लोक कवि अब गाते नहीं / पृष्ठ 14 / दयानंद पाण्डेय

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‘ऊ कहता है रेडियो, टी.वी. तक तो ठीक है। ज्यादा से ज्यादा सरकारी कार्यक्रम कर लो बस। बाकी प्राइवेट कार्यक्रम से ऊ भड़कता है।’

‘काहें?’

‘ऊ कहता है भजन, गीत, गजल तक तो ठीक है पर ई फिल्मी उल्मी गाना, छपरा हिले बलिया हिले टाइप गाना मत गाया करो।’ यह रुकी और बोली, ‘ऊ तो हमीं को कहता है कि नहीं मानोगी तो एक दिन ऐन कार्यक्रम में गोली मार दूँगा और जेल चला जाऊंगा!’

‘बड़ा डैंजर है साला!’ सिगरेट झाड़ते हुए चेयरमैन साहब उठ खड़े हुए। खंखारते हुए उन्होंने लोक कवि को आवाज दी और बोले, ‘तुम्हारा ई अड्डा बड़ा ख़तरनाक हो रहा है। मैं तो जा रहा हूँ।’ कह कर वह सचमुच वहाँ से चल दिए। लोक कवि उनके पीछे-पीछे लगे भी कि, ‘खाना मंगवा रहा हूँ खा-पी कर जाइए।’ फिर भी वह नहीं माने तो लोक कवि बोले, ‘एक आध पेग दारू और हो जाए!’ पर चेयरमैन साहब बिन बोले हाथ हिला कर मना करते हुए बाहर आ कर अपनी एंबेसडर में बैठ गए और ड्राइवर को इशारा किया कि बिना कोई देरी किए अब यहाँ से निकल चलो।

उनकी एंबेसडर स्टार्ट हो गई। चेयरमैन साहब चले गए।

भीतर वापस आ कर लोक कवि उस लड़की से हंसते हुए बोले, ‘मीनू तुमने तो आज चेयरमैन साहब की हवा टाइट कर दी!’

‘का करते गुरु जी आखि़र!’ वह किंचित संकोच में खुशी घोलती हुई बोली, ‘ऊ तो जब आप ने आँख मारी तभी हम समझ गई कि अब चेयरमैन साहब को फुटाना है।’

‘वो तो ठीक है पर वह तुम्हारा कौन भाई है जो इतना बवाली है?’ लोक कवि बोले, ‘उसको यहाँ मत लाया करो। डेंजर लोगों की यहाँ कलाकारों में जरूरत नहीं है।’

‘का गुरु जी आप भी चेयरमैन साहब की तरह फोकट में घबरा गए।’ मीनू बोली, ‘कहीं कवनो ऐसा भाई हमारा है? अरे, हमारा भाई तो एक ठो है जो भारी पियक्कड़ है। पी के हरदम मरा रहता है। उसको अपने बीवी बच्चों की ही फिकर नहीं रहती है तो हमारी फिकर कहाँ से करेगा?’ वह बोली, ‘और जो अइसे ही फिकर करता तो म्यूजिक पार्टियों में घूम-घूम कर प्रोग्राम ही क्यों करती?’

‘तुम तो बड़ी भारी कलाकार हो।’ मीनू की हिप पर हलकी सी चिकोटी काटते, सहलाते लोक कवि बोले, ‘बिलकुल डरामा वाली।’

‘अब कहाँ गुरु जी हम कलाकार रह गए। हाँ, पहले थे। दो तीन नाटक रेडियो पर भी हमारे आए थे।’

‘तो अब काहें नहीं जाती हो रेडियो पर?’ लोक कवि तारीफ के स्वर में बोले, ‘रेडियो पर ही क्यों टी.वी. सीरियलों पर भी जाओ!’

‘कहाँ गुरु जी?’ वह बोली, ‘अब कौन वहाँ पूछेगा।’

‘क्यों?’

