लोक कवि अब गाते नहीं / पृष्ठ 2 / दयानंद पाण्डेय

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धीरे-धीरे।

होता यह कि लोक कवि कहीं से प्रोग्राम कर के आते तो दुबे जी प्रतिरोध दर्ज कराते हुए कहते, ‘आपने हमें तो बताया नहीं?’

‘फोन तो किया था। पर आपका फोनवा इंगेज चल रहा था।’ लोक कवि कहते, ‘और पोरोगराम अचानक लग गया था। जल्दी था तो हम लोग निकल गए। बीकी अगले हफ्ते बनारस चलना है आप तैयार रहिएगा!’ कह कर लोक कवि उन्हें एक दो प्रोग्राम में ले जाते और फिर आठ-दस प्रोग्रामों में काट देते। बाद में तो कई बार लोक कवि दुबे जी को लोकल प्रोग्रामों से भी ‘कट’ कर देते। कई बार ‘अचानक’ बता कर तो एकाध बार ‘बजट कम था’ कह कर। साथियों से लोक कवि कहते, ‘लोग नाच गाना देखने सुनने आते हैं। अनाउंसिंग नहीं!’ फिर तो धीरे-धीरे दुबे जी ने लोक कवि से प्रोग्रामों के बाबत पूछताछ भी बंद कर दी। लेकिन लोक कवि का पोस्टमार्टम नहीं बंद किया। हाँ, लेकिन एक सच यह भी था कि दुबे जी ‘मार्केट’ में अब लगभग नहीं रह गए थे। छिटपुट स्थानीय कार्यक्रमों में, कभी-कभार सरकारी कार्यक्रमों में दिख जाते। लोक कवि तो दिल खोल कर कहते, ‘दुबे जी को मार्केट ने आउट कर दिया।’ वह जोड़ते, ‘असल में दुबे जी पिंगिल बहुत झाड़ते थे।’

लेकिन जो भी हो कुछ अच्छे कार्यक्रमों में दुबे जी की कमी लोक कवि को भी अखरती। कार्यक्रम के बाद वह कहते भी कि, ‘दुबवा रहता तो इस को ऐसे पेश करता!’ पर दुबे जी आखि़र लोक कवि की ही बदौलत ‘मार्केट’ से आउट थे। और लोक कवि को जब तब खुद एनाउंसिंग संभालनी पड़ती थी। वह एक बढ़िया अनाउंसर तलाश कर रहे थे। बीच-बीच में कई अनाउंसरों को उन्होंने आजमाया। पर दुबे जी जैसा संस्कृत, हिंदी, अंगरेजी, उर्दू ठोंकने वाला कोई नहीं मिल रहा था। लोक कवि बोलते, ‘कवनों में सलीका सहूर नहीं है।’ आखि़र एक बांसुरी बजाने वाले को उन्होंने यह काम सिखवाया। पर वह भी नहीं चला। वह बांसुरी से भी गया और एनाउंसिंग से भी।

लोक कवि को एक एनाउंसर ऐसा भी मिला जिसकी आवाज भी अच्छी थी, हिंदी, अंगरेजी भी जानता था। पर दिक्कत यह थी कि वह कार्यक्रम से ज्यादा एनाउंसिंग करता। दस मिनट के कार्यक्रम के लिए वह पंद्रह मिनट एनाउंसिंग कर डालता। ‘मैं-मैं कहते-कहते वह पांच छः शेर ठोंकता और मैंने तब यह किया, तब वह किया कह-कह कर अपने ही को वह प्रोजेक्ट करता रहता। अंततः लोक कवि ने उसे भी हटा दिया। कहा कि, ‘यह तो कार्यक्रम का लीद गोबर निकाल देता है।’ कि तभी लोक कवि को एक टी.वी. सीरियल बनाने वाला मिल गया। लोक कवि के गाने चूंकि कुछ फिल्मों में भी पहले आ चुके थे, कुछ चोरी-चकारी के मार्फत तो कुछ सीधे सो वह उस टी.वी. सीरियल बनाने वाले के ग्लैमर में तो नहीं अझुराए लेकिन उसकी राय में आ गए। उसने एक लड़की को प्रोजेक्ट किया जो हिंदी, भोजपुरी दोनों जानती थी। ‘लेडीज एंड जेन्टिलमेन’ वाली अंगरेजी भी ‘हेलो सिस्टर्स एंड ब्रदर्स’ कह कर बोलती थी। और ज्यादातर एनाउंसिंग अंगरेजी में ही ठोंकती थी।

