लोक कवि अब गाते नहीं / पृष्ठ 3 / दयानंद पाण्डेय

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एक दिन वह लोक कवि के पास आए बोले, ‘25 दिसंबर को तुम कहाँ थे भाई?’

‘यहीं था रिहर्सल कर रहा था।’ लोक कवि ने जवाब दिया।

‘तो हजरतगंज नहीं गए 25 को?’

‘क्यों क्या हुआ?’

‘तो मतलब नहीं गया?’

‘नाहीं!’

‘तो अभागा है।’

‘अरे हुआ क्या?’

चेयरमैन साहब स्त्री के एक विशिष्ट अंग को उच्चारते हुए बोले, ‘एतना बड़ा औरतों की....का मेला हमने नहीं देखा!’ वह बोलते जा रहे थे, ‘हम तो भई पागल हो गए। कोई कहे इधर दबाओ, कोई कहे इधर सहलाओ।’ वह बोले, ‘मैं तो भई दबाते-सहलाते थक गया।’

‘चक्कर-वक्कर भी आया कि नाहीं?’ लोक कवि ने पूछा।

‘आया न!’

‘कितनी बार?’

‘यही कोई 15-20 राउंड तो आया ही।’ कह कर चेयरमैन साहब खुद हंसने लगे।

लेकिन चेयरमैन साहब के साथ ऐसा ही था।

वह खुद एंबेसडर में होते और जो अचानक किसी सुंदर औरत को सड़क पर देख लेते, या दो-चार कायदे की औरतों को देख लेते तो ड्राइवर को तुरंत डांटते हुए काशन देते, ‘ऐ देख क्या कर रहा है, गाड़ी उधर मोड़!’ ड्राइवर भी इतना पारंगत था कि काशन पाते ही वह फौरन कार मोड़ देता बिना इस की परवाह किए कि एक्सीडेंट भी हो सकता है। चेयरमैन साहब जब कभी दिल्ली जाते तो दो तीन दिन डी.टी.सी. की बसों के लिए भी जरूर निकालते। किसी बस स्टैंड पर खड़े होकर बस में चढ़ने के लिए वहाँ खड़ी औरतों का मुआयना करते और फिर जिस बस में ज्यादा औरतें चढ़तीं, जिस बस में ज्यादा भीड़ होती उसी बस में चढ़ जाते। ड्राइवर से कहते, ‘तुम कार लेकर इस बस को फालो करो।’ और ड्राइवर को यह आदेश कई बार बिन कहे ही मालूम होता। तो चेयरमैन साहब डी.टी.सी. की बस में जिस-तिस महिला के स्पर्श का सुख लेते। उनकी एंबेसडर कार बस के पीछे-पीछे उनको फालो करती हुई। और चेयरमैन साहब औरतों को फालो करते हुए। ऊंघते, गिरते, चक्कर खाते। ‘फालो आन’ की हदें छूते हुए।

चेयरमैन साहब के ऐसे तमाम किस्से लोक कवि क्या कई लोग जानते थे। लेकिन चेयरमैन साहब को लोक कवि न सिर्फ झेलते थे बल्कि उन्हें पूरी तरह जीते थे। जीते इस लिए थे कि ‘द्रौपदी’ को जीतने के लिए चेयरमैन साहब लोक कवि के लिए एक महत्वपूर्ण पायदान थे। एक जरूरी औजार थे। और एहसान तो उनके लोक कवि पर थे ही थे। हालांकि एहसान जैसे शब्द को तो चेयरमैन साहब के तईं एक नहीं कई-कई बार वह उतार क्या चढ़ा भी चुके थे तो भी उनके मूल एहसान को लोक कवि भूलते नहीं थे और इससे भी ज्यादा वह जानते थे कि चेयरमैन साहब द्रौपदी जीतने के महत्वपूर्ण पायदान और औजार भी हैं। सो कभी कभार उनकी ऐब वाली अदाएं-आदतें वह आंख मूंद कर टाल जाते। मिसिराइन पर यदा कदा टिप्पणी को वह आहत हो कर भी कड़वे घूंट की तरह पी जाते और खिसियाई हंसी हंस कर मन हलका कर लेते। कोई कुछ टोकता, कहता भी तो लोक कवि कहते, ‘अरे मीर मालिक हैं, जमींदार हैं, बड़का आदमी हैं। हम लोग छोटका हैं जाने दीजिए!’

