लोक कवि अब गाते नहीं / पृष्ठ 15 / दयानंद पाण्डेय
वह पहली बार सड़क पर थी। बिना प्रोग्राम के।
वह फिर से दूरदर्शन और आकाशवाणी के फेरे मारने लगी। एक दिन दूरदर्शन गई तो लोक कवि अपना प्रोग्राम रिकार्ड करवा कर स्टूडियो से निकल रहे थे। मीनू ने जब जाना कि यही लोक कवि हैं तो वह लपक कर उन से मिली और अपना परिचय दे कर उन से उन का ग्रुप ज्वाइन करने का इरादा जताया। लोक कवि ने उसे टालते हुए कहा, ‘बाहर ई सब बात नहीं करता हूँ। हमारे अड्डे पर आओ। फुर्सत से बात करूंगा। अभी जल्दी में हूँ।’
लोक कवि के अड्डे पर वह उसी शाम पहुँच गई। लोक कवि ने पहले बातचीत में ‘आजमाया’ फिर उसका नाचना गाना भी देखा। महीना भर फिर भी दौड़ाया। और अंततः एक दिन लोक कवि उस पर न सिर्फ पसीज गए बल्कि उस पर न्यौछावर हो गए। उसे लिटाया, चूमा-चाटा और संभोग सुख लूटने के बाद उस से कहा, ‘आती रहो, मिलती रहो!’ फिर उसे बांहों में भरते हुए चूमा और उसके कानों में फुसफुसाए, ‘तुमको स्टार बना दूँगा।’ फिर जोड़ा, ‘बहुत सुख देती हो। ऐसे ही देती रहो।’ फिर तो लोक कवि के यहाँ आते-जाते मीनू उन की म्यूजिकल पार्टी में भी आ गई। और धीरे-धीरे सचमुच वह उन की टीम की स्टार कलाकार बन गई। टीम की बाकी औरतें, लड़कियां उस से जलने लगीं। लेकिन लोक कवि का चूंकि उसे ‘आशीर्वाद’ प्राप्त था सो सबकी जलन भीतर ही भीतर रहती, मुखरित नहीं होती। सिलसिला चलता रहा। इस बीच लोक कवि ने उसे शराबी भी बना दिया। शुरू-शुरू में जब लोक कवि ने एक रात सुरूर में उसे शराब पिलाई तो पहले तो वह नहीं, नहीं करती रही। कहती रही, ‘मैं औरत हूँ। मेरा शराब पीना शोभा नहीं देगा।’
‘क्या बेवकूफी की बात करती हो?’ लोक कवि मनुहार करते हुए बोले, ‘अब तुम औरत नहीं आर्टिस्ट हो। स्टार आर्टिस्ट।’ उन्हों ने उसे चूमते हुए जोड़ा, ‘और फिर शराब नहीं पियोगी तो आर्टिस्ट कैसे बनोगी?’ कह कर उस रात उसे जबरदस्ती दो पेग पिला दिया। जिसे बाद में मीनू ने उलटियां करके बाहर निकाल दिया। उस रात वह घर नहीं गई। लोक कवि की बांहों में बेसुध पड़ी रही। उस रात लोक कवि ने उसकी योनि को जब अपनी जीभों से नवाजा तो वह एक नए सुखलोक में पहुँच गई।
दूसरी सुबह जब वह घर पहुंची तो उमेश ने रात लोक कवि के अड्डे पर रुकने पर बड़ा ऐतराज जताया। पर मीनू ने उस ऐतराज की कुछ बहुत नोटिस नहीं ली। बोली, ‘तबीयत ख़राब हो गई तो क्या करती?’
