लोक कवि अब गाते नहीं / पृष्ठ 13 / दयानंद पाण्डेय

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‘क्या बात है यादव?’ एस.एस.पी. ने दारोगा से पूछा।

‘कुछ नहीं सर ड्रामेबाज है।’ दारोगा बोला, ‘सारी आग इसी की लगाई हुई है।’

‘कोई गवाह, कोई बयान वगैरह है इसके खि़लाफ?’

‘नो सर!’ दारोगा बोला, ‘गाँव में इसकी बड़ी दहशत है। बताते भी हैं इसके खि़लाफ तो चुपके-चुपके, खुसुर-फुसुर। सामने आने को कोई तैयार नहीं है।’ वह बोला, ‘पर मेरी पक्की इंफार्मेशन है कि सारी आग, सारा जहर इस बुढ्ढे का ही फैलाया हुआ है।’

‘हजूर आप हाकिम हैं जो चाहें करें पर कलंक नहीं लगाएं।’ गणेश तिवारी फफक कर रोते हुए बोले, ‘गाँव का एक बच्चा भी हमारे खि़लाफ कुछ नहीं कह सकता। राम कसम हजूर हमने आज तक एक चींटी भी नहीं मारी। हम तो अहिंसा के पुजारी हैं सर, गांधी जी के अनुयायी हैं सर!’

‘यादव तुम्हारे पास सिर्फ इंफार्मेशन ही है कि कोई फैक्ट भी है।’

‘अभी तो इंफार्मेशन ही है सर। पर फैक्ट भी मिल ही जाएगा।’ दारोगा बोला, ‘थाने पहुँच कर सब कुछ खुद ही बक देगा सर!’

‘शट अप, क्या बकते हो!’ एस.एस.पी. बोला, ‘इसे फौरन छोड़ दो।’

‘किरिपा हजूर, बड़ी किरिपा!’ कह कर गणेश तिवारी एस.एस.पी. के पैरों से फिर लिपट गए।

‘चलो छोड़ो, हटो यहाँ से!’ एस.एस.पी. गणेश तिवारी से पैर छुड़ाता बोला, ‘पर जब तक यह केस निपट नहीं जाता, गाँव छोड़ कर कहीं जाना नहीं।’

‘जैसा हुकुम हजूर!’ कह कर गणेश तिवारी वहाँ से फौरन दफा हो गए।

पर गाँव में सन्नाटा और तनाव जारी था। गणेश तिवारी समझ गए कि केस लंबा खिंच गया और देर सबेर वह भी फंस सकते हैं। सो उन्होंने बड़ी चतुराई से पोलादन पासी, उसके बेटे और नाती की लाशों के पास से लाठी, भाला की बरामदगी दर्ज करवा दी। और फौजी तिवारी के वकील से मिल कर पेशबंदी कर ली। और वही हुआ जो वह चाहते थे। कोर्ट में उन्होंने साबित करवा लिया कि हरिजन ऐक्ट के नाम पर पोलादन पासी वगैरह फौजी तिवारी और उसके परिवार का उत्पीड़न कर रहे थे। यह पूरा मामला सवर्ण उत्पीड़न का है। पर सवर्ण उत्पीड़न पर कोई कानून नहीं है। सो वह इसका ठीक से प्रतिरोध नहीं कर पाए और हरिजन ऐक्ट के तहत पूर्व में जेल गए। तब जब कि बाकायदा नकद पांच लाख रुपए दे कर होशोहवास में खेत की रजिस्ट्री करवाई थी। पोलादन को यह पांच लाख रुपया देने का प्रमाण भी गणेश तिवारी ने पेश करवा दिया और खुद गवाह बन गए। बात हत्या की आई तो फौजी तिवारी के वकील ने इसे हत्या नहीं, आत्मरक्षार्थ कार्रवाई स्टैब्लिश किया। बताया कि तीन-तीन लोग लाठी भालों से लैस उसे मारने आ रहे थे तो उसके मुवक्किल को अपनी रक्षा ख़ातिर गोली चलानी पड़ी। कई पेशियों, तारीख़ों के बाद जिला जज भी वकील की इस बात से ‘कनविंस’ हो गया। रही बात पोलादन की नातिन के साथ बलात्कार की तो जांच और परीक्षण में वह भी ‘हैबीचुअल’ पाई गई। और यह मामला भी ले दे कर रफा दफा हो गया। पोलादन की नातिन भी चुपचाप ‘मुआवजा’ पा कर ‘ख़ामोश’ हो गई थी।’

