लोक कवि अब गाते नहीं / पृष्ठ 19 / दयानंद पाण्डेय

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‘क्या और बात करूं?’ वह बोला, ‘बताइए एक बहुत बड़े लेखक हैं एस.वी. नायपाल। इंगलैंड में रहते हैं और अंगरेजी में लिखते हैं।’

‘त का इहो भोजपुरी बोलते हैं?’

‘हाँ।’

‘अंगरेज हो कर भी?’

‘अंगरेज नहीं हैं।’

‘तो?’

‘इनके पुरखे गोरखपुर से गए थे त्रिनिदाद मजूरी करने। बताते हैं कि इनके बाबा गए थे।’

‘तो गोरखपुर में नायपाल कौन जाति होता है?’

‘नायपाल जाति नहीं है उनके बाबा दुबे थे। त्रिनिदाद से घूमते-घामते इंगलैंड पहुँच गए। पुरखे मजूरी करने गए थे पर यह लेखक हो गए। और ऐसे लेखक कि जिनकी अंगरेजी से बड़े-बड़े अंगरेज घबराएं।’

‘बहुत अशुद्ध लिखते हैं का?’ लोक कवि ने मुंह बिगाड़ कर पूछा।

‘अरे नहीं, इतनी अच्छी लिखते हैं कि उस से लोग घबराते हैं।’

‘जैसे हमारे गाने से लोग घबराते हैं?’

‘क्या? बाबू साहब लोक कवि की ही तरह मुंह बिगाड़ कर बोले, ‘बहुत ख़राब गाते हैं का?’

‘का बाऊ साहब?’ कह कर लोक कवि हो-हो कर हंसने लगे।

‘तो इन एस.वी. नायपाल की कई किताबें मशहूर हो चुकी हैं। वह ज्यादातर भारत के बारे में लिखते हैं। कई विदेशी पुरस्कार पा चुके हैं। नोबल पुरस्कार भी अभी-अभी मिला है। कुछ दिन पहले। और वह नायपाल हिंदी नहीं जानते पर भोजपुरी जानते हैं?’

‘आप को कैसे पता चला?’ चकित होते हुए लोक कवि ने पूछा।

‘अरे, अख़बारों मैंग्जीनों में पढ़ा है। क्यों?’

‘नहीं, हम सोचे कि कहूँ आप मिले होंगे?’ वह बोले, ‘कब्बो भारत आए हैं?’

‘हाँ, आए हैं दो तीन बार। पर मैं नहीं मिला हूँ। बहुत पहले आए थे। तो तब जानता भी नहीं रहा होऊंगा उन्हें।’

‘लेकिन ऊ भोजपुरी जानते हैं?’

‘हाँ, भई!’

‘भोजपुरी में भी एक्को किताब लिखे हैं का?’

‘नहीं, मेरी जानकारी में तो नहीं लिखे हैं।’

‘तब का?’

‘क्या मतलब?’

‘मतलब ई कि ऊ भोजपुरी जानते हैं ख़ाली फैशन के लिए। अपना घाव देखाने के लिए। कि देखिए मजूर का बेटा केतना महान लेखक बन गया।’ लोक कवि बोले, ‘मजा तो तब था कि जब ऊ भोजपुरी में भी लिखते भोजपुरिहों के बारे में लिखते, उनका कुछ विकास करते।’ वह बोले, ‘ऐसे भोजपुरिहों से हम भी बिदेसों में मिला हूँ। ऐसे ही लोग, हाई फाई लोग भोजपुरी का विनाश कर रहे हैं। का देस, का बिदेस। भोजपुरी के लिए कुछ करेंगे नहीं। ख़ाली मूड़ी गिना देंगे कि हमहूँ भोजपुरिहा हूँ। हूँ ह, सजनी हमहूँ राजकुमार! जाने दीजिए अइसे लोगों की बात मत करिए!’

लोक कवि तीसरा पेग ख़त्म कर रहे थे और साथ ही टुन्नावस्था की ओर भी उन के चरण बढ़ रहे थे। बाबू साहब की भी ज्यादा हो गई थी सो अचानक उठते हुए वह बोले, ‘चलते हैं लोक कवि जी!’

