लोक कवि अब गाते नहीं / पृष्ठ 17 / दयानंद पाण्डेय

Gadya Kosh से
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लोग प्रतिवाद करते, ‘तो शहर में रहती काहें हैं?’

‘इहाँ के नरक से ऊब कर।’ आदमी जोड़ते, ‘फिर यहाँ मलकिन को सुविधा भी कहाँ है? शहर में बड़ी सुविधा है। सड़क है, बिजली है, दुकान हैं, सनीमा है। और एहले बड़ी बात वहाँ फटीचर नहीं हैं। इहाँ की तरह छोटी-टुच्ची बात करने के लिए।’

‘हाँ भई, जिसका खाओ, उसका बजाना भी पड़ता है।’ कह कर लोग बात ख़त्म कर देते।

लेकिन बात ख़त्म कहाँ होती थी भला?

दिन गुजरते गए। अब ठकुराइन के चेहरे से लावण्य छुट्टी लेने लगा था। विधवा जीवन का फ्रस्ट्रेशन और अनैतिक जीवन जीने का तनाव उनके चेहरे पर साफ दीखने लगा था। हालांकि शहर में वह पड़ोसियों से कोई ख़ास संपर्क नहीं रखती थीं और पूरी शिष्टता, भद्रता के साथ सिर पर सलीके से पल्लू रख कर ही घर से बाहर निकलती थीं तो भी तड़ने वाली आँखें तड़ लेती थीं। हालांकि घर में काम करने के लिए एक बूढ़ी औरत और एक छोटा लड़का भी वह अपने मायके से लाई थीं। तो भी अकेली औरत के पास जब तब एक पुरुष आता जाता रहे तो कोई सवाल न भी उठाए फिर भी सुलग जाता है। फिर उनकी अकेली औरत का ठप्पा! लोग कहते बिना पतवार की नाव है जो चाहे, जिधर चाहे बहा ले जाए। पर अब दिक्कत यह थी कि बढ़ती उम्र के साथ-साथ उनका अकेलापन अब उन्हें सालने लगा था। इस अकेलेपन से ऊब कर दो एक बार वकील साहब से दबी जबान शादी कर लेने को भी उन्होंने कहा। पर वकील साहब टाल गए। उनकी दलील थी कि, वह बाल बच्चेदार हैं, शहर में उनकी हैसियत और रुतबा है सो लोग क्या कहेंगे? दूसरी दलील उम्र के गैप की थी, तीसरी दलील उनकी यह थी कि आप क्षत्रिय जाति की हैं और मैं कुर्मी। इस पर भी समाज में विवाद खड़ा हो सकता है। इसलिए यह संबंध जैसे चल रहा है वैसे ही चलने दें। इसी में हम दोनों की भलाई है और समाज की भी। ठकुराइन जबान पर तो लगाम लगा गईं पर मन ही मन कसमसाने भी लगीं। उन्होंने सोचा कि अब वकील साहब से पूरी तरह किनारा कर लें। पर वह यह सब अभी सोच ही रही थीं कि उन्होंने पाया कि अब वकील साहब खुद ही उनसे किनारा करने लगे हैं। अब उनका उन के घर में आना जाना भी कम से कम हो गया था। वह सब कुछ छोड़ कर अब गाँव वापस जा कर रहने की सोचने लगी थीं। लेकिन उन का दफा 604 वाला बकरी की हत्या वाला केस भी फंसा पड़ा था। लेकिन उन्होंने गौर किया कि अब वकील साहब उनके केस पर भी बहुत ज्यादा ध्यान नहीं दे रहे थे। न उन पर, न उन के केस पर।

