लोक कवि अब गाते नहीं / पृष्ठ 7 / दयानंद पाण्डेय
‘हम गरीबों मजदूरों और मजलूमों के हक की लड़ाई लड़ते हैं।’ कम्युनिस्ट नेता ने मोहन को यह बात बता कर उसका मन साफ किया और अपने साथ अपनी टीम का मेंबर बना लिया। फिर वह पार्टी का मेंबर भी बना और पार्टी के लिए गाने लगा।
पर वह अपनी सखी धाना को नहीं भूला। धाना की खोज ख़बर लेता रहा। बाद में पता चला कि धाना के बेटा हुआ है। उसे यह समझते देर नहीं लगी कि यह बेटा उसका ही बेटा है। मोहन और धाना का बेटा। उसने रोब से मूंछें ऐंठीं। हालांकि उसकी मूँछ का ठीक-ठीक अभी पता नहीं था। पर नाक के नीचे पतली मूँछ की इबारत सी निकलती जरूर दिखती थी।
बाद में उसे धाना के कटों, ‘जल्दी’ बच्चा पैदा हो जाने से मिलने वाले तानों और तकलीफों का भी ब्यौरा मिलता रहा। पर वह बेबस था। करता भी तो क्या? कोई पहल या दिलचस्पी दिखाने का मतलब था धाना को और कट, और बेइज्जती, और मुश्किल में डालना। सो वह धाना की तकलीफों को ध्यान कर अकेले ही रो गा कर शांत हो जाता।
इसी बीच मोहन का भी गवना हो गया। वह शहर से गाँव, गाँव से शहर गाता बजाता भटकता रहा। पर कोई स्थाई राह नहीं मिली। दो बच्चे भी तब तक उसे हो गए। पर रोजी रोटी का ठिकाना दूर-दूर तक नहीं दीखता था।
इसी बीच उसे फिर धाना दिखी। शहर के एक अस्पताल जाती हुई रिक्शे से। उसका मरद भी उसके साथ था। और उसका बेटा भी। रोक नहीं पाया मोहन अपने आप को। सारे ख़तरे उठा कर वह लपका। और बोला, ‘हे सखी!’ सखी मोहन की आवाज सुनते ही सकुचाईं पर घबराई नहीं। अपने मरद को खुदियाया, मोहन को दिखाया और बोलीं, ‘का हो मोहन!’ मोहन के मन का सारा पाप मिट गया। सखी का मरद था तो पहलवान पर गुस्सैल नहीं था। सखी को मानता जानता बहुत था। एक तरह से सखी का गुलाम था। ठीक वइसे ही जइसे जोरू का गुलाम!
सखी ने मरद से कह कर मिठाई मंगाई और खुसफुसा कर बताया कि, ‘तोहरे बेटा क तबियत ख़राब है। सरकारी डक्टरी में देखावे बदे आइल हईं।’
मोहन ने झट कम्युनिस्ट नेता से संपर्क साधा जो पार्टी कार्यालय में मिल गए। उनकी डाक्टर से बात कराई। डाक्टर ने लड़के को ठीक से देखा भाला। निमोनिया बता कर इलाज शुरू किया। लड़का ठीक हो गया। साथ ही मोहन भी। धाना का मरद मोहन का मुरीद हो गया। मोहन और उसकी सखी धाना का रास्ता भी साफ हो गया। दोनों फिर मिलने जुलने लगे। कभी धाना के मरद के सामने तो कभी गुपचुप-गुपचुप। धाना के अभी तक एक ही बेटा था, मोहन की कृपा से। मोहन का धाना से मिलना जुलना क्या शुरू हुआ धाना के पांव फिर भारी हो गए। कोई आठ बरिस बाद।
कि तभी विधानसभा चुनावों का ऐलान हो गया। मोहन के उस कम्युनिस्ट नेता ने भी फिर चुनाव लड़ा। मोहना ने इस चुनाव में जान लगा दी। स्थानीय समस्याओं को ले कर एक से एक गाने बनाए और गाए कि अन्य नेताओं के छक्के छूट गए। नेताओं के भाषण से ज्यादा मोहन के गानों की धूम थी। नेता जी के हर जलसे में तो मोहन गाता ही, जलसे के बाद जीप में भी बैठ कर माइक ले कर गाता, गाँव-गाँव घूमता। इस फेर में वह गाता हुआ अपने गाँव भी गया और सखी के गाँव भी।
नेता जी चुनाव जीत गए तो मोहन को भी इसकी ना सिर्फ क्रेडिट दी उन्होंने बल्कि मोहन को अपने साथ वह लखनऊ भी ले आए। और मोहन को एक नया नाम दिया: लोक कवि!