‘काहें के जमींदार? अब तो जमींदारी ख़त्म हो चुकी है। काहें का छोटका बड़का। प्रजातंत्रा है!’ टोकने वाला कहता।

‘प्रजातंत्रा है न।’ लोक कवि बोलते, ‘त उनका बड़का भाई केंद्र में मंत्री हैं और मंत्री लोग जमींदार से जादा होता है। ई जानते हैं कि नाई?’ वह कहते, ‘अइसे भी और वइसे भी दूनों तरह से ऊ हमारे लिए जमींदार हैं। तब उनका जुलुम भी सहना है, उनका प्यार दुलार भी सहना है और उनका ऐब आदत भी!’

अर्जुन को तो सिर्फ एक द्रौपदी जीतनी थी पर लोक कवि को हरदम कोई न कोई द्रौपदी जीतनी होती। यश की द्रौपदी, धन की द्रौपदी और सम्मान की द्रौपदी तो उन्हें चाहिए ही चाहिए थी। इन दिनों वह राजनीति की द्रौपदी के बीज भी मन में बो बैठे थे। लेकिन यह बीज अभी उनके मन की धरती में ही दफन था। ठीक वैसे ही जैसे उनकी कला की द्रौपदी उनके बाजारी दबाव में दफन थी। इतनी कि कई बार उनके प्रशंसक और शुभचिंतक भी दबी जबान सही, कहते जरूर थे कि लोक कवि अगर बाजार के रंग में इतने न रंगे होते, बाजार के दबाव में इतना न दबे होते और आर्केस्ट्रा कंपनी वाले शार्ट कट की जगह अपनी बिरहा पार्टी को ही तरजीह दिए होते तो तय तौर पर राष्ट्रीय स्तर के कलाकार होते। नहीं तो कम से कम तीजन बाई, बिस्मिल्ला खां, गिरिजा देवी के स्तर के कलाकार तो वह होते ही होते। इससे कम पर तो कोई उन्हें रोक नहीं सकता था। सच यही था कि बिरहा में लोक कवि का आज भी कोई जवाब नहीं था। उनकी मिसरी जैसी मीठी आवाज का जादू आज भी ढेर सारी असंगतियों और विसंगतियों के बावजूद सिर चढ़ कर बोलता था। और इससे भी बड़ी बात यह थी कि कोई और लोक गायक बाजार में उनके मुकाबले में दूर-दूर तक नहीं था। लेकिन ऐसा भी नहीं था कि लोक कवि से अच्छा बिरहा या लोक गीत वाले और नहीं थे। और लोक कवि से बहुत अच्छा गाने वाले लोग भी दो-चार ही सही थे। पर वह लोग बाजार तो दूर बाजार की बिसात भी नहीं जानते थे। लोक कवि भी इस बात को स्वीकार करते थे। वह कहते भी थे कि ‘पर ऊ लोग मार्केट से आउट हैं।’ लोक कवि इसी का फायदा क्या उठाते थे बल्कि भरपूर दुरुपयोग करते थे। दूरदर्शन, आकाशवाणी, कैसेट, कार्यक्रम, आर्केस्ट्रा हर कहीं उनकी बहार थी। पैसा जैसे उनको बुलाता रहता था। जाने यह पैसे का ही प्रताप था कि क्या था पर अब गाना उनसे बिसर रहा था। कार्यक्रमों में उनके साथी कलाकार हालांकि उन्हीं के लिखे गाए गाने गाते थे पर लोक कवि जाने क्यों बीच-बीच में दो-चार गाने गा देते। ऐसे जैसे रस्म अदायगी कर रहे हों। धीरे-धीरे लोक कवि की भूमिका बदलती जा रही थी। वह गायकी की राह छोड़ कर आर्केस्ट्रा पार्टी के कैप्टन कम मैनेजर की भूमिका ओढ़ रहे थे। बहुत पहले लोक कवि के कार्यक्रमों के पुराने उदघोषक दुबे जी ने उन्हें आगाह भी किया था कि, ‘ऐसे तो आप एक दिन आर्केस्ट्रा पार्टी के मैनेजर बन कर रह जाएंगे।’ पर लोक कवि तब दुबे जी की यह बात माने नहीं थे। दुबे जी ने जो ख़तरा बरसों पहले भांप लिया था उसी ख़तरे का भंवर लोक कवि को अब लील रहा था। लेकिन बीच-बीच के विदेशी दौरे, कार्यक्रमों की अफरा तफरी लोक कवि की नजरों को इस कदर ढके हुए थी कि वह इस ख़तरनाक भंवर से उबरना तो दूर इस भंवर को वह देख भी नहीं पा रहे थे। पहचान भी नहीं पा रहे थे। लेकिन यह भंवर लोक कवि को लील रहा है, यह उनके पुराने संगी साथी देख रहे थे। लेकिन टीम से ‘बाहर’ हो जाने के डर से वह सब लोक कवि से कुछ कहते नहीं थे। पीठ पीछे बुदबुदा कर रहे जाते।

