लोक कवि अब गाते नहीं / पृष्ठ 18 / दयानंद पाण्डेय
लेकिन लोक कवि चाहे जो कहें उनके यहाँ चोरी चौतरफा चालू थी। और अब तो उनके कुछ शिष्य कलाकार जो अलग ग्रुप बना लिए थे, लोक कवि का ही गाना गाते थे और गाने के आखि़र में तखल्लुस के तौर पर जहाँ लोक कवि का नाम आता था वहाँ से लोक कवि का नाम हटा कर अपना नाम जोड़ कर गा देते थे। पहले भी कुछ शिष्य ऐसा करते थे पर कभी कभार और चोरी छुपे। पर अब तो अकसर और खुल्लमखुल्ला। लोक कवि से इस बात की कोई शिकायत करता तो वह दुखी तो होते पर कहते, ‘जाने दीजिए सब कइसो कमा खा रहे हैं, जीने खाने दीजिए!’ पर जब कोई फिर भी प्रतिवाद करता तो वह कहते, ‘हमारे गाने में कोई अपना नाम खोंस लेता है तो गाना तो उसका नहीं न हो जाता है? एह गाना का कैसेट है बाजार में हमारे नाम से। लोग जानते सुनते हैं गानों को हमारे नाम से।’
‘तो भी!’ कहने वाला फिर भी प्रतिवाद करता।
‘तो भी?’ कह कर वह बिगड़ जाते, ‘चलिए इस कलाकार को तो हम बुला कर डांट दूँगा। बकिर किस-किस को डांटता फिरूंगा?’
‘का मतलब?’
‘मतलब ई कि बंबई से ले कर पटना तक हमारे गानों की चोरी हो रही है। हमारे ही गानों की धुन, हमारे ही गाने को भोजपुरी से बदल कर हिंदी में केहू से लिखवा-गवा कर फिल्मों में गोविंदा हीरो बने नाच रहे हैं तो हम का करूं? कई लोग भोजपुरियै में एने वोने बदल कर गा रहे हैं तो हम का करूं? केसे-केसे झगड़ा-लड़ाई करूं?’ उनकी तकलीफ जैसे उन की जबान पर आ जाती, ‘अब जब गाना सुनने वालों को ही फिकिर नहीं है तो अकेले हम का करूंगा?’ फिर वह अपने गानों की एक लंबी फेहरिस्त गिना जाते कि कौन-कौन से गाने फिल्मों में चुरा लिए गए। तब जब कि इन गानों के कैसेट पहले ही से बाजार में थे। फिर वह बड़ी तकलीफ से बताते, ‘बकिर क्या कीजिएगा भोजपुरी गरीब गंवार की भाषा है। कोई इस के साथ कुछ भी कर ले भोजपुरिहा लोग चुप लगा जाते हैं। जइसे गरीब की लुगाई है भोजपुरी सो सबकी भौजाई है।’ वह रुकते नहीं बोलते जाते, ‘लाल बहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री हुए। पाकिस्तान को हरा दिए, देश को जिता दिए लेकिन भोजपुरी को जिताने की फिकिर नहीं की। चंद्रशेखर जी अपने बलिया वाले, अमरीका के जहाज को तेल दे दिए इराक की लड़ाई में बकिर भोजपुरी को सांस नहीं दे पाए। कुछ हजार लोगों की बोली डोगरी को, नेपाली को संविधान में बुला लिए लेकिन भोजपुरी को भुला गए। तो केहू कुछ बोला का?’
