लोक कवि अब गाते नहीं / पृष्ठ 4 / दयानंद पाण्डेय

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कुछ ही समय में लोक कवि का रुतबा इतना बढ़ गया कि तमाम किस्म के लोगों को मुख्यमंत्री से मिलवाने के लिए वह पुल बन गए। छुटभैया नेता, अफसर, ठेकेदार और यहाँ तक कि यादव समाज के लोग भी मुख्यमंत्री से मिलने के लिए, मुख्यमंत्री से काम करवाने के लिए लोक कवि को संपर्क साधन बना बैठे। अफसरों को पोस्टिंग, ठेकेदारों को ठेका तो वह दिलवा ही देते, कुछ नेताओं को चुनाव में पार्टी का टिकट दिलवाने का आश्वासन भी वह देने लगे। और जाहिर है कि यह सब कुछ लोक कवि की बुद्धि और सामर्थ्य से परे था। परदे के बाहर यह सब करते लोक कवि जरूर थे पर परदे के पीछे तो लोक कवि के पड़ोसी जनपद का वह पत्रकार ही था जिसे चेयरमैन साहब ने लोक कवि से मिलवाया था। और यह सब करके लोक कवि मुख्यमंत्री के करीब सचमुच उतने नहीं हो पाए थे जितना कि उनके बारे में प्रचारित हो गया था। सचमुच में यह सब कर के मुख्यमंत्री के ज्यादा करीब वह पत्रकार ही हुआ था।

लोक कवि तो बस मुखौटा भर बन कर रह गए थे।

इस मुख्यमंत्री ने विभिन्न विधाओं के कलाकारों में पैठ बनाने के मकसद से उन्हें उपकृत करने के लिए एक नए लखटकिया सम्मान की घोषणा की। जिस में दो, पांच और पचास लाख तक की नकद सम्मान राशि समाहित थी। साथ ही संबंधित कलाकार के गृह जनपद या जहाँ भी उसे सम्मानित किया जाता उसके नाम पर किसी सड़क का भी नाम रखने का प्राविधान रखा। इस सम्मान से कई नामी गिरामी फिल्मी कलाकार, निर्देशक अभिनेता, गायक तो सम्मानित किए ही गए एक सुपरस्टार को मुख्यमंत्री ने अपने गृह जनपद ले जा कर पचास लाख रुपए के पुरस्कार से सम्मानित किया। इस सम्मान समारोह में लोक कवि ने भी कार्यक्रम पेश किया। उनका एक गाना, ‘हीरो बंबे वाला लमका झूठ बोलेला।’ सिर चढ़ कर बोला। और उनकी खूब वाह-वाह हुई।

लेकिन लोक कवि खुश नहीं थे।

लोक कवि का गम यह था कि वह मुख्यमंत्री के करीबी माने जाते थे, उनकी बिरादरी के न हो कर भी उनकी बिरादरी के माने जाते थे। और इससे भी बड़ी बात यह थी कि वह कलाकार भी ख़राब नहीं थे। मुख्यमंत्री की बहुत सारी सभाएं बिना लोक कवि के गायन के शुरू नहीं होती थीं तो भी वह इस लखटकिया सम्मान से वंचित थे। तब जब कि एक माने हुए फिल्म निर्देशक ने तो मुख्यमंत्री को बाकायदा चिट्ठी लिख कर कहा था कि, ‘फलां तारीख़ को मेरा जन्म दिन है चाहूँगा कि आप इस मौके पर मुझे भी सम्मान से नवाज दें।’ और मुख्यमंत्री ने उस फिल्म निर्देशक का अनुरोध मान लिया था। उसे सम्मानित किया था। कहा गया कि यह मुस्लिम तुष्टिकरण है। वह फिल्म निर्देशक मुस्लिम था। पर यह सब कहने सुनने की बातें थीं। सच यह था कि उस फिल्म निर्देशक में सचमुच काबिलियत थी और उसने कम से कम दो लैंड मार्क फिल्में तो बनाई ही थीं। हाँ, लेकिन मुख्यमंत्री को फिल्म निर्देशक द्वारा चिट्ठी लिख कर अपने को सम्मानित करने का अनुरोध करना जरूर निंदा का विषय था। एक सांध्य दैनिक में फिल्म निर्देशक की इस चिट्ठी की फोटो कापी छप जाने से यह निंदा हुई भी। पर गनीमत यह थी कि यह चिट्ठी एक सांध्य दैनिक में छपी थी सो बात ज्यादा नहीं फैली। लेकिन इस सबसे न सिर्फ इस फिल्म निर्देशक की थू-थू हुई बल्कि इस लखटकिया पुरस्कार की भी ख़ूब छिछालेदर हुई।