बेचारी करती भी तो क्या?

सब कुछ निपट जाने पर एक दिन फौजी तिवारी के घर गणेश तिवारी पहुंचे। खांसते-खखारते। बात ही बात में गांधी टोपी ठीक कर के जाकेट में हाथ डालते हुए वह बोले, ‘आखि़र अपना ख़ून अपना, ख़ून है।’

‘चुप्प माधरचोद!’ फौजी तिवारी का छोटा बेटा बोला, ‘जिंदगी जहन्नुम बना दी पचीस हजार रूपए की दलाली ख़ातिर और अपना ख़ून, अपना ख़ून की रट लगाए बैठा है।’ वह खौलते हुए बोला, ‘भाग जा बुढ्ढे माधरचोद नहीं तुमको भी गोली मार दूँगा। तुम्हें मारने पर हरिजन ऐक्ट भी नहीं लगेगा।’

‘राम-राम! बच्चा बऊरा गया है। नादान है।’ कह कर गणेश तिवारी ने मनुहार भरी आँखों से फौजी तिवारी की ओर देखा। तो फौजी तिवारी की आँखें भी गणेश तिवारी को तरेर रही थीं। सो ‘नारायन-नारायन!’ करते हुए गणेश तिवारी ने बेआबरू हो कर ही सही वहाँ से खिसक लेने में ही भलाई सोची।

तो यह और ऐसी तमाम कथाओं और किंवदंतियों के केंद्र में रहने वाले यही गणेश तिवारी भुल्लन तिवारी की नतिनी की शादी में रोड़ा बनने की भूमिका बांध रहे थे। कारण दो थे। एक तो यह कि भुल्लन तिवारी की नतिनी की शादी ख़ातिर पट्टीदारी के लोगों में नामित ‘संभ्रांत’ में लोक कवि ने उनका नाम क्यों नहीं रखा। नाम रखना तो दूर मिलना भी जरूरी नहीं समझा। तब जब कि वह उन का ‘शिष्य’ है। दूसरा कारण यह था कि उन की जेब इस शादी में कैसे किनारे रह गई? तो इस तरह अहं और पैसा दोनों की भूख उनकी तुष्ट नहीं हो रही थी। सो ऐसे में वह चैन से कैसे बैठे रहते भला? ख़ास कर तब और जब लड़की का ख़ानदान ऐबी हो। बाप एड्स से मरा था और आजा जेल में था! फिर भी उन्हें नहीं पूछा गया। तो क्या उनकी ‘प्रासंगिकता’ गाँव जवार में ख़तरे में पड़ गई थी? क्या होगा उनकी विलेज बैरिस्टरी का? क्या होगा उनकी बियहकटवा वाली कलाकारी का?

वैसे तो हर गाँव, हर जवार की हवा में शादी काटने वाले बियहकटवा बिचरते ही हैं। कोई नए रूप में, कोई पुराने रूप में तो कोई बहुरुपिया रूप में। लेकिन इस सब कुछ के बावजूद गणेश तिवारी का कोई सानी नहीं था। जिस सफाई, जिस सलीके, जिस सादगी से वह बियाह काटते थे उस पर अच्छे-अच्छे न्यौछावर हो जाएं। लड़की हो या लड़का सबके ऐब वह इस चतुराई से उघाड़ते और लगभग तारीफ के पुल बांधते हुए कि लोग लाजवाब हो जाते। और उनका ‘काम’ अनायास ही हो जाता। अब कि जैसे किसी लड़की का मसला हो तो वह बताते, ‘बड़ी सुंदर, बड़ी सुशील। पढ़ने लिखने में अव्वल। हर काम में ‘निपुण’। ऐसी सुशील लड़की आप को हजार वाट का बल्ब बार कर खोजिए तो नहीं मिलेगी। और सुंदर इतनी कि बाप रे बाप पांच छ लौंडे तक पगला चुके हैं।’

