

‘चलिए आप को विद्वान भी मान लिया जाए, ज्यादा पैसा भी दे दिया जाए तो?’

‘तब भी नहीं।’‘इतना भाग क्यों रहे हैं लोक कवि, कवि सम्मेलनों से आप?’