‘अच्छा तो प्रणाम!’ कह कर लोक कवि ने भी जाने का सिगनल दे दिया। फिर बोले, ‘कल दुपहरिया में चेयरमैन साहब के साथ बैठकी है। आप भी आइएगा।’

‘ठीक है।’ कह कर बाबू साहब चले गए। इस के बाद खा पीकर वह भी अकेले ही सो गए। हालांकि अकेले वह कम ही सोते थे।

अभी ठीक से सुबह भी नहीं हुई थी कि उनके फोन की घंटी बजी। फोन लोक कवि ने ही उठाया। पर उधर की बातें सुनते ही सन्न रह गए। रात का नशा उतर गया। चेयरमैन साहब को हार्ट अटैक हुआ था। भागे-भागे लोक कवि उन के घर पहुंचे तब तक चेयरमैन साहब सांस छोड़ चुके थे।

चेयरमैन साहब की अंत्येष्टि में भारी भीड़ थी। कमोवेश सभी राजनीतिक पार्टियों के लोग, हर तबके के लोग थे। अमीर, गरीब, अफसर, चपरासी, नेता, कलाकार, पत्रकार कौन नहीं था। दूसरे दिन हुई श्रद्धांजलि सभा में भी सब लोग आए। ज्यादातर लोग औपचारिक नहीं हो पाए। कमोवेश सभी ने कोई न कोई संस्मरण सुनाया जिसमें चेयरमैन साहब झाँकते थे। लोक कवि ने कोई संस्मरण नहीं सुनाया। सिर्फ इतना भर बोले, ‘लखनऊ में विधायक जी हमको लाए और उनके बाद हम चेयरमैन साहब की ही शरण में रहे। गरीबी में हमको कुरता पायजामा पहनाते थे। खाना खिलाते थे। बड़ा प्यार से। ऊ हमारे अइसे गार्जियन थे जो जब चाहे हम को डांट सकते थे, दुत्कार और दुलार सकते थे। कुछ भी कह सकते थे, किसी भी समय, कहीं भी हमको बेइज्जत कर सकते थे। कहीं भी, कभी भी हमको अपने कपार पर बैठा सकते थे। हम को मान, सम्मान दे दुलरा सकते थे। उनके लिए हमारी जिंदगी में पूरी छूट थी। हमारे कई दुख बांटे, हमारे कई सुख छीने, कई सुख दिए। हरदम हर मोर्चे पर हमारी मदद करते। काहें से कि ऊ हमारे गार्जियन थे।’ कहते-कहते लोक कवि फफक कर रो पड़े। आगे नहीं बोल पाए जब कि वह बहुत कुछ बोलना चाहते थे। पर उनकी रुलाई रुक नहीं पा रही थी, वह करते भी तो क्या करते?

कुछ दिन उनके बड़े उदासी में गुजरे। रिहर्सल वगैरह भी बंद कर दिया था उन्होंने। पर जल्दी ही वह चेयरमैन साहब के गम से उबर गए। प्रोग्राम रिहर्सल सब शुरू हो गया। वह फिर से गाने लगे, ‘साड़ी बता रही है, खींची कहीं गई है / लाली बता रही है, लूटी कहीं गई है।’

हाँ, लेकिन वह चेयरमैन साहब को नहीं भूले। वह उनकी चर्चा जब तब चलाते रहते। खा़स कर जब कोई गलत फैसला उनसे हो जाता और कोई टोकता तो वह लगभग आह भर कर कहते, ‘का करें गलत-सही बताने वाले चेयरमैन साहब तो अब रहे नहीं। का करूं हो गया गलती!’ पर धीरे-धीरे चेयरमैन साहब की सलाहकार वाली भूमिका उस ठाकुर पत्रकार ने ले ली। लेकिन दिक्कत यह थी कि चेयरमैन साहब की तरह वह अनुभवी नहीं था। धैर्य नहीं था उसमें। कई बार रौ में बह जाता तो कई बार जिद में अड़ जाता। दूसरे, जैसे चेयरमैन साहब कलाकार लड़कियों को देखते ही बहने लगते थे उससे कहीं ज्यादा यह ठाकुर पत्रकार बहने लगता। चेयरमैन साहब लड़कियों के साथ नोचा-नोची, पकड़ा-पकड़ी, बतियाने वतियाने तक ही सीमित रहते पर यह पत्रकार हर वक्त लड़कियों को सुला लेने की जिद पर अड़ जाता। और वह निशा तिवारी की टीस में बलबलाने लगता। कहता, ‘क्या-क्या नहीं किया मैंने आप के लिए पर आप एक निशा नहीं कर सके मेरे लिए?’ इशू बना लेता। इन सब बातों को ले कर लोक कवि और उसमें अकसर ठन जाती। क्योंकि लोक कवि इस बात को पसंद नहीं करते थे। पत्रकार प्रतिवाद करता, ‘का सब सती सावित्री हैं?’