‘फिल्मी गाने गा-गा कर फिल्मी कैसेटों पर नाच-नाच कर ऐक्टिंग वैक्टिंग भूल-भुला गई हूँ।’ वह बोली, ‘और फिर यहाँ तुरंत-तुरंत पैसा भी मिल जाता है और रेगुलर मिलता है। लेकिन वहाँ पैसा कब मिलेगा, काम कब मिलेगा, काम देने वालों को भी नहीं पता होता है। और पैसे का तो और भी पता नहीं होता।’ वह रुकी और बोली, ‘हाँ, लेकिन लड़कियों को साथ सुलाने, लिपटाने-चिपटाने की बात सब को पता होती है।’

‘का बेवकूफी का बात करती हो।’ लोक कवि बोले, ‘कुछ और बात करो।’

‘काहें बुरा लग गया का गुरु जी!’ मीनू ठिठोली फोड़ती हुई बोली।

‘काहें नहीं बुरा लगेगा?’ लोक कवि बोले, ‘इसका मतलब है जो बाहर कहीं और जाती होगी तो अइसेही हमारी बुराई बतियाती होगी।’

‘अरे नहीं गुरु जी! राम-राम!’ कह कर वह अपने दोनों कान पकड़ती हुई बोली ‘आपके बारे में एह तरह का बात हम कहीं नहीं करती हूँ।’ हम काहें ऐसा बात करूंगी गुरु जी!’ वह विनम्र होती हुई बोली, ‘आप हमें आसरा दिए गुरु जी। और हम एहसान फरामोश नहीं हूँ।’ कह कर वह हाथ जोड़ कर लोक कवि के पांव छूने लगी।

‘ठीक है, ठीक है!’ लोक कवि आश्वस्त होते हुए बोले, ‘चलो रिहर्सल शुरू करो!’

‘जी गुरु जी!’ कह कर उसने हारमोनियम अपनी ओर खींचा और उस दूसरी लड़की जो थोड़ी दूर बैठी थी, उस को गुहराया और बोली ‘तुम भी आ जाओ भाई!’

वह लड़की भी आ गई तो हारमोनियम पर वह दोनों गाने लगीं, ‘लागता जे फाटि जाई जवानी में झुल्ला।’ इस को दुहराने के बाद दूसरी ने टेर ली और मीनू ने कोरस, ‘आलू केला खइली त एतना मोटइलीं, दिनवा में ख लेहलीं दू-दू रसगुल्ला, लागता जे फाटि जाई जवानी में झुल्ला।’ फिर दुबारा भी जब दोनों ने शुरू किया यह गाना कि, ‘लागता जे फाटि जाई जवानी में झुल्ला / आलू केला खइलीं....।’ तभी लोक कवि ने दोनों को डपट लिया, ‘यह क्या गा रही हो जी तुम लोग।’ वह बोले, ‘भजन गा रही हो कि देवी गीत कि गाना।’

‘गाना गुरु जी।’ दोनों एक साथ बोल पड़ीं।

‘तो इतना स्लो क्यों गा रही हो?’

‘स्लो नहीं गुरु जी, टेक ले कर न फास्ट होंगे!’

‘चोप्प साली।’ वह बोले, ‘टेक ले कर क्यों फास्ट होगी? जानती नहीं हो डबल मीनिंग गाना है शुरू से ही इसे फास्ट में डाल दो।’

‘ठीक है गुरु जी!’ मीनू बोली, ‘बस ऊ ढोलक, बैंजो वाले भी आ जाते तो शुरू से फास्ट हो लेते। ख़ाली हरमुनिया पर तुरंतै कइसे फास्ट हो जाएं?’ उसने दिक्कत बताई।

‘ठीक है, ठीक है। रिहर्सल चालू रखो!’ कह कर लोक कवि चेयरमैन साहब द्वारा छोड़ दी गई बोतल से पेग बनाने लगे। शराब की चुस्की के साथ ही गानों के रिहर्सल पर भी नजर रखे रहे। तीन चार गानों के रिहर्सल के बीच ही ढोलक, गिटार, बैंजो, तबला, ड्रम, झाल वाले भी आ गए। सो सारे गाने लोक कवि के मन मुताबिक ‘फास्ट’ में फेंट कर गाए गए। इस बीच तीन लड़कियां और आ गईं। सजी-धजी, लिपी-पुती। देखते ही लोक कवि चहक पड़े। और अचानक गाना-बजाना रोकते हुए उन्होंने लगभग फरमान जारी कर दिया, ‘गाना-बजाना बंद करो, और कैसेट लगाओ। अब डांस का रिहर्सल होगा।’