लोक कवि ने लखनऊ आ कर लंबा संघर्ष किया। फिर नाम और पैसा भी खूब कमाया। लेकिन अपनी सखी को वह नहीं भूले। सखी से इस बीच भी वह मौका बेमौका मिलते रहे। नतीजतन सखी उनके तीन बच्चों की माँ हो चली थीं। एक बार इस बात की चर्चा लोक कवि ने चेयरमैन साहब से चलाई तो चेयरमैन साहब ने लोक कवि से पूछा, ‘तो ऊ पहलवान साला क्या करता था ?’
‘पहलवानी!’
लोक कवि ने भी ऐसी स्टाइल से कहा कि चेयरमैन साहब हंसते-हंसते लोटपोट क्या हुए बिलकुल बेसुध हो गए थे।
बाद में सखी के पति पहलवान की आर्थिक स्थिति भी गड़बड़ा गई तो लोक कवि ने न सिर्फ तब संभाला बल्कि बराबर कुछ न कुछ आर्थिक मदद भी करते रहे। और साथ ही सखी की भी ‘मदद’ में रहे। बहुत बाद में सखी की ‘मदद’ तो वह बिसार बैठे पर उनकी, उनके परिवार की आर्थिक मदद वजज बेवजह वह करते ही रहे। यह काम लोक कवि कभी नहीं भूले। पहले पैसा कौड़ी ले कर खुद पहुँचते थे फिर किसी न किसी से भिजवाने लगे। कहते कि ‘अरे, वह भी अपना ही परिवार है।’ यहाँ तक कि सखी के बेटों की शादी बियाह में भी वह गए और धूमधाम से गए। खर्च बर्च किया। अब जैसे लोक कवि नाती पोते वाले हो चले थे वइसे ही सखी भी नाती पोतों वाली हो चली थीं। बल्कि लोक कवि वाले परिवार से पहले ही सखी वाला परिवार इस सुख से परिचित हो गया था।
अब वही सखी, मोहन की सखी , राधा मोहना की मीठी याद बोती हुई सी लोक कवि को परीछ रही थीं। पूरे मन, जतन और जान से। लोक कवि बुदबुदा रहे थे, ‘सखी!’ और सखी कह रही थीं, ‘बड़ा उजियार कइले बाड़ऽ आपन और अपने गाँव क नाम ए मोहन बाबू!’ लेकिन लोक कवि अभिभूत थे। सखी के परीछन से। ढेरों औरतों के संसर्ग से गुजर चुके लोक कवि को तमाम औरतों को भूल भुला जाने की आदत है पर कुछ औरतें हैं ऐसी लोक कवि की जिंदगी में जिन्हें वह नहीं भूलते। भुलाना भी नहीं चाहते। सखी, पत्नी और मिसिराइन ऐसी ही औरतों में तीन औरतें हैं। जिनमें से पहले नंबर पर हैं यह सखी। धाना सखी। राधा मोहना के नाम से कभी क्या अब भी जानी जाने वाली सखी। लोक कवि को कभी क्या अब भी जिंदगी देने वाली सखी। वह सखी जिनके बिरह में लोक कवि का पहला ओरिजनल गाना फूटा, ‘आव चलीं ददरी क मेला, आ हो धाना!’