ठकुराइन की चिंताओं का अब कोई पार नहीं था।

बाद में उन्होंने जब इसकी तह में जा कर पता लगाया तो एक बात तो साफ हो गई कि एक लड़की वकील साहब की जूनियर बन कर आ गई थी, वकील साहब की दिलचस्पी अब उस जूनियर वकील में बढ़ गई थी। यह तो वह समझीं। पर उनके केस में वह क्यों दिलचस्पी नहीं ले रहे हैं यह वह समझ नहीं पा रही थीं। उन्होंने सोचा कि किसी दूसरे वकील से इस बारे में दरियाफ्त करें लेकिन उन्हें याद आई वकील साहब की हिदायत कि, ‘किसी भी से जिक्र नहीं करिएगा वरना केस बिगड़ जाएगा।’

सो वह चुप लगा गईं।

लेकिन कब तक चुप लगातीं भला? वकील साहब के चैंबर में उनका आना जाना बढ़ गया। वकिलाइन भी अब उनको देख कर नाराज नहीं होती थीं न ही कुढ़ती थीं। अब तो उनको कुढ़ने के लिए वह जूनियर वकील मिल गई थी। अब वकील साहब चैम्बर में प्राइवेट में उस जूनियर वकील से मिलते। इस फेर में कई बार ठकुराइन को भी बाहर बैठना पड़ जाता। उनको यह सब बहुत बुरा लगता लेकिन मन मसोस कर रह जातीं।

अब जब वह चैम्बर के बाहर बैठतीं तो चाहे अनचाहे किसी न किसी से बातचीत भी शुरू हो जाती। इस तरह आते जाते लोगों से परिचय भी बढ़ने लगा। हालांकि विधवा होने के नाते वह सादी साड़ी पहनतीं। मेकअप भी नहीं करतीं। वह सिर पर पल्लू रख कर बड़े अदब से, सलीके और शऊर से बतियातीं, गंभीर भी रहतीं, आँखों में शील संकोच सहेजे ज्यादा किसी से हंसती मुसकुराती नहीं थीं तो भी अब पहले की तरह सबको वह अनदेखा भी नहीं करतीं। पहले अपनी सुंदरता और जवानी का गुरूर भी था। सो सबको अनदेखा करते चलतीं। पर अब सुंदरता का वह गुरूर भी उतार पर था। वह चालीस की उम्र छू रहीं थीं तो भी जब वह रिक्शे से या पैदल जैसे भी चलतीं लोग मुड़-मुड़ कर उन्हें देखते जरूर। तो उन्हें लगता कि अभी जवानी बाकी है। अभी भी उन की देहयष्टि में दम है। उन्हें अपने पर गुरूर आ जाता।

इसी गुरूर में वह एक रोज एक सड़क पर खड़ी रिक्शा ढूंढ़ रही थीं। कि तभी वकील साहब का एक पुराना जूनियर वकील मोटर साइकिल से उधर से ही गुजरा। ठकुराइन को देख कर ठिठका, नमस्कार किया। रुका और हाल चाल पूछा। कहा कि, ‘जहाँ जाना हो चलिए मैं पहुंचा देता हूँ।’ पर ठकुराइन ने बड़ी शालीनता से पल्लू ठीक करती हुई इंकार कर दिया। बोलीं, ‘जी बहुत मेहरबानी पर मैं रिक्शे से चली जाऊंगी। आप काहें तकलीफ करेंगे?’ कह कर वह वकील को टाल गईं। पर वकील गया नहीं रुका रहा। बोला, ‘अच्छा रिक्शा मिलने तक तो आप का साथ दे सकता हूँ।’

‘हाँ, हाँ क्यों नहीं?’ हलका सा मुसकुरा कर ठकुराइन बोलीं। वकील इधर-उधर की बात करते हुए अनायास ही उनके केस के बारे में बात करने लगा। पूछते-पूछते जिरह करने लगा। हालांकि ठकुराइन उसकी हर जिरह टालती रहीं। पर जूनियर वकील जैसे ढिठाई पर उतर आया, ‘आखि़र कैसा केस है आपका जो इतने बरसों से ख़त्म नहीं हो रहा है। एक्कै कोर्ट में अटका पड़ा है।’

ठकुराइन फिर भी चुप रहीं।

‘अब तक तो केस हाई कोर्ट में पहुँच जाता है अपील में इतने सालों में और आपका केस अभी डिस्ट्रिक्ट जज के पास भी नहीं पहुंचा? आखि़र है क्या?’

