लोक कवि अब गाते नहीं / पृष्ठ 5 / दयानंद पाण्डेय

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‘माफी मैं नहीं ये मुझसे माँगें गुरु जी!’ निशा बिफरी, ‘बदतमीजी इन्होंने मेरे साथ की है।’

‘धीरे बोलो! धीरे।’ लोक कवि खुद आधे सुर में बोले, ‘मैं कह रहा हूँ माफी माँगो।’

‘नहीं, गुरु जी।’

‘माँग लो मैं कह रहा हूँ।’ कह कर लोक कवि बोले, ‘यह भी तुम्हारे लिए गुरु हैं।’

‘नहीं गुरु जी!’

‘जैसा कह रहा हूँ फौरन करो!’ वह बुदबुदाए, ‘तमाशा मत बनाओ। और जैसा यह करें करने दो।’ लोक कवि और धीरे से बोले, ‘जैसा कहें, वैसा करो।’

‘नहीं!’ निशा बोली तो धीरे से लेकिन पूरी सख़्ती से। लोक कवि ने यह भी गौर किया कि इस बार उसने ‘नहीं’ के साथ ‘गुरु जी’ का संबोधन भी नहीं लगाया। इस बीच पत्रकार बाबू साहब तो लुढ़के ही पड़े रहे पर आँखों में उनकी आग खौल रही थी। ग्रीन रूम में मौजूद बाकी लड़कियां, कलाकार भी सकते में थे पर ख़ामोशी भरा गुस्सा सबकी आँखों में सुलगता देख लोक कवि असमंजस में पड़ गए। उन्होंने अपनी एक ‘लेफ्टीनेंट’ लड़की को आँखों ही आँखों में निशा को संभालने के लिए कहा और खुद पत्रकार की ओर बढ़ गए। एक कलाकार की मदद से उन्होंने पत्रकार को उठाया। बोले, ‘आप भी ई सब का कर देते हैं बाबू साहब?’

‘देखिए लोक कवि मैं और बेइज्जती बर्दाश्त नहीं कर सकता।’ बाबू साहब दहाड़े, ‘जरा सा पकड़ लिया इस छिनार को तो इसकी ये हिम्मत।’

‘धीरे बोलिए बाबू साहब।’ लोक कवि बुदबुदाए, ‘बाहर हजारों पब्लिक बैठी है। का कहेंगे लोग!’

‘चाहे जो कहें। मैं आज मानने वाला नहीं।’ बाबू साहब बोले, ‘आज यह मेरे नीचे सोएगी। बस! मैं इतना ही जानता हूँ।’ नशे में वह बोले, ‘मेरे नीचे सोएगी और मुझे डिस्चार्ज करेगी। इससे कम पर कुछ नहीं!’

‘अइसेहीं बात करेंगे?’ लोक कवि बाबू साहब के पैर छूते हुए बोले, ‘आप बुद्धिजीवी हैं। ई सब शोभा नहीं देता आप को।’

‘आप को शोभा देता है ?’ बाबू साहब बहकते हुए बोले, ‘आपका मेरा सौदा पहले ही हो चुका है। आपका काम तो डन हो गया और मेरा काम ?’

बाबू साहब की बात सुन कर लोक कवि को पसीना आ गया। फिर भी वह बुदबुदाए, ‘अब इहाँ यही सब चिल्लाएंगे ?’ वह भुनभुनाए, ‘ई सब घर चल कर बतियाइएगा।’

‘घर क्यों ? यहीं क्यों नहीं!’ बाबू साहब लोक कवि पर बिगड़ पड़े, ‘बोलिए आज यह मुझे डिस्चार्ज करेगी कि नहीं ? मेरे नीचे लेटेगी कि नहीं ?’

‘इ का-का बोल रहे हैं ?’ लोक कवि हाथ जोड़ते हुए खुसफुसाए।

‘कोई खुसफुस नहीं।’ बाबू साहब बोले, ‘क्लियर-क्लियर बता दीजिए हाँ कि ना!’

‘चुप भी रहेंगे कि अइसेही बेइज्जती कराएंगे?’