वह सखी जिसने लोक कवि की जवानी की पहली भूख-प्यास मिटाई। जो लोक लाज की परवाह छोड़ उनकी जिंदगी की न सिर्फ पहली औरत बनी, उनके पहले बेटे की माँ बनी, भले ही वह उस बेटे को अपना नाम सामाजिक मर्यादा के नाते नहीं दे पाए, पर समाज तो जानता है। गुप-चुप ही सही। वह सखी जिसने कभी उनसे कोई माँग नहीं की, कभी डिमाँड नहीं की, किसी तकलीफ की कोई गिरह, कोई परत खोल कर नहीं बताई, खुद पीती गई सारी तकलीफ, मुश्किल और अपमान। उसने ऊंची जाति का होते हुए भी, उसकी अपेक्षा समृद्ध होती हुई भी इस गरीब से आँख लड़ाई, वह सखी, उस प्यार में नहाई सखी को, जो इस उमर में भी अफनाई चली आई है, बिना यह सोचे कि बेटा, बहू, नाती, पोता या यह गाँव, यह समाज कोई पुरानी गांठ खोल कर उस पर तोहमत भी लगा सकते हैं! लोक कवि ने अभी-अभी खुद देखा है कि उन क प्रिय भौजाई जो सबसे पहिले उन्हें परीछने आईं, सखी को देखते ही कैसा तो मुंह बनाया और आँखें टेढ़ी कीं। बाकी औरतों ने भी सखी को उसी रहस्य से देखा तो सखी सकुचाईं और लोक कवि सुलग गए। गनीमत की किसी ने साफ तौर पर कुछ नहीं कहा और बात आई गई हो गई। फिर भी सखी परीछ रही हैं लोक कवि को, पूरे लाज से और लोक की मर्यादा को निभाते हुए। और लोक कवि भी आँखों में उसी मर्यादा का भाव लिए देख रहे हैं सखी को अपलक। सखी ने एक बार और परीछा था मोहना रूपी इसी लोक कवि को तब जब मोहना बियाह करने जा रहा था, तब जब सखी का बियाह हो चुका था। लोक कवि अपलक देख रहे हैं सखी को निःशब्द! और लोक कवि द्वारा सखी को इस देखने को देख रहे हैं चेयरमैन साहब, स्तब्ध!
‘परीछत रहबू कि केहू औरो के परीछे देबू ?’ कह रही हैं भौजी मारे तंज में सखी से। और सखी हैं कि गाती-गाती लोढ़ा एक राउंड और घुमा देती हैं लोक कवि के चेहरे पर ‘मोहन बाबू के परीछबों!’ और चलते-चलते उन के गाल पर दही रोली मल देती हैं।
‘ई गाँव क बेटी हईं कि दुलहिन हो ?’ लोक कवि की एक भौजाई टाइप बूढ़ी औरत यह सब देख कर खुसफुसाती हैं।
‘न दुलहिन, न बेटी। इन हईं राधा।’ एक दूसरी भौजाई जोड़ती हैं, ‘मोहना क राधा।’
‘चुप्पो रहबू!’ एक दूसरी भौजाई कहीं रंग में भंग न पड़ जाए इस गरज से सबको डपटती हैं। लेकिन खुसफुसा कर।
यह सारी बातें और परीछन का दृश्य देख चेयरमैन साहब थोड़ा भावुक होते हैं। फिर भी लोक कवि से ठिठोली फोड़ना नहीं भूलते। पूछते हैं, ‘का रे ई 440 वोल्ट वाली रहलि का ?’ पर जरा धीरे से।
‘हाँ, हाँ!’ मुसकुराते हुए धीरे से कहते हुए लोक कवि हाथ जोड़ते हैं चेयरमैन साहब से और आँखों-आँखों में इशारा भी करते हैं कि ‘बस चुप भी रहिए!’
‘ठीक है, ठीक है! तें मजा ले!’ कह कर चेयरमैन साहब भी लोक कवि से हाथ जोड़ लेते हैं।
थोड़ी देर में औरतों का कार्यक्रम ख़त्म हो गया। सचमुच में ख़त्म तो तभी हो गया था जब सखी ने परीछना बंद कर दिया था तभी। पर अब बाकायदा ख़त्म हो गया था। औरतों के बाद अब मर्दों का लोक कवि से मिलना जुलना शुरू हो गया था। लोक कवि की खुशी का ठिकाना तब और नहीं रहा जब उन्होंने देखा कि सखी के पति पहलवान भी आए हैं।
‘आइए पहलवान जी!’ कह कर लोक कवि ने उन्हें गले लगा लिया।
‘असल में औरतों का कार्यक्रम चल रहा था तो हम लोग थोड़ा दूर ही खड़े रहे।’ पहलवान जी ने सफाई दी।
‘यह पहलवान जी हैं, चेयरमैन साहब!’ कह कर लोक कवि ने उनका परिचय कराया और आँख मारी कि मजा लीजिए लेकिन साथ ही इशारा भी किया कि, ‘कोई अप्रिय टिप्पणी कर गुड़ गोबर भी न करिए।’
मिलना-जुलना जब ख़त्म हुआ और धीरे-धीरे भीड़ छंटने लगी तो लोक कवि ने अपने दोनों भाइयों को बुलवाया। लेकिन एक को तो चेयरमैन साहब दस हजार दे कर लड्डू लाने के लिए भेज चुके थे। तो सिर्फ एक ही आया, ‘हाँ भइया!’ कहते हुए।
वह उसे एक किनारे ले जाते हुए बोले, ‘देखो हमको पांच लाख रुपया आज मिला है!’