‘आप नहीं जानेंगे वकील साहब! बहुत बड़ा मामला है। वह तो वर्मा जी वकील साहब हैं कि बचाए हुए हैं नहीं तो हम तो फंस ही गई थीं।’

‘लेकिन केस है क्या?’ वह जूनियर वकील बोला, ‘आपकी कोई फाइल भी नहीं है चैम्बर में कि हम लोग देखते।’

‘केस बड़ा है इस लिए वकील साहब खुद देखते हैं।’

‘अरे तब भी फाइल कभी तो कोर्ट जाएगी-आएगी। तारीख़ लगेगी।’ वह माथे का पसीना पोंछते हुए बोला, ‘आखि़र केस है क्या?’

‘दफा 604 का।’ ठकुराइन आहिस्ता से बोल पड़ीं।

‘दफा 604?’ वकील भड़का, ‘यही बताया न आपने कि दफा 604!’

‘जी।’ ठकुराइन ऐसे बोलीं जैसे यह बता कर कोई पाप कर बैठी हों। बोलीं, ‘जाने दीजिए। आप जाइए।’

‘हम तो चले जाते हैं मैडम पर दस बारह साल से हम भी इस कचहरी में प्रैक्टिस कर रहे हैं। थाना, एस.पी. भी देख रहे हैं। और आई.पी.सी. भी। तो भारतीय कानून में ऐसी कोई दफा तो है नहीं अभी तक। वह जूनियर वकील बोला, ‘बल्कि आई.पी.सी. में जो अंतिम दफा है वह है दफा 511 बस! तो 604 कहाँ से आ जाएगी?’

‘लेकिन वर्मा जी तो हम को यही बताए थे कि दफा 604 हो गया।’’ ठकुराइन हकबकाती हुई बोलीं।

‘हो सकता है आप के सुनने में गलती हो गई हो।’ जूनियर वकील बोला, ‘ख़ैर, छोड़िए मामला क्या था? हुआ क्या था आप से?’

‘मतलब?’ असमंजस में पड़ती हुई ठकुराइन बोलीं।

‘मतलब यह कि आप से अपराध क्या हुआ था?’

‘बकरी मर गई थी हमारे मारने से। एक खटिक की थी।’

‘ओ हो!’ ताली बजाते हुए जूनियर वकील बोला, ‘मुलेसर खटिक की तो नहीं?’

‘हाँ, लेकिन आप कैसे जानते हैं?’ ठकुराइन फिर अफनाईं।

‘जानता हूँ? अरे पूरी कुंडली जानता हूँ।’

‘कैसे?’

‘कचहरी में तख्ते पर बराबर आता है।’ वह बोला, ‘‘मैडम माफ कीजिए वर्मा साहब ने आप को डंस लिया।’

‘का कह रहे हैं आप?’

‘बताइए चैंबर में आपसे फीस लेते हैं तख्ते पर उस मुलेसर खटिक को फीस देते हैं तो का मुफ्त में? वह बोला, ‘फिर आप भी मैडम इतनी भोली हैं? घर में आगा पीछा कोई नहीं है का?’

‘काहें नाहीं सब कोई है।’

‘तो फिर कोई ये नहीं बताया कि बकरी मारना कोई अपराध नहीं।’

‘पर खटिक की थी।’ वह बोलीं, ‘ऐसा ही वकील साहब बोले थे।’

‘अरे लाखों बकरियां देश में हर घंटे कटती हैं। खटिक की हो या जुलाहा की। कोई दफा किसी पर लगती है क्या?’ वह बोला, ‘चलिए गलती से किसी का नुकसान हो गया तो उसको उसका खर्चा-मुआवजा और अधिक से अधिक बकरी का दाम दे दीजिए। ई का कि फर्जी दफा 604 जो कहीं हइयै नहीं है, उसको सालों साल वकील के चैंबर में लड़िए।’ वह बोला, ‘आप तो मैडम फंस गईं?’