‘मैं समझ गया आप अपने वायदे से मुकर रहे हैं।’

लोक कवि चुप हो गए।

‘ख़ामोशी बता रही है कि वादा टूट गया है।’ बाबू साहब ने लोक कवि को फिर कुरेदा।

लेकिन लोक कवि फिर भी चुप रहे।

‘तो सम्मान कैंसिल!’ बाबू साहब ने बात जरा और जोर से दोहराई, ‘लोक कवि आपका सम्मान कैंसिल! मुख्यमंत्री का बाप भी अब आप को सम्मान नहीं दे पाएगा।’

‘चुप रहीं बाबू साहब!’ लोक कवि के एक साथी कलाकार ने हाथ जोड़ते हुए कहा, ‘बाहर बड़ी पब्लिक है।’

‘कुछ नहीं सुनना मुझे!’ बाबू साहब बोले, ‘लोक कवि ने निशा कैंसिल की और मैंने सम्मान कैंसिल किया। बात ख़त्म।’ कह कर बाबू साहब शराब की बोतल और गिलास एक-एक हाथ में लिए उठ खड़े हुए। बोले, ‘मैं चलता हूँ।’ और वह सचमुच ग्रीन रूम से बाहर निकल गए। माथे पर हाथ रखे बैठे लोक कवि ने चैन की सांस ली। कलाकारों को हाथ के इशारे से आश्वस्त किया। निशा के सिर पर हाथ रख कर उसे आशीर्वाद दिया, ‘जीती रहो।’ फिर बुदबुदाए, ‘माफ करना!’

‘कोई बात नहीं गुरु जी।’ कह कर निशा ने भी अपनी ओर से बात ख़त्म की। लेकिन लोक कवि रो पड़े। भरभर-भरभर। लेकिन जल्दी ही उन्होंने कंधे पर रखे अंगोछे से आँख पोंछी, धोती की निचली कोर उठाए, हाथ में तुलसी की माला लिए मंच के पीछे पहुँच गए। उन्हीं का लिखा युगल गीत उन के साथी कलाकार गा रहे थे, ‘अंखिया बता रही है लूटी कहीं गई है।’ लोक कवि ने पैरों को गति दे कर थोड़ा थिरकने की कोशिश की और एनाउंसर को इशारा किया कि मुझे मंच पर बुलाओ।

एनाउंसर ने ऐसा ही किया। लोक कवि मंच पर पहुंचे और इशारा कर कंहरवा धुन पकड़ी। फिर भरे गले से गाने लगे, ‘नाचे न नचावै केहू पइसा नचावेला।’ गाते-गाते पैरों को गति दी पर पैर तो क्या मन ने भी साथ नहीं दिया। अभी वह पहले अंतरे पर ही थे कि उनकी आँख से आँसू फिर ढलके। लेकिन वह गाते ही रहे, ‘नाचे न नचावै केहू पइसा नचावेला।’ इस समय उनकी इस गायकी की लय में ही नहीं, उन के पैरों की थिरकन में भी अजीब सी करुणा, लाचारी और बेचारगी समा गई थी। वहाँ उपस्थित श्रोताओं दर्शकों ने ‘इस सब’ को लोक कवि की गायकी का एक अविरल अंदाज माना लेकिन लोक कवि के संगी साथी भौचक्के भी थे और सन्न भी। लेकिन लोक कवि असहज होते हुए भी गायकी को साधे हुए थे। हालांकि सारा रियाज रिहर्सल धरा का धरा रहा गया था संगतकार साजिंदों का। लेकिन जैसे लोक कवि की गायकी ने बेचारगी की लय थाम ली थी संगतकार भी ‘फास्ट’ की जगह ‘स्लो’ हो गए थे बिन संकेत, बिन कहे।

और यह गाना ‘नाचे न नचावै केहू पइसा नचावेला’ सचमुच विरल ही नहीं, अविस्मरणीय भी बन रहा था। ख़ास कर तब और जब वह ठेका दे कर गाते, ‘हमरी न मानो....’ बिलकुल दादरा का रंग टच दे कर तकलीफ का जो दंश वह बो दे रहे थे अपनी गायकी के मार्फत वह बिसारने वाला था भी नहीं। वह जैसे बेख़बर गा रहे थे, और रो रहे थे। लेकिन लोग उन का रोना नहीं देख पा रहे थे। कुछ आँसू माइक छुपा रहा था तो काफी कुछ आँसू उनकी मिसरी सी मीठी आवाज में बहे जा रहे थे। कुछ सुधी श्रोता उछल कर बोले भी कि, ‘आज तो लोक कवि ने कलेजा निकाल कर रख दिया।’ उनकी गायकी सचमुच बड़ी मार्मिक हो गई थी।

