लौट आओ तुम / भाग-2 / पुष्पा सक्सेना
कांता की बात पर शर्मिष्ठा चिढ़ गई ‘आप तो कांता दी, हर बात में कुछ न कुछ नुक्स निकालती हैं। पब्लिक के लिए इन्टरव्यू क्या मातमी सूरत बनाकर दिया जाता हैं जिस चेहरे को पूरी जनता देखेगी, उस पर नूर तो होना ही चाहिए। रही बात मीता की, वह तो है ही सुन्दर, जो पहिने, फबता है।’
‘लो भई, हमने तो मज़ाक किया था। लगता है अब यहां मजाक भी करने पर पाबंदी लगाई जाएगी। निशा को शर्मिष्ठा का यूं पक्ष लेना खल गया।
‘वर्मा मैडम का फो़न हैµडाइरेक्टर साहब के कमरे में.....।’
‘मेरा फोन?’ मीता घबरा गई। इस समय तो घर से ही फोन आया होगा। पता नहीं क्या बात है।
‘हेलो’ कहते ही गम्भीर पुरूष स्वर सुनाई दिया था।
‘इतनी जल्दी भुला दिया? ऐसा नाकारा तो नहीं?’ अन्त में हल्की हंसी खनक उठी थी।
‘ओह आप.....माफ़ कीजिएगा मैं आपका फोन एक्सपेक्ट नहीं कर रही थी इसलिए.....’
‘किसका एक्सपेक्ट कर रही थी?’ स्वर में फिर वही परिहास था।
‘किसी का भी नहीं, ज़रूरत पड़ने पर घरवाले ही याद कर लेते हैं।’
‘ताज्जुब है आपको दिन में हजार फो़न तो आने ही चाहिए। एनी हाओ थैंक्स फाॅर एन एक्सलेंट इन्टरव्यू।’
‘उसमें मेरा कोई क्रेडिट नहीं था, सर।’
‘आपने सब कुछ इतना सहज बना दिया था कि मैं एकदम नार्मल रहा, वर्ना आई एम कैमरा-कांशस-मैन यू विलीव इट?’
‘आपके चारों ओर तो हमेशा कैमरा रहता है फिर आपकी क्या समस्या है?’
‘बन्द कमरे में, यह जानते हुए कि मैं जो कर रहा हूँ रिकाॅर्ड हो रहा है, एक तरह का टेंशन पैदा कर देता है। खुली सभा या भीड़ में वैसी फी़लिंग नहीं होती। आप जैसा टी.वी. आर्टिस्ट तो हूँ नहीं।’
‘ओह सर, आप तो मुझे यूं ही चढ़ा रहे हैं। मैं एकदम साधारण लड़की हूँ।’
‘अच्छा है यही समझती रहें, जिस दिन अपने असाधारण से परिचय पा लेंगी, धरती पर पांव नहीं रखेंगी।’
सर प्लीज......ये सब झेल पाना मुझे संभव नहीं।’
‘ओ.के. थैंक्स, पर बाई दि वे मुझे आलोक कहें, सर नहीं। याद रखिएगा।’
मीता के नमस्ते कहने के पहले ही फो़न कट चुका था। माथे पर पसीने की बूंदें झिलमिला आई थीं, अच्छा हुआ डाइरेक्टर साहब ऊपर मीटिंग में व्यस्त थे, वर्ना वह क्या सोचते।
कमरे में पहुंचते ही सबकी प्रश्नवाचक दृष्टि के उत्तर में मीता हल्के से मुस्कुरा, दी थीµ
‘नथिंग सीरियस मेरी बहिन की फ्रेंड शहर आई है, उसी ने काॅल किया था। बड़ी मुश्किल से झूठ के तीन कतरे निकल सके थे। आलोक जी का फो़न आया था, कहने भर से कमरे में जो विस्फोट होता, उसकी अपेक्षा यह झूठ बोलना आसान था।
मीता को झूठ से बेहद नफ़रत थी, पर आज उसने उसी का सहारा लिया था। अन्दर से अपने से असंतुष्ट मीता, सहज रह पाने का भरसक प्रयास कर रही थी।
शाम को एकान्त पाते ही मीता ने अलका दी को सब बता दिया था। उसके मुंह पर स्थिर दृष्टि डाल, अलका दी एक पल मौन रह गई थीं।
‘अगर आगे भी फो़न या बुलावा आए तो टाल जाना मीता, मेरी बस यही सलाह है।’