‘का मतलब?’

‘अरे, दू ठो तो अभिए मेंटल अस्पताल से वापिस आए हैं।’

‘इ काहें?’

‘अरे उन बेचारों का का दोष। ऊ लड़की हई है एतनी सुंदर।’ वह बताते, ‘बड़े-बड़े विश्वामित्र पगला जाएं।’

‘उसकी सुंदरता से इनके पागलपन का क्या मतलब?

‘ए भाई, चार दिन आप से बतियाए और पांचवें दिन दूसरे से बोलने-बतियाने लगे, फिर तीसरे, चौथे से। तो बकिया तो पगला ही जाएंगे न!’

‘ई का कह रहे हैं आप?’ पूछने वाले का इशारा होता कि, ‘आवारा है क्या?’

‘बाकी लड़की गुणों की खान है।’ गणेश तिवारी अगले का सवाल और संकेत जानबूझ कर पी जाते और तारीफ के पुल बांधते जाते। उनका काम हो जाता।

कहीं-कहीं वह लड़की की ‘हाई हील’ की तारीफ कर बैठते पर संकेत साफ होता कि नाटी है। तो कहीं वह लड़की के मेकअप कला की तारीफ करते हुए संकेत देते कि लड़की सांवली है। बात और बढ़ानी होती तो वह डाक्टर, चमाइन, दाई, नर्स वगैरह शब्द भी हवा में बेवजह उछाल देते किसी न किसी हवाले से और संकेत एबार्सन का होता। भैंगी आँख, टेढ़ी चाल, मगरूर, घुंईस, गोहुवन जैसे पुराने टोटके भी वह सुरती ठोंकते खाते आजमा जाते। उनकी युक्तियों और उक्तियों की कोई एक चौहद्दी, कोई एक फ्रेम, कोई एक स्टाइल नहीं होती। वह तो नित नई होती रहती। माँ का झगड़ालू होना, मामा का गुंडा होना, बाप का शराबी होना, भाई का लुक्कड़ या लखैरा होना वगैरह भी वह ‘अनजाने’ ही सुरती थूकते-खांसते परोस देते। लेकिन साथ-साथ यह संपुट भी जोड़ते जाते कि, ‘लेकिन लड़की है गुणों की खान।’ फिर अति सुशील, अति सुंदर सहित हर कार्य में निपुण, पढ़ाई-लिखाई में अव्वल, गृह कार्य में दक्ष वगैरह।’

यही-यही और ऐसी-ऐसी तरकीबें वह लड़कों के साथ भी आजमाते। ‘बड़ा होनहार, बड़ा वीर’ कहते हुए उसकी ‘संगत’ का भी बखान बघार जाते और काम हो जाता।