लेकिन लोक कवि का इस सब से कुछ लेना देना नहीं था। उन की चिंता यह थी कि इस सम्मान से वह क्यों वंचित हैं।

बाद में तो कई लोग टोकते तो कुछ लोग तंज करने के अंदाज में लोक कवि से पूछने भी लगे, ‘आप कब सम्मानित हो रहे हैं?’ तो लोक कवि खिसियानी हंसी हंस कर टाल जाते। कहते, ‘अरे, मैं तो बहुत छोटा कलाकार हूँ!’ पर मन ही मन सुलग जाते।

आखि़र इस सुलगन को विस्तार एक रोज शराब पीते हुए उन्होंने पत्रकार को दिया। पत्रकार टुन्नावस्था को प्राप्त हो रहा था। सब कुछ सुन कर वह उछलते हुए बोला, ‘तो आपने पहले ही क्यों नहीं यह इच्छा बताई?’

‘तो इ सब अब हमको ही बताना पड़ेगा?’ लोक कवि शिकायत करते हुए बोले, ‘आपकी कुछ जिम्मेदारी नहीं है?’ वह तुनके, ‘आपको खुदै यह करा देना था!’

‘हाँ। भाई करा दूँगा। दुखी मत होइए।’ कह कर पत्रकार ने लोक कवि को सांत्वना दी। फिर कहा कि, ‘बकिर एक काम हमारा भी करवा दीजिएगा।’

‘कोई काम आपका रुका भी है ?’ लोक कवि तरेर कर बोले। वह तनाव में थे भी।

‘लेकिन यह काम थोड़ा दूसरे किसिम का है!’

‘का है ?’ लोक कवि का तनाव थोड़ा-थोड़ा छंटने लगा था।

‘आपके यहाँ एक डांसर है।’ पत्रकार ने आह भरी और जोड़ा, ‘बड़ी कटीली है। उसके कट्स भी गजब के हैं। बिलकुल नसें तड़का देती है।’

‘अलीशा न!’ लोक कवि ने पत्रकार की नस पकड़ी।

‘नहीं, नहीं!’

‘तो और कवन है हमारे यहाँ ऐसी कंटीली डांसर जो आप की नसें तड़का दे रही है ?’

‘ऊ जो निशा तिवारी है न!’ पत्रकार सिसकारी भरी आह भरते हुए बोला।

‘त उसको तो भूल जाइए आप।’

‘क्या ?’

‘हाँ।’

‘तो आप भी लोक कवि ई सम्मान को भूल जाइए।’

‘नाराज काहें हो रहे हैं आप!’ लोक कवि पुचकारते हुए बोले, ‘और भी कई हसीन-हसीन लड़कियां हैं।’

‘नहीं लोक कवि अभी वही चाहिए!’ पत्रकार पूरे रूआब और शराब में बोला।

‘उसमें है का ?’ लोक कवि मनुहार करते हुए बोले, ‘उससे अच्छी तो अलीशा है!’

‘अलीशा नहीं लोक कवि निशा! निशा कहिए। निशा तिवारी!’