यह गाना अभी ख़त्म हुआ भी नहीं था कि लोक कवि एक दूसरे गाने पर आ गए, ‘माला ये माला बीस, आने का माला!’ फिर कई भगवान, देवी देवताओं से होते हुए वह कुछ महापुरुषों तक माला महिमा का बखान करते इस गाने में तंज, करुणा और सम्मान का कोलाज रचने लग गए। कोलाज रचते-रचते अचानक वह फिर से पहले वाले गाने, ‘नाचे न नचावै केहू पइसा नचावेला।’ पर आ गए। सुधी लोगों ने समझा कि लोक कवि एक गाने से दूसरे गाने में फ्यूजन जैसा कुछ कर रहे हैं। या कुछ नया प्रयोग, नई स्टाइल गढ़ रहे हैं। पर सच यह था कि लोक कवि माला को सम्मान का प्रतीक बता उसे पैसे से जोड़ कर अपने अपमान का रूपक रच रहे थे। अनजाने ही। अपने मन के मलाल को धो रहे थे।

कुछ दिन बाद चेयरमैन साहब ने बाबू साहब और लोक कवि के बीच बातचीत करवानी चाही पर दोनों ही एक दूसरे से बात करने को तैयार नहीं हुए। दोनों के बीच तनाव बना रहा। फिर भी घोषित तारीख़ पर जब लोक कवि सम्मान प्राप्त करने अपने गृह नगर जा रहे थे तो एक दिन पहले लोक कवि ने बाबू साहब को भी फोन कर विनयपूर्वक चलने के लिए कहा।

लेकिन बाबू साहब बावजूद सारी फजीहत के निशा को भूले नहीं थे। छूटते ही लोक कवि से उन्होंने कहा, ‘निशा मिलेगी वहाँ। साथ चलेगी?’

‘नहीं।’

तो बाबू साहब ने भी, ‘तो फिर सवाल ही नहीं उठता।’ कह कर फैसला सुना दिया, ‘निशा नहीं तो मैं भी नहीं, आप भी नहीं।’ वह और तल्ख़ हो कर बोले, ‘भाड़ में जाएं आप और आपका सम्मान!’ कह कर फोन रख दिया।

लोक कवि मायूस हो गए।

निशा भी कलाकारों की टीम के साथ लोक कवि के गृह जनपद जा रही थी। लेकिन बहुत सोचने समझने के बाद उन्होंने निशा को चलने से बिलकुल अंतिम क्षणों में मना कर दिया। निशा ने पूछा भी कि, ‘क्यों क्या बात है गुरु जी ?’

‘समझा करो।’ कह कर लोक कवि ने उसे टालने की कोशिश की। पर वह मानी नहीं अड़ी रही। बार-बार उसके पूछने पर लोक कवि उस पर बिगड़ गए, ‘अभी तो नहीं कह दिया है लेकिन कहीं सचमुच वहाँ वह भी आ गए तो ?’

‘कौन गुरु जी ?’

‘बाबू साहब और कौन ?’ लोक कवि बुदबुदाए, ‘का चाहती हो वहाँ भी वितंडा खड़ा हो। रंग में भंग हो जाए, सम्मान समारोह में।’ कह कर उन्होंने निशा को उसका पारिश्रमिक देते हुए कहा, ‘यह लो और घर चली जाओ।’

‘घर में लोग पूछेंगे तो क्या जवाब दूंगी कि कार्यक्रम में क्यों नहीं गई?’ वह मायूस होती हुई बोली।

‘कह देना तबियत ख़राब हो गई।’ लोक कवि बोले, ‘दुई चार ठो दर्द, बुखार की गोली ख़रीद कर बैग में रख लेना।’ वह रुके और बोले, ‘अब तुरंत यहाँ से निकल जाओ।’