फिर रात भर की जगी वह सो गई।
अब तक मीनू न सिर्फ लोक कवि की म्यूजिक पार्टी की स्टार थी बल्कि लोक कवि के आडियो कैसेटों के जाकेटों पर भी उसकी फाेटो प्रमुखता से छपने लगी थी। अब वह स्टेज और कैसेट दोनों बाजार में थी और जाहिर है कि बाजार में थी तो पैसे की भी कमी नहीं रह गई थी उसके पास। रात-बिरात कभी भी लोक कवि उसे रोक लेते और वह बिना ना नुकुर किए मुसकुरा कर रुक जाती। कई बार लोक कवि मीनू के साथ-साथ किसी और लड़की को भी साथ सुलाते तो भी वह बुरा नहीं मानती। उलटे ‘कोआपेरट’ करती। उसके इस ‘कोआपरेट’ का जिक्र लोक कवि खुद भी कभी कभार मूड में कर जाते। इस तरह किसी न किसी बहाने मीनू पर लोक कवि के ‘उपकार’ बढ़ते जाते। लोक कवि के इन उपकारों से मीनू के घर में समृद्धि आ गई थी पर साथ ही उसके दांपत्य में न सिर्फ खटास आ गई थी, बल्कि उसकी चूलें भी हिल गई थीं। हार कर उमेश ने सोचा कि एक और बच्चा पैदा करके ही मीनू के पांव बांधे जा सकते हैं। सो एक और बच्चे की इच्छा जताते हुए मीनू से कापर टी निकलवाने की बात किसी भावुक क्षण में उमेश ने कह दी तो मीनू भड़क गई। बोली, ‘एक बेटा तो है।’
‘पर अब वह पांच छः साल का हो गया है।’
‘तो?’
‘अम्मा भी चाहती हैं कि एक और बच्चा हो जाए जैसे दिनेश के दो बच्चे हैं, वैसे ही।’
‘तो अपनी अम्मा से कहो कि अपने साथ तुमको सुला लें फिर एक बच्चा और पैदा कर लें?’
‘क्या बकती हो?’ कहते हुए उमेश ने उसे एक जोर का थप्पड़ मारा। बोला, ‘इतनी बत्तमीज हो गई हो!’
‘इसमें बत्तमीजी की क्या बात है?’ पासा पलटती हुई मीनू नरम और भावुक हो कर बोली, ‘तुम अपनी अम्मा के बच्चे नहीं हो? और उन के साथ सो जाओगे तो बच्चे नहीं रहोगे?’
‘तुम तब यही कह रही थी?’ उमेश बौखलाहट पर काबू करते हुए बोला।
‘और नहीं तो क्या?’ वह बोली, ‘बात समझे नहीं और झापड़ मार दिया। आइंदा कभी हम पर हाथ मत उठाना। बताए देती हूँ।’ आँखें तरेर कर वह बोली। और बैग उठा कर चलते-चलते बोली, ‘रिहर्सल में जा रही हूँ।’
लेकिन उमेश ने उस दिन किसी घायल शेर की तरह गांठ बांध ली कि मीनू को एक न एक दिन लोक कवि की टीम से निकाल कर ही वह दम लेगा। चाहे जैसे। कई तरकीबें, शिकायतें उसने भिड़ाई पर वह कामयाब नहीं हुआ। कामयाब होता भी भला कैसे? लोक कवि के यहाँ मीनू की गोट इतनी पक्की थी कि कोई शिकायत, कोई राजनीति, उसका कोई खोट भी लोक कवि को नहीं दीखता। दीखता भी भला कैसे?
वह तो इन दिनों लोक कवि की पटरानी बनी इतराती फिरती रहती।
वह तो घर भी नहीं जाती। पर हार कर जाती तो सिर्फ बेटे के मोह में। बेटे की ख़ातिर। और इसी लिए वह दूसरा बच्चा नहीं चाहती थी कि फिर फंसना पड़ेगा, फिर बंधना पड़ेगा। यह ग्लैमर, यह पैसा फिर लौट कर मिले न मिले क्या पता? वह सोचती और दूसरे बच्चे के ख़याल को टाल जाती। पर उमेश ने यह ख़याल नहीं टाला था। एक रात चरम सुख लूटने के बाद उसने आखि़र फिर यह बात धीरे-धीरे ही सही फिर चला दी। पहले तो मीनू ने इस बात को बिन बोले अनसुना कर दिया। पर उमेश फिर भी लगातार, ‘सुनती हो, सुन रही हो’ के संपुट के साथ बच्चे का पहाड़ा रटने लगा तो वह आजिश्ज आ गई। फिर भी बात को टालती हुई धीरे से बुदबुदाई, ‘सो जाओ, नींद आ रही है।’
‘जब कोई जरूरी बात करता हूँ तो तुम्हें नींद आने लगती है।’
‘चलो सुबह बात करेंगे।’ वह अलसाती हुई बुदबुदाई।
‘सुबह नहीं, अभी बात करनी है।’ वह लगभग फैष्सला देते हुए बोला, ‘सुबह तो डाक्टर के यहाँ चलना है।’
‘सुबह हमें हावड़ा पकड़नी है प्रोग्राम में जाना है।’ वह फिर बुदबुदाई।
‘हावड़ा नहीं पकड़नी है, कोई प्रोग्राम में नहीं जाना है।’
‘क्यों?’