‘का बोल रहे हैं आप। सही-सही बोलिए।’ ठकुराइन जैसे अधमरी हो गईं। बोलीं, ‘‘वकील साहब तो बोले थे कि आदमी मारते हैं तो दफा 302 लगता है, आदमी की बकरी मार दिए तो डबल दफा लगती है दफा 604 और हमको अब तक बचाए भी हैं वो।’

‘आप बड़ी भोली हैं मैडम। आप को बचाए नहीं बेचे हैं। आप को बरगलाए हैं ऊ कानून के बाजार में। जो दफा कहीं भारतीय कानून में है ही नहीं।’ वह बोला, ‘हम पर विश्वास न हो तो आइए कचहरी किसी वकील, किसी जज से दरियाफ्त कर लीजिए!’

‘अब हम का बताएं, कहाँ आएं?’ बोल कर ठकुराइन फफक कर रो पड़ीं। रोते-रोते वहीं सड़क पर सिर पकड़ कर बैठ गईं।

‘आप को हम पर यकीन न हो तो चैंबर में आ कर वर्मा साहब से ही पूछ लीजिए कि यह दफा 604 आई.पी.सी. में कहाँ है? और कि आपका केस किस कोर्ट में चल रहा है? सब कुछ दूध का दूध पानी का पानी हो जाएगा।’ जूनियर वकील बोला, ‘बस भगवान के लिए हमारा नाम मत बोलिएगा। मत बताइएगा कि हमने ई सब बताया है।’ वह बोला, ‘हाँ, जो हम झूठ साबित हो जाएं तो वहीं हमको अपने इस सैंडिल से मारिएगा, हम कुछ नहीं बोलूँगा।’ कह कर वह चलने लगा। बोला, ‘मैडम माफ कीजिए आप के साथ बड़ा भारी अन्याय कर दिया वर्मा साहब ने।’ पर ठकुराइन कुछ नहीं बोलीं। उनके मुंह में शब्द ही नहीं रह गया था। लोग आसमान से जमीन पर ऐसे में आ जाते हैं पर उनको लगता था कि वह आसमान से सीधे पाताल में जा कर डूब गई हैं। उनको गुमसुम देख कर वह वकील बोला, ‘हमारे साथ तो आप मोटर साइकिल पर बैठेंगी नहीं। रुकिए मैं आप के लिए रिक्शा बुलाता हूँ।’ कह कर वह एक रिक्शा बुला कर लाया। ठकुराइन सड़क पर से उठीं, धूल झाड़ती हुई रिक्शे पर बैठीं। उन्होंने गौर किया कि कलफ लगी उनकी क्रीम कलर की साड़ी जगह-जगह काली पड़ गई थी, सड़क पर बैठ जाने से। उस वकील ने जाते-जाते उन्हें फिर नमस्कार किया। बोल कर, ‘मैडम नमस्कार!’ पर मैडम के मुंह से शब्द गायब थे। वह भौंचक थीं। उन्होंने धीरे से दोनों हाथ जोड़ दिए।

‘वर्मा जी ने इतना बड़ा धोखा दिया।’ रिक्शा जब चलने लगा तो वह अपने आप से ही बुदबुदाईं। वह निकली थीं बाजार जाने को पर वापस घर आ गईं। बुढ़िया महरी से पानी माँगा, पानी पी कर लेट गईं। दो दिन तक वह घर में ही पड़ी रहीं। बेसुध!