‘इनाम में ?’ लोक कवि की बात काटता हुआ छोटा भाई बोल पड़ा।
‘नहीं सम्मान में।’ लोक कवि ने बात शुरू की तो वह फिर बोला पड़ा, ‘अच्छा-अच्छा!’ तो लोक कवि उसको डपटते हुए बोले, ‘पिकिर-पिकिर जिन करो पहले पूरी बात सुनो।’
‘भइया!’ कह कर वह फिर बोल पड़ा।
‘कहीं खेत तजबीज करो। ख़रीदने के लिए।’ लोक कवि बोले, ‘‘झगड़ा झंझट वाला नहीं हो। एक साथ पूरा चक हो।’
‘ठीक भइया!’
‘रजिस्ट्री कराऊंगा तीनों भाइयों के नाम से!’ लोक कवि गदगद हो कर बोले।
‘ठीक भइया!’ भाई भी उसी गदगद भाव से छलका।
सांझ होने वाली थी लेकिन लड्डू आ गया था और गाँव में बंटने लगा था। चेयरमैन साहब दहाड़ रहे थे, ‘कोई भी बचने न पाए। छोटा-बड़ा सब को बांटो। बच जाए तो बगल के गाँव में भी बांट दो।’
पूरा गाँव लड्डू खा रहा था। लोक कवि की चर्चा में डूबा हुआ। हाँ, कुछेक लोग या घर ऐसे भी थे जिन्होंने यह लड्डू नहीं लिया। वह लोग लोक कवि पर भुनभुनाते रहे, ‘भर साला लड्डू बंटवा रहा है।’ एक पंडित जी तो खुले आम बड़बड़ा रहे थे, ‘बताइए एह गाँव में दू ठो क्रांतिकारी भी हुए हैं। कोई उनका नाम लेने वाला नहीं है! बकिर हई नचनिया पदनिया की आरती उतारी जा रही है। पांच लाख रुपया मुख्यमंत्री दे रहा है। सम्मान कर के।’ वह बोल रहे थे, ‘उहो साला अहिर और इहो साला भर! जनता की गाढ़ी कमाई साले भाड़ में डाल रहे हैं और कोई पूछने वाला नहीं है।’ किसी ने टोका भी कि ‘चुप भी रहिए!’ तो वह और भड़के, ‘काहें चुप रहें? एह नचनिया पदनिया के डर से!’
‘त तनी धीरे बोलिए!’
‘काहें धीरे बोलें जी। एह नचनिया पदनिया का हम लड्डू खाए हैं का ? कि सारे का कर्जा खाए हैं।’ कह कर वह और जोर से बोलने लगे। बात पंडित जी की लोक कवि तक खुसुर-फुसुर में पहुंचाई गई। तो लोक कवि ने चेयरमैन साहब को यह बताया। चेयरमैन साहब चिंतित हुए बोले, ‘वो पंडित भी ठीक बोल रहा है। लेकिन गलत समय पर बोल रहा है।’ फिर चेयरमैन साहब ने लोक कवि को तुरंत आगाह भी किया कि ‘कह दो कोई रिएक्शन नहीं। पंडित के जवाब में कोई नहीं बोलेगा!’
‘काहें साहब! हम लोग केहू से कम हैं का!’ लोक कवि का भाई बिदकता हुआ बोला।
‘कम नहीं ज्यादा हो इसीलिए चुप रहो, सबको चुप रखो!’ चेयरमैन साहब लोक कवि से मुखातिब हो कर बोले, ‘तुम तो जानते हो देश में मंडल-कमंडल चल रहा है। अगड़ा-पिछड़ा चल रहा है तो कहीं बात बढ़ कर बिगड़ गई तो तुम्हारा सारा सम्मान मिट्टी में मिल जाएगा! तो संघर्ष को रोको।’ चेयरमैन साहब बोले, ‘पंडित गरियाता भी है तो चुपचाप पी जाओ!’
बात लोक कवि की समझ में पूरी तरह आ गई। और उन्होंने सबको सख़्त हिदायत दी कि, ‘कोई जवाब न दे।’ बल्कि बात आगे न बढ़े इस गरज से खुद पंडित जी के घर जा कर ‘पालागी’ कह कर उन का पांव छुआ। पंडित जी पिघल गए। लोक कवि को लगे आशीषने, ‘और नाम कमाओ, खूब यश कमाओ, गाँव जवार का नाम बढ़ाओ!’ पर उन्होंने लगे हाथ अपनी बात भी कह दी, ‘सुना है मुख्यमंत्री के तुम बहुत मुहलगे हो?’