फिर लोक कवि मय दल बल के गृह जनपद को कूच कर गए।

मुख्यमंत्री ने लोक कवि को समारोहपूर्वक पांच लाख रुपए का चेक, स्मृति चिन्ह, शाल और स्मृति पत्र दे कर सम्मानित किया। महामहिम राज्यपाल की अध्यक्षता में। कोई तीन कैबिनेट मंत्री और पांच राज्यमंत्री भी समारोह में बड़ी मुश्तैदी से उपस्थित थे। कई बड़े अधिकारी भी। सम्मान पाते ही लोक कवि ने इधर उधर देखा और रो पड़े बरबस। फफक कर। हाँ, इस सम्मान के सूत्रधार बाबू साहब उपस्थित नहीं थे। लोगों ने समझा खुशी के आँसू हैं लेकिन लोक कवि की आँखें मंच पर, मंच के आसपास और भीड़ में बाबू साहब को बार-बार ढूंढ़ती रहीं। बाबू साहब हालांकि ‘नहीं’ कह चुके थे तो भी लोक कवि को बड़ी उम्मीद थी कि बाबू साहब उस समारोह में उनका हौसला बढ़ाने, बधाई देने आएंगे जरूर। और लोक कवि ऐसा कुछ बाजार के वशीभूत या दबाव में नहीं, दिल की गइराइयों से श्रद्धा में भर कर, भावुक हो कर सोच रहे थे। और उनकी हिरनी सी आकुल आँखें बेर-बेर बाबू साहब को हेर रहीं थीं। भीड़ में, भीड़ से बाहर। आगे-पीछे, दाएं-बाएं दसों दिशाओं में वह देखते और बाबू साहब को न पा कर बेकल हो जाते। बिलकुल असहाय हो जाते। बिलकुल वइसे ही जैसे भोलानाथ गहमरी के एक गीत के नायक का विरह लोक कवि के एक समकालीन गायक मुहम्मद ख़लील गाते थे, ‘मन में ढूंढलीं, जन में ढूंढलीं / ढूंढलीं बीच बजारे / हिया-हिया में पइठ के ढूंढलीं / ढूंढलीं बिरह के मारे / कवने सुगना पर मोहइलू आहि हो बालम चिरई।’ लोक कवि खुद भी इस गाने की आकुलता को सोख रहे थे, ‘छंद-छंद लय ताल से पूछलीं / पूछलीं स्वर के मन से / किरन-किरन से जाके पूछलीं / पूछलीं नील गगन से / धरती और पाताल से पूछलीं / पूछलीं मस्त पवन से / कवने अतरे में समइलू आहि हो बालम चिरई।’ वह कुछ बुदबुदा भी रहे थे मन ही मन अस्फुट सा। बहुत से लोगों ने समझा कि लोक कवि यह सम्मान पा कर विह्वल हो गए हैं। पर उनके संगी साथी उनके मर्म को कुछ-कुछ समझ रहे थे। समझ रहे थे सम्मान समारोह में उपस्थित चेयरमैन साहब भी लोक कवि की आँखों में समाई खोज, खीझ और सुलगन को। लोक कवि की आँखें बाबू साहब को खोज रही हैं, इस आकुलता को चेयरमैन साहब ठीक-ठीक बांच रहे थे। बांच रहे थे और आँखों ही आँखों में सांत्वना भी दे रहे थे कि, ‘घबराओ नहीं, मैं हूँ न!’ चेयरमैन साहब जो मंच के नीचे आगे की कुर्सियों पर बैठे हुए थे और बगल की दूसरी कुर्सी को ख़ाली रखे हुए थे यह सोच कर कि का पता बाबू सहबवा साला पहुँच ही आए लोक कवि के इस सम्मान समारोह में।

लेकिन बाबू साहब नहीं आए।

कि तभी संचालक ने लोक कवि को गाने के लिए आमंत्रित कर दिया। लोक कवि कुछ-कुछ बुझे, कुछ-कुछ खुशी मन से उठे और माइक पर पहुंचे। ढपली ली एक देवी गीत गाया और गाने लगे, ‘मेला बीच बलमा बिलाइल सजनी।’ इस गाने की नायिका के विषाद में ही वह अपना अवसाद धोने लगे।

कार्यक्रम के अंत में मुख्यमंत्री ने लोक कवि के जनपद की एक सड़क का नाम उनके नाम करने की घोषणा भी की तो लोगों ने तालियां बजा कर खुशी जताई। कार्यक्रम ख़त्म हुआ तो लोक कवि मंच से नीचे उतरे और वहाँ चेयरमैन साहब के पैर छुए। बोले, ‘आशीर्वाद दीजिए!’ चेयरमैन साहब ने लोक कवि को उठा कर बाहों में भर लिया। भावुक हो कर बोले, ‘घबराओ नहीं मैं हूँ।’ उन्होंने जैसे दिलासा दिया, ‘सब ठीक हो जाएगा।’