तीसरे दिन उन्होंने अपने पति का वह पुराना कुर्ता पायजामा फिर से ढूंढा। मिला तो वह जगह-जगह से कट पिट गया था। गईं बाजार, एक नया कुर्ता पायजामा और अंगोछा ख़रीदा। घर आईं पहना। अंगोछा गले में लपेटा, दोनाली बंदूक उठाई और रिक्शा ले कर पहुँच गईं सीधे वर्मा वकील के चैंबर पर। वह धड़घड़ाती हुई घुसीं। मुंशी ने उन का वेश देख कर उन्हें रोका भी कि, ‘साहब प्राइवेट बात कर रहे हैं।’ पर वह मानी नहीं बिन कुछ बोले चैंबर में घुस गईं। जब वह चैंबर में घुसीं तो सोफे पर बैठे वर्मा वकील की गोद में उनकी जूनियर वकील बाल खोले लेटी पड़ी थी और वह उसके स्तनों, कपोलों से खेल रहे थे। ठकुराइन को एक बारगी देख कर पहले तो वह पहचान भी नहीं पाए। दूर छिटक कर हड़बड़ाते हुए बोले, ‘कौन-कौन?’

‘दफा 604 हूँ। पहचाने नहीं?’ ठकुराइन बिलबिलाईं।

‘अरे मैडम आप?’ ठकुराइन के हाथों में बंदूक देख कर घबराए वकील साहब की हलक सूख गई। सूखे गले से बोले, ‘बैठिए-बैठिए! बैठिए तो पहले।’

‘बैठने नहीं आई हूँ। दफा 604 क्या होता है, कहाँ होता है जानने आई हूँ।’ वह घुड़क कर बोलीं।

‘बैठिए तो।’ वकील साहब बोले, ‘शरीफ इज्जतदार महिला हैं आप। बैठिए तो।’

‘शरीफ और इज्जतदार? मैं हूँ?’ वह बोलीं, ‘यह आप बोल रहे हैं?’

‘अरे बैठिए तो!’ वह बोले तब तक जूनियर वकील लड़की अपने कपड़े लत्ते ठीक-ठाक कर धीरे से सरक कर चैंबर से बाहर निकल गई। फिर चैंबर में मुंशी और जूनियर वकील भी आ पहुंचे। शोरगुल सुन कर घर के लोग भी आ गए। वकिलाइन भी। ठकुराइन का यह नया रूप देख कर वह भी ठक हो गईं। बड़ी मुश्किल से घर की औरतों और मुंशी ने मिल कर ठकुराइन को काबू किया। पर ठकुराइन लगातार दफा 604 की किताब माँगती रहीं, किस कोर्ट में उनका केस चल रहा है उस कोर्ट और जज का नाम पूछती रहीं। पर ठकुराइन के किसी भी सवाल का जवाब वकील साहब के पास नहीं था। वह कहने लगे, ‘मैडम इस समय आप अशांत हैं। जाइए घर पर आराम कीजिए। शांत हो कर आइएगा तब बात करेंगे।’

‘अच्छा छोड़िए।’ ठकुराइन वकिलाइन को खींचती हुई बोलीं, ‘आप ही इनसे पूछिए और जरा शांति से पूछिए कि बकरी मारने का जुर्म क्या होता है दफा 604? और नहीं तो फिर क्या होता है।’

‘हम कानून नहीं जानतीं।’ वकिलाइन डरी सहमी बोलीं।

‘अच्छा झूठे ही बहला फुसला कर किसी शरीफ औरत को रंडी बना दिया जाए, रखैल बना लिया जाए, इस अपराध का क्या कानून होता है। यह तो जानती होंगी?’ ठकुराइन सिसकते हुए दहाड़ीं। पर वकिलाइन सब कुछ समझते हुए भी चुप रहीं।