‘चलिए हम मान गए। लेकिन ऊ मानेगी नहीं।’ लोक कवि मन मसोस कर बोले। आखि़र लखटकिया सम्मान की द्रौपदी जीतने का प्रश्न था।

‘क्यों नहीं मानेगी ?’ पत्रकार भड़का, ‘आप तो अभी से काटने में लग गए हैं।’

‘काट नहीं रहा हूँ। हकीकत बता रहा हूँ।’

‘चलिए आप की ओर से ओ.के. है ?’

‘हाँ, भाई ओ.के. है।’

‘तो फिर इधर भी डन है।’

‘का डन है ?’ लोक कवि पत्रकार की अंगरेजी समझे नहीं थे।

‘अरे, मतलब आपका सम्मान हो गया।’

‘कहाँ हुआ, कब हुआ मेरा सम्मान?’ लोक कवि घबराए हुए बोले, ‘सब जबानी-जबानी हो गया!’ वह बुदबुदाए भी कि ‘जब आप को चढ़ जाती है तो अइसेही इकट्ठे दस ठो ताजमहल खड़ा कर देते हैं।’ पर सच यह था कि लोक कवि को भी चढ़ गई थी।

‘काहें घबराते हैं लोक कवि!’ पत्रकार बोला, ‘डन कह दिया तो हो गया।’ वह अटका, ‘मतलब आपका काम हो गया। हो गया समझिए। अब यह मेरी प्रतिष्ठा की बात है कि आपको यह सम्मान दिलवाएं। मुख्यमंत्री साले से कल ही बात करता हूँ।’

‘गाली जिन दीजिए!’

‘काहें नहीं दूँगा। बंबई से साले आ-आ कर सम्मान पैसा ढो ले जा रहे हैं और एहीं बैठे हमारे लोक कवि को पूछा ही नहीं।’ वह बहकता हुआ बोला, ‘आज तो गाली दूँगा कल भले ही नहीं दूं।’

‘देखिएगा कहीं गाली गलौज में काम न बिगड़ जाए।’ लोक कवि ने आगाह किया।

‘कहीं काम नहीं बिगड़ेगा। अब आप सम्मानित होने की तैयारी करिए और किसी दिन निशा के इंतजाम की भी तैयारी नहीं भूलिएगा।!’ कह कर पत्रकार ने गिलास में बची शराब खटाक से देह में ढकेली और उठ खड़ा हुआ।

‘अच्छा त प्रणाम!’ लोक कवि सम्मान मिलने की खुशी में भावुक होते हुए बोले।

‘मैं तो जा ही रहा हूँ। तो ‘प्रणाम’ काहे कह रहे हैं ?’ पत्रकार बिदकता हुआ बोला। पत्रकार दरअसल लोक कवि द्वारा कहे गए ‘प्रणाम’ के निहितार्थ को अब तक जान चुका था कि लोक कवि अमूमन किसी उपस्थित को टरकाने भगाने की गरज से ‘प्रणाम’ कहते थे।

‘गलती हो गई।’ कह कर लोक कवि ने पत्रकार के पांव छू लिए और बोले, ‘पालागी।’

‘तो ठीक है कल परसों में मुख्यमंत्री से संपर्क साधता हूँ। और बात करता हूँ।’ पत्रकार चलते हुए बोला, ‘लेकिन आप इसे डन समझिए।’

‘डन ? मतलब का बताए थे आप ?’

‘मतलब काम हो गया समझिए।’

‘आप की किरपा है।’ लोक कवि ने फिर उसके पांव छू लिए।

कल परसों में तो जैसा कि पत्रकार ने लोक कवि को आश्वासन दिया था बात नहीं बनी लेकिन बरसों भी नहीं लगे। कुछ महीने लगे। लोक कवि को इसके लिए बाकायदा आवेदन देना पड़ा। फाइलबाजी और कई गैर जरूरी औपचारिकताओं की सुरंगों, खोहों और नदियों से लोक कवि को गुजरना पड़ा।