और लोक कवि?

लोक कवि इन दिनों किसिम-किसिम की लड़कियों की छांट बीन में रहते। पहले सिर्फ उनके गाने डबल मीनिंग की डगर थामे थे, अब उनके कार्यक्रमों में भी डबल मीनिंग डायलाग, कव्वाली मार्का शेरो शायरी और कामुक नृत्यों की बहार थी। कैसेटों में वह गाने पर कम लड़कियों की सेक्सी आवाज भरने के लिए ज्यादा मेहनत करते थे। कोई टोकता तो वह कहते, ‘इससे सेल बढ़ जाती है।’ लोक कवि कोरियोग्राफर नहीं थे, शायद इस शब्द को भी नहीं जानते थे। लेकिन किस बोल की किस लाइन पर कितना कूल्हा मटकाना है, कितना ब्रेस्ट और कितनी आंखें, अब वह यह ‘गुन’ भी लड़कियों को रिहर्सल करवा-करवा कर सिखाते क्या घुट्टा पिलाते थे। और बाकायदा कूल्हा, कमर पकड़-पकड़ कर। गानों में भी वह लड़कियों से गायकी के आरोह-अवरोह से ज्यादा आवाज को कितना सेक्सी बना सकती थीं, कितना शोख़ी में इतरा सकती थीं, इस पर जोर मारते थे। ताकि लोग मर मिटें। उनके गानों के बोल भी अब ज्यादा ‘खुल’ गए थे। ‘अंखिया बता रही हैं, लूटी कहीं गई है’ तक तो गनीमत थी लेकिन वह तो और आगे बढ़ जाते, ‘लाली बता रही है, चूसी कहीं गई है’ से लेकर ‘साड़ी बता रही है, खींची कहीं गई है’ तक पहुँच जाते थे। इस डबल मीनिंग बोल की इंतिहा यहीं नहीं थी। एक बार होली पहली तारीख़ को पड़ी तो लोक कवि इसका भी ब्यौरा एक युगल गीत में परोस बैठे, ‘पहली को ‘पे’ लूँगा फिर दूसरी को होली खेलूँगा।’ फिर सिसकारी भर-भर गाए इस गाने का कैसेट भी उनका खूब बिका।

अच्छा गाना गाने वाली एकाध लड़कियां ऐसा गाना गाने से बचने के फेर में पड़तीं तो लोक कवि उसे अपनी टीम से ‘आउट’ कर देते। कोई लड़की ज्यादा कामुक नृत्य करने में इफ बट करती तो वह भी ‘आउट’ हो जाती। यह सब जो लड़की कर ले और लोक कवि के साथ शराब पी कर बिस्तर में भी हो ले तो वह लड़की उनके टीम की कलाकार नहीं तो बेकार और आउट! एक बार एक लड़की जो कामुक डांस बहुत ढंग से करती थी, पी कर बहक गई। लोक कवि के साथ बेडरूम में गई और साथ में लोक कवि के बगल में जब एक और लड़की कपड़े उतार कर लेट गई तो वह उचक कर खड़ी हो गई। निर्वस्त्रा ही। चिल्लाने लगी, ‘गुरु जी यहाँ या तो यह रहेगी या मैं।’

‘तुम दोनों रहोगी!’ लोक कवि भी टुन्न थे पर पुचकार कर बोले।

‘नहीं गुरु जी!’ वह अपने खुले बाल और निर्वस्त्रा देह पर कपड़े बांधती हुई बोली।

‘तुम तो जानती हो एक लड़की से मेरा काम नहीं चलता!’