‘मैं नहीं जानता कि सब सती सावित्री हैं कि रंडी पर यहाँ यह सब नहीं हो पाएगा बाऊ साहब।’ लोक कवि कहते, ‘वइसे ही पीठ पीछे लोग हम को लवड़िया सप्लायर कहते रहते हैं। लेकिन मैं ई सब आँख के सामने नहीं होने दूँगा।’

‘क्या आप खुद नहीं इन लड़कियों को सुलाते हैं?’

‘सुलाता हूँ।’ लोक कवि बिफरे, ‘पर जबरदस्ती नहीं जैसा कि आप चाहते हैं।’ वह जोड़ते, ‘अब जमींदारी नहीं रही बाऊ साहब। और फिर ई शहर है। बदनामी होती है!’

‘अच्छा आप सुलाएं तो बदनामी नहीं होती और हम सिर्फ सुलाने की बात करें तो बदनामी होती है?’

‘हाँ होती है।’ लोक कवि कहते, ‘आप में भसोट है तो जाइए लड़की को सड़क पर पटाइए फिर वह जाए तो जहाँ चाहिए ले जा कर सुलाइए। पर हमारे यहाँ बैठ कर न पटाइए, न सुलाने वुलाने की बात करिए। बतियाना है तो हमसे बतियाइए, दारू पीजिए, खाइए पीजिए मौज कीजिए पर लड़कियों वाला खेल मत करिए। दुनिया भरी पड़ी है छिनार लड़कियों से जाइए कहीं और जोर आजमाइश करिए। बकिर इहाँ नहीं।’

खूबसूरत डांसर्स सचमुच लोक कवि के जी का जंजाल बन चली थीं। उनके पास आने वाले अफसर, नेता या धनाढ्य किस्म के लोग आते और अक्सर बात ही बात में घुमा फिरा कर लड़कियों की चर्चा चला देते। ऐन लड़कियों के सामने लोक कवि बड़ी बेरहमी से उनके इशारों भरी बातों को दबोच लेते। कहते, ‘अब आप यहाँ से चलिए।’ लेकिन दारू चढ़ाए लोग लड़कियों के फेर में लगे ही रहते। एक बार हालैंड से एक आयोजक आए थे इंडिया घूमने। लखनऊ लोक कवि के पास भी आए। बात ही बात में अमरीकन लड़कियों की चर्चा चला दिए। बोले कि, ‘वहाँ तो पांच लाख लेती हैं।’ लोक कवि बात समझते हुए भी लगातार टालते रहे। पर हालैंड निवासी की सुई बार-बार, ‘पांच लाख लेती हैं!’ पर अटक जाती। और अंततः उन्होंने दारू की मेज पर एक लाख रुपए यों ही निकाल कर रख दिए। लोक कवि भड़के, ‘ई का है?’

‘कुछ नहीं रख लीजिए!’

‘क्यों कोई पोरोगराम का बयाना है क्या?’

‘नहीं वइसे ही रख लीजिए।’

‘का समझते हैं भाई आप?’ लोक कवि बिगड़ गए। बोले, ‘जाइए यहाँ से और अपना रुपया उठाइए। डालर में बदलवाइए और अमरीका चले जाइए।’

‘आप नाराज क्यों हो रहे हैं सर?’ हालैंड निवासी बुदबुदाए।

‘बस, अब आप चले जाइए!’

‘मैंने आप को इतने प्रोग्राम दिलाए हैं और आप....!’

‘मत दिलाइए पोरोगराम अब और बस।’ लोक कवि गरजे, ‘निकल जाइए यहाँ से!’