अंततः लोक कवि के मंचों की वह एनाउंसर बन गई। धीरे-धीरे वह ‘कुल्हा उछालू’ डांस भी जान गई। सो एक पंथ दो काज। एनाउंसर कम डांसर उस लड़की से लोक कवि की म्यूजिकल पार्टी का भाव बढ़ गया।

एक बार किसी ने लोक कवि से कहा भी कि, ‘भोजपुरी के मंच पर अंगरेजी एनाउंसिंग! यह ठीक नहीं है।’

‘काहें नाहीं ठीक है?’ लोक कवि बिदक कर गरजे।

‘अच्छा चलिए शहर में तो यह अंगरेजी एनाउंसिंग चल भी जाती है पर गांवों में भोजपुरी गाना सुनने वाले का समझें ई अंगरेजी एनाउंसिंग?’

‘ख़ूब समझते हैं!’ लोक कवि फैल गए, ‘और समझें न समझें मुंह आंख दोनों बा कर देखने लगते हैं।’

‘का देखने लगते हैं?’

‘लड़की! और का?’ लोक कवि बोले, ‘अंगरेजी बोलती लड़की। सब कहते हैं कि अब लोक कवि हाई लेबिल हो गए हैं। लड़की अंगरेजी बोलती है।’

‘अच्छा जो वह लड़की बोलती है अंगरेजी में आप समझते हैं?’

‘हाँ समझता हूँ।’ लोक कवि बड़ी सर्द आवाज में बोले।

‘का? आप अब अंगरेजी भी समझने लगे?’ पूछने वाला भौंचकिया गया। बोला, ‘कब अंगरेजी भी पढ़ लिया लोक कवि जी आपने?’

‘कब्बो नहीं पढ़ा अंगरेजी!’ लोक कवि बोले, ‘हिंदी तो हम पढ़ नहीं पाए अंगरेजी का पढ़ेंगे?’

‘पर अभी तो आप बोल रहे थे कि अंगरेजी समझता हूँ।’

‘पइसा समझता हूँ।’ लोक कवि बोले, ‘और ई अंगरेजी अनाउंसर ने हमारा रेट हाई कर दिया है तो ई अंगरेजी हम नहीं समझूंगा तो कवन समझेगा!’ वह बोले, ‘का चाहते हैं जिनगी भर बुरबक बना रहूँ। पिछड़ा ही बना रहूँ। अइसे ही भोजपुरी भी हरदम भदेस बनी रहे।’ लोक कवि चालू थे, ‘संस्कृत के नाटक में अंगरेजी लोग सुन सकते हैं। कथक, भरतनाट्यम, ओडिसी, मणिपुरी में लोग अंगरेजी सुन सकते हैं। गजल, तबला, सितार, संतूर, शहनाई पर अंगरेजी सुन सकते हैं तो भोजपुरी के मंच पर लोग अगर अंगरेजी सुन रहे हैं तो का ख़राबी है भाई? तनि हमहूँ के बताइए!’ लोक कवि का एकालाप चालू रहा, ‘जानते हैं भोजपुरी का है?’ वह थोड़ा और कर्कश हुए, ‘मरती हुई भाषा है। हम उसको लखनऊ जैसी जगह में गा बजा के जिंदा रखे हूँ और आप सवाल घोंप रहे हैं। ऊ भोजपुरी जवन अब घर में से भी बाहर हो रही है।’

लोक कवि गुस्साए भी थे और दुखी भी। कहने लगे, ‘अभी तो जब तक हम जिंदा हूँ अपनी मातृभाषा का सेवा करूंगा, मरने नहीं दूँगा। कुछ चेला, चापट भी तैयार कर दिया हूँ वह भी भोजपुरी गा बजा कर खा कमा रहे हैं। पर अगली पीढ़ी भोजपुरी का, का गत बनाएगी यही सोच कर हम परेशान रहता हूँ।’ वह बोले, ‘अभी तो मंच पर पॉप गाना बजवा कर डांस करवाता हूँ। यह भी लोगों को चुभता है, भोजपुरी में खड़ी बोली मिलाता हूँ तो लोग गरियाते हैं और अब अंगरेजी अनाउंसिंग का सवाल घोंपा जा रहा है।’ वह बोले, ‘बताइए हम का करूं? बाजारू टोटका न अपनाऊं तो बाजार से गायब हो जाऊं? अरे, नोंच डालेंगे लोग। हड्डियां नहीं मिलेंगी हमारी।’ कह कर वह छटकते हुए खड़े हो गए। शराब की बोतल खोलते हुए कहने लगे, ‘छोड़िए ई सब। शराब पीजिए, मस्त हो जाइए। ई सबमें कुछ नहीं धरा है।