कैसेट बजने लगा और लड़कियां नाचने लगीं। साथ-साथ लोक कवि भी इस डांस में छटकने-फुदकने लगे। वैसे तो लोक कवि मंचों पर भी छटकते, फुदकते, थिरकते थे, नाचते थे। यहाँ फर्क सिर्फ इतना भर था कि मंच पर वह खुद के गाए गाने में ही छटकते फुदकते नाचते थे। पर यहाँ वह दिदलेर मेंहदी के गाए ‘बोल तररर’ गाने वाले बज रहे कैसेट पर छटकते फुदकते थिरक रहे थे।

न सिर्फ थिरक रहे थे, लड़कियों को कूल्हे, हिप, चेहरे और छातियों के मूवमेंट भी ‘पकड़-पकड़’ कर बताते जा रहे थे। हाँ, एक फर्क यह भी था कि मंच पर थिरकने में माइक के अलावा उन के एक हाथ में तुलसी की माला भी होती थी। पर यहाँ उन के हाथ में न माइक था, न माला। यहाँ उन के हाथ में शराब की गिलास थी जिसको कभी-कभी वह आस पास की किसी कुर्सी या किसी जगह पर रख देते थे, लड़कियों को कूल्हे, छातियों और हिप्स की मूवमेंट बताने ख़ातिर। आँखों, चेहरे और बालों की शिफत बताने ख़ातिर। लड़कियां तो कई थीं इस डांस रिहर्सल में और लोक कवि लगभग सभी पर ‘मेहरबान’ थे। पर मीनू नाम की लड़की पर वह ख़ास मेहरबान थे। जब तब वह मूवमेंट्स सिखाते-सिखाते उसे चिपटा लेते, चूम लेते, उसके बालों, गालों सहित उसकी ‘36’ वाली हिप ख़ास तौर पर सहला देते। तो वह मादक सी मुसकान भी रह-रह फेंक देती। बिलकुल कृतज्ञता के भाव में। गोया लोक कवि उसके बाल, गाल या हिप सहला कर उस पर ख़ास एहसान कर रहे हों। और जब वह मादक सी, मीठी सी मुसकान फेंकती तो उसमें सिर्फ लोक कवि ही नहीं, वहाँ उपस्थित सभी नहा जाते। मीनू दरअसल थी ही इस कदर मादक कि वह मुसकुराए तो भी, न मुसकुराए तो भी लोग उसकी मादकता में उभ-चूभ डूब ही जाते। मंचों पर तो कई बार उसकी इस मादकता से मार खाए बाऊ साहब टाइप लोगों या बाकों और शोहदों में गोली चलने की नौबत आ जाती और जब वह कुछ मादक फिल्मी गानों पर नाचती तो सिर फुटव्वल मच जाती। ‘झूमेंगे गजल गाएंगे लहरा के पिएंगे, तुम हमको पिलाओ तो बल खा केे पिएंगे....’ अर्शी हैदराबादी की गाई गजल पर जब वह पानी से भरी बोतल को ‘डबल मीनिंग’ में हाथों में ले कर मंच से नीचे बैठे लोगों पर पानी उछालती तो ज्यादातर लोग उस पानी में भींगने के लिए पगला जाते। भले ही सर्दी उन्हें सनकाए हो तो भी वह पगलाए आगे कूद कर भागते आते। कभी-कभार कुछ लोग इस तरह की हरकत का बुरा भी मानते पर जवानी के जोश में आए लोग तो ‘बल खा के पिएंगे’ में बह जाते। बह जाते मीनू की बल खाती, धकियाती ‘हिप मूवमेंट्स’ के हिलकोरों मे। बढ़ियाई नदी की तरह उफनाई छातियों के हिमालय में खो जाते। खो जाते उस के अलस अलकों के जाल में। और जो इस पर कोई टू-टपर करे तो बाहों की आस्तीनें मुड़ जातीं। छूरे, कट्टे निकल आते। पिस्तौलें, राइफलें तन जातीं। फिर दौड़ कर आते पुलिस वाले, दौड़ कर आते कुछ ‘सभ्य, शरीफ और जिम्मेदार लोग’ तब जा के यह जवानी का ज्वार बमुश्किल थमता। पर ‘झूमेंगे गजल गाएंगे लहरा के पिएंगे, तुम हमको पिलाओ तो बल खा के पिएंगे....।’ का बुखार नहीं उतरता।