‘मैं हूँ इस वर्मा वकील की रखैल!’ ठकुराइन बोलीं, ‘दफा 604 की मुजरिम जो इस वर्मा ने बनाया और मुझे इस दफा से बचाते-बचाते मुझ बेवा औरत को रंडी बना दिया, रखैल बना लिया। मेरे ही खर्चे पर। और अपनी फीस भी लेता रहा दफा 604 से बचाने के लिए।’ वह बिफरीं, ‘बताइए इतने सालों तक यह दोखी मुझे लूटता रहा। मैं क्या करूं? हे भगवान।’ कह कर वह फफक कर रो पड़ीं। फिर बंदूक उठाई। ट्रिगर दबाया वर्मा वकील को निशाना बना कर। सब लोग मारे डर के एक तरफ हो गए। पर गोली नहीं चली। इस अफरा तफरी में किसी ने धीरे से गोलियां बंदूक से निकाल दी थीं। ठकुराइन हैरान थीं। गोली निकल गई है वह फौरन समझ गईं। उन्होंने आव देखा न ताव बंदूक पलटी और उसकी बट से ही वर्मा वकील पर धड़ाधड़ प्रहार किए। उस बकरी से भी ज्यादा प्रेशर का प्रहार! वर्मा जी का सिर फूट गया और मुंह भी। दौड़ कर लोगों ने ठकुराइन को पकड़ा। वकील साहब को बचा कर चैंबर से बाहर ले गए। ठकुराइन को समझाया बुझाया। उन्हें उनके घर भेजा। और वकील साहब को अस्पताल।

डाक्टरों ने बताया कि वकील साहब को हेड इंजरी हो गई है और वह कोमा में चल गए हैं। अब वकिलाइन दहाड़ मार कर रो पड़ीं। डाक्टरों ने उन्हें सांत्वना दी। दो दिन बाद वकील साहब होश में आ गए।

पर उधर पता चला कि ठकुराइन पागल हो गई हैं वह काला कोट पहने गले में फीता बांधे देख किसी को भी देखतीं, पत्थर, डंडा जो भी मिलता चला देतीं। दस पंद्रह वकील इस तरह घायल हो चुके थे। यह भी पता चला कि यह पता चलते ही ठकुराइन के जेठ, देवर फौरन शहर आ गए। उन्हें मानसिक चिकित्सालय में भरती करा दिया। और उनके इलाज पर तो उतना ध्यान नहीं दिया जितना इस बात पर कि वह लोग उनकी जायदाद के वारिस हैं। और ठकुराइन के जेठ, देवर के इस कानूनी दांव पेंच में भी ठकुराइन के खि़लाफ खड़े हुए यही वर्मा वकील।

बाद के दिनों में पागलपन के बिना पर ठकुराइन की जमीन जायदाद उनके जेठ, देवर ने अपने नाम करवा ली। और ठकुराइन फिर पागलखाने से बाहर आ गईं। कभी कुर्ता-पायजामा तो कभी पैंट कमीज पहने वह शहर की सड़कों पर नजर आतीं जिस तिस वकील को पत्थर ईटें मारती हुई। लोग उन्हें देखते ही कहते, ‘भागो भइया दफा 604 आ गई।’ और वह भी ईटें, पत्थर किसी पर भी चलाती हुई चिल्लातीं, ‘लो दफा 604 हो गया!’

और अब इन्हीं वर्मा वकील का बेटा अनूप लोक कवि को वीडियो अलबम बनाने का झांसा दे कर उन्हें फंसा रहा था। और फिलहाल मोबाइल फोन ख़रीदने की जुगत उन्हें बता रहा था। चेयरमैन साहब ने लोक कवि को आगाह भी किया कि, ‘जैसे बाप ने दफा 302 को डबल कर 604 में तब्दील कर उस ठकुराइन को पागल बना दिया वैसे ही उस चार सौ बीस वकील का यह बेटा भी उसका डबल यानी आठ सौ चालीस है तुम्हें खा जाएगा!’ लेकिन चेयरमैन साहब की हर अच्छी बुरी बात मान लेने वाले लोक कवि ने उन की इस बात पर जाने क्यों कान नहीं दिया।