बाकी चीजों की तो लोक कवि को जैसे आदत सी हो चली थी लेकिन जब पहले आवेदन देने की बात आई तो लोक कवि बुदबुदाए भी कि, ‘इ सम्मान तो जइसे नौकरी हो गया है।’ फिर उन्हें अपने आकाशवाणी वाले ऑडिशन टेस्ट के दिनों की याद आ गई। जिस में वह कई बार फेल हो चुके थे। उन दिनों की याद कर के वह कई बार घबराए भी कि कहीं इस सम्मान से भी ‘आउट’ हो गए तो ? फिर फेल हो गए तो ? तब तो समाज में बड़ी फजीहत हो जाएगी। और मार्केट पर भी असर पड़ेगा। लेकिन उन्हें अपनी किस्मत पर गुमान था और पत्रकार पर भरोसा। पत्रकार पूरे मनोयोग से लगा भी रहा। बाद में तो उसने इसे अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया।

और अंततः लोक कवि के सम्मान की घोषणा हो गई। बाकी तिथि, दिन, समय और स्थान की घोषणा शेष रह गई थी। इसमें भी बड़ी दिक्कतें पेश आईं। लोक कवि एक रात शराब पी कर होश और पेशेंस दोनों खो बैठे। कहने लगे, ‘जहाँ कलाकार हूँ वहाँ हूँ। मुख्यमंत्री के यहाँ तो भडुवे से भी गई गुजरी स्थिति हो गई है हमारी।’ वह भड़के, ‘बताइए सम्मान के लिए अप्लीकेशन देना पड़ा जैसे सम्मान नहीं नौकरी माँग रहे हों। चलिए अप्लीकेशन दे दिया। और भी जो करम करवाया कर दिया। सम्मान ‘एलाउंस’ हो गया। अब डेट एलाउंस करवाने में पापड़ बेल रहा हूँ। हम भी और पत्रकार भी। वह और जोर से भड़के, ‘बताइए इ हमारा सम्मान है कि अपमान! बताइए आप ही लोग बताइए!’ वह दारू महफिल में बैठे लोगों से प्रश्न पूछ रहे थे। पर इस के भी उत्तर में सभी लोग ख़ामोश थे। लोक कवि की पीर को पर्वत में तब्दील होते देख सभी लोग दुखी थे। चुप थे। पर लोक कवि चुप नहीं थे। वह तो चालू थे, ‘बताइए लोग समझते हैं कि मैं मुख्यमंत्री का करीबी हूँ, मेरे गाए बिना उनका भाषण नहीं होता और न जाने क्या-क्या!’ वह रुके और गिलास की शराब देह में ढकेलते हुए बोले, ‘लेकिन लोग का जानें कि जो सम्मान बंबई के भडुवे बेभाव यहाँ से बटोर कर ले जा रहे हैं वही सम्मान यहाँ के लोग पाने के लिए अप्लीकेशन दे रहे हैं। नाक रगड़ रहे हैं।’ इस दारू महफिल में संयोग से लोक कवि का एकालाप सुनते हुए चेयरमैन साहब भी उपस्थित थे लेकिन वह भी सिरे से ख़ामोश थे। दुखी थे लोक कवि के दुख से। लोक कवि अचानक भावुक हो गए और चेयरमैन साहब की ओर मुख़ातिब हुए, ‘जानते हैं, चेयरमैन साहब, ई अपमान सिर्फ मेरा अपमान नहीं है सगरो भोजपुरिहा का अपमान है।’ बोलते-बोलते अचानक लोक कवि बिलख कर रो पड़े। रोते-रोते ही उन्होंने जोड़ा, ‘एह नाते जे ई मुख्यमंत्री भोजपुरिहा नहीं है।’