कार्यक्रम से निकल कर उन्होंने कलाकारों को विदा किया और खुद तीन चार कारों का काफिला बना कर अपने पैतृक गाँव पहुंचे। आज सरकार द्वारा प्रदत्त सरकारी लाल बत्ती वाली गाड़ी में वह गाँव गए थे। साथ में चेयरमैन साहब भी अपनी एंबेसडर सहित थे। पर एंबेसडर छोड़ वह लोक कवि के साथ लोक कवि की लाल बत्ती वाली कार में बैठे। कार्यक्रम में वैसे भी उनके गाँव के कई लोग, कई रिश्तेदार आदि हालांकि आए हुए थे तो भी वह गाँव गए। गाँव के डीह बाबा की पूजा अर्चना की। गाँव के शिव मंदिर में भी वह गए। शिव जी को अक्षत, जल चढ़ाया। पूजा पाठ के बाद बड़े बुजुर्गों के पांव छुए और अपने घर बिरहा भवन जो उन्होंने काफी पैसा खर्च कर के बनवाया था, जा कर तख्त बिछा कर बैठ गए। चेयरमैन साहब के लिए अलग से कुर्सी लगवाई। संगी साथियों के लिए दूसरा तख्त लगवाया। वह लोग अभी जर-जलपान कर ही रहे थे कि धीरे-धीरे लोक कवि के घर पूरा गाँव उमड़ पड़ा। बड़े-बूढ़े, बच्चे-जवान, औरतें सभी। लोक कवि के दोनों छोटे भाइयों की छाती फूल कर कुप्पा हो गई। तभी चेयरमैन साहब ने लोक कवि के एक भाई को बुलाया और दस हजार रुपए की एक गड्डी जेब से निकाल कर दी। कहा कि, ‘पूरे गाँव में लड्डू बंटवा दो!’

‘एतना पइसा का ?’ लोक कवि के छोटे भाई मुंह बा कर बोले।

‘हाँ सब पइसे का।’ चेयरमैन साहब बोले, ‘मेरी एंबेसडर वहाँ खड़ी है। ड्राइवर को बोलो मैंने कहा है। उसी से शहर चले जाओ और लड्डू ले कर फौरन आओ।’ फिर चेयरमैन साहब बुदबुदाए, ‘लगता है ई साला एतना पैसा एक बार में देखा नहीं है।’ फिर वह घबराए और अपने गनर से बोले, ‘जा तुम भी साथ चले जा, नहीं इससे कोई छीन झपट सकता है!’

गाँव के लोगों का आना-जाना बढ़ता ही जा रहा था। इस भीड़ में कुछ ऊंची जातियों के लोग भी थे। गाँव के प्राइमरी स्कूल में स्पेशल छुट्टी हो गई तो स्कूल के बच्चे भी चिल्ल-पों हल्ला करते आ धमके। साथ में मास्टर साहब लोग भी। एक मास्टर साहब लोक कवि से बोले, ‘गाँव का नाम तो आप के नाम के नाते पहले ही बड़ा था इस जवार में लेकिन आज आप ने गाँव के नाम का मान भी बढ़ा दिया।’ कह कर मास्टर साहब गदगद हो गए। तभी कुछ नौजवान लड़कों ने काका-काका कह कर लोक कवि से गाना गाने की फरमाइश कर दी। लोक कवि लाचार हो गए। बोले, ‘जरूर गाता। इहाँ अपनी मातृभूमि पर नहीं गाऊंगा तो कहाँ गाऊंगा?’ उन्हों ने जोड़ा, ‘बकिर बिना बाजा गाजा के हम गा नहीं पाऊंगा। आप लोगों को भी मजा नहीं आएगा?’ वह हाथ जोड़ कर बोले, ‘फेर कब्बो गा दूँगा। आज के लिए माफी करिए।’

लोक कवि का यह जवाब सुन कर कुछ शोहदे बिदके। एक शोहदा भुनभुनाया, ‘नेताओं ख़ातिर गाते-गाते नेता बन गया है। नेतागिरी झार रहा है साला।’

अभी भीड़ में यह और ऐसी कई खुसुर-फुसुर चल ही रही थी कि एक बुजुर्ग सी लेकिन काफी स्वस्थ महिला एक हाथ में लोटा और एक हाथ में थाली लिए कुछ औरतों के साथ लोक कवि के पास पहुंचीं और जरा चुहुल करके गुहारा, ‘का ए बाबू!’