‘नहीं गुरु जी, मैं इस के साथ यहाँ नहीं सोऊंगी। आप तय कर लीजिए कि यहाँ यह रहेगी कि मैं।’

‘इसके पहले तो तुम्हें ऐतराज नहीं था।’ लोक कवि ने उसका मनुहार करते हुए कहा।

‘पर आज ऐतराज है।’ वह चीख़ी।

‘लगता है तुमने जादा पी ली है।’ लोक कवि थोड़ा कर्कश हुए।

‘पिलाई तो आप ही ने गुरु जी!’ वह इतराई।

‘बहको नहीं आ जाओ!’ गुस्सा पीते हुए लोक कवि ने उसे फिर पुचकारा। और लेटे-लेटे उठ कर बैठ गए।

‘कह दिया कि नहीं!’ वह कपड़े पनहते हुए चीख़ी।

‘तो भाग जाओ यहाँ से।’ लोक कवि धीरे से बुदबुदाए।

‘पहले इसको भगाइए!’ वह चहकी, ‘आज मैं अकेली रहूँगी।’

‘नहीं यहाँ से अब तुम जाओ।’

‘नीचे बड़ी भीड़ है गुरु जी।’ वह बोली, ‘फिर सब समझेंगे कि गुरु जी ने भगा दिया।’

‘भगा नहीं रहा हूँ।’ लोक कवि अपने को कंट्रोल करते हुए बोले, ‘नीचे जाओ और रुखसाना को भेज दो!’

‘मैं नहीं जाऊंगी।’ वह फिर इठलाई। लेकिन लोक कवि उसके इस इठलाने पर पिघले नहीं। उलटे उबल पड़े, ‘भाग यहाँ से! तभी से किच्च-पिच्च, भिन्न-भिन्न किए जा रही है। सारी दारू उतार दी।’ वह अब पूरे सुर में थे, ‘भागती है कि भगाऊं!’

‘जाने दीजिए गुरु जी!’ लोक कवि के बगश्ल में लेटी दूसरी लड़की जो निर्वस्त्रा तो थी पर चादर ओढ़े हुए बोली, ‘इतनी रात में कहाँ जाएगी, और फिर मैं ही जाती हूँ रुखसाना को बुला लाती हूँ।’

‘बड़ी हमदर्द हो इसकी?’ लोक कवि ने उसको तरेरते हुए कहा, ‘जाओ दोनों जाओ यहाँ से, और तुरंत जाओ।’ लोक कवि भन्नाते हुए बोले। तब तक पहले वाली लड़की समझ गई कि गड़बड़ ज्यादा हो गई है। सो गुरु जी के पैरों पर गिर पड़ी। बोली, ‘माफ कर दीजिए गुरु जी।’ उसने थोड़ा रुआंसी होने का अभिनय किया और बोली, ‘सचमुच चढ़ गई थी गुरु जी! माफ कर दीजिए!’

‘तो अब उतर गई?’ लोक कवि सारा मलाल धो पोंछ कर बोले।

‘हाँ गुरु जी!’ लड़की बोली।

‘लेकिन मेरी भी दारू तो उतर गई!’ लोक कवि सहज होते हुए दूसरी लड़की से बोले, ‘चल उठ!’ तो वह लड़की जरा सकपकाई कि कहीं बाहर भागने का उसका नंबर तो नहीं आ गया। लेकिन तभी लोक कवि ने उसकी शंका धो दी। बोले, ‘अरे हऊ शराब का बोतल उठा।’ फिर दूसरी लड़की की तरफ देखा और बोले, ‘गिलास पानी लाओ।’ वह जरा मुसकुराए, ‘एक-एक, दो-दो पेग तुम लोग भी ले लो। नहीं काम कैसे चलेगा?’