उनका इशारा संविधान की आठवीं अनुसूची में भोजपुरी को शामिल नहीं करने की ओर होता। वह कहते, ‘राष्ट्रपति थे बाबू राजेंदर प्रसाद। पटना के थे, भोजपुरी में ही खाते-पीते, बतियाते थे, उहो कुछ नहीं किए। एक से एक बड़े-बड़े नेता भोजपुरिहा हैं बकिर भोजपुरी ख़ातिर सब मरे हुए हैं। तब जब कि करोड़ों लोग भोजपुरी बोलते हैं, गाते हैं, सुनते हैं। हालैंड, मारीशस, सूरीनाम में भोजपुरी जिंदा है, ऊ लोग जिंदा रखे हैं जो लोग इहाँ से बंधुआ मजूर बन के गए थे बकिर इहाँ लोग भुला गए हैं।’ वह कहते, ‘आज कल एतना टी.वी. चैनल खुले हैं, पंजाबी, कन्नड़, बंगाली, मद्रासी, यहाँ तक कि उर्दू में भी पर एक्कौ चैनल भोजपुरी में काहे नहीं खुला?’ वह जैसे पूछते, ‘भोजपुरी में प्रतिभा नहीं है? कि गाना नहीं है? कि नेता नहीं हैं? कि पइसा वाला लोग नहीं हैं? फिर भी नहीं खुला है भोजपुरी में चैनल। दूरदर्शन, आकाशवाणी वाले भी जेतना समय और भाषाओं को देते हैं भोजपुरी को कहाँ देते हैं?’ कहते-कहते लोककवि बिलबिला जाते। अफना जाते। कहने लगते, ‘बताइए अब पंजाबी गानों में दलेर मेंहदी आरा हिले, बलिया हिले, छपरा हिलेला दू लाइन गा देते हैं तो लोगों को नीक लगता है। मोसल्लम भोजपुरी में फिर काहे नाहीं सुनते हैं लोग? जानते हैं क्यों? वह जैसे पूछते और खुद ही जवाब भी देते, ‘एह नाते कि भोजपुरिहा लोगों में अपनी भाषा के प्रति भावना नहीं है। एही लिए भोजपुरी भाषा मर रही है।’
फिर वह बात ले दे कर भोजपुरी एलबम और सी.डी. पर ला कर पटक देते। कहते कि, ‘पंजाबी गानों के एतने अलबम टी.वी. पर दिखाए जाते हैं लेकिन भोजपुरी के नहीं। क्योंकि भोजपुरी में अलबम बने ही नहीं। एकाध छिटपुट बने भी होंगे तो हमको पता नहीं।’ कह कर वह पूरी तरह निराश हो जाते। और उनकी इसी निराशा को विश्राम देता अनूप कि, ‘घबराइए नहीं गुरु जी’ हम आप का वीडियो शूटिंग कर एलबम बनाएंगे।’’ और लोक कवि यह जानते हुए कि यह साला ठगी बतिया रहा है, उसकी ठगी में समा कर चहकने लगते। वह जैसे उसके वशीभूत हो जाते।
कई बार कुछ गंवा कर भी पाने की तरकीब आजमा कर सफल हो जाने वाले लोक कवि को बार-बार लगता कि अनूप उन्हें सिवाय लूटने के कुछ नहीं कर रहा। पर वह होता है न कि कुछ सपने किसी भी कीमत पर आदमी जोड़ता है भले ही उस सपने के सांचों में फिट न बैठे और निरंतर टूटता ही जाए फिर भी सपना न तोड़ना चाहे! लोक कवि यही कर रहे थे और टूटते जा रहे थे। हंसते-हंसते। बाखुशी।
यह टूटना भी अजीब था उन का।
जाने यह टूटना उनका भोजपुरी भाषा की बढ़ती दुर्दशा को लेकर था या एलबम, सी.डी. के बाजार में अपनी अनुपस्थिति को लेकर था यह समझ पाना खुद लोक कवि के भी वश का नहीं था। उनके वश में तो अब अपने कैंप रेजींडेंस में बढ़ती चोरी को रोक पाना भी नहीं था। बात अब पैसा, कपड़ा-लत्ता और मोबाइल तक ही नहीं रह गई थी।