एक बार तो अजब ही हो गया। कुछ बांके इतने बऊरा गए कि मीनू के मादक डांस पर ऐसे हवाई फायरिंग करने लगे गोया फायरिंग नहीं संगत कर रहे हों। फायरिंग करते-करते वह बांके मंच पर चढ़ने लगे तो पुलिस ने ‘हस्तक्षेप’ किया। पुलिस भी मंच पर चढ़ गई। सबके हथियार कब्जे में कर लिए और बांकों को मंच से नीचे उतार दिया। तो भी अफरा तफरी मची रही। डांसर मीनू को मंच पर एक दारोगा ने भीड़ से बचाया। बचाते-बचाते वह अंततः मीनू पर खुद ही स्टार्ट हो गया। हिप, ब्रेस्ट, गाल, बाल सब पर रियाज मारने लगा। और जब एक बार मीनू को लगा कि भीड़ कुछ करे न करे, यह दारोगा इसी मंच पर जहाँ वह अभी-अभी नाची थी उसे जरूर नंगा कर देगा। तो वह अफनाई उकताई अचानक जोर से चिल्लाई, ‘भाइयों इस दारोगा से मुझे बचाओ!’ फिर तो बौखलाई भीड़ उस दारोगा पर पिल पड़ी। मीनू तो बच गई उस सार्वजनिक अपमान से पर दारोगा की बड़ी दुर्गति हो गई। पहले राउंड में उसके बिल्ले, बैज, टोपी गई। फिर रिवाल्वर गया और अंततः उसकी देह से वर्दी से लगायत बनियान तक नुच-चुथ कर गशयब हो गई। अब वह था और उसका कच्छा था जो उसकी देह को ढंके हुए था। फिर भी वह मुसकुरा रहा था। ऐसे गोया सिकंदर हो। इस लिए कि वह खूब पिए हुए भी था। उसको वर्दी, रिवाल्वर, बैज, बिल्ला, टोपी आदि की याद नहीं थी। क्यों कि वह तो मीनू के मादक देह स्पर्श में जहाँ तहाँ नहाया हुआ मुसकुराता ऐसे खड़ा था, गोया वह जीता जागता आदमी नहीं, स्टैच्यू हो।

यहाँ रिहर्सल में मीनू के साथ लोक कवि भी लगभग वही कर रहे थे जो मंच पर तब दारोगा ने किया था। पर मीनू न तो यहाँ अफनाई दिख रही थी, न उकताई। खीझ और खुशी की मिली जुली रेखाएं उसके चेहरे पर तारी थीं। इसमें भी खीझ कम थी और खुशी ज्यादा।

खुशी ग्लैमर और पैसे की। जो लोक कवि की कृपा से ही उसे मयस्सर हुई थी। हालां कि यह खुशी, पैसा और ग्लैमर उसे उसकी कला की बदौलत नहीं, कला के दुरुपयोग के बल पर मिली थी। लोक कवि की टीम की यह ‘स्टार’ अश्लील और कामुक डांस के नित नए कीर्तिमान रचती जा रही थी। इतना कि वह अब औरत से डांसर, डांसर से सेक्स बम में तब्दील हो चली थी। इस स्थिति में वह खुद को घुटन में घसीटती हुई बाहर-बाहर चहचहाती रहती। चहचहाती और जब तब चिहुंक पड़ती। चिहुंकती तब जब उसे अपने बेटे की याद आ जाती। बेटे की याद में कभी-कभी तो वह बिलबिला कर रोने लगती। लोग बहुत समझाते, चुप कराते पर वह तो किसी बढ़ियाई नदी की तरह बहती जाती। वह पति, परिवार सब कुछ भूल भुला जाती लेकिन बेटे को ले कर बेबस थी। भूल नहीं पाती।