एक बार तो गजब हो गया। एक लड़के के पिता ने बड़े जतन से उस रोज बेटे की तिलक का मुहुर्त निकलवाया जिस दिन क्या उस दिन के आगे-पीछे भी गाँव में गणेश तिवारी की उपस्थिति संभव नहीं थी। पर जाने कहाँ से ऐन तिलक चढ़ने के कुछ समय पहले वह न सिर्फ गाँव में प्रगट हो गए बल्कि उसके घर उपस्थित हो गए। न सिर्फ उपस्थित हुए जाकेट से हाथ निकाल कर गांधी टोपी ठीक करते-करते तिलक चढ़ाने आए तिलकहरुवों के बीच जा कर बैठ गए। उन के वहाँ बैठते ही घर भर के लोगों के हाथ पांव फूल गए। दिल धकधकाने लगे। लोगों ने तिलकहरुवों की आवभगत छोड़ कर गणेश तिवारी की आवभगत शुरू कर दी। लड़के के पिता और बड़े भाई ने गणेश तिवारी के आजू-बाजू अपनी ड्यूटी लगा ली। ताकि उनके सम्मान में कोई कमी न आए दूसरे, उनके मुंह से कहीं लड़के की तारीफ न शुरू हो जाए। गणेश तिवारी का नाश्ता अभी चल रहा था और वह पूरी तरह ठीक वैसे ही काबू में थे जैसे अख़बारों में दंगों आदि के बाद ख़बरों का शीर्षक छपता है ‘स्थिति तनावपूर्ण लेकिन नियंत्राण में।’ तो ‘तनावपूर्ण लेकिन नियंत्राण में’ वाली स्थिति में ही लड़के के पिता को एक उपाय यह सूझा कि क्यों न बेटे को बुला कर गणेश तिवारी के पांव छुलवा कर इनका आशीर्वाद दिला दिया जाए। ताकि गणेश तिवारी का अहं तुष्ट हो जाए और तिलक तथा विवाह बिना विघ्न-बाधा के संपन्न हो जाएं। और उन्होंने ऐसा ही किया। तेजी से घर में गए और उसी फुर्ती से बेटे को लिए चेहरे पर अतिरिक्त उत्साह और मुसकान टांके गणेश तिवारी के पास ले गए जो बीच तिलकहरुओं के स्पेशल नाश्ता पर जुटे हुए थे। लड़के को देखते ही गणेश तिवारी ने धोती की एक कोर उठाई और मुंह पोंछते हुए लड़के के पिता से भी ज्यादा मुसकान और उत्साह अपने चेहरे पर टांक लिया और आँखों का कैमरा ‘क्लोज शाट’ में लड़के पर ही टिका दिया। पिता के इशारे पर लड़का झुक कर दोनों हाथों से गणेश तिवारी के दोनों पांव दो-दो बार एक ही क्रम में कुछ छू कर चरण-स्पर्श कर ही रहा था कि गणेश तिवारी ने आशीर्वादों की झड़ी लगा दी। सारे विशेषण, सारे आशीर्वाद दे कर उन्होंने आखि़र अपना ब्रह्ममास्त्र फेंक दिया, ‘जियो बेटा! पढ़ाई लिखाई में तुम अव्वल थे ही, नौकरी भी तुम्हें अव्वल मिली है। वह बोले, ‘अब भगवान के आशीर्वाद से तुम्हारा विवाह भी हो ही रहा है। बस भगवान की कृपा से तुम्हारी मिर्गी भी ठीक हो जाए तो क्या कहना!’ वह बोले, ‘चलो हमारा पूरा-पूरा आशीर्वाद है!’ कह कर उन्होंने लड़के की पीठ थपथपाई। तिलकहरुओं की ओर मुसकुराते हुए मुखातिब हुए और लगभग वीर रस में बोले, ‘हमारे गाँव, हमारे कुल की शान हैं ये।’ उन्होंने जोड़ा, ‘रतन है रतन। आप लोग बड़े खुशनसीब हैं जो ऐसे योग्य और होनहार युवक को अपना दामाद चुना है।’ कह कर वह उठ खड़े हुए बोले, ‘लंबी यात्रा से लौटा हूँ। थका हुआ हूँ। विश्राम जरूरी है। क्षमा करें चल रहा हूँ। आज्ञा दें।’ कह कर दोनों हाथ उन्होंने जोड़े और वहाँ से चल दिए।