अब तो गैस सिलिंडर तक उनके यहाँ से चोरी होने लगे थे। इस चोरी को रोकने के लिए वह कोई प्रभावी कदम नहीं उठा पा रहे थे। इसलिए भी कि लड़कियां उनकी बड़ी कमजोरी बन चली थीं। और कमजोर क्षणों में कोई भी लड़की उनका कुछ भी ले सकती थी, माँग सकती थी। कभी सीधे-सीध तो कभी चोरी छुपे, तो कभी-कभार सीनाजोरी से भी। कई बार तो वह पी कर टुन्न रहते और कोई लड़की मौका देख कर उन की कमजोर नस छूते हुए पूछ लेती,’ गुरु जी, यह चीज हमको दे दीजिए।’ या ‘गुरु जी दस हजार रुपया हमको दे दीजिए!’’ या ‘गुरु जी हम तो फला चीज ले जा रहे हैं।’ जैसे जुमलों को बोल कर कभी धीरे से, कभी फुसफुसा कर ले लेती और लोक कवि कभी ना नुकुर नहीं करते, फराख़ दिल बन बैठते और अंततः मामला चोरी के खाते में दर्ज हो जाता। कई बार यह भी होता कि लोक कवि टुन्नावस्था में सो रहे होते, या अधजगे या अधलेटे होते तो लड़कियां या चेले भी ‘प्रणाम गुरु जी!’ बोल कर कमरे में घुसते। इधर-उधर ताकते झाँकते। गुरु जी का कोई प्रति उत्तर न पा कर भी उनका पैर छूते। लोक कवि फिर भी टुन्न पड़े रहते और बोलते नहीं तो चेले या लड़कियां जो भी होते बोलते, ‘लगता है गुरु जी सो गए हैं का?’ फिर भी वह नहीं बोलते तो अपनी सुविधा से वांछित चीज उठा लेते और लेकर निकल लेते यह बोलते हुए, ‘गुरु जी सो गए हैं!’ ‘यह सारे तथ्य, संवाद मय अभिनय के लोक कवि बाकायदा छटक-छटक कर चलते हुए सदृश्य बताते भी। लेकिन किस दिन कौन था, क्या ले गया यह बात वह अमूमन गोल कर जाते। कोई बहुत कुरेदता भी तो वह बात टाल जाते। कहते, ‘जाने दीजिए! अरे, यही सब तो मेहनत करते हैं।’ लड़कियों के लिए कहते, ‘अरे यही सब तो गांड़ हिला-हिला कर नाचती हैं। इन्हीं सबों के बूते तो हमारे पास पोरोगरामों की इतनी बाढ़ लगी रहती है!’
‘क्यों? आप नहीं गाते हैं?’ एक दिन उस ठाकुर पत्रकार ने सवालिया निगाह दौड़ाते हुए कहा, ‘टीम भी आप के नाम से है। आप ही बुक होते हैं। आप ही के नाम से यह सब खाती कमाती हैं।’
‘का बोल रहे हैं बाऊ साहब!’
‘क्यों?’ बाबू साहब गिलास की शराब देह में ढकेलते हुए बोले, ‘मैं तो तथ्य बता रहा हूँ।’
‘अइसेहीं अख़बार में रिपोर्टिंग करते हैं आप?’ लोक कवि ने थोड़ा मुसकुराते, हलका सा तरेरते और मीठी मार बोलते हुए अपना सवाल दुहराया, ‘अइसेहीं अख़बार में रिपोर्टिंग करते हैं आप?’
‘क्या मतलब?’ बाबू साहब अचकचाए।
‘मतलब ई कि आप कुछ नहीं जानते हैं।’ लोक कवि बोले तो मिठास घोल कर पर ऐसे जैसे तमाचा मार रहे हों।
‘क्या मतलब?’
‘अब जाने भी दीजिए।’ लोक कवि बोले, ‘कुछ और बात कीजिए।’
‘और क्या बात करें?’
‘कुछ विकास की बात करिए, कुछ राजनीति का बात करिए।’
‘क्यों?’
‘कुछ भी करिए बकिर ई गाना और लड़कियों की बात छोड़ दीजिए!’
‘गाने और लड़कियों की बात तो मैं कर भी नहीं रहा। मैं तो कह रहा था कि आप ही के नाम से सब कुछ होता है। आपका नाम बिकता है। बस! यही तो मैं कह रहा था!’ बाबू साहब अपने को जस्टीफाई करते हुए बोले, ‘और आप मेरी अख़बार में रिपोर्टिंग की बात करने लगे।’ वह बोले, ‘अख़बार में तो मैं दोगलई वाली रिपोर्टिंग करता ही हूँ। थोड़े से सच में ज्यादा गप्प और ज्यादा गप्प में थोड़ा सा सच। और कई बार सारे झूठ को सारा सच बता कर। पर यह तो अख़बारी नौकरी की विवशता है। कई बार अनचाहे करता हूँ तो एकाध बार अपने मन से भी।’ वह बोले, ‘पर लोक कवि आप का नाम बिकता है यह तो पूरा सच बोल रहा हूँ। और कोई नौकरी में नहीं, किसी दबाव में नहीं बल्कि पूरे मन से बोल रहा हूँ।’
‘बोल चुके आप?’ लोक कवि संक्षिप्त सा बोले।
‘बिलकुल!’ बाबू साहब बोले, ‘पर आगे भी बोलूँगा और यही बात बोलूँगा। क्योंकि यही सच है। वास्तविकता है!’