लोक कवि औरत को देखते ही ठठा कर हंस पड़े और उन्हीं के सुर में सुर मिला कर बिलकुल उसी लय में बोले, ‘हाँ, हो भौजी!’ कह कर लोक कवि लपक कर झुके और उन के पांव छू लिए।

‘जीयऽ! भगवान बनवले रहैं।’ कह कर भौजी ने थाली में रखी दही-अक्षत, हल्दी, दूब और रोली मिला कर लोक कवि का टीका किया। दही थोड़ा इस गाल, थोड़ा उस गाल लोक कवि के लगा के चुहुल की। लोक कवि के गाल में इस बहाने भौजी ने चुटकी भी काटी। और फिस्स से ऐसे हंसीं कि भौजी के गाल में भी गड्ढे पड़ गए। साथ की बाकी औरतें भी यह सब देख कर खिलखिला कर हंस पड़ीं। पल्लू मुंह में दबाए हुए। जवाब में लोक कवि कुछ चुहुल करते, ठिठोली फोड़ते कि इसके पहले ही भौजी ने परीछने का गाना, ‘मोहन बाबू के परीछबों....’ गाना शुरू कर दिया और लोढ़ा ले कर लोक कवि को परीछने लगीं। साथ आई बाकी औरतें भी गाती हुई बारी-बारी लोक कवि को बढ़-चढ़ कर परीछती रहीं बारी-बारी।

लोक कवि पहले भी दो बार परीछे गए थे। इसी गाँव में। एक बार अपनी शादी में, दूसरी बार गौने में। तब वह ठीक से जवान भी नहीं हुए थे। बच्चे थे तब। आज जमाने बाद वह फिर परीछे जा रहे थे। अपनी मनपसंद भौजी के हाथों। अब जब वह बुढ़ापे के गाँव में कदम रख चुके थे। तब बचपन के परीछने में उन के मन में एक उत्तेजना थी, एक कसक थी। पर आज के परीछने में एक स्वर्ग की सी अनुभूति थी, सम्मान और आन की अनुभूति थी। इतना गौरव, इतना सुख तो मुख्यमंत्री द्वारा दिए पांच लाख रुपए के सम्मान में भी उन्हें आज नहीं मिला था। जितना भौजी के इस परीछने में उन्हें मिल रहा था। लोक कवि सिर झुका कर मुसकुराते हुए बड़े विनीत भाव से परीछवा रहे थे। ऐसे गोया उनका राजतिलक हो रहा हो। वह लोक गायक नहीं लोक राजा हों। परीछने वाली औरतें जरा-जरा देर पर बदलती जा रही थीं और उन की संख्या भी बढ़ती जा रही थी। अभी परीछन गीत के साथ परीछन चल ही रहा था कि नगाड़ा भी बजना शुरू हो गया। गाँव की ही कुछ उत्साही औरतों ने गाँव की चमरौटी में कुछ लड़कों को भेज कर यह नगाड़ा मंगवाया था। साथ ही लोक कवि को ‘देखने’ गाँव की चमरौटी के लोग भी उमड़ आए।

लोक कवि गदगद थे। गदगद थे अपनी माटी में यह मान पा कर।

नगाड़ा बज रहा था और परीछन भी हो रहा था कि तभी एक बूढ़ी सी महिला खांसती भागती आ गईं। लोक कवि से थोड़ा दूर खड़ी हो उन्हें अपलक निहारने लगीं। लोक कवि ने भी जरा देर से सही उन्हें देखा और विभोर हो गए। बुदबुदाए, ‘का सखी!’

सखी लोक लाज के नाते मुंह से तो कुछ नहीं बोलीं, पर आँखों-आँखों में बहुत कुछ बोल गईं। कुछ क्षण दोनों एक दूसरे को अपलक निहारते रहे। कोई और बेला होती तो लोक कवि लपक कर सखी को बांहों में भर लेते। कस-कस के चूम लेते। लोक कवि ऐसा ही सोच रहे थे और सखी उन के मनोभावों को शायद समझ गईं। वह ठिठकीं और आँचल जो सिर पर था उसे और ठीक किया गौर से देख लिया कि कहीं फिसल तो नहीं रहा। सखी अभी इस उधेड़बुन में ही थीं कि क्या करें जरा देर और यहाँ रुकें कि चल दें यहाँ से। तभी कुछ होशियार औरतों ने सखी को देख लिया। देख लिया भौजी ने भी सखी को। सखी को देख कर थोड़ी नाक-भौं सभी ने सिकोड़ी लेकिन मौका दूसरा था सो बात आगे नहीं बढ़ाई। इसलिए भी कि ये काकी भौजी टाइप औरतें यह जानती थीं कि कुछ ऐसा वैसा करने कहने पर लोक कवि को दुख पहुंचेगा। और यह मौका लोक कवि को दुख पहुंचाने का नहीं था। एक औरत ने लपक कर सखी का हाथ थामा और उन्हें लोक कवि तक खींच कर लाई, बड़े मनुहार से। सखी के हाथ में लोढ़ा दिया बड़े प्यार से। और सखी ने भी लोक कवि को परीछा उसी उछाह से। सखी जब लोक कवि को परीछ रही थीं तो लोक कवि का एक बार तो मन हुआ कि छटक कर वह वहीं ‘रइ-रइ-रइ-रइ’ कर गाने लगें। लेकिन सामने सखी के साथ-साथ लोक भी था और उनकी आँखों में लाज भी। सो वह ऐसा सिर्फ सोच कर रह गए। सोख गए अपनी लोच मारती भावनाओं को।