‘डाक्टर के यहाँ चलना है।’
‘डाक्टर के यहाँ तुम अकेले हो आना।’
‘अकेले क्यों? काम तो तुम्हारा है।’
‘हमें कोई बीमारी नहीं है। हम का करेंगे डाक्टर के यहाँ जा कर।’ अब की वह जरा जोर से बोली।
‘बीमारी है तुम्हें।’ उमेश पूरी कड़ाई से बोला।
‘कौन सी बीमारी?’ अब तक मीनू की आवाज भी कड़ी हो गई थी।
‘कापर टी की बीमारी।’
‘क्या?’
‘हाँ!’ उमेश बोला, ‘यही कल सुबह डाक्टर के यहाँ निकलवाना है।’
‘क्यों?’ वह तड़कती हुई बोली, ‘क्या फिर दूसरे बच्चे का सपना दीख गया?’
‘हाँ, और हमें यह सपना पूरा करना है।’
‘क्यों?’ वह बोली, ‘किस दम पर?’
‘तुम्हारा पति होने के दम पर!’
‘किस बात के पति?’ वह गरजी, ‘कमा के न लाऊं तो तुम्हारे घर में दोनों टाइम चूल्हा न जले, और यह कूलर, फ्रिज, कालीन, सोफा, डबल बेड यहाँ तक की तुम्हारी मोटर साइकिल भी नहीं दिखे!’
‘क्यों मैं भी कमाता हूँ।’
‘जितना कमाते हो उतना तुम भी जानते हो।’
‘इधर-उधर जाने से तुम्हारी बोली और आदतें ज्यादा ही बिगड़ गई हैं।’
‘क्यों न जाऊं?’ वह चमक कर बोली, ‘तुम्हारे वश की तो अब मैं भी नहीं रही। महीने में दो चार बार आ जाते हो कांखते-पादते तो समझते हो बड़े भारी मर्द हो। और बोलते हो कि पति हो।’ वह रुकी नहीं बोलती रही, ‘सुख हमको दे नहीं सकते, चूल्हा चौका चला नहीं सकते और कहते हो कि पति हो! किस बात के पति हो जी तुम?’ वह बोली, ‘शराब भी तुम्हारी मेरी कमाई से चलती है। और क्या-क्या कहूँ? क्या-क्या उलटू-उघाड़ू?
‘लोक कवि ने तुमको छिनार बना दिया है। कल से तुम्हारा उसके यहाँ जाना बंद!’
‘क्यों बंद? किस बात के लिए बंद? फिर तुम होते कौन हो मेरा कहीं जाना बंद करने वाले?’
‘तुम्हारा पति!’
‘तुम मेरे कितने पति हो, जरा अपने दिल पर हाथ रख कर पूछो।’
‘क्या कहना चाहती हो आखि़र तुम?’ उमेश बिगड़ता हुआ बोला।
‘यही कि अपना गिटार बजाओ। कहो तो गुरु जी से कह कर उन की टीम में फिर रखवा दूं। चार पैसा मिलेगा ही। और जरा अपनी शराब पर काबू कर लो!’
‘मुझे नहीं जाना तुम्हारे उस भड़वे गुरु जी के यहाँ जो अफसरों, नेताओं को लौड़िया सप्लाई करता है। जिस साले ने हमारी जिंदगी नरक कर दी। तुम्हें हमसे छीन लिया है।’
‘हमारी जिंदगी नरक नहीं की है गुरु जी ने। हमारी जिंदगी बनाई है। ये कहो।’
‘यह तुम्हीं कहो!’