ऐसे ही एक बार एक ब्लाक प्रमुख आए। ठेकेदारी करते थे। लोक कवि के जिले के थे। पैसा बहुत कमा लिए थे। लोक कवि का प्रोग्राम भी जब तब करवाते रहते थे। लखनऊ आए थे विधायकी का टिकट जुगाड़ने। लोक कवि की सिफारिश चाहते थे। लोक कवि ने सिफारिश कर भी दी और उम्मीद क्या लगभग आश्वासन मिल गया टिकट का कि चुनाव का ऐलान होने दीजिए टिकट आप का पक्का है। वह मारे खुशी के लोक कवि के घर मिठाई, फल और शराब की बोतलें लिए आ धमके। लोक कवि रिहर्सल में थे। डांसर्स थीं। पर ब्लाक प्रमुख के आते ही लोक कवि ने रिहर्सल रोक दिया। जिले के थे सो उनको अपना यह कैंप रेजीडेंस ऊपर से नीचे तक दिखाया। ख़ातिर बातिर की। फिर उनकी इच्छा पर उन की ही शराब की बोतल खोल दी। आदमी भेज कर होटल से मुर्गा, मछरी मंगवाया। लड़कियों ने परोसा। अब ब्लाक प्रमुख दो तीन पेग बाद स्टार्ट हो गए। सीधे-सीधे नहीं, जरा क्या पूरा-पूरा घुमा कर। वह चर्चा लोक कवि के इस कैंप रेजीडेंस की कर रहे थे पर आँखें लड़कियों पर गड़ी थीं। कहने लगे, ‘लगता है इस मकान को तुड़वाना पड़ेगा!’ पर लोक कवि उनकी बात अनसुनी कर गए। लेकिन वह स्टार्ट रहे, ‘लगता है इस मकान को तुड़वाना पड़ेगा!’ और जब हद हो गई, ‘तुड़वाना पड़ेगा!’ की तो लोक कवि पूछ ही बैठे, ‘क्यों तोड़वाना पड़ेगा?’

‘बड़ा बेढंगा बना है। फिर से बनवाने के लिए तुड़वाना पड़ेगा।’

‘कौन तुड़वाएगा? कौन बनवाएगा?’

‘अरे भाई मैं जिंदा हूँ।’ वह एक लड़की को लगभग भर आँख ऊपर से नीचे तक घूरते हुए बोले, ‘मैं ही तुड़वाऊंगा, मैं ही बनवाऊंगा।’ वह बहके, ‘इतनी हैसियत तो है हमारी।’

‘पर कौने खुशी में?’ लोक कवि जरा मिठास घोल कर लेकिन बिफर कर बोले।

‘बस मेरा मन है।’

‘पता है केतना पइसा खर्च होगा?’

‘अरे जो भी पचीस-पचास लाख खर्च होगा मैं करूंगा।’

‘ऐसे-ऐसे जाने कितने बेढंगे मकान हैं इस मुहल्ले में किस-किस को तोड़ कर बनवाएंगे?’

‘हम तो बस आप का मकान तोड़ेंगे और आप का मकान बनवाएंगे।’ ब्लाक प्रमुख बहकते हुए एक लड़की को लगभग आँखों-आँखों में बुलाते हुए बोले।

‘तुम लोग यहाँ क्या कर रही हो? चलो यहाँ से।’ लोक कवि लड़कियों से बोले, ‘अब कल आना।’ ‘आप बहुत अच्छा गाते हैं।’ ब्लाक प्रमुख लड़कियों के जाने के बाद भी बात को लाइन पर लाते हुए पर बुझे स्वर में लोक कवि से बोले, ‘जान निकाल लेते हैं।’

‘जान मैं नहीं ये लड़कियां निकालती हैं।’ लोक कवि उन्हें टालते हुए बोले।

‘नहीं सचमुच आप बहुत सुंदर गाते हैं।’ वह बहक कर बोले, ‘कलेजा काढ़ लेते हैं।’

‘तो गाऊं अभी मैं?’ लोक कवि तंज करते हुए बोले, ‘जान निकलेगी अभी आप की?’

‘बिलकुल!’ ब्लाक प्रमुख बोले, ‘पर एक शर्त के साथ कि साथ में डांस भी हो।’

‘हाँ, हाँ डांस भी होगा।’ लोक कवि ने दो लड़कों को आवाज दे कर बुलाया और कहा कि ‘ये नाचेंगे मैं गाऊंगा। शुरू करूं?’

‘क्या लोक कवि जी आप भी मजाक करते हैं।’ वह बोले, ‘अरे सोनपरियों को नचाइए!’