यह खुशी, पैसा और ग्लैमर मीनू ने बेटे से बिछड़ने की कीमत पर बटोरा था।

बिछड़ी तो वह पति से भी थी। लेकिन पति की कमी ख़ास कर देह के स्तर पर पूरी करने वाले मीनू के पास ढेरों पुरुष थे। हालां कि पति वाली भावनात्मक सुरक्षा की कमी भी उसे अखरती थी, इतना कि कभी-कभी तो वह विक्षिप्त सी हो जाती। तो भी देह में शराब भर कर वह उस गैप को पूरा करने की कोशिश करती। किसी-किसी कार्यक्रम के दौरान कभी-कभार यह तनाव ज्यादा हो जाता, शराब ज्यादा हो जाती, ज्यादा चढ़ जाती तो वह होटल के अपने कमरे से छटपटाती बाहर आ जाती और डारमेट्री में जा कर खुले आम किसी ‘भुखाए’ साथी कलाकार को पकड़ बैठती। कहती, ‘मुझे कस के रगड़ दो, जो चाहे कर लो, जैसे चाहो कर लो लेकिन मेरे कमरे में चलो!’

तो भी उसकी देह संतुष्ट नहीं होती। वह दूसरा, तीसरा साथी ढूंढ़ती। भावनात्मक सुरक्षा का सुख फिर भी नहीं मिलता। वह तलाशती रहती निरंतर। पर न तो देह का नेह पाती, न मन का मेह। एक डिप्रेशन का दंश उसे डाहता रहता।

मीनू मध्य प्रदेश से चल कर लखनऊ आई थी। पिता उसके बरसों से लापता थे। बड़ा भाई पहले लुक्कड़ हुआ, फिर पियक्कड़ हो गया। हार कर माँ ने सब्जी बेचनी शुरू की पर मीनू की कलाकार बनने की धुन नहीं गई। वह रेडियो, टी.वी. में कार्यक्रमों ख़ातिर चक्कर काटते-काटते एक ‘कल्चरल ग्रुप’ के हत्थे चढ़ गई। यह कल्चरल ग्रुप भी अजब था। सरकारी आयोजनों में एक साथ डांडिया, कुमायूंनी, गढ़वाली, मणिपुरी, संथाली नृत्य के साथ-साथ भजन, गजल कौव्वाली जैसे किसी कार्यक्रम की डिमाँड तुरंत परोस देता था।

तो उस संस्था ने मीनू को भी अपने ‘मीनू’ में शुमार कर लिया। वह जब-तब इस संस्था के कार्यक्रमों में बुक होने लगी। बुक होते-होते वह उमेश के फेरे में आते-आते उसकी बांहों में दुबकने लगी। बाहों में दुबकते-दुबकते उसके साथ कब सोने भी लगी यह वह खुद भी नहीं नोट कर पाई। पर यह जरूर था कि उमेश जो उस संस्था में गिटार बजाता था, वह अब गिटार के साथ-साथ मीनू को भी साधने लगा। मीनू की यह फिसलन कोई पहली फिसलन नहीं थी। उमेश उसकी जिश्ंदगी में तीसरा या चौथा था। तीसरा कि चौथा वह इस नाते तय नहीं कर पाती थी कि पहली बार जिसके मोहपाश में वह बंधी वह सचमुच उसका प्यार था। पहले आँखें मिलीं फिर वह दोनों भी मिलने लगे पर कभी संभोग के स्तर पर नहीं मिले। चूमा चाटी तक ही रह गए दोनों। ऐसा नहीं कि संभोग मीनू के लिए कोई टैबू था या वह चाहती नहीं थी। बल्कि वह तो आतुर थी। पर स्त्राी सुलभ संकोच में कुछ कह नहीं पाई और वह भी संकोची था। फिर कोई जगह भी उपलब्ध नहीं हुई तब दोनों को इस लिए वह देह के स्तर पर नहीं मिल पाए। मन के स्तर पर ही मिलते रहे फिर वह ‘नौकरी’ करने मुंबई चला गया और मीनू बिछुड़ कर लखनऊ रह गई। सो उसे भी वह अपनी जिंदगी में आया पुरुष मानती थी और नहीं भी। दूसरा पुरुष उसकी जिंदगी में आकाशवाणी का एक पैक्स था जिसने उसे वहाँ ऑडीशन में पास कर गाने को मौकष दिया था। बाद में वह उसकी आर्थिक मदद पर भी उतर आया और बदले में उसका शारीरिक दोहन करता। नियमित। इसी बीच वह दो बार गर्भवती भी हुई। दोनों बार उसे एबॉर्शन करवाना पड़ा और तकलीफ, ताने भी भुगतने पड़े सो अलग। बाद में उस पैक्स ने ही उसे कापर टी लगवा लेने की तजवीज दी। शुरू में तो वह ना नुकुर करती रही पर बाद में वह मान गई।