वह बोले, ‘बाजार में रहूँगा तो चार लोग चीन्हेंगे, नमस्कार करेंगे। जिस दिन बाजार से बहिरा जाऊंगा कोई बात नहीं पूछेगा। ई बात हम अच्छी तरह जानता हूँ। आप लोग भी जान लीजिए।’ लोक कवि अब तक पीते-पीते टुन्न हो गए थे तो लोग जाने लगे। लोग जान गए अब रुकने का मतलब है लोक कवि की गालियों का गायन सुनना। दरअसल दिक्कत ही यही थी कि लोक कवि ‘खटाखट’ लेते और बड़ी जल्दी टुन्न भी हो जाते। फिर तो वह या तो ‘प्रणाम’ उच्चारते या गायन भरी गालियों का वाचन या फिर सुंदरियों के व्यसन ख़ातिर बउरा जाते।

दरअसल सारी ‘क्रियाओं’ का मकसद ही होता कि ‘तखलिया!’ यानी एकांत! ‘प्रणाम’ उन आदरणीय लोगों के लिए होता जो उनकी संगीत मंडली से अलग के मेहमान (नेता, अफसर, पत्रकार) हों या जजमान हों। अभ्यस्त लोग लोक कवि के ‘प्रणाम’ का संकेतार्थ समझते थे और उठ पड़ते थे। जो लोग नए होते थे वह नहीं समझते थे और बैठे रहते। लोक कवि उन्हें रह-रह हाथ जोड़-जोड़ दो चार बार और प्रणाम करते। बात फिर भी नहीं बनती तो वह अदब से ही सही कह देते, ‘त अब चलिए न!’ बावजूद लोक कवि के तमाम अदब के इससे कुछ नादान टाइप लोग आहत और नाराज हो जाते। पर लोक कवि को इस सबसे कोई फर्क नहीं पड़ता।

कहा जाता है कि अर्जुन ने द्रौपदी को स्वयंवर में इसलिए जीता था कि उन्होंने सिर्फ मछली की आंख देखी थी। जब कि बाकी योद्धा पूरी मछली देख रहे थे इसलिए मछली की आंख को भेद नहीं पाए। सो द्रौपदी को जीत नहीं सके। पर किसी को जीतने की अपने लोक कवि की स्टाइल ही और थी। वह अर्जुन नहीं थे और न ही अर्जुन की भूमिका में वह अपने को पाते पर जीतते वह जरूर थे। इस मामले में वह अर्जुन से भी कुछ कदम आगे थे। क्योंकि लोक कवि मछली और मछली की आंख से भी पहले द्रौपदी देखते। बल्कि कई बार तो वह सिर्फ द्रौपदी ही देखते। क्योंकि उनका लक्ष्य मछली की आंख नहीं द्रौपदी होती। मछली और मछली की आंख तो साधन भर थी द्रौपदी को पाने की। साध्य तो द्रौपदी ही थी। सो वह द्रौपदी को ही साधते, मछली और उसकी आंख न भी सधे तो भी उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता था।

वह गाते भी थे, ‘बिगड़ल काम बनि जाई, जोगाड़ चाही।’ इसीलिए कोई हत होता है कि आहत, इससे उनको कोई सरोकार नहीं रहता था। उनको बस अपनी द्रौपदी से सरोकार रहता। वह द्रौपदी शराब भी हो सकती थी, सफलता भी। लड़की भी हो सकती थी, पैसा भी। सम्मान, यश, कार्यक्रम या जो भी कुछ हो। उनके संगी साथी उनके लिए कहते भी थे, ‘आपन भला, भला जगमाहीं!’ पर लोक कवि को इस सबसे कोई फर्क नहीं पड़ता था। हाँ, कभी कभार फर्क पड़ता था। तब जब उनकी कोई द्रौपदी उनको नहीं मिल पाती थी। पर इस बात को भी वह गांठ बांधे नहीं घूमते थे कि, ‘हऊ वाली द्रौपदी नहीं मिली!’ बल्कि वह तो ऐसे एहसास कराते कि जैसे कुछ हुआ ही न हो! दरअसल दंद-फंद और अनुभव ने उन्हें काफी पक्का बना दिया था।

एक बार की बात है लोक कवि का एक विदेश दौरा तय हो गया था। एडवांस मिल गया था, तारीख़ पक्की नहीं हुई थी। दिन पर दिन गुजरते जा रहे थे पर तारीख़ तय नहीं हो पा रही थी। लोक कवि के एक शुभचिंतक काफी उतावले थे। एक दिन वह लोक कवि से बोले, ‘चिट्ठी लिखिए!’