‘आशीर्वाद है आपका पंडित जी।’ कहते हुए लोक कवि विनम्र हुए और फिर उनका पांव छुआ।
‘तो उससे कह कर गाँव का भी कुछ भला कराओ।’ पंडित जी बोले, ‘दू ठो क्रांतिकारी यहाँ हुए हैं। धुरंधर क्रांतिकारी। उनका स्मारक, मूर्ति बनवाओ।’ वह बोले, ‘कि नचनिए पदनिए ही उसकी सरकार में सम्मान पाएंगे?’
पंडित जी की यह बात सुन कर लोक कवि जरा विचलित हुए। कुछ बोलते-बोलते कि चेयरमैन साहब ने लोक कवि का कंधा दबा कर कुछ न कहने का संकेत दिया। लोक कवि चुप ही रहे। बोले नहीं। लेकिन पंडित जी बोल रहे थे, ‘गाँव में प्राइमरी स्कूल है। पेड़ के नीचे मड़ई में चलता है। उसका भवन बनवा दो। प्राइमरी स्कूल को मिडिल बनवा दो।’ वह बोले, ‘सड़क ठीक करा दो। सरकारी मोटर चलवा दो। और भी जो कर सकते हो करवा दो। गाँव में लड़के बेकार घूम रहे हैं उनको नौकरी, रोजगार दिलवा दो!’
‘ठीक बा पंडित जी आशीर्वाद दीजिए।’ लोक कवि ने पंडित जी के फिर पैर छुए। कहा कि, ‘कोशिश करूंगा कि आप का आदेश का पालन हो जाए!’
‘तुम नचनिया पदनिया का बात मानेगा मुख्यमंत्री?’ पंडित जी फिर नहीं माने और घुमा फिरा कर अपनी पुरानी बात पर आ गए। लेकिन लोक कवि भीतर से सुलगते हुए बाहर से मुसकुराते हुए चुप खड़े थे। फिर पंडित जी जैसे अपनी शंका का खुद ही समाधान करते हुए बोले, ‘का पता मुख्यमंत्री साला भी अहिर है नचनिया पदनिया के सलाह से ही सरकार चलाता हो। पढ़े लिखे लोग, पंडित लोग उसे कहाँ मिलेंगे?’ बोलते-बोलते पंडित जी फिर पूछने लगे लोक कवि से कि, ‘सुना है तुम्हारा मुख्यमंत्री पंडितों से बड़ा चिढ़ता है, बड़ा बेइज्जत करता है?’ वह जरा रुके और पूछने लगे, ‘सही है ?’ कोई कुछ नहीं बोला तो वह बोले, ‘तुम भी तो वोही जमात के हो। तुम भी वही करते होगे?’ फिर वह हंसने लगे, ‘हमारी बात का बुरा न मानना। बकिर समाजै अइसेही हो गया है, राजनीतियै अइसी हो गई है। कोई करेगा भी तो का करेगा!’ वह बोले, ‘हमारी बात पर रिसियाना नहीं, पीठ पीछे गरियाना नहीं। पर गाँव के लिए कुछ करवा पाओ तो करवाना जरूर।’ वह फिर बोले, ‘का पता नचनिया पदनिया से ही एह गाँव का उद्धार लिखा हो।’ कह कर उन्होंने फिर से लोक कवि पर ढेर सारा आशीष, आशीर्वाद, कामना आदि की बौछार कर दी। बिलकुल खुले मन से। लेकिन बीच-बीच में ‘नचनिया पदनियां’ का संपुट दे-दे कर!
‘ब्राह्मण देवता की जय!’ कह कर लोक कवि ने फिर पंडित जी के पैर छू लिए।
पंडित जी के यहाँ से निकल कर लोक कवि चेयरमैन साहब के साथ गाँव में दो चार और बड़े लोगों के घर गए। कुछ और पंडित जी लोगों के यहाँ। फिर बाबू साहब लोगों के यहाँ। बाकी पंडित जी लोगों में कुछ ने खुले मन से, कुछ ने आधे मन से और कुछ ने बुझे मन से सही लोक कवि का स्वागत किया, आशीर्वाद दिया। लेकिन ज्यादातर बाबू साहब लोगों के यहाँ लोक कवि की नोटिस नहीं ली गई। उनके घरों में नौकरों या बच्चों से ही मिल कर लोक कवि ने अपने कर्त्तव्य की इतिश्री कर ली। हाँ, एक बाबू साहब ने आधे मन से ही सही लोक कवि को सम्मानित होने पर बधाई दी। और कहा कि, ‘अब तो तुम्हारा बड़ा नाम हो गया है।’ वह बोले, ‘सुना है लखनऊ में बड़ा पइसा पीट रहे हो!’