‘हम तो नहीं लेंगे गुरु जी।’ वह लड़की पानी और गिलास बेड के पास रखी मेज पर रख कर सरकाती हुई बोली।

‘चलो आधा पेग ही ले लो।’ लोक कवि आंख मारते हुए बोले तो लड़की मान गई।

लोक कवि ने खटाखट दो पेग लिए और टुन्न होते कि उसके पहले ही आधा पेग पीने वाली लड़की को अपनी ओर खींच लिया। चूमा चाटा, और उसके सिर पर हाथ रख कर उसे आशीर्वाद दिया और बोले, ‘एक दिन तुम बहुत बड़ी कलाकार बनोगी।’ कह कर उसे अपनी बांहों में भर लिया।

लोक कवि के साथ यह और ऐसी घटनाएं आए दिन की बात थी। बदलती थीं तो सिर्फ लड़कियां और जगह। कार्यक्रम चाहे जिस भी शहर में हो लोक कवि के साथ अकसर यह सब बिलकुल ऐसे-ऐसे ही न सही इस या उस तरह से ही सही पर ऐसा कुछ घट जरूर जाता था। अकसर तो कोई न कोई डांसर उनके साथ बतौर ‘पटरानी’ होती ही थी और यह पटरानी हफ्ते भर की भी हो सकती थी, एक दिन या एक घंटे की भी। महीना, छः महीना या साल दो साल की भी अवधि वाली एकाध डांसर या गायिका बतौर ‘पटरानी’ का दर्जा पाए उन की टीम में रहीं। और उनके लिए लोक कवि भी सर्वस्व तो नहीं लेकिन बहुत कुछ लुटा देते थे।

बात बेबात!

बीच कार्यक्रम में ही वह ग्रीन रूम में लड़कियों को शराब पिलाना शुरू कर देते थे। कोई नई लड़की आनाकानी करती तो उसे डपटते, ‘शराब नहीं पियोगी तो कलाकार कैसे बनोगी?’ वह उकसाते हुए पुचकारते, ‘चलो थोड़ी सी चख लो!’ फिर वह स्टेज पर से कार्यक्रम पेश कर लौटती लड़कियों को लिपटा चिपटा कर आशीर्वाद देते। किसी लड़की से बहुत खुश होने पर उसकी हिप या ब्रेस्ट दबा, खोदिया देते। वह कई बार स्टेज पर भी यह आशीर्वाद कार्यक्रम चला देते। और फिर कई बार बीच कार्यक्रम में ही वह किसी ‘चेला’ टाइप व्यक्ति को बुला कर बता देते थे कि कौन-कौन लड़की ऊपर सोएगी। कई-कई बार वह दो के बजाय तीन-तीन लड़कियों को ऊपर सोने का शेड्यूल बता देते। महीना पंद्रह दिन में वह खुद भी आदिम रूप में आ जाते और संभोग सुख लूटते। लेकिन अकसर उनसे यह संभव नहीं बन पाता था।

कभी कभार तो अजब हो जाता। क्या था कि लोक कवि की टीम में कभी कदा डांसर लड़कियों की संख्या टीम में ज्यादा हो जाती और उनके मुकाबले युवा कलाकारों या संगतकर्ताओं की संख्या कम हो जाती। बाकी पुरुष संगतकर्ता या गायक अधेड़ या वृद्ध होते जिनकी दिलचस्पी गाने बजाने और हद से हद शराब तक होती।

बाकी सेक्स गेम्स में न तो वह अपने को लायक पाते न ही लोक कवि की तरह उनकी दिलचस्पी रहती। और एक-दो युवा कलाकार आखि़र कितनों की आग शांत करते भला? एक-दो में ही वह त्रस्त हो जाते। लेकिन लोक कवि के आर्केस्ट्रा टीम की लड़कियां इतनी बिगड़ चुकी थीं कि गाने बजाने और मयकशी के बाद देह की भूख उन्हें पागल बना देती। वह आधी रात झूमती-बहकती बेधड़क टीम के किसी भी पुरुष से ‘याचना’ कर बैठतीं। और बात जो नहीं बनती तो होटल के कमरे में मचलती वह बेकल हो जातीं और जैसे फरियाद कर बैठतीं, ‘तो कहीं से कोई मर्द बुला दो!’ इस कहने में कुछ शराब, कुछ माहौल, कुछ बिगड़ी आदतें तो कुछ देह की भूख सभी की खुमारी मिली जुली होती। और ऐसी बातें, सूचनाएं लोक कवि तक लगभग नहीं पहुँचतीं। ज्यादातर टीम के लोग ही खुसुर-फुसुर करते रहते। छन-छन कर बिखरी-बिखरी बातें कभी कभार लोक कवि तक पहुँचतीं तो वह उबल पड़ते। और ‘संबंधित’ लड़की को फौरन टीम से ‘आउट’ कर देते। बड़ी निर्ममता से।