‘हम का चिट्ठी लिखें, जाने दीजिए।’ लोक कवि बोले, ‘जे एतनै चिट्ठी लिखना जानते तो गवैया बनते? अरे, सट्टा पर अपना नाम और तारीख़ लिख देता हूँ, बहुत है।’ वह कहने लगे, ‘कहीं कुछ गलत-सलत हो गया तो ठीक नहीं है। जाने दीजिए गड़बड़ा जाएगा।’

‘त फोन कीजिए।’ शुभचिंतक की उतावली गई नहीं।

‘फोन किया था पिछले हफ्ता। बड़ा पइसा लगता है।’ लोक कवि बोले, ‘उन्होंने कहा है कि चार-पांच रोज में बताएंगे।’

‘तो आज फेर करिए!’ शुभचिंतक बोले, ‘आज का पैसा मैं देता हूँ।’

‘नाहीं, फोन रहने दीजिए।’

‘क्यों?’

‘का है कि जादा कसने से पेंच टूट जाता है।’ लोक कवि शुभचिंतक को समझाते हुए बोले।

शुभचिंतक इस लगभग अपढ़ गायक का यह संवाद सुन कर हकबका गए।

लेकिन लोक कवि तो ऐसे ही थे।

सारी चतुराई, सारी होशियारी, ढेर सारे गणित और जुगाड़ के बावजूद वह बोलते बेधड़क थे। यह शायद उनकी भोजपुरी की माटी की रवायत थी की अदा कि आदत, जानना कठिन था। और यह वह अनजाने ही सही एकाध बार नुकसान की कीमत पर भी कर जाते, क्या बोल जाते। और जो कहते हैं कि ‘जो कह दिया सो कह दिया’ पर वह अडिग भी रहते।

ऐसे ही एक दफा एक कार्यक्रम के बाबत लोक कवि के गैराज वाले आवास पर चिकचिक चल रही थी। लोक कवि लगातार पैसा बढ़ाने और कुछ एडवांस की जिद पर अड़े पड़े थे। और ‘क्लाइंट’ पैसा न बढ़ाने और एडवांस के बजाय सिर्फ बयाना देकर सट्टा लिखवाने पर आमादा थे। ‘क्लाइंट’ की सिफारिश में किसी कारपोरेशन के एक चेयरमैन साहब भी लगे थे। क्योंकि एक केंद्रीय मंत्री के चचेरे भाई के नाते चेयरमैन साहब चलते पुर्जे वाले थे। और लोक कवि के जनपद के मूल निवासी भी।

वह लोक कवि से बात लगभग अफसरी-सामंती अंदाज में हमेशा करते थे। उस दिन भी, ‘मान जो, मान जो!’ वह कहते रहे। फिर लोक कवि को थोड़ा सम्मान देने की गरज से वह हिंदी पर आ गए, ‘मान जाओ, मैं कह रहा हूँ।’

‘कइसे मान जाऊं चेयरमैन साहब!’ लोक कवि बोले, ‘आप तो सब जानते हैं। ख़ाली हम ही होते तो बात चल जाती। हमारे साथ और भी कलाकार हैं। और ई पूरी पार्टी भी चाहते हैं।’’

‘सब हो जाएगा। तुम घबराते क्यों हो।’ कह कर चेयरमैन साहब ने लोक कवि को धीरे से आंख मारी और फिर बोले, ‘मान जो, मान जो!’ फिर अपनी जेब से एक रुपए का सिक्का निकालते हुए चेयरमैन साहब उठ खड़े हुए। लोक कवि को एक रुपए का सिक्का देते हुए वह बोले, ‘हई ले और मिसिराइन के ‘यहाँ’ हमारी ओर से साट देना।’

‘का चेयरमैन साहब आप भी!’ कह कर लोक कवि थोड़ा खिसियाए। लेकिन चेयरमैन साहब की इस अश्लील टिप्पणी का जवाब वह चाह कर भी नहीं दे पाए। और बात टाल गए।

चेयरमैन साहब भी क्लाइंट के साथ चले गए।

चेयरमैन साहब के जाते ही लोक कवि के गैराज में बैठे उन के एक अफसर मित्र ने लोक कवि को टोका, ‘आपको जब यह कार्यक्रम नहीं करना है तो साफ मना क्यों नहीं कर देते?’