कापर टी लगवा लिया।

शुरू में कुछ दिक्कत हुई। पर बाद में उसे इस सुविधा की निश्चितता ने उन्मुक्त बना दिया। और दूरदर्शन में भी उसने इसी ‘दरवाजे’ से बतौर गायिका एंट्री ले ली। यहाँ एक असिस्टेंट डायरेक्टर उसका शोषक-पोषक बना। लेकिन दूरदर्शन पर दो कार्यक्रमों के बाद उसका मार्केट रेट ठीक हो गया कार्यक्रमों में। और वह टीवी. अर्टिस्ट कहलाने लगी सो अलग। बाद में इस असिस्टेंट डायरेक्टर का तबादला हो गया तो वह दूरदर्शन में अनाथ हो गई। आकाशवाणी का क्रेज पहले ही ख़त्म हो चुका था सो वह इस कल्चरल ग्रुप के हत्थे चढ़ गई। और इस कल्चरल ग्रुप में भी अब उमेश से दिल और देह दोनों निभा रही थी। कापर टी का संयोग कभी दिक्कत नहीं होने देता था। तो भी वह सपने नहीं जोड़ती थी। देह सुख से तीव्रतर सुख के आगे सपने जोड़ना उसे सूझा भी नहीं। उमेश हमउम्र था सुख भी भरपूर देता था। देह सुख में वह गोते पहले भी लगा चुकी थी पर आकाशवाणी का वह पैक्स और दूरदर्शन का वह असिस्टेंट डायरेक्टर उसकी देह में नेह नहीं भर पाते थे, दूसरे उसे हरदम यही लगता कि यह दोनों उसका शोषण कर रहे हैं। तीसरे, वह दोनों उसकी उम्र से ड्योढ़े दुगुने बड़े थे, अघाए हुए थे, सो उनमें खुद भी देह की वह ललक या भूख नहीं थी, तो वह मीनू की भूख कहाँ से मिटाते? वह तो उन के लिए खाने में सलाद, अचार का कोई एक टुकड़ा सरीखी थी। बस! फिर वह दोनों उसे भोगने में समय भी बहुत जाया करते थे। मूड बनाने और स्तंभन में ही वह ज्यादा समय खर्च डालते जब कि मीनू को जल्दी होती। पर प्रोग्राम और पैसे की ललक में वह उन्हें बर्दाश्त करती। लेकिन उमेश के साथ ऐसा नहीं था। उसके साथ वह कोई स्वार्थ या विवशता नहीं जी रही थी। हमउम्र तो वह था ही सो उसे न मूड बनना पड़ता था, न स्तंभन की फजीहत थी। चांदी ही चांदी थी मीनू की। लेकिन हो यह गया था कि मीनू का उमेश के साथ रपटना देख कई और भी उसके फेरे मारने लगे थे। उमेश को यह नागवार गुजरता। लेकिन उमेश को सिर्फ नागवार गुजरने भर से तो कोई मानने वाला था नहीं। दो चार लोगों से इस फेर में उसकी कहा सुनी भी हो गई। तो भी बात थमी नहीं। वह हार गया और मीनू को कोई और भी चाहे यह उसे मंजूर नहीं था। तब वह गाना भी गाता था, ‘तुम अगर मुझको न चाहो तो कोई बात नहीं, गैर के दिल को सराहोगी तो मुश्किल होगी।’ लेकिन मीनू तो थी ही खिलंदड़ और दिलफेंक। तिस पर उसका हुस्न, उसकी नजाकत, उसकी उम्र किसी को भी उसके पास खींच लाती। उसकी कटोरे जैसी कजरारी मादक आँखें किसी भी को दीवाना बना देतीं। और वह भी हर किसी दीवाने को लिफ्श्ट दे देती। साथ बैठ जाती, हंसने-बतियाने लगती। ‘गैर के दिल को सराहोगी तो मुश्किल होगी।’ उमेश का गाया उसके कानों में नहीं समाता।