बावजूद इस सबके लोक कवि की टीम में एंट्री पाने के लिए लड़कियों की लाइन लगी रहती। कई बार ठीक-ठाक पढ़ी लिखी लड़कियां भी इस लाइन में होतीं। गाने की शौकीन कुछ अफसरों की बीवियां भी लोक गायक के साथ गाने को न सिर्फ उत्सुक दीखतीं, बल्कि लोक कवि के गैराज में मय सिफारिश के पहुँच जातीं। लेकिन लोक कवि बड़ी विनम्रता से हाथ जोड़ लेते। कहते, ‘मैं हूँ अनपढ़ गंवार गवैया। गाँव-गाँव, शहर-शहर घूमता रहता हूँ, नाचता गाता हूँ। होटल मिल जाए, धर्मशाला मिल जाए, स्कूल, स्टेशन कहीं भी जगह मिल जाए सो लेता हूँ। कहीं न जगह मिले तो मोटर या जीप में भी सो लेता हूँ।’ वह फिर हाथ जोड़ते कहते, ‘आप लोग हाई-फाई हैं, आपकी व्यवस्था हम नहीं कर पाऊंगा। माफ कीजिए।’

तो लोक कवि अपनी आर्केस्ट्र टीम में अमूमन हाई-फाई किस्म की लड़कियों, औरतों को एंट्री नहीं देते थे। आम तौर पर निम्न मध्यम वर्ग या निम्न वर्ग की ही लड़कियों को वह अपनी टीम में एंट्री देते और बाद में उन्हें ‘हाई-फाई’ बता बनवा देते। पहले वह जैसे अपने पुराने उदघोषक दुबे जी के परिचय में उन की डी.एसपी. पत्नी और आई.ए.एस. बेटे का बख़ान जरूर करते थे, ठीक वैसे ही वह अब स्टेज पर पढ़ी लिखी लड़कियों का परिचय फला यूनिवर्सिटी से एम.ए. कर रही हैं या बी.ए. पास हैं, या फिर ग्रेजुएट, पोस्ट ग्रेजुएट, बी.एस.सी. वगैरह जुमले लगा कर करने लगे। लेकिन इस फेर में कुछ कम पढ़ी लिखी लड़कियों का ‘मनोबल’ गिरने लगता। तो जल्दी ही इसकी दवा भी लोक कवि ने खोज ली।

लड़की चाहे कम पढ़ी लिखी हो चाहे ज्यादा, किसी भी लड़की को वह ग्रेजुएट से कम स्टेज पर नहीं बताते और यह सब वह सायास लेकिन अनायास अर्थ में पेश करते। बाद में वह ज्यादातर लड़कियों को किसी न किसी जगह पढ़ता बता देते। बताते कि ‘एम.ए. में पढ़ रही हैं पर भोजपुरी में गाने का शौक है तो हमारे साथ आ कर गाने का शौक पूरा कर रही हैं।’ वह जोड़ते, ‘आप लोग इन्हें आशीर्वाद दीजिए।’ यहाँ तक कि वह अपनी उदघोषिका लड़की को भी खुद पेश करते, ‘लखनऊ यूनिवर्सिटी में बी.एस.सी. कर रही हैं....’, तो उदघोषिका तो सचमुच बी.एस.सी. कर रही थी लेकिन कुछ शौक, कुछ घर की आर्थिक दिक्कतों ने उसे लोक कवि की टीम में हिंदी, अंगरेजी और भोजपुरी में एनाउनसिंग करने और जब तब कूल्हा मटकाऊ नृत्य करने के लिए विवश कर रखा था। बाद में उसकी अंगरेजी एनाउंसिंग के चलते जब लोक कवि की ‘मार्केट’ बढ़ी तो लोक कवि ने उसे एक हजार तो कभी डेढ़ हजार रुपए नाइट का भुगतान करना शुरू कर दिया। जब कि बाकी लड़कियां पांच सात सौ, ज्यादा से ज्यादा हजार रुपए नाइट तक ही पाती थीं। और वह भी नाच गाने की मेहनत मशक्श्कत के बाद की ‘सेवा सुश्रुषा’ भी जब-तब जिस तिस को करनी पड़ जाती थी सो अलग।