‘सच यह नहीं है!’ लोक कवि बुदबुदाए, ‘आप को तीन पेग में ही आज चढ़ गई है।’
‘नहीं बिलकुल नहीं चढ़ी। चढ़ गई हो शराब तो हराम है शराब मेरे लिए।’ वह बोले, ‘लोक कवि! आफ्टर आल आप मेरी मातृभाषा गाते हैं। और लखनऊ में मेरी मातृभाषा को परवान चढ़ाए हुए हैं।’
‘सब गलत।’
‘तो आप का नाम नहीं बिकता?’ बाबू साहब लोक कवि से बोले, ‘मुझे नहीं आप को चढ़ गई है।’
‘मैंने तो अभी छुई भी नहीं।’ लोक कवि बोले, ‘अभी नहाऊंगा। नहाने के बाद पिऊंगा।’
‘तो फिर क्यों बहकी-बहकी बातें कर रहे हैं?’
‘बहकी-बहकी बातें मैं नहीं, आप कर रहे हैं।’ लोक कवि बोले, ‘आप की मातृभाषा भोजपुरी को मैं गाता हूँ सही है। पर मुझे सुनता कौन है?’
‘क्या?’
‘हाँ!’ लोक कवि बोले, ‘जानते हैं लोग पोरोगराम बुक करने मेरे पास आते जरूर हैं पर सट्टा करने के पहले पूछते हैं कि लड़कियां कितनी होंगी? यह नहीं पूछते कि आप कितना गाना गाएंगे? फिर लड़कियों की संख्या पर ही सट्टा और रेट तय होता है।’ लोक कवि बोले, ‘जैसे रैलियों में बड़का नेता लोग लोकल नेताओं से पूछते हैं कि भीड़ कितनी होगी? वैसे ही पोरोगराम बुक करने वाले पूछते हैं लड़कियां कितनी होंगी? पोरोगराम के लिए पहुंचिए तो छूटते ही पूछते हैं लड़कियां कितनी आई हैं? वह चाहे होली, दीवाली का पोरोगराम हो, चाहे नए साल का या जन्माष्टमी, शादी बियाह का! और अब तो सरकारी पोरोगरामों में भी दबी जबान, फुसफुसा कर ही सही लोग लड़कियों के बारे में दरियाफ्त करते हैं।’ लोक कवि बोले, ‘और जानेंगे? पोरोगराम में जनता भी लड़कियों का डांस ज्यादा देखना चाहती है वह भी धक्का मार सेक्सी डांस। मैं तो कभी कभार तब गाता हूँ जब लड़कियां कपड़े चेंज कर रही होती हैं या सुस्ता रही होती हैं। तो वोही में एहर वोहर करके दूइ चार गाने मैं भी ठोंक देता हूँ।’ वह बोले, ‘और इनाम मेरे गाना गाने पर नहीं, मेरे ही गाने के कैसेट पर डांस करती लड़कियों के डांस पर आते हैं। और कई बार तो सट्टे के तय रुपए से ज्यादा रुपए इनाम के आ जाते हैं।’ लोक कवि आँखें तरेर कर बोले, ‘तो का ई इनाम आप समझते हैं आप की मातृभाषा के गानों को मिलते हैं? कि लड़कियों के सेक्सी डांस को?’ वह बोले, ‘आप ही तय कर लीजिए मैं कुछ नहीं बोलूँगा।’
‘क्या कह रहे हैं लोक कवि आप?’
‘यही कि अब मैं नहीं गाता हूँ।’
‘तो क्या करते हैं आप?’
‘पोरोगराम करता हूँ।’ वह बोले ऐसे जैसे अपने ही को परास्त कर चुके हों।
‘यह तो बड़ा दुखद है लोक कवि!’
‘अब बात दुख का रहे चाहे सुख का बकिर है यही!’ लोक कवि बोले ऐसे जैसे वह लुट गए हों।
‘तो आप अपने प्रोगामों में से लड़कियों को हटा क्यों नहीं देते?’
‘हटा दें?’ लोक कवि अर्थभरी लेकिन धीमी मुसकान फेंकते हुए बोले।
‘बिलकुल।’ बाबू साहब ठनक कर बोले।
‘मनो हमको बिलवा देंगे?’
‘क्या मतलब?’
‘मतलब ई कि अगर लड़कियों को मैं अपने पोरोगरामों में से हटा दूँगा तो हमारा काम तो ठप समझिए!’
‘क्यों?’
‘क्यों क्या?’ लोक कवि बोले, ‘अरे बाऊ साहब लड़कियां नहीं रहेंगी तो हमको फिर पूछेगा कौन? कौन सुनेगा आप की मातृभाषा? आप की मरी हुई मातृभाषा?’