सखी की ख़ातिर!

सखी असल में लोक कवि की बाल सखी थीं। आम के बाग में ढेला मारकर टिकोरा, फिर कोइलासी खाते और खेलते हुए सखी के साथ लोक कवि का बचपन गुजरा था। फिर सखी के साथ गलियों में, पुआल में, अरहर के खेत और आम, महुआ के बाग में लुका छिपी खेलते हुए वह जवान हुए थे। गाँव में तब लोक कवि और सखी को लोग गुपचुप-गुपचुप चर्चा का विषय बनाए हुए थे। तब सखी को लोग तंज में राधा और लोक कवि को मोहन कहते थे। लोक कवि का नाम तो मोहन ही था पर सखी का नाम राधा नहीं धाना था। लोक कवि भी धाना ही कहते थे पहले। पर बाद में जब बात ज्यादा बढ़ गई तो वह धाना को सखी कहने लगे। और लोग इन दोनों को राधा-मोहन कहने लगे। कई-कई बार दोनों ‘रंगे’ हाथ पकड़े गए, फजीहत हुए पर इनकी जवानी का करार नहीं टूटा। कि तभी मोहना पर नौटंकी, बिदेसिया की ‘नकल’ उतारने का भूत सवार हो गया। मोहना की राह बदलने लगी पर सखी को फिर भी वह साधे रहा। सखी भी थीं तो मोहना की तरह पिछड़ी जाति की लेकिन मोहना से उनकी जाति थोड़ी ऊंची थी। मोहना जाति का भर था तो सखी यादव। गाँव में तब यह फर्क बहुत बड़ा फर्क था। लेकिन राधा मोहन की जोड़ी के आगे यह फर्क मिट सा जाता था। बावजूद इसके कि तब के दिनों राधा का घर काफी समृद्ध था और मोहन का घर समृद्धि से कोसों दूर। मोहना के अभी मूछ की रेख भी ठीक तरह नहीं फूटी थी कि तभी जो कहते हैं न कि हाय गजब कहीं तारा टूटा! वही हुआ। धाना का बियाह तय हो गया। बियाह तय होते ही ‘लगन’ लग गई धाना की। घर से बाहर-भीतर होना बंद हो गया। मोहना बहुत अकुलाया पर भेंट तो दूर, भर आँख देखना तो दूर, झलक भी पा पाना उसके लिए दूभर हो गया। उस बरस आम के बाग में सखी के साथ ढेला मार कर कोइलासी खाना मोहना को नसीब नहीं हुआ। तभी मोहना ने पहला ‘ओरिजनल’ गाना गया। गुपचुप। जो किसी बिदेसिया या नौटंकी की पैरोडी नहीं थी। हाँ, धुन कंहरवा जरूर थी। गली-गली में गाते गुनगुनाते फिरता यह गाना मोहनवा सुबह शाम भूल गया था। पर किसी से कुछ कह नहीं पाता था। मोहनवा गाता, ‘आव चलीं ददरी क मेला, आ हो धाना्!’ वह यह एक ही लाइन गाता, गुनगुनाता और टूट जाता। किसी पेड़ के पीछे बैठ कर जी भर के रोता। पर राधा की बारात आ कर चली गई मोहनवा की भेंट राधा से नहीं हुई। राधा दिखी भी तो लगन उतरने के बाद। पर बोली नहीं अपने मोहनवा से। मुंह फेर कर चली गई। पायल छमकाती छम-छम। माँग में ढेर सारा गम-गम, लाल-लाल सेनुर दिखाती। मोहन का जी धक् से रह गया। फिर भी वह, ‘आव चलीं ददरी क मेला, आ हो धाना!’ गाता, गुनगुनाता अकेले ही पहुँच गया बलिया में ददरी के मेला। घूमा-घामा, खाया-पिया और रात को तबके बहुत बड़े मशहूर भोजपुरी गायक जयश्री यादव का ‘पोरोगराम’ सुना। उनकी गायकी मोहन को बड़ी मीठी लगी। ख़ास कर, ‘तोहरे बर्फी ले मीठ मोर लबाही मितवा!’ गाने ने तो जैसे जान निकाल ली। ठीक ‘पोरोगराम’ के बाद मोहन जयश्री यादव से मिला। उनसे गाना सीखने, उनको गुरु बनाने की अपनी कामना रखी और उनके पैर छू कर आशीर्वाद माँगा। जयश्री यादव ने आशीर्वाद तो दिया पर गाना सिखाने और शिष्य बनाने से मोहन को साफ इंकार कर दिया। कहा भी कि, ‘अभी बहुत टूटे हुए हो तो बात गाना गाने की कह रहे हो, लेकिन यह सब तुम्हारे वश का नहीं है। अभी जवानी का जोश है जवानी उतरते ही हमको गरियाओगे। जाओ, हल जोतो, मजूरी धतूरी करो, भैंस चराओ।’ वह बोले, ‘काहें गाने में जिनगी ख़राब करना चाहते हो ?’