खै़र, एनाउंसर लड़की तो सचमुच पढ़ रही थी पर कुछ लड़कियां आठवीं, दसवीं या बारहवीं तक ही पढ़ी होतीं, न पढ़ी होतीं तो भी उन्हें स्टेज पर लोक कवि यूनिवर्सिटी में पढ़ता हुआ बता देते। एक लड़की तो दसवीं फेल थी और उसकी माँ सब्जी बेचती थी पर कभी किसी समय वह जबलपुर यूनिवर्सिटी में चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी रह चुकी थी, पति से झगड़े के बाद जबलपुर शहर और नौकरी छोड़ लखनऊ आई थी। पर लोक कवि उसकी लड़की को यूनिवर्सिटी में पढ़ता हुआ तो बताते ही उसकी माँ को भी जबलपुर यूनिवर्सिटी की रिटायर प्रोफेसर बता देते तो संगी साथी कलाकार भी सुन कर फिस्स से हंस देते। डा. हरिवंश राय बच्चन अपनी मधुशाला में जैसे कहते थे कि, ‘मंदिर मस्जिद बैर बढ़ाते, मेल कराती मधुशाला’ कुछ-कुछ उसी तर्ज पर लोक कवि के यहाँ भी कलाकारों में हिंदू-मुस्लिम का भेद ख़त्म हो जाता। कई मुस्लिम लड़कियों के उन्होंने हिंदू नाम रख दिए थे तो कई हिंदू लड़कियों के नाम मुस्लिम। और लड़कियां बाखुशी इसे स्वीकार कर लेतीं। लेकिन तमाम इस सबके लोक कवि के मन में जाने क्यों अपने पिछड़ी जाति के होने की ग्रंथि फिर भी बनी रहती। इस ग्रंथि को ‘कवर’ करने के लिए वह पिछड़ी जाति की लड़कियों के नाम के आगे भी शुक्ला, द्विवेदी, तिवारी, सिंह, चौहान आदि जातीय संबोधन इस गरज से जोड़ देते ताकि लगे कि उनके साथ बड़े घरों की, ऊंची जातियों की लड़कियां भी नाचती गाती हैं।

लोक कवि में इधर और भी बहुतेरे बदलाव आ गए थे। कभी एक ठो कुर्ता पायजामा के लिए तरसने वाले, एक टाइम खाने के जुगाड़ में भटकने वाले लोक कवि अब मिनरल वाटर ही पीते थे। पानी की बोतल हमेशा उनके साथ रहती। वह लोगों से बताते भी कि, ‘खर्चा बढ़ गया है। दो-तीन सौ रुपए का तो मैं पानी ही रोज पी जाता हूँ।’ वह जोड़ते, ‘दारू-शारू, खाने-पीने का खर्चा अलग है।’ अलग बात है अब वह भोजन के नाम पर सूप पर ज्यादा ध्यान देते थे। ‘चिकन सूप, फ्रूट सूप, वेजीटेबिल सूप’ वह बोलते। कई बार तो शराब को भी वह सूप ही बता कर पीते पिलाते। कहते, ‘सूप पीने से ताकत जादा आती है।’ इसी बीच लोक कवि ने एक एयरकंडीशन कार ख़रीद ली। वह अब इसी कार से चलते। बाकायदा ड्राइवर रख कर। लेकिन बाद में वह अपने ड्राइवर की मनमानी से जब तब परेशान हो जाते। पर उसको नौकरी से हटाते भी नहीं थे। अपने संगी साथियों से कहते भी थे, ‘जरा आप लोग इसको समझा दीजिए।’

‘आप खुद क्यों नहीं टाइट कर देते हैं गुरु जी!’ लोग कहते।

‘अरे, इ माली हम राजभर! का टाइट करूंगा इसको।’ कहते हुए लोक कवि बेचारगी में जैसे धंस से जाते थे।