गणेश तिवारी तो वहाँ से चल दिए पर तिलकहरुओं की आँखों और मन में सवालों का सागर छोड़ गए। पहले तो आँखों-आँखों में यह सवाल सुलगा। फिर जल्दी ही जबान पर बदकने लगा यह सवाल कि, ‘लड़के को मिर्गी आती है?’ कि, ‘लड़का तो मिर्गी का रोगी है?’ कि, ‘मिर्गी के रोगी लड़के से शादी कैसे हो सकती है?’ कि, ‘लड़की की जिंदगी नष्ट करनी है क्या?’ और अंततः इन सवालों की आग शोलों में तब्दील हो गई। लड़के के पिता, भाई, नाते-रिश्तेदार और गाँव के लोग भी सफाई देते रहे, कसमें खाते रहे कि, ‘लड़के को मिर्गी नहीं आती, ‘कि ‘लड़के को मिर्गी आती तो नौकरी कैसे मिलती?’ कि ‘अगर शक हो ही गया है तो डाक्टर से जांच करवा लें!’ आदि-आदि। पर इन सफाइयों और कसमों का असर तिलकहरुओं पर जरा भी नहीं पड़ा। और वह लोग जो कहते हैं थारा-परात, फल-मिठाई, कपड़ा-लत्ता, पैसा वगैरह ले कर वहाँ से उठ खड़े हुए। फिर बिना तिलक चढ़ाए ही चले गए। यह कहते हुए, कि ‘लड़की की जिंदगी नष्ट होने से बच गई।’ साथ ही गणेश तिवारी की ओर भी इंगित करते हुए कि, ‘भला हो उस शरीफ आदमी का जिसने समय रहते आँखें खोल दीं। नहीं हम लोग तो फंस ही गए थे। लड़की की जिंदगी नष्ट हो जाती!’

अनायास ही जैसे आशीर्वाद दे कर गणेश तिवारी ने इस लड़के को निपटाया था वैसे ही भुल्लन तिवारी की नतिनी की शादी में भी वह अनायास ही के भाव में सायास निपटाने ख़ातिर जुट गए थे। भुल्लन तिवारी की नातिन को कम लोक कवि की जेब के बहाने अपनी गांठ की चिंता उन्हें कहीं ज्यादा सक्रिय किए थी। बात वैसे ही बिगड़ी हुई थी, गणेश तिवारी की सक्रियता ने आग में घी का काम किया। अंततः बात लोक कवि तक पहुंची। पहुंचाई भुल्लन तिवारी के बेटे के साले ने लखनऊ में और कहा कि, ‘बहिन के भाग में अभाग लिखा ही था लगता है भांजी के भाग में एहसे बड़ा अभाग लिखा है।’’

‘घबराइए मत।’ लोक कवि ने उन्हें सांत्वना दी। कहा कि, ‘सब ठीक हो जाएगा।’

‘कइसे ठीक हो जाएगा?’ साला बोला, ‘जब गणेश तिवारी का जिन्न उसके बियाह के पीछे लग गया है। जहाँ जाइए आप के पहले गणेश तिवारी चोखा चटनी लगा के सब मामिला पहिले ही बिगाड़ चुके होते हैं!’

‘देखिए अब का कहूँ मैं, आप भी ब्राह्मण हैं। हमारे देवता तुल्य हैं बकिर बुरा मत मानिएगा।’ लोक कवि बोले, ‘गणेश तिवारी भी ब्राह्मण हैं। हमारे आदरणीय हैं। बकिर हैं कुत्ता। कुत्ते से भी बदतर!’ लोक कवि ने जोड़ा, ‘कुत्ते का इलाज हम जानता हूँ। दू चार हजार मुंह पर मार दूँगा तो ई गुर्राने, भूंकने वाला कुत्ता दुम हिलाने लगेगा।’

‘लेकिन कब? जब सबहर जवार जान जाएगा तब? जब सब लोग थू-थू करने लगेंगे तब?’