‘ऊ सब तो चली गईं।’

‘चली गईं?’ ब्लाक प्रमुख ऐसे बोले जैसे उनका सब कुछ लुट गया हो, ‘सभी चली गईं सचमुच?’

‘त और का?’ लोक कवि बोले, ‘हम गाना सुनाएं आप को?’

‘अब आपका सुनाएंगे।’ ब्लाक प्रमुख बोले, ‘सोनपरियों के डांस के साथ ही गाना सुनने का तुक था। अब तो हम आपका गाना आप के कैसेट से सुन लेंगे।’ कह कर वह उठ खड़े हुए। बिल्डिंग तुड़वा कर बनवाने की बात भी भूल गए। लोक कवि ने उन्हें आग्नेय नेत्रों से देखा और बड़े खिन्न भाव से विदा किया।

यह और ऐसे तमाम प्रसंगों को देखते झेलते लोक कवि का दिन हंसी खुशी से गुजर ही रहा था कि एक रोड ऐक्सीडेंट में वह ठाकुर पत्रकार भी चल बसा। अभी चेयरमैन साहब का गम वह भुला ही रहे थे कि यह एक और गम नत्थी हो गया। लेकिन चेयरमैन साहब जितना बड़ा गम यह नहीं था, फिर भी टीस तो थी ही। जो भी हो इधर-उधर संपर्क का एक मजबूत सूत्र उनका उनसे छिन गया। अख़बारों में पब्लिसिटी का भी वाहक था वह पत्रकार जो एक साथ कई अख़बारों में लोक कवि की ख़बरें छपवा देता था। कार्यक्रमों में भी वह मददगार होता था। लेकिन इसको भी नियति मान कर लोक कवि ख़ामोश हो गए। पर जब उनकी ख़ास मिसिराइन भी चल बसीं तो वह बिलकुल टूट गए। मिसिराइन जो उनके एक सहकर्मी की पत्नी थीं पर कहने के लिए। वास्तव में तो वह लोक कवि की जीवन संगिनी थीं। मिसिराइन ने उनके लखनऊ के शुरुआती जीवन में मिठास घोली थी। उनके संघर्ष के दिनों में वह मिसरी सी बनके उनके मन में फूटी थीं। ठीक वैसे ही जैसे गाँव में किशोर उम्र में धाना ने उनके जीवन में मिठास घोली थी। पर वह तात्कालिक मिठास थी। बचपना था। लेकिन मिसिराइन की मिठास स्थाई थी। थीं तो वह चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी की पत्नी लेकिन लोक कवि कहते कि वह विचारवान थीं, पढ़ी लिखी किसी बुद्धिजीवी की तरह। पर नियति ने उन्हें चपरासी की बीवी बना दिया और भाग्य ने मुझे उनका साथ दे दिया। वह कहते कि मिसिराइन ने हमें सजाया-संवारा, बिखरने से बचाया। भूखे नहीं सोने दिया। अपना परिवार तो मैं बाद में लखनऊ ले आया पर पहला परिवार लखनऊ में मेरा मिसिराइन का ही परिवार बना। आगे की बातों पर लोक कवि ख़ामोश हो जाते। पर चेयरमैन साहब जैसे लोग कभी मजाक में तो कभी आरोप लगा कर कहते कि मिसिराइन के सभी बच्चे लोक कवि के ही हैं, मिसरा के नहीं। इनमें भी दो बेटियां थीं। इनकी शादी ब्याह का खर्चा बर्चा जब लोक कवि ने खुले आम उठाया तो यह बात जो दबी ढंकी थी सबके सामने आ गई। यहाँ तक कि मिसरा के लड़के की शादी भी धूम धाम से लोक कवि ने करवाई। इस शादी में भी लोक कवि आगे-आगे थे और मिसिर जी पीछे-पीछे। एक बार चेयरमैन साहब से बात ही बात में किसी ने पूछा, ‘मिसरा कैसे जान समझ कर ई सब बरदाश्त करता है?’ चेयरमैन साहब जैसा मुंहफट आदमी भी इस सवाल पर चुप रह गया। बहुत कुरेदने पर वह बोले, ‘लोक कविया का यह प्राइवेट भी नहीं पारिवारिक मामला है सो मैं कुछ नहीं बोलूँगा।’ उन्होंने एक पुराना जुमला भी ठोंका, ‘पर्सनल इज पॉलिटिक्स।’ पर सवाल पूछने वाला इस जुमले को समझ नहीं पाया। और यह सवाल बार-बार दुहराता रहा। तो चेयरमैन साहब बऊरा कर बोले, ‘तो हे गांडू ई बात बार-बार हमसे काहें पूछ रहा है? गांड़ में दम है तो जा के लोक कवि या मिसरा या मिसिराइन से पूछ। हमसे जाल बट्टा फैला रहा है।’ वह आदमी तब चुप लगा गया था।