इसी बीच चेयरमैन साहब के सौजन्य से लोक कवि का परिचय एक पत्रकार से हो गया। पत्रकार जाति का ठाकुर था और लोक कवि के पड़ोसी जनपद का वासी था। लोक कवि के गानों का रसिया भी। राजनीतिक हलकों व ब्यूरोक्रेसी में उसकी काफी अच्छी पैठ थी। पहले तो लोक कवि उस पत्रकार से बतियाने में हिचकिचाते थे। संकोचवश नहीं, भयवश। कि जाने क्या अंटशंट उनके बारे में भी वह लिख दे तो! उस पत्रकार ने लिखा भी एक लेख लोक कवि के बारे में। वह भी दिल्ली के एक दैनिक में जिसका कि वह संवाददाता था। पर जैसा कि लोक कवि डरते थे कि उनके बारे में वह कहीं अंट शंट न लिख दे, वैसा नहीं। फिर उस लेख के बाद लोक कवि का यह भय भी धीरे-धीरे छंटने लगा। फिर तो लोक कवि और उस पत्रकार की अकसर छनने लगी। जाम टकराने लगे। इतना कि दोनों ‘हमप्याला, हमनिवाला’ बन गए। जल्दी ही दोनों एक दूसरे को साधने भी लगे। पत्रकार को ‘मनोरंजन’ और शराब का एक ठिकाना मिल गया था और लोक कवि को सम्मान और पब्लिसिटी की द्रौपदी को जीतने का एक कुशल औजार। दोनों एक दूसरे के पूरक बन बाकायदा ‘गिव एंड टेक’ को फलितार्थ कर रहे थे।

लोक कवि पत्रकार को रोज भरपेट शराब मुहैया कराते। और कई बार तो यह दोनों सुबह से ही शुरू हो जाते। ऐसे जैसे बेड टी ले रहे हों। तो पत्रकार लोक कवि के लिए अकसर छोटे मोटे सरकारी कार्यक्रमों से लेकर प्राइवेट कार्यक्रमों तक का पुल बनता। पत्रकार ने उनके सरकारी कार्यक्रमों की फीस भी काफी बढ़वा दी। ब्यूरोक्रेसी पर जोर डाल कर। इतना ही नहीं बाद के दिनों में पिछड़ी जाति के एक नेता जब मुख्यमंत्री बने तो पत्रकार ने अपने संपर्कों और परिचय के बल पर लोक कवि की वहाँ भी एंट्री करवा दी। लोक कवि खुद भी पिछड़ी जाति के थे और मुख्य मंत्री भी पिछड़ी जाति के। सो दोनों की ट्यूनिंग इतनी ज्यादा जुड़ गई कि लोक कवि की पहचान मुख्यमंत्री की उपजाति के तौर पर फैलने लगी। तब जब कि लोक कवि उस उपजाति के नहीं थे। लेकिन चूंकि पहले ही से वह अपने नाम के आगे सरनेम लिखते ही नहीं थे, सो मुख्यमंत्री का सरनेम जब उनके नाम के आगे लगने लगा तो किसी को आपत्ति नहीं हुई। आपत्ति जिसको होनी चाहिए थी, वह लोक कवि ही थे पर उन्हें कोई आपत्ति थी नहीं। गाहे-बेगाहे जब उनका सरनेम जानने वाला कोई उन्हें टोकता कि, ‘का भई, यादव कब से हो गए?’ तो लोक कवि हंस कर बात को टाल जाते। टाल इसलिए जाते कि वह यादव न होते हुए भी ‘यादव’ को कैश कर रहे थे। यादव मुख्यमंत्री के करीब होने का सुख लूट रहे थे। इतना ही नहीं यादव समाज में भी अब लोक कवि ही ज्यादातर कार्यक्रमों के लिए बुलाए जाते। और बैनरों, पोस्टरों पर लोक कवि के नाम के साथ यादव भी उसी प्रमुखता से लिखा होता। यादव समाज में लोक कवि के लिए एक भावुक भारी स्वीकृति उमड़ने लगी। यादव समाज के कर्मचारी, पुलिस वाले तो आकर बड़ी श्रद्धा से लोक कवि के पांव छू कर छाती फुला लेते और कहते, ‘आपने हमारी बिरादरी का नाम रोशन कर दिया।’ प्रत्युत्तर में लोक कवि विनम्र भाव से बस मुसकुरा देते।

यादव समाज के कई अफसर भी लोक कवि को उन्हीं भावुक आंखों से देखते और हर संभव उनकी मदद करते, उनके काम करते।