‘नाहीं जल्दिए।’ लोक कवि बोले, ‘अब इहै गणेश तिवारिए आप के भांजी का तारीफ करेगा।’

‘तारीफ त करी रहा है।’ साला बोला, ‘तारीफ कर के ही तो ऊ काम बिगाड़ रहा है। कि लड़की सुंदर है, सुशील है। बकिर बाप अघोड़ी था। एड्स से मर गया और आजा खूनी है। जेल में बंद है।’

‘त ई बतिया कहाँ से छुपा लेंगे आप और हम?’

‘नाहीं बाति एहीं तक थोड़े ही है।’ वह बोला, ‘गणेश तिवारी प्रचारित कर रहे हैं कि भुल्लन तिवारी के पूरे परिवार को एड्स हो गया है। साथ ही भांजी का भी नाम वह नत्थी कर रहे हैं।’

‘भांजी को कैसे नत्थी कर लेंगे?’ लोक कवि भड़के।

‘ऊ अइसे कि....। साला बोला, ‘जाने दीजिए ऊ बहुत गिरी हुई बात कहते हैं।’

‘का कहते हैं?’ धीरे से बुदबुदाए लोक कवि, ‘अब हमसे छुपाने से का फायदा? आखि़र ऊ तो कहि रहे हैं न?’

‘ऊ कह रहे हैं जीजा जी के लिए कि अघोड़ी था बेटी तक को नहीं छोड़ा। सो बेटी को भी एड्स हो गया है।’

‘बड़ा कमीना है!’ कह कर लोक कवि ने पुच्च से मुंह में दबी सुरती थूकी। बोले, ‘आप चलिए। हम जल्दिए गणेश तिवारी को लाइन पर लाता हूँ।’ वह बोले, ‘ई बात था तो पहिलवैं बताए होते एह कमीना कुत्ता का इलाज हम कर दिए होते।’

‘ठीक है तो जइसे एतना देखें हैं आप तनी एतना और देख लीजिए।’ कह कर साला उठ खड़ा हुआ।

‘ठीक है, त फिर प्रणाम!’ कह कर लोक कवि ने दोनों हाथ जोड़ लिए।

भुल्लन तिवारी के बेटे के साले के जाते ही लोक कवि ने चेयरमैन साहब को फोन मिलाया और पूरी रामकहानी बताई। चेयरमैन साहब छूटते ही बोले, ‘जो पइसा तुम उसको देने को सोच रहे हो वही पइसा किसी लठैत या गुंडा को दे कर उसकी कुट्टम्मस करवा दो। भर हीक कुटवा दो, हाथ पैर तोड़वा दो सारा नारदपना भूल जाएगा।’

‘ई ठीक पड़ेगा भला?’ लोक कवि ने पूछा।

‘काहें बुरा का होगा? चेयरमैन साहब ने भी पूछा। वह बोले, ‘ऐसे कमीनों के साथ यही करना चाहिए।’

‘आप नहीं जानते ऊ दलाल है। हाथ पैर टूट जाने के बाद भी ऊ कवनो अइसन डरामा रच लेगा कि लेना का देना पड़ जाएगा।’ लोक कवि बोले, ‘जो अइसे मारपीट से ऊ सुधरने वाला होता तो अबले कई राउंड वह पिट-पिटा चुका होता। बड़ा तिकड़मी है सो आज तक कब्बो नाहीं पिटा।’ वह बोले, ‘खादी वादी पहन कर अहिंसा-पहिंसा वइसै बोलता रहता है। कहीं पुलिस-फुलिस का फेर पड़ गया तो बदनामी हो जाएगी।’

‘त का किया जाए? तुम्हीं बोलो!’

‘बोलना का है चल के कुछ पैसा उसके मुंह पर मारि आना है!’

‘त इसमें हम का करें?’

‘तनी सथवां चलि चलिए। और का!’

‘तुम्हारा शैडो तो हूँ नहीं कि हरदम चला चलूँ तुम्हारे साथ!’