‘ऐसा नहीं है।’ कहते-कहते चेयरमैन साहब जो बड़ी देर से ख़ामोशी ओढ़े हुए लोक कवि के दुख में दुखी बैठे थे, उठ खड़े हुए। वह लोक कवि के पास आए खड़े-खड़े ही लोक कवि के सिर के बालों को सहलाया, उनकी गरदन को हौले से अपनी कांख में भरा लोक कवि के गालों पर उतर आए आंसुओं को बड़े प्यार से हाथ से ही पोंछा और पुचकारा। फिर आह भर कर बोले, ‘का बताएं अब हमारी पार्टी की सरकार नहीं रही, न यहाँ, न दिल्ली में।’ वह बोले, ‘लेकिन घबराने और रोने की बात नहीं। कल ही मैं पत्रकार को हड़काता हूँ। दो-एक अफसरों से बतियाता हूँ। कि डेट डिक्लेयर करो!’ वह थोड़ा अकड़े और बोले, ‘ख़ाली सम्मान डिक्लेयर करने से का होता है?’ फिर वह लोक कवि के पास ही अपनी कुर्सी खींच कर बैठ गए। और लोक कवि से बोले, ‘लेकिन तुम धीरज काहे को खोते हो। सम्मान डिक्लेयर हुआ है तो डेट भी डिक्लेयर होगा ही। सम्मान भी मिलेगा ही।’

‘लेकिन कब ?’ लोक कवि अकुलाए, ‘दुई महीना त हो गया।’

‘देखो ज्यादा उतावलापन ठीक नहीं।’ चेयरमैन साहब बोले, ‘तुम्हीं कहा करते हो कि ज्यादा कसने से पेंच टूट जाता है तो का होगा ? जइसे दो महीना बीता चार छः महीना और सही।’

‘चार छः महीना!’ लोक कवि भड़के।

‘हाँ भई, ज्यादा से ज्यादा।’ चेयरमैन साहब लोक कवि को दिलासा देते हुए बोले, ‘एसे ज्यादा का सताएंगे साले।’

‘यही तो दिक्कत है चेयरमैन साहब।’

‘का दिक्कत है ? बताओ भला ?’

‘आप कह रहे हैं न कि ज्यादा से ज्यादा चार छः महीना!’

‘हाँ, कह रहा हूँ।’ चेयरमैन साहब सिगरेट जलाते हुए बोले।

‘तो यही तो डर है कि का पता छः महीना इ सरकार रहेगी भी कि नहीं। कहीं गिर गिरा गई तो ?’

‘बड़ा दूर का सोचता है तुम भई।’ चेयरमैन साहब दूसरी सिगरेट सुलगाते हुए बोले, ‘कह तुम ठीक रहे हो। इ साले रोज तो अखाड़ा खोल रहे हैं। कब गिर जाए सरकार कुछ ठीक नहीं। तुम्हारी चिंता जायज है कि यह सरकार गिर जाए और अगली सरकार जिस भी किसी की आए, क्या गारंटी है कि इस सरकार के फैसलों को वह सरकार भी माने ही!’

‘तो ?’

‘तो का। कल ही कुछ करता हूँ।’ कह कर घड़ी देखते हुए चेयरमैन साहब उठ गए। बाहर आए। लोक कवि के साथ और लोग भी आ गए।

चेयरमैन साहब की एंबेसडर स्टार्ट हो गई और इधर दारू महफिल बर्खास्त।

दूसरी सुबह चेयरमैन साहब ने पत्रकार से इस विषय पर फोन पर चर्चा की, रणनीति के दो तीन गणित बताए और कहा कि, ‘क्षत्रिय हो कर भी तुम इस अहिर मुख्यमंत्री के मुंहलगे हो, अफसरों की ट्रांसफर-पोस्टिंग करवा सकते हो, लोक कवि के लिए सम्मान डिक्लेयर करवा सकते हो, पचासियों और काम करवा सकते हो लेकिन लोक कवि के सम्मान की डेट नहीं डिक्लेयर करवा सकते?’