पर मिसिराइन के निधन के बाद भी लोक कवि ने मिसिराइन के यहाँ आना जाना नहीं छोड़ा। जब वह लखनऊ में होते तो बिना नागा सुबह शाम मिसिराइन के बच्चों के बीच ही होते। मिसिराइन के बच्चों नातियों पोतों से भी वह उसी दुलार और प्यार से पेश आते जैसे मिसिराइन से पेश आते थे।

और मिसरा जी?

मिसरा जी को न मिसिराइन के जीते जी कोई ऐतराज था न मरने के बाद ही कोई ऐतराज हुआ। अजीब ही माटी के बने थे मिसरा जी। लोग फुसफुसाते भी पर मिसरा जी के कान पर जूं नहीं रेंगती। तो लोक कवि ने भी उनके बच्चों को पढ़ाने लिखाने, पालने पोसने, बियाहने गवनने में कोई कसर नहीं छोड़ी। मिसिराइन की लड़कियों तक को उन्होंने सरकारी नौकरी दिलवा दी थी। एक दामाद को भी। मिसिराइन की एक लड़की की भी दिलचस्पी गाने बजाने में थी। नौकरी लगने से पहले एक बार दबी जबान उसने भी कलाकार बनने की बात कही तो लोक कवि आग बबूला हो गए। उससे तो वह कुछ नहीं बोले पर मिसिराइन से आहिस्ता से बोले, ‘रंडी बनाना चाहती हैं क्या बिटिया को?’

तो फिर मिसिराइन ने प्रतिवाद किया, ‘सभी कलाकार तो ऐसे नहीं होते?’ वह लता मंगेशकर तक का नाम ले बैठीं। बोलीं, ‘यह लोग तो सम्मान प्राप्त हैं।’

‘कोई नहीं है सम्मान प्राप्त।’ वह बोले, ‘और फिर लता मंगेशकर तो तपस्विनी हैं। कर पाएगी तपस्या बिटिया भला?’ लोक कवि की मंशा देख मिसिराइन चुप लगा गईं। फिर बिटिया ने भी कभी कलाकार बनने की बात नहीं उठाई।

लेकिन लोक कवि अपनी बीवी के एक बेटे को कलाकार बनने से नहीं रोक पाए। हालांकि उन्होंने अपनी बीवी के तीनों बेटों को जो जहाँ तक पढ़ा पढ़ाया। दो की नौकरी भी लगवा दी क्लर्क वाली। और तीसरे को वह इंजीनियर बनवाना चाहते थे। वह बी.एस.सी. तक तो पढ़ा लेकिन कलाकार बनने की धुन उसमें बीच पढ़ाई में समा गई। बहुत रोका, बहुत समझाया लोक कवि ने उसे पर वह नहीं माना। लोक कवि ने कहा भी कि, ‘बी.एस.सी. पढ़ कर भी मेरी तरह नचनिया गवैया मत बनो। केतनो आगे बढ़ जाओगे तब भी लोग तुम्हें नचनिया पदनिया से बेसी नहीं समझेंगे!’ फिर भी वह नहीं माना। पहले चोरी छुपे, फिर खुल कर सामने आ गया।

लोक कवि हार गए।

वह अपना ही गाना कोट करते और कहते, ‘जे केहू से नाईं हारल ते हारि गइल अपने से।’ फिर वह कहते, ‘तो हमहूँ हार गया हूँ।’ एहतियातन उन्होंने इतना जरूर कर दिया कि इस छोटे बेटे को भी सचिवालय में चपरासी की नौकरी दिलवा दी। कि अगर गाने बजाने से इसका पेट न भरे तो नौकरिया तो रहेगी। एक आदमी ने पूछा भी कि, ‘बी.एस.सी. पास था तो चपरासी की नौकरी क्यों दिलवाई?’