‘का कहि रहे हैं चेयरमैन साहब!’ लोक कवि बोले, ‘आप तो हमारे गार्जियन हैं।’

‘ई बात है?’ फोन पर ही ठहाका मारते हुए चेयरमैन साहब बोले, ‘तो चलो कब चलना है?’

‘नहीं, दू चार ठो पोरोगराम इधर लगे हैं, निपटा दूं तो बताता हूँ।’ लोक कवि बोले, ‘असल में का है कि एह तर के बातचीत में आप के साथ होने से मामला बैलेंस रहता है और बिगड़ा काम बन जाता है।’

‘ठीक है, ठीक है ज्यादा चंपी मत करो। जब चलना तो बताना।’ वह रुके और बोले, ‘अरे हाँ, दुपहरिया में आज का कर रहे हो?’

‘कुछ नाईं, तनी रिहर्सल करेंगे कलाकारों के साथ।’

‘तो ठीक है जरा बीयर-सीयर ठंडी-ठंडी मंगवा लेना मैं आऊंगा।’ वह बोले, ‘तुमको और तुम्हारे रिहर्सल को डिस्टर्ब नहीं करुंगा। मैं चुपचाप पीता रहूँगा और तुम्हारा रिहर्सल देखता रहूँगा।’

‘हाँ, बकिर लड़कियों के साथ नोचा-नोची मत करिएगा।’

‘का बेवकूफी का बात करते हो।’ वह बोले, ‘तुम बस बीयर मंगाए रखना।’

‘ठीक है आइए!’ लोक कवि बेमन से बोले।

चेयरमैन साहब बीच दोपहर लोक कवि के पास पहुँच गए। रिहर्सल अभी शुरू भी नहीं हुआ था लेकिन चेयरमैन साहब की बीयर शुरू हो गई। बीयर के साथ के लिए लइया चना, मूंगफली और पनीर के कुछ टुकड़े कटवा कर मंगवा लिए थे। एक बोतल बीयर जब वह पी चुके और दूसरी बोतल खोलने लगे तो बोतल खोलते-खोलते वह लोक कवि से बेलाग हो कर बोले, ‘कुछ मटन-चिकन मंगवाओ और ह्विस्की भी!’ उन्हों ने जोड़ा, ‘अब ख़ाली बीयर-शीयर से दुपहरिया नहीं गुजरने वाली।’

‘अरे, लेकिन रिहर्सल होना है अभी।’ लोक कवि हिचकते हुए संकोच घोलते हुए बोले।

‘रिहर्सल को कौन रोक रहा है?’ चेयरमैन साहब बोले, ‘तुम रिहर्सल करते-करवाते रहो। मैं खलल नहीं डालूँगा। किचबिच-किचबिच मत करो, चुपचाप मंगवा लो।’ कह कर उन्हों ने जेब से कुछ रुपए निकाल कर लोक कवि की ओर फेंक दिए।

मन मार कर लोक कवि ने रुपए उठाए, एक चेले को बुलाया और सब चीजें लाने के लिए बाजार भेज दिया। इसी बीच रिहर्सल भी शुरू हो गया। तीन लड़कियों ने मिल कर नाचना और गाना शुरू कर दिया। हारमोनियम, ढोलक, बैंजो, गिटार, झाल, ड्रम बजने लगे। लड़कियां नाचती हुई गा रही थीं, ‘लागता जे फाटि जाई जवानी में झुल्ला / आलू, केला खइलीं त एतना मोटइलीं / दिनवा में खा लेहलीं, दू-दू रसगुल्ला!’ और बाकायदा झुल्ला दिखा-दिखा कर, आँखों को मटका-मटका कर, कुल्हों और छातियों के स्पेशल मूवमेंट्स के साथ वह गा रही थीं। और इधर ह्विस्की की चुस्की ले-ले कर चेयरमैन साहब भर-भर आँख ‘यह सब’ देख रहे थे। देख क्या रहे थे पूरा-पूरा मजा ले रहे थे। गाने की रिहर्सल ख़त्म हुई तो चेयरमैन साहब ने दो लड़कियों को अपनी तरफ बुलाया। दोनों सकुचाती हुई पहुंचीं तो उन्हें आजू-बाजू कुर्सियों पर बिठाया। उन दोनों की गायकी की तारीफ की। फिर इधर उधर की बातें करते हुए वह एक लड़की का गाल सहलाने लगे। गाल सहलाते-सहलाते बोले, ‘इसको थोड़ा चिकना और सुंदर बनाओ!’ लड़की लजाई। सकुचाती हुई बोली, ‘प्रोग्राम में मेकअप कर लेती हूँ। सब ठीक हो जाता है।’