‘क्यों नहीं कहूँगी।’ वह भावुक होती हुई बोली, ‘हमको तो ये शोहरत, ये पैसा उन्हीं की बदौलत मिली है। गुरु जी ने हमको कलाकार से स्टार कलाकार बनाया है।’
‘स्टार कलाकार नहीं, स्टार रंडी बनाया है।’ उमेश गरजा, ‘ये कहो ना! कहो ना कि स्टार रखैल बनाया है तुमको!’
‘अपनी जबान पर कंट्रोल करो!’ मीनू भी गरजी, ‘क्या-क्या अनाप शनाप बके जा रहे हो?’
‘बक नहीं रहा हूँ, ठीक कह रहा हूँ।’
‘तो तुम हमको रंडी, रखैल कहोगे?’
‘हाँ, रंडी, रखैल हो तो कहूँगा।’
‘मैं तुम्हारी बीवी हूँ।’ वह आहत भाव से बोली, ‘तुम्हें ऐसा कहते हुए शर्म नहीं आती?’
‘आती है। तभी कह रहा हूँ।’ वह बोला, ‘और फिर किस-किस को शर्म दिलाओगी? किस-किस के मुंह बंद कराओगी?’
‘तुम बहुत गिरे हुए आदमी हो।’
‘हाँ, हूँ।’ वह बोला, ‘गिर तो उसी दिन गया था जिस दिन तुमसे शादी की।’
‘तो तुम्हें मुझसे शादी करने का पछतावा है?’
‘बिलकुल है।’
‘तो छोड़ क्यों नहीं देते?’
‘बेटा रोक लेता है, नहीं छोड़ देता।’
‘फिर कोई पूछेगी भी?’
‘हजारों है पूछने वालियां?’
‘अच्छा?’
‘तो?’
‘तो भी हमें रंडी कहते हो।’
‘कहता हूँ।’
‘कुत्ते हो।’
‘तू कुतिया है।’ वह बोला, ‘बेटे की चिंता न होती तो इसी दम छोड़ देता तुझे।’
‘बेटे की बड़ी चिंता है?’
‘आखि़र मेरा बेटा है?’
‘यह किस कुत्ते ने कह दिया कि ये तेरा बेटा है?’
‘दुनिया जानती है कि मेरा बेटा है।’
‘बेटा तूने जना है कि मैंने?’ वह बोली, ‘तो मैं जानती हूँ कि इस का बाप कौन है, कि तू?’
‘क्या बक रही है?’
‘ठीक बक रही हूँ।’
‘क्या?’
‘हाँ, ये तेरा बेटा नहीं है।’ वह बोली, ‘तू इस का बाप नहीं है।’
‘हे माधरचोद, तो यह किसका पाप है, जो मेरे मत्थे मढ़ दिया?’ कह कर उमेश उस पर किसी गिद्ध की तरह टूट पड़ा। उसके बाल पकड़ कर खींचते हुए उसे लातों, जूतों मारने लगा। जवाब में मीनू ने भी हाथ पांव चलाए लेकिन उमेश के आगे वह पासंग भी नहीं ठहरी और बुरी तरह पिट गई। पति से तू-तू, मैं-मैं करना मीनू को बड़ा भारी पड़ गया। मार पीट से उसका मुंह सूज गया, होठों से खून बहने लगा। हाथ पैर भी छिल गए। और तो और उसी रात उसे घर भी छोड़ना पड़ा। अपने थोड़े बहुत कपड़े लत्ते बटोरे, ब्रीफकेस में भरा रिक्शा लिया। मेन रोड पर आ कर रिक्शा छोड़ टेंपो लिया और पहुँच गई लोक कवि के कैंप रेजीडेंस पर। कई बार काल बेल बजाने पर लोक कवि के नौकर बहादुर ने दरवाजा खोला। मीनू को देखते ही वह चौंक पड़ा। बोला, ‘अरे आप भी आ गईं?’