‘का बात करते हैं चेयरमैन साहब। बात चलाई तो है डेट के लिए भी। डेट भी जल्दी एनाउंस हो जाएगी।’ पत्रकार निश्चिंत भाव से बोला।

‘कब एनाउंस होगी डेट जब सरकार गिर जाएगी तब ? उधर लोक कविया अफनाया हुआ है।’ चेयरमैन साहब भी अफनाए हुए बोले।

‘सरकार तो अभी नहीं गिरेगी।’ पत्रकार ने, गहरी सांस ली और बोला, ‘अभी तो चेयरमैन साहब, चलेगी यह सरकार। बाकी लोक कवि के सम्मान की डेट एनाउंसमेंट ख़ातिर कुछ करता हूँ।’

‘जो भी करना हो भाई जल्दी करो।’ चेयरमैन साहब बोले, ‘यह भोजपुरिहों के आन की बात है। और फिर कल यही बात कर के लोक कवि रो पड़ा।’ वह बोले, ‘और सही भी यही है कि इस अहिर मुख्यमंत्री ने किसी और भोजपुरिहा को तो अभी तक इ सम्मान दिया नहीं है। तुम्हारे कहने सुनने से लोक कवि को अहिर मान कर जो कि वह है नहीं किसी तरह सम्मान डिक्लेयर कर दिया लेकिन डेट डिक्लेयर करने में उसकी क्यों फाट रही है?’

‘ऐसा नहीं है चेयरमैन साहब।’ वह बोला, ‘जल्दी ही मैं कुछ करता हूँ।’

‘हाँ भाई, जल्दी कुछ करो कराओ। आखि़र भोजपुरी के आन-मान की बात है!’

‘बिलकुल चेयरमैन साहब!’

अब चेयरमैन साहब को कौन बताता कि इन पत्रकार बाऊ साहब के लिए भी लोक कवि के सम्मान की बात उन की जरूरत और उनके आन की भी बात थी। यह बात चेयरमैन साहब को भी नहीं, सिर्फ लोक कवि को ही मालूम थी और पत्रकार बाऊ साहब को। पत्रकार ने कहीं इसकी फिर चर्चा नहीं की। और लोक कवि ने इस बात को किसी को बताया नहीं। बताते भी कैसे भला? लोक कवि खुद ही इस बात को भूल चुके थे।

डांसर निशा तिवारी की बात!

लेकिन पत्रकार को यह बात याद थी। चेयरमैन साहब से फोन पर बात के बाद पत्रकार की नसें निशा तिवारी के लिए फिर तड़क गई। नस-नस में निशा का नशा दौड़ गया। और दिमाग को भोजपुरी के आन के सवाल ने डंस लिया।