तो उमेश पगला जाता।

अंततः एक दिन उसने मीनू से शादी करने का प्रस्ताव रख दिया। प्रस्ताव सुनते ही मीनू हकबका गई। बात मम्मी पर डाल कर टालना चाहा। पर उमेश मीनू को ले कर उसकी माँ से भी मिला। और मिलते-मिलते बात आखि़र बन गई। मीनू भी उमेश को चाहती थी पर शादी तुरंत इस लिए नहीं चाहती थी कि वह अभी बंधन में बंधना नहीं चाहती थी। थोड़ी आजादी के दिन वह और जीना चाहती थी। वह जानती थी कि आज चाहे जितना दीवाना हो उमेश उसका शादी के बाद तो यह खुमारी टूटेगी। और जरूर टूटेगी। अभी यह प्रेमी है तो आसमान के तारे तोड़ता है कल पति होते ही वह ढेरों बंधनों में बांध यह आसमान भी छीन लेगा। तारे कहीं तड़प-तड़प कर दम तोड़ देंगे।

लेकिन यह सोचना उसका सिर्फ वेग में था।

जमीनी सचाई यह थी कि उसे शादी करनी थी। उसकी माँ राजी थी। और जल्दी भी दो वजहों से थी। कि एक तो यह शादी बिना लेन देन की थी दूसरे, मीनू से तीन साल छोटी उसकी एक बहन और थी बीनू, उसकी भी शादी की चिंता उसकी माँ को करनी थी। मीनू तो कलाकार हो गई थी, चार पैसे जैसे भी सही कमा रही थी, पर बीनू न तो कमा रही थी, न कलाकार थी सो मीनू से ज्यादा चिंता उसकी माँ को बीनू की थी।

सो आनन फानन मीनू और उमेश की शादी हो गई। उमेश का छोटा भाई दिनेश भी शादी में आया और बीनू पर लट्टू हो गया। जल्दी ही बीनू और दिनेश की भी शादी हो गई।

शादी के बाद दिनेश भी उमेश और मीनू के साथ प्रोग्राम में जाने लगा। उमेश गिटार बजाता था, दिनेश भी धीरे-धीरे बैंजो बजाने लगा। माइक, साउंड बाक्स की साज संभाल, साउंड कंट्रोल वगैरह भी समय बेसमय वह कर लेता था। कुछ समय बाद उसने बीनू को भी प्रोग्राम में ले जाना शुरू किया। बीनू भी कोरस में गाने लगी, समूह में नाचने लगी। लेकिन मीनू वाली लय, ललक, लोच और लौ बीनू में नदारद थी। सुर भी वह ठीक से नहीं लगा पाती थी। तो भी कुछ पैसे मिल जाते थे सो वह प्रोग्रामों में जा कर कुल्हा मटका कर ठुमके लगा आती थी। यह भी अजब इत्तफाक था कि मीनू और बीनू की शक्लें न सिर्फ जरूरत से ज्यादा मिलती थीं, बल्कि उमेश और दिनेश की शक्लें भी आपस में बुरी तरह मिलती थीं। इतनी कि जरा दूर से यह दोनों भाई भी इन दोनों बहनों को देख तय करना कठिन पाते थे कि कौन वाली उन की है। यही हाल मीनू और बीनू उमेश, दिनेश को जरा दूर से देखतीं तो हो जाता। इस सब से सब से ज्यादा नुकसान मीनू का होता। क्यों कि कई बार बीनू द्वारा पेश लचर डांस मीनू के खाते में दर्ज हो जाता। मीनू को इससे अपनी इमेज की चिंता तो होती पर वह कुढ़ती जरा भी नहीं थी।