‘क्यों?’ पति का सारा गुस्सा बहादुर पर उतारती हुई मीनू गरजी।
‘अरे नहीं, हम तो इश लिए बोला कि दो मेमशाब लोग पहले ही से भीतर हैं।’ मीनू की गरज से सहमते हुए बहादुर बोला।
‘तो क्या हुआ?’ थोड़ी ढीली पड़ती हुई मीनू ने बहादुर से धीरे से पूछा, ‘कौन-कौन हैं?’
‘शबनम मेमशाब और कपूर मेमशाब।’ बहादुर खुसफुसा कर बोला।
‘कोई बात नहीं।’ ब्रीफकेस बरामदे में पटकती हुई मीनू बोली।
‘कौन है रे बहादुर!’ अपने कमरे से लोक कवि ने चिल्ला कर पूछा, ‘बड़ा खड़बड़ मचाए हो?’
‘हम हैं गुरु जी!’ मीनू कमरे के दरवाजेश् के पास जा कर धीरे से बोली।
‘कौन?’ महिला स्वर सुन कर लोक कवि अचकचाए। यह सोच कर कि कहीं उन की धर्मपत्नी तो नहीं आ गईं? फिर सोचा कि उसकी आवाज तो बड़ी कर्कश है। और यह आवाज तो कर्कश नहीं है। वह अभी असमंजस में पड़े यही सब सोच रहे थे कि तभी वह फिर धीरे से बोली, ‘मैं हूँ मीनू गुरु जी!’
‘मीनू?’ लोक कवि फिर अचकचाए और बोले, ‘तुम और इतनी रात को?’
‘हाँ, गुरु जी।’ वह अपराधी भाव से बोली, ‘माफ कीजिए गुरु जी।’
‘अकेली हो कि कोई और भी है?’
‘अकेली हूँ गुरु जी।’
‘अच्छा रुको अभी आता हूँ।’ कह कर लोक कवि ने जांघिया ढूंढ़ना शुरू किया। अंधेरे में। नहीं मिला तो वह बड़बड़ाए, ‘हे शबनम! लाइट जला!’
पर शबनम मुख मैथुन के बाद उन के पैरों के पास लेटी पड़ी थी। लेटे-लेटे ही सिर हिलाया। पर उठी नहीं। लोक कवि फिर भुनभुनाए, ‘सुन नहीं रही हो का? अरे, उठो शबनम! देखो मीनू आई है। बाहर खड़ी है। लगता है उस पर कोई आफत आई है!’ शबनम लेकिन ज्यादा नशे में भी थी सो वह उठी नहीं। कुनमुना कर रह गई। अंततः लोक कवि उसे एक तरफ हटाते हुए उठे कि उन का एक पैर नीता कपूर पर पड़ गया। वह चीख़ी, ‘हाय राम!’ लेकिन धीरे से। लोक कवि फिर बड़बड़ाए, ‘तुम भी अभी यहीं हो? तुम तो कह रही थी चली जाऊंगी।’
‘नहीं गुरु जी का करें आलस लग गया। नहीं गई। अब सुबह जाऊंगी। वह अलसाई हुई बोली।
‘अच्छा चलो उठो!’ लोक कवि बोले, ‘लाइट जलाओ!’
‘क्यों?’
‘मीनू आई है। बाहर खड़ी है!’
‘मीनू को भी बुलाया था?’ नीता बोली, ‘अब आप कुछ कर भी पाएंगे?’
‘क्या जद-बद बकती रहती हो।’ वह बोले, ‘बुलाया नहीं था, अपने आप आई है। लगता है कुछ समस्या में है!’
‘तो इसी बिस्तर पर वह भी सोएंगी?’ नीता कपूर भुनभुनाई, ‘जगह कहाँ है?’
‘लाइट नहीं जला रही है रंडी तभी से बकबक-बकबक बहस कर रही है!’ कहते हुए लोक कवि भड़भड़ा कर उठे और लाइट जला दिया। लाइट जलाते ही दोनों लड़कियां कुनमुनाईं पर नंग धडंग पड़ी रहीं।