‘आपको कैसे पता कि मैं यह कार्यक्रम नहीं करूंगा?’ लोक कवि ने थोड़ा आक्रामक हो कर पूछा।

‘आपकी बातचीत से।’ वह अफसर बोला।

‘अइसे अफसरी करते हैं आप?’ लोक कवि बिदके, ’अइसेहीं बात चीत का गलत सलत नतीजा निकालेंगे?’

‘तो?’

‘तो क्या। कार्यक्रम तो करना ही है चाहे इ लोग एक्को पइसा न दें तब भी।’ लोक कवि भावुक हो गए। बोले, ‘अरे भाई, ई चेयरमैन साहब कह रहे हैं तो कार्यक्रम तो करना ही है!’

‘काहें ऐसा का है इस दो कौड़ी के चेयरमैन में।’ अफसर बोला, ‘मंत्री इसका चचेरा भाई है न! का बिगाड़ लेगा। तिस पर आपसे अश्लील और अपमानित करने वाली टिप्पणी करता है! कौन है ई मिसिराइन?’

‘जाने दीजिए ई सब। का करेंगे आप जान कर।’ लोक कवि बोले, ‘ई जो चेयरमैन साहब हैं न हमको बड़ा कुर्ता पायजामा पहिनाए हैं एह लखनऊ में। भूखे सोते थे तो खाना खिलाए हैं। जब हम शुरू-शुरू में लखनऊ में आए थे तो बड़ा सहारा दिए।

तो कार्यक्रम तो करना ही है।’ कह कर लोक कवि और भावुक हो गए। कहने लगे, ‘आज तो हम इनको शराब पियाता हूँ तो पी लेते हैं। हम उनके बराबर बैठ जाता हूँ तो बुरा नहीं मानते हैं हमारा गाना भी खूब सुनते हैं। और यहाँ वहाँ से पोरोगराम दिलवा कर पइसा भी खूब कमवाते हैं। तो एकाध फ्री पोरोगराम भी कर लूँगा तो का बिगड़ जाएगा।’

‘तो इतना नाटक काहें कर रहे थे?’

‘एह नाते कि जो ऊ ‘क्लाइंट’ आया था ऊ पुलिस में डी.एस.पी. है। दूसरे इसकी लड़की की शादी। शादी के बाद विदाई में रोआ रोहट मची रहेगी। कवन माँगेगा पइसा अइसे में। दूसरे, पुलिस वाला है। तीसरे ठाकुर है। जो कहीं गरमा गया और गोली बंदूक चल गई तो?’ लोक कवि बोले, ‘एही नाते सोच रहे थे कि जवन मिलता है यहीं मिल जाए। कलाकारों भर का नहीं तो आने जाने भर का सही।’

‘ओह तो यह बात है!’ कर कह वह अफसर महोदय भौंचकिया गए।

चेयरमैन प्रसंग पर अफसर के सवाल ने लोक कवि को भावुक बना दिया था। अफसर तो चला गया पर लोक कवि की भावुकता उन पर तारी थी।

चेयरमैन साहब!

चेयरमैन साहब को हालांकि लोक कवि बड़ा मान देते थे पर मिसिराइन पर अभी-अभी उनकी टिप्पणी ने उन्हें आहत कर दिया था। इस आहत भाव को धोने ही के लिए उन्होंने भरी दुपहरिया में शराब पीना शुरू कर दिया। दो कलाकार लड़कियां भी उनका साथ देने के लिए इत्तफाक से तब तक आ गईं थीं।

लोक कवि ने लड़कियों को देखते ही सोचा कि अच्छा ही हुआ कि चेयरमैन साहब चले गए। नहीं तो इन लड़कियों को देखते ही वह खुल्लमखुल्ला अश्लील टिप्पणियां शुरू कर देते और जल्दी जाते ही नहीं। लड़कियों को अपनी जांघ पर बिठाने, उनके गाल ऐंठने, छातियां या हिप दबा देने जैसे ओछी हरकतें चेयरमैन साहब के लिए रुटीन हरकतें थी। वह कभी भी कुछ भी कर सकते थे। ऐसा कभी कभार क्या अकसर लोक कवि भी करते थे। पर उनके इस करने में लड़कियों की भी विवश सहमति ही सही, सहमति रहती थी। लोक कवि दबाते-चिकोटते रहते और वह सब ‘गुरु जी, गुरु जी’ कह कर कभी उकतातीं तो कभी उत्साहित भी करती रहतीं। लेकिन चेयरमैन साहब की इन ओछी हरकतों पर लड़कियों की न सिर्फ असहमति होती थी, वह सब बिलबिला भी जाती थीं।