‘क्या बक रहे हैं आप?’ बाबू साहब अब चौथा पेग ख़त्म करते हुए बोले, ‘और बार-बार आप की मातृभाषा, आप की मातृभाषा कह-कह कर मेरा उपहास उड़ा रहे हैं यह बंद कीजिए।’ वह बोले, ‘भोजपुरी मेरी ही नहीं आप की भी मातृभाषा है!’
‘मेरी तो रोजी रोटी भी है भोजपुरी!’ लोक कवि बोले, ‘मेरा नाम, सम्मान इसी भाषा के नाते है! मैं क्यों उपहास उड़ाऊंगा बाऊ साहब। मैं तो बस आप को जमीनी हकीकत बता रहा था कि आप समझ जाएं बकिर....’
‘बकिर क्या?’
‘बकिर दोगली रिपोर्टिंग करते-करते आप की आँख अन्हरा गई है। सच नहीं देखती, सो वही बता रहा था।’ वह बोले, ‘जानते हैं जो आज लड़कियों का डांस हटा दूं और ख़ाली बिरहा गाऊं तो जो आज महीने में पंद्रह से बीस दिन बुक होता हूँ साल में भी शायद एतनी बुकिंग नहीं मिलेगी। जो मिलेगी भी वह भी सिर्फ सरकारी।’ वह बोले, ‘बाऊ साहब एक मजेदार बात और बताऊं आप को?’
‘क्या?’
‘जानते हैं लड़कियां जब डांस करते-करते थक जाती हैं, रात के तीन चार बज जाते हैं, पब्लिक फिर भी नहीं छोड़ती तो क्या करता हूँ?’
‘क्या?’
‘मैं मंच पर आ के कान में अंगुली डाल के बिरहा गाने लगता हूँ। पब्लिक उकता जाती है। धीरे-धीरे खदबदाने लगती है। फिर भी उम्मीद लगाए रहती है कि अभी अगला आइटम फिर डांस का या डुवेट का होगा। लेकिन मैं अगले आइटम में किसी लौंडे से भजन गवाने लगता हूँ। वह दो तीन भजन ताबड़ तोड़ ठोंक देता है। तब कहीं जा के पब्लिक से छुट्टी मिलती है।’ वह बोले, ‘भोजपुरी और भजन की स्थिति यह है हमारे समाज में। आप भी जान लीजिए, आप पहरूआ हैं समाज के इसलिए बता दिया।’
‘यह तो सचमुच बड़ी मुश्किल स्थिति है।’
‘इस मुश्किल स्थिति से आखि़र कैसे निपटा जाए?’ लोक कवि बोले, ‘इस तरह मरती हुई भोजपुरी में कैसे जान फूंकी जाए?’ वह बोले, ‘आप बुद्धिजीवी हैं, विद्वान हैं, अख़बार में हैं। आप ही लोग कुछ सोचिए।’ कह कर लोक कवि अपनी छत पर रखे बाथ टब में नहाने चले गए। बाबू साहब की दारू थम गई। वह सकते में आ गए। लोक कवि की त्रासदी और अपनी मातृभाषा की दुर्दशा को ले कर। उन्हें अपनी मातृभाषा पर बड़ा गुमान था। भोजपुरी की मिठास, इसका लालित्य और इसकी रेंज का बखान वह करते नहीं अघाते थे। दो दिन पहले ही तो प्रेस क्लब में उन्होंने अपनी मातृभाषा का झंडा ऊंचा किया था। पंजाबी साथियों से उन्होंने बीयर पीते हुए बघारा था कि तुम्हारे यहाँ क्या है सिवाए बल्ले-बल्ले और भांगड़ा के? हमारी भोजपुरी में आओ, सब कुछ है यहाँ। जितने संस्कार गीत भोजपुरी में हैं किसी भाषा में नहीं हैं और आदमी बनता है संस्कार से। बात ज्यादा जब बढ़ी तो वह बोले चइता, कजरी, सोहर, लचारी तो छोड़ो भोजपुरी में श्रम गीत ही इतने हैं कि तुम लोग सुनते-सुनते थक जाओ। कहा था कि एक मरने को छोड़ दो तो भोजपुरी में हर समय, हर काम के लिए गीत हैं। चाहे जांत का गीत हो, फसल का हो, मेला बाजार जाने का हो हरदम गीत गाओ। शादी का उदाहरण देते हुए हाँका था कि तुम्हारे यहाँ तो सिर्फ लेडीज संगीत से छुट्टी पा ली जाती है लेकिन भोजपुरी में एक-एक कस्टम के लिए गीत हैं जो भोर में भोरहरी से शुरू हो संझवाती से होते हुए सोने तक चलते हैं। और एक दो दिन नहीं, कई-कई दिन तक। यहाँ तक कि बारातियों के खाना खाने के समय भी गारी गीत गाए जाते हैं। शादी ख़त्म होने के बाद भी पांच दिन तक गीतों का कार्यक्रम चलता है। उसने उदाहरण दे-दे कर बताया था। तब वह सब लाचार हो गए थे और कहने लगे कि, ‘हो सकता है पंजाब के गांवों में हमारी पंजाबी में भी यह सब चलता हो पर हमें मालूम नहीं।’ तो एक बुंदेलखंडी पत्रकार उछलता हुआ बोला, ‘हमारे बुंदेलखंड में भी है!’