अभी यह सब चल ही रहा था कि मीनू के दिन चढ़ गए।

ऐसे समय पर अमूमन औरतें खुश होती हैं। पर मीनू उदास हो गई। उसे अपना ग्लैमर समेत कैरियर डूबता नजर आया। उसने उमेश को ताने भी दिए कि क्यों उसने कापर टी निकलवा दिया? फिर सीधे एबॉर्शन करवाने के लिए साथ चलने के लिए कहने लगी। लेकिन उमेश ने एबॉर्शन करवाने पर सख़्त ऐतराज किया। लगभग फरमान जारी करते हुए कहा कि, ‘बहुत हो चुका नाचना गाना। अब घर गृहस्थी संभालो!’ तो भी मीनू ने बड़ा बबाल किया। पर मुद्दा ऐसा था कि उसकी माँ से ले कर सास तक ने इस पर उसकी खि़लाफत की। बेबस

मीनू को चुप लगाना पड़ा। फिर भी उसने प्रोग्रामों में जाना नहीं छोड़ा। उलटियां वगैरह बंद होते ही वह जाने लगी। अब झूम कर नाचना उसने छोड़ दिया था। एहतियातन। वह हलके से दो चार ठुमके लगाती और बाकी काम ब्रेस्ट की अदाओं और आँखों के इसरार से चलाती और ‘मोरा बलमा आइल नैनीताल से’ जैसे गाने झूम कर गाती।

वह माँ बनने वाली है यह बात वह जानती थी, उसका परिवार जानता था। बाकी बाहर कोई नहीं।

लेकिन जब पेट थोड़ा बाहर दिखने लगा तो वह चोली घाघरा पहनने लगी और पेट पर ओढ़नी डाल लेती। पर यह तरकीब भी ज्यादा दिनों तक नहीं चली। फिर वह बैठ कर गाने लगी। और अंततः घर बैठ गई।

उसके बेटा पैदा हुआ।

अब वह खुश नहीं, बेहद खुश थी। बेटा जनमना उसे गुरूर दे गया। अब वह उमेश को भी डांटने-डपटने लगी। जब-तब। बेटे के साथ वह अपना ग्लैमर, प्रोग्राम सब कुछ भूल भाल गई। बेसुध उसी में खोई रहती। उसका टट्टी-पेशाब, दूध पिलाना, मालिश, उसको खिलाना, उस से बतियाना, दुलराना ही उसकी दुनिया थी। गाना उसका अब भी नहीं छूटा था। अब वह बेटे के लिए लोरी गाती।

अब वह संपूर्ण माँ थी। दिलफेंक और ग्लैमरस औरत नहीं।

कोई देख कर यकीन ही नहीं करता था कि यह वही मीनू है। पर यह भ्रम भी जल्दी ही टूटा। बेटा ज्यों साल भर का हुआ उसने प्रोग्रामों में पेंग मारना शुरू कर दिया। अब ऐतराज सास की ओर से शुरू हुआ। पर उमेश ने इस पर गशैर नहीं किया। इस बीच मीनू की देह पर जरा चर्बी आ गई थी पर चेहरे पर लावण्य और लाली निखार पर थी। नाचते गाते देह की चर्बी भी छंटने लगी थी। पर बेटे को दूध पिलाने से स्तन ढीले पड़ गए थे। इस का इलाज उसने ब्यूटी क्लीनिक जा कर इक्सरसाइज करने और रबर पैड वाले ब्रा से कर लिया था। गरज यह थी कि धीरे-धीरे वह फार्म पर आ रही थी। इसी बीच उसकी ‘कल्चरल ग्रुप’ चलाने वाले कर्ता धर्ता से ठन गई।