लेकिन चेयरमैन साहब बाज नहीं आते। अंततः लोक कवि को ही पहल करनी पड़ती, ‘त अब चलीं चेयरमैन साहब!’ चेयरमैन साहब लोक कवि की बात को फिर भी अनुसना करते तो लोक कवि हिंदी पर आ जाते, ‘बड़ी देर हो गई, जाएंगे नहीं चेयरमैन साहब।’ लोक कवि के हिंदी में बोलने का अर्थ समझते थे चेयरमैन साहब सो उठ खडे़ होते कहते, ‘चलत हईं रे। तें मौज कर।’

‘नाईं चेयरमैन साहब बुरा जिन मानिएगा।’ लोक कवि कहते, ‘असल में कैसेट पर डांस का रिहर्सल करवाना था।’

‘ठीक है रे, ठीक है।’ कहते हुए चेयरमैन साहब चल देते। चल देते किसी और ‘अड्डे’ पर।

चेयरमैन साहब कोई साठ बरस की उम्र छू रहे थे लेकिन उनकी कद काठी अभी भी उन्हें पचास के आस-पास का आभास दिलाती। वह थे भी उच्श्रृंखल किसिम के रसिक। सबसे कहते भी रहते थे कि, ‘शराब और लौंडिया खींचते रहो, मेरी तरह जवान बने रहोगे।’

चेयरमैन साहब की अदाएं और आदतें भी कई ऐसी थीं जो उन्हें सरेआम जूते खिलवा देतीं लेकिन वह अपनी बुजुर्गियत का भी न सिर्फ भरपूर फायदा उठाते बल्कि कई बार तो सहानुभूति भी बटोर ले जाते। जैसे वह किसी भी बाजार में खड़े-खड़े अचानक बेवजह जोर से इस तरह चिल्ला पड़ते कि यकायक सबकी नजरें उनकी ओर उठ जातीं। सभी उन्हें देखने लगते। जाहिर है इनमें बहुतायत में महिलाएं भी होतीं। अब जब महिलाएं उन्हें देखने लगतीं तो वह अश्लीलता पर उतर आते। चिल्ला कर ही अस्फुट शब्दों में कहते,....‘दे!’ महिलाएं सकुचा कर किनारे हो दूसरी तरफ चल देतीं। कई बार वह कोई सुंदर औरत या लड़की देखते तो उसके इर्द गिर्द चक्कर काटते-काटते अचानक उस पर भहरा कर गिर पड़ते। इस गिरने के बहाने वह उस औरत को पूरा का पूरा बांहों में भर लेते। इस क्रम में वह औरत की हिप, कमर, छातियां और गाल तक छू लेते। पूरी अशिष्टता एवं अभद्रता से। औरतें अमूमन संकोचवश या लोक लाज के फेर में चेयरमैन साहब से तुरंत छुटकारा पा कर वहाँ से खिसक जातीं। एकाध औरतें अगर उनके इस गिरने पर ऐतराज जतातीं तो चेयरमैन साहब फट पैंतरा बदल लेते। कहते, ‘अरे बच्चा नाराज मत होओ! बूढ़ा हूँ न, जरा चक्कर आ गया था सो गिर गया।’ वह ‘सॉरी!’ भी कहते और फिर भी उस औरत के कंधे पर झुके-झुके उसकी छातियों का उठना बैठना देखते रहते। तो भी औरतें उन पर तरस खाती हुई उन्हें संभालने लगतीं तो वह बड़ी लापरवाही से उसके हिप पर भी हाथ फिरा देते। और जो कहीं दो तीन औरतें मिल कर संभालने लग जातीं उन्हें तो उनके पौ बारह हो जाते। वह अकसर ऐसा करते। लेकिन हर जगह नहीं। जगह और मौका देख कर! तिस पर कलफ लगे चमकते खद्दर का कुरता पायजामा, उनकी उम्र से उनके इन ऐबों पर अनायास ही पानी पड़ जाता। तिस पर वह हाँफने, चक्कर आने का दो चार आना अभिनय भी फेंक देते। बावजूद इस सबके वह कभी-कभार फजीहत में भी घिर ही जाते। तो भी इससे उबरने के पैंतरे भी वह बखूबी जानते थे।