मोहन मायूस हो कर घर लौट आया। बहुत कोशिश की कि गाने बजाने से छुट्टी मिल जाए। पर भुला नहीं पाया। वह फिर गया जयश्री यादव के पास। फिर-फिर जाता रहा। बार-बार जाता रहा। पर जयश्री यादव ने हर बार उसका दिल तोड़ा।

फिर वह भूल गया जयश्री यादव को। लेकिन धाना ?

महीनों बीत गए मोहन ने फिर धाना का भी रुख़ नहीं किया। ध्यान भी नहीं आया धाना का मोहन को। उसके ध्यान में अब सिर्फ गाना और बजाना था। वह अकसर नए-नए गाने बनाता, गाता और लोगों को सुनाता। मोहन गाने के लिए अपने गाँव में तो मशहूर हो ही गया था, गाँव के आस-पास से होते हवाते पूरे जवार में जाना जाने लगा। मोहन की आवाज थी भी मिसरी सी मीठी और पगे गुड़ सी सोंधी खुशबू लिए। अब तक मोहन के हाथ में बजाने के लिए थाली या गगरे के बजाय एक चंग भी आ गई थी।

वह चंग बजाते-बजाते गाता और गाते-गाते गाँव की कुप्रथाओं को ललकारता। ललकारता जमींदारों के अत्याचारों को उनके सामंती व्यवहार और गरीबों को बंधुवा बनाने की साजिश को। गा कर ललकारता, ‘अंगरेज भाग गए, तुम भी भाग जाओ। या फिर गरीबों को सताना बंद कर दो!’

इस फेर में मोहन की कई बार पिटाई हुई और बेइज्जती भी। सीधे गाने को ले कर नहीं किसी न किसी बहाने। मोहना यह जानता था फिर भी वह गाना नहीं छोड़ता। उलटे फिर एक नया गाना ले कर खड़ा हो जाता, किसी बाजार किसी कस्बे, किसी पेड़ के नीचे चंग बजाता, गाता हुआ।

इस बीच मोहना का भी बियाह तय हो गया। लगन लग गई। पर गवना तीसरे में तय हुआ। शादी के बहाने मोहना को औरतों के बीच धाना भी दिखी। धाना की शादी तो हो गई थी, पर गवना पांचवें में तय हुआ था। यानी शादी के पांच साल बाद। शादी के दो बरस तो बीत चुके थे। तीन बरस बाकी थे। इधर मोहना का भी गवना तीसरे में तय हुआ था। यानी तीन बरस बाद।

धाना गोरी चिट्टी तो पहले ही से थी, अब घर से कम निकलने के कारण और गोरी हो गई थी। रंग के साथ ही साथ रूप भी उसका निखर आया था। धानी चूनर पहने धाना की गठीली देह अब कंटीली भी हो चली थी। जब मोहना ने लंबे समय बाद उसे भर आँख देखा तो वह पहले तो सकुचाई फिर शरमाई और बरबस मुसकुरा पड़ी। मुसकुराने से उसके गालों में पड़े गड्ढों ने मोहना को जैसे आकंठ डुबो लिया। अवश मोहना उसे अपलक निहारता रहा।