‘कुछ नहीं!’ चेयरमैन साहब बोले, ‘मेकअप से कब तक काम चलेगा? जवानी में ही मेकअप कर रही हो तो बुढ़ापे में का करोगी?’ वह बोले, ‘कुछ जूस वगैरह पियो, फल फ्रूट खाओ!’ कहते हुए वह अचानक उसकी ब्रेस्ट दबाने लगे, ‘यह भी बहुत ढीला है। इसको भी टाइट करो!’ लड़की अफना कर उठ खड़ी हुई तो वह उसकी हिप को लगभग दबाते और थपथपाते हुए बोले, ‘यह भी ढीला है, इसे भी टाइट करो। कुछ एक्सरसाइज वगैरह किया करो। अभी जवान हो, अभी से यह सब ढीला हो जाएगा तो कैसे काम चलेगा।’ वह सिगरेट का एक लंबा कश भरते हुए बोले, ‘सब टाइट रखो। जमाना टाइट का है। और अफना के भाग कहाँ रही हो? बैठो यहाँ अभी तुम्हें कुछ और भी बताना है।’ लेकिन वह लड़की ‘अभी आई!’ कह कर बाहर निकल गई। तो चेयरमैन साहब दूसरी लड़की की ओर मुखातिब हो गए जो बैठी-बैठी अर्थपूर्ण ढंग से मुसकुरा रही थी। तो उसे मुसकुराते देख चेयरमैन साहब भी मुसकुराते हुए बोले, ‘का रे तुम काहें बड़ा मुसकुरा रही है?’

‘ऊ लड़की अभी नई है चेयरमैन साहब!’ इठलाती हुई वह बोली, ‘अभी रंग नहीं चढ़ा है उस पर!’

‘बकिर तुम तो रंगा गई है!’ उसके दोनों गाल मीजते हुए चेयरमैन साहब बहकते हुए बोले।

‘ई सब हमरहू साथे मत करिए चेयरमैन साहब।’ वह किंचित सकुचाती, लजाती और लगभग प्रतिरोध दर्ज कराती हुई बोली, ‘हमारा भाई अभी आने वाला है। कहीं देख लेगा तो मुश्किल हो जाएगी।’

‘का मुश्किल हो जाएगी?’ वह उसके स्तनों की ओर एक हाथ बढ़ाते हुए बोले, ‘का गोली मार देगा?’

‘हाँ, मार देगा गोली!’ वह चेयरमैन साहब का हाथ बीच में ही दोनों हाथ रोकती हुई बोली, ‘झाड़ई, जूता, गोली जो भी पाएगा मार देगा?’

यह सुनते ही चेयरमैन साहब ठिठक गए। बोले, ‘का गुंडा, मवाली है का?’

‘है तो नहीं गुंडा मवाली पर जो आप लोग अइसेही करिएगा तो बन जाएगा!’ वह बोली, ‘वह तो हमारे गाने-नाचने पर भी बड़ा ऐतराज मचाता है। ऊ नहीं चाहता है कि हम प्रोग्राम करें।’

‘क्यों?’ चेयरमैन साहब की सनक अब तक सुन्न हो चुकी थी। सो वह दुबारा बड़े सर्द ढंग से बोले, ‘क्यों?’