‘सब आप का आशीर्वाद है।’ कह कर लोक कवि बबुआना टोला से भी निकल आए। कुछ पहलवानों-अहीरों के घर भी गए जहाँ उनका मिला जुला और भाव-विभोर स्वागत हुआ। कुछ अपने बचपन के पुराने संगी साथियों को भी लोक कवि ने खोज हेर कर भेंट की। उन के एक हमउमर ने फिर चिकोटी ली, ‘सुना है गुरु कि रधवा फेर गाँव आई है आज?’
‘कवन रधवा ?’ लोक कवि ने टाला तो वह लोक कवि का हाथ दबाते हुए बोला, ‘भुला गइलऽ राजा धाना के।’
लोक कवि कुछ बोले नहीं मुसकुरा कर टाल गए।
लोक कवि वापस फिर अपने टोला में आ गए। अपने समाज में जहाँ उनका स्वागत लोग हृदय खोल कर पहले भी कर चुके थे। फिर कर रहे थे।
‘पालागी-पालागी।’ करते हुए हाथ जोड़े लोक कवि सब के दरवाजे गए। ताकि कोई यह कहने वाला न रह जाए, ‘हमरे घरे नाईं अइलऽ!’
सांझ उतर कर जा रही थी और रात अपने आने की राह बना रही थी। चेयरमैन साहब ने लोक कवि से साफ-साफ पूछा कि, ‘रुकोगे यहाँ कि चलोगे लखनऊ?’
‘लखनऊ चलूँगा, का करुंगा यहाँ रुक कर?’ लोक कवि बोले, ‘जो कहीं मेरे रहने से यहाँ मंडल-कमंडल खड़खड़ा गए तो बड़ी बेइज्जती हो जाएगी।’
भाइयों ने और बाकी परिजनों ने भी लोक कवि को रात गाँव में रुकने को कहा। अहिर टोला से ख़ास संदेश आया कि सभी लठैत और बंदूकधारी पहरा देंगे। कोई डकैत या चोर लोक कवि का पांच लाख रुपया नहीं छू पाएगा। वह बेधड़क आज रात गाँव में रहें।
‘सवाल पइसा चोरी या डकैती हो जाने का नहीं है।’ लोक कवि ने भाइयों, परिजनों को बताया कि, ‘ऊ तो चोर डकैत वैसे भी नहीं छू पाएगा क्योंकि वह चेक में है, नगद नहीं है। बकिर जाना जरूरी है। काहें से कि लखनऊ में जरूरी काम है।’ वह बताए, ‘वहाँ भी लोग अगोर रहे होंगे।’
कुछ लोगों ने गाँव में जानना चाहा कि ‘चेक में’ का क्या मतलब है ? क्या कोई नई तिजोरी चली है ? लोगों को लोक कवि ने हंसते हुए बताया कि, ‘नाहीं कागज है।’ और उसे दिखाया भी।
तो गाँव में एक चर्चा यह चली कि मुख्यमंत्री ने सरकार की ओर से लोक कवि को पुरनोट लिख कर दिया है। एक बुजुर्ग ने सुना तो वह बोले, ‘त अइसै! अरे, बड़ा रसूख वाला हो गइल बा मोहना!’
चलते समय लोक कवि एक बार धाना के घर फिर गए। धाना और धाना के पति से मिलने। फिर निकल पड़े वह गाँव से डीह बाबा को हाथ जोड़ते, गाँव के लोगों और सीवान को प्रणाम करते।
शहर पहुँच कर चेयरमैन साहब ने शराब ख़रीदी, कुछ साथ खाने के लिए लिया और पानी की बोतलें भी ख़रीद कर लोक कवि को ले कर वह खाते पीते लखनऊ की ओर चल दिए। लाल बत्ती वाली कार में। लोक कवि की कार, चेयरमैन साहब की एंबेसडर, और बाकी दोनों कारें संगी साथियों को बिठाए पीछे-पीछे थीं।