पत्रकार चाहता तो जैसे मुख्यमंत्री से कह कर लोक कवि का सम्मान घोषित करवाया था, वैसे ही उन से कह कर तारीख़ भी घोषित करवा सकता था। पर जाने क्यों ऐसा करने में उसे हेठी महसूस हुई। सो चेयरमैन साहब की बताई रणनीति को तो पत्रकार ने ध्यान में रखा ही खुद भी एक रणनीति बनाई। इस रणनीति के तहत उसने कुछ नेताओं से फोन पर ही बात की। और बात ही बात में लोक कवि के सम्मान का जिक्र चलाया और कहा कि आप अपने क्षेत्र में ही क्यों नहीं इस का आयोजन करवा लेते? कमोवेश हर नेता से उसके क्षेत्र के मुताबिक गणित बांध कर लगभग अपनी ही बात नेता के मुंह में डाल कर उस से पत्रकार ने प्रतिक्रियात्मक टिप्पणी ले ली। एक मंत्री से कहा कि बताइए उसका गृह जनपद और आपका क्षेत्र सटे-सटे हैं तो क्यों नहीं सम्मान समारोह आप अपने क्षेत्र में करवाते हैं, आपकी धाक बढ़ेगी। किसानों के एक नेता से कहा कि बताइए लोक कवि तो अपने गानों में किसानों और उनकी माटी की ही बात गाते हैं और सही मायने में लोक कवि का श्रोता वर्ग भी किसान वर्ग है। किसानों, मेड़, खेत खलिहानों में गानों के मार्फत जितनी पैठ लोक कवि की है, उतनी पैठ है और किसी की? नहीं न, तो आप इसमें पीछे क्यों हैं? और सच यह है कि इस सम्मान समारोह के आयोजन का संचालन सूत्र सही मायने में आपके ही हाथों होना चाहिए। जब कि मजदूरों की एक बड़ी महिला नेता और सांसद से कहा कि शाम को थक हार कर मजदूर लोक कवि के गानों से ही थकावट दूर करता है तो मजदूरों की भावनाओं को समझने वाले गायक का सम्मान मजदूरों के ही शहर में होना चाहिए। और जाहिर है सभी नेताओं ने लोक कवि के सम्मान की क्रेडिट लेने, वोट बैंक पक्का करने के फेर में लोक कवि का सम्मान अपने-अपने क्षेत्रों में कराने की गणित पर अपनी-अपनी टिप्पणियों में जोर मारा। बस पत्रकार का काम हो गया था। उसने दो एक दिन और इस चर्चा को हवा दी और हवा ने चिंगारी को जब शोला बनाना शुरू कर दिया तभी पत्रकार ने अपने अख़बार में एक स्टोरी फाइल कर दी कि लोक कवि के सम्मान की तारीख़ इस लिए फाइनल नहीं हो पा रही है कि क्यों कि कई नेताओं में होड़ लग गई है। अपने-अपने क्षेत्र में लोक कवि का सम्मान हर नेता करवाना चाहता है। तब जब कि पत्रकार भी जानता था कि योजना के मुताबिक लोक कवि का सम्मान उनके गृह जनपद में ही संभव है फिर भी लगभग सभी नेताओं की टिप्पणियों को वर्बेटम कोड करके लिखी इस ‘स्टोरी’ से न सिर्फ लोक कवि के सम्मान की तारीख़ जल्दी ही घोषित हो गई बल्कि उन के गृह जनपद की जगह भी घोषित हो गई। साथ ही लोक कवि की ‘लोकप्रियता’ की पब्लिसिटी भी हो गई।

लोक कवि की लय इन दिनों कार्यक्रमों में देखते ही बनती थी। ऐसे ही एक कार्यक्रम में पत्रकार भी पहुँच गया। ग्रीन रूम में बैठ कर शराब पीते हुए बार-बार कपड़े बदलती हुई लड़कियों की देह भी वह कभी कनखियों से तो कभी सीधे देखता रहा। पत्रकार की मयकशी में मंच से आते-जाते लोक कवि भी शरीक होते रहे। दो तीन लड़कियों को भी चोरी छुपे पत्राकर ने दो एक पेग पिला दी। एक लड़की पर दो चार बार हाथ भी फेरा। इस फेर में डांसर निशा तिवारी को भी उसने पास बुलाया। लेकिन वह पत्रकार के पास नहीं फटकी। उलटे तरेरने लगी। पत्रकार ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी और शराब पीता रहा। जाने उसकी ठकुराई उफना गई कि शराब का सुरूर था कि निशा की देह की ललक, चद्दर ओढ़ कर कपड़े बदलती निशा को पत्रकार ने अचानक लपक कर पीछे से दबोच लिया। वह उसे वहीं लिटाने के उपक्रम में था कि निशा तब तक संभल चुकी थी और उसने पलट कर ठाकुर साहब को दो तीन थप्पड़ धड़ाधड़ रसीद किए और दोनों हाथों से पूरी ताकत भर ढकेलते हुए बोली, ‘कुत्ते, तेरी यह हिम्मत!’ ठाकुर साहब पिए हुए तो थे ही निशा के ढकेलते ही वह भड़भड़ा कर गिर पड़े। निशा ने सैंडिल पैर से निकाले और ले कर बाबू साहब की ओर लपकी ही थी कि मंच पर इस बारे में ख़बर सुन कर ग्रीन रूम में भागे आए लोक कवि ने निशा के सैंडिल वाले हाथों को पीछे से थाम लिया। बोले, ‘ये क्या कर रही है ?’ वह उस पर बिगड़े भी, ‘चल पैर छू कर माफी माँग।’