अनूप ने अंततः लोक कवि को ऊषा का एक सेलुलर फोन ख़रीदवा दिया। सिम कार्ड डलवा कर लोक कवि सेलुलर फोन ऐसे इस्तेमाल करते गोया हाथ में फोन नहीं रिवाल्वर हो। बात भी वह बहुत संक्षिप्त करते और बात कई बार पूरी भी नहीं हो पाती तो भी वह खट से काट देते। लेकिन एक बार बंबई में कोई प्रोग्राम करने के बाद लोक कवि वापस आ रहे थे तो उन का यह सेलुलर फोन गायब हो गया। लोग पूछते भी कि, ‘कैसे गायब हो गया?’ तो लोक कवि बताते, ‘पी के टुन्न हो गया था, ट्रेन में कौनो मार लिया।’

‘कौन मार लिया?’ सवाल का जवाब अमूमन लोक कवि टाल जाते। लेकिन ग्रुप के अधिकतर कलाकारों का मानना था कि मोबाइल अनूप ने ही चुराया। दिक्कत यह थी कि लोक कवि का इस बार सिर्फ मोबाइल ही नहीं दस हजार रुपया भी साथ ही गायब हुआ। लेकिन रुपए के लिए लोग अनूप का नहीं मीनू का नाम बताते।

जो भी हो लोक कवि ने न तो अनूप से कुछ कहा न ही मीनू से। अनूप से तो उन्हें उतनी तकलीफ नहीं हुई जितनी कि मीनू से हुई। मीनू जिसके लिए उन्होंने क्या कुछ नहीं किया था? दो कमरे का छोटा ही सही एल.डी.ए. का एक मकान ख़रीद कर न सिर्फ दिया था बल्कि उसकी पूरी गिरस्ती बसाई थी। प्रोग्रामों के फेर में हाँलैंड, इंगलैंड, बैंकाक, अमरीका, मारीशस, सूरीनाम जैसे कई देश घुमाया। मर्द ने छोड़ दिया तो उसको पूरा आसरा दिया। और तो और एक बार न जाने किसका गर्भ पेट में उसके आ गया तो उसने जाने कहाँ गुप चुप एबॉर्शन करवाया जो ठीक से हुआ नहीं और भ्रूण पूरी तरह नष्ट नहीं हुआ, कोई कण बच्चेदानी में ही रह गया। उसकी जान सांसत में फंस गई। लगा कि बच नहीं पाएगी। ऐसे में भी लोक कवि ने दिल्ली ले जा कर उसका इलाज एक एक्सपर्ट डाक्टर से करवाया तब कहीं जा कर वह बची थी। लोक कवि ने पानी की तरह पैसा बहा कर उसकी जान बचाई थी, लगभग उसे नया जीवन दिया था। इस तरह जिसे जीवन दिया, आसरा दिया, अपने ग्रुप में स्टार कलाकार की हैसियत दी, कई विदेश यात्राएं कराईं। वह मीनू धोखे से उनका रुपया चुरा ले? वह मीनू जिसे वह अपना मन भी देते थे। वह मीनू? तकलीफ उन्हें बहुत हुई पर मन ही मन पी गए वह सारी तकलीफ। किसी से कुछ कहा नहीं। कहते भी तो क्या कहते? चुप ही रहे। लेकिन मन ही मन टीसते रहे।