‘क्या है?’ कह कर बाबू साहब ने उस बुंदेलखंडी को मजाक में दौड़ाया था और पूछा था और जरा ऊंची आवाज में पूछा था कि, ‘सिवाय आल्हा गायन के अलावा क्या है बुंदेलखंड में?’ वह भी निरुत्तर हो गया था। पर जिस भोजपुरी की वीरगाथा उस रोज प्रेस क्लब में उन्होंने गाई थी क्या वह गाथा गलत थी? या कि लोक कवि के सवाल गलत हैं? उनके द्वारा बताए गए ब्यौरे गलत हैं?
गलत हैं या सही? कौन सही और कौन गलत में अभी बाऊ साहब सुलग ही रहे थे कि लोक कवि अंगोछा लपेट आ कर कुर्सी में धप्प से बैठ गए। बोले, ‘का बाऊ साहब आप ले क्यों नहीं रहे?’ उन्होंने ह्विस्की की ओर इशारा करते हुए कहा और अपना पेग बनाने लगे। बोले, ‘आप भी लीजिए।’
‘क्या लें आपने तो सारा नशा ही उतार दिया!’
‘क्या?’
‘क्या-क्या बताऊं?’ वह बोले, ‘मैं ऐसे कई लोगों के बारे में जानता हूँ जो या तो अंगरेजी बोलते हैं या भोजपुरी। हिंदी नहीं जानते पर भोजपुरी जानते हैं। और आज आपने जो भोजपुरी का नक्शा खींचा है, मैं तो दहल गया हूँ।’
‘इसमें दहलने की क्या बात है?’ वह बोले, ‘स्थिति ख़राब है तो इसे सुधारिए। सुधारने का माहौल बनाइए।’ लोक कवि बोले, ‘पर छोड़िए यह सब ई बताइए कि ऊ लोग कौन हैं जो अंगरेजी और भोजपुरी जानते हैं पर हिंदी नहीं।’
‘यहीं लखनऊ में भी दो चार लोग हैं। दिल्ली में हैं, विदेशों में भी हैं।’
‘अच्छा चहकते हुए लोक कवि बोले, ‘लखनऊ में कौन लोग हैं?’
‘साइंटिस्ट लोग हैं।’ वह बोला, ‘हिंदी टूटी फूटी बोलते हैं पर भोजपुरी सही-सही। ऐसे ही दिल्ली में जे.एन.यू. में बहुत लोग ऐसे मिलते हैं जो या तो अंगरेजी बोलते हैं या भोजपुरी। हिंदी नहीं।’
‘ई दिल्ली में जे.एन.यू. का है?’
‘यूनिवर्सिटी है।’
‘अच्छा-अच्छा।’ वह बोले, ‘हमारा पोरोगराम वहाँ हो सकता है?’
‘डांस वाला?’ बाबू साहब ने मजाकिया लहजे में आँख घुमा कर पूछा।
‘नहीं-नहीं। ख़ाली बिरहा वाला। शुद्ध भोजपुरी वाला पोरोगराम।’
‘आप भी लोक कवि हर बात में पोरोगराम सूंघने लगते हैं।’
‘का करें रोजी रोटी है।’ वह बोले, ‘फिर विद्वान लोगों के बीच गाने का सुख ही और है। और एहले अच्छी बात है कि ऊ लोग हिंदी नहीं जानते तो फिल्मी गाना का फरमाइश नहीं करेंगे। तो डांस वइसे ही कट हो जाएगा।’ वह बोले, ‘बात चलाइए।’
‘यह तो हमसे संभव नहीं है।’
‘तब छोड़िए जाने दीजिए।’ वह बोले, ‘कोई और बात कीजिए।’