उन्होंने अब नया मोबाइल फोन ख़रीद लिया था। चोरी न जाए इस लिए चौकन्ना बहुत हो गए थे। लेकिन जल्दी ही यह नया मोबाइल भी उनके कैंप रेजीडेंस से ही एक रात गायब हो गया। फिर उन्होंने तीसरा मोबाइल फोन ख़रीदा। लेकिन सेकेंड हैंड। अनूप ने ही ख़रीदवाया। लोक कवि जानते थे कि यह भी चोरी हो जाएगा। फिर भी ख़रीदा। हालांकि मोबाइल फोन की बहुत उपयोगिता उनके पास थी नहीं। क्योंकि ज्यादातर वह कार्यक्रमों में व्यस्त रहते जहाँ वह मोबाइल सुन नहीं पाते। डिस्टर्ब होते वह फोन से। ध्यान टूट जाता। दूसरे, संगीत के शोर में ठीक से सुनाई नहीं देता। और जब कार्यक्रम नहीं होता तब वह अमूमन अपने कैंप रेजीडेंस पर ही होते और यहाँ उनके पास टेलीफोन था ही। तो भी स्टेटस सिंबल मान कर वह मोबाइल फोन रखते। सोचते कि अगर लोग उनके हाथ में मोबाइल फोन नहीं देखेंगे तो मान लेंगे कि आमदनी कम हो गई है, मार्केट ठंडा पड़ गई है इसलिए मोबाइल फोन बिका गया। हैसियत नहीं रही। अमूमन जमीनी हकीकत पर रहने वाले और जिंदगी की हकीकत को अपने गानों में ढालने वाले लोक कवि दिखावे की नाक मेनटेन करने लगे थे। यह उन को खुद भी बुरा लगता था, लेकिन फिलहाल तो वह फंस गए थे। हालांकि उन्होंने यह भी ऐलान कर दिया था कि, ‘अबकी जो मोबाइल चोरी हुआ तो फेर नहीं ख़रीदूँगा!’ फिर वह जैसे खुद को तसल्ली देते, ‘फिर ई सेकेंड हैंड मोबाइल कोई चोरी करेगा क्या?’ लेकिन यह भ्रम भी उनका टूटा और जल्दी ही टूटा। यह सेकेंड हैंड मोबाइल भी चोरी हो गया।

लेकिन अपने ऐलान के मुताबिक उन्होंने फिर चौथा मोबाइल नहीं ख़रीदा।

फिर भी वह परेशान थे चोरियों से। अब उनके यहाँ तरह-तरह की चोरियां होने लगी थीं। इस कैंप रेजीडेंस में उनका जांघिया अंगोछा तक सुरक्षित नहीं रह गया था। कई-कई जोड़े वह रखते जांघिया, अंगोछे के फिर भी कई बार उन के लिए जांघिया अंगोछे का अकाल पड़ जाता। एक बार एक लड़की को उन्होंने पकड़ा भी रंगे हाथ तो वह बोली, ‘मासिक आ गया है गुरु जी, बांधना है!’ तो वह डपटे भी, ‘तो हमारा ही जांघिया, अंगोछा बांधोगी?’ वह बोली, ‘आखि़र का बांधें गुरु जी, कुर्ता पायजामा तो आपका बांध नहीं सकती!’ लोक कवि यह सुन कर निरुत्तर हो गए। उसे पैसे देते हुए बोले, ‘केयर फ्री टाइप कुछ मंगवा लो। वही बांधो!’

तो भी वह आए दिन की चोरियों से परेशान हो गए थे। पैसा, कुरता, पायजामा कुछ भी नहीं बचता। बिस्तर की चद्दर तक गायब होने लगी थी। वह कहते भी कि, ‘असल में ई लड़कियां गरीब परिवार से आती हैं तो अपने बाप भाई के लिए अंगोछा, जांघिया उठा ले जाती हैं, बिस्तर की चद्दर भी ले जाती हैं। पइसा कौड़ी भी ले जाती हैं तो चलिए बरदाश्त कर लेता हूँ। पर इसका का करूं कि सम्मान में मिली शाल भी मंचवे पर से गायब हो जाती है!’ वह बिफरते, ‘बताइए सम्मान की शाल भोंसड़ी की सब चुरा लेती हैं! यही बात खटकती है।’ वह जैसे जोड़ते, ‘गरीबी का मतलब ई थोड़े है कि जिससे रोजी रोटी मिले उसी के घर चोरी करो!’ वह बोलते, ‘ई तो पाप है पाप। अरे, हम भी गरीबी देखा हूँ, भयंकर गरीबी। चूहा मार के खाते थे, बकिर चोरी नहीं किया कभी।’ वह कहते, ‘आज भी जब कभी हवाई जहाज पर चढ़ता हूँ उड़ते हुए नीचे देखता हूँ तो रोता हूँ। काहें से कि अपनी गरीबी याद आ जाती है। पर हम कबो चोरी नहीं किए!’