‘अब फा़ेन क्यों आएगा अलका दी, और बुलावा......वह तो असंभव बात है। मेरा उनसे लेना-देना कैसा। वह उम्र पद सब में बड़े हैं, अलका दी। मैं उनके लिए एकदम महत्वहीन हूँ। फोन कर दिया, यही बहुत है।’
‘तू कितनी महत्वपूर्ण है जान जाएगी, पर अपने ऊपर विवेक का अंकुश रखना कभी न भुलना, मीता वर्ना डूब जाएगी।’ एक हल्की सी उसांस अलका दी ने ली थी।
अलका दी के वैसा कहने का क्या अर्थ था? आलोक जी ने भी कुछ ऐसी बात कही थी......जिस दिन असाधारण से परिचय पा लेंगी, जमीन पर पावं नहीं धरेगी। न जाने क्यों मीता का मन उदास हो आया। अचानक बाबूजी याद आने लगे। उनके रहते मीता कितनी सुरक्षित, कितना फ्री महसूस करती थी। काश नीरज छोटा न होकर बड़ा भाई होता।
सुबह को होस्टेल पहुंचने पर अम्मा की चिट्ठी मिली थीµघर के हालचाल सामान्य थे। छोटी बहन आरती की बारहवीं की परीक्षाएं सिर पर हैं। अम्मा ने लिखा था उसे मैथ्स में कोचिंग की जरूरत है। मीता वहां होती तो ट्यूटर की जरूरत नहीं होती। नीरज की थर्ड इअर की परीक्षा समाप्त होने वाली है। वह छुट्टियों में घर आएगा। अगर मीता भी दस-पन्द्रह दिन की छुट्टियां ले पहुंच सके, तो कुद दिन सब साथ रह लेंगे।
सुबह डाइरेक्टर से दस दिनों की छुट्टी लेने का निर्णय ले, मीता सो गई। घर जाने की कल्पना ने मन कपूर सा हल्का कर दिया। होस्टेल की नीरस दिनचर्या के बाद, भाई-बहिनों के साथ बैठ हंसी-चुहल करने की बात सोच, मीता मुस्कुरा उठी। इस बार के वेतन से मां के लिए एक साड़ी लेगी। बाबूजी के बाद अम्मा ने अपनी सारी जरूरतें, बच्चों के नाम कर दी थी। नीरज के लिए टी-शर्ट और आरती के लिए सलवार-सूट वह पहले ही ले चुकी थी। अपनों को देने का सुख तो वह अब जान सकी थी। अभी तक तो सब कुछ बाबूजी ने ही दिया था।
बच्चों के मुंह से निकली हर बात पूरी करना, बाबूजी को कितनी प्रसन्नता दे जाता था।
‘बाबूजी इस बार हम नैनीताल नहीं जाएंगे।’
‘फिर कहाँ जाने की सोची है हमारी बेटी ने?’ मुस्कराते बाबूजी मीता से पूछते।
‘इस बार हम कश्मीर जाएंगे’
‘तो हम सब कश्मीर चलेंगे।’ बाबूजी तुरन्त हामी भर देते। अम्मा भुनभुनाती रह जाती। आज वो बातें याद कर, अम्मा के प्रति ढेर सी सहानुभूति उमड़ आती है। काश् उसने जिन्दगी की सच्चाई का कडुआ पाठ पहले ही पढ़ लिया होता।
स्टेशन डाइरेक्टर ने उसके आवेदन पर नजर डाल, निगाह उठाई थीµ
‘क्या बात है कहीं मैरिज सेटल हो रही है, मिस वर्मा?’
‘नहीं सर, भाई बहिनों के एक्जा़म्स खत्म हो रहे हैं, अम्मा चाहती हैं, हम सब कुछ दिन साथ रहें बस।’ अनार हो आए चेहरे के साथ मीता ने अपनी बात पूरी की थीं
‘ओ.के. हैव नाइस टाइम।’ निर्देशक ने उसकी छुट्टी मंजूर कर दी थी।
मीता का मन बादलों-सा उड़ चला। पर जाने की बात के साथ एक और चेहरा मानस में छाता जा रहा था। नियुक्ति के बाद उसने जब अपने शहर जाने की बात कही थी तो अनुपम बेहद उदास हो आया थाµ
‘क्या जाए बिना नही चल सकता, मीता?’
‘नौकरी करनी है तो घर-बाहर देखकर तो नहीं की जा सकती? जहाँ चांस मिले, जाना ही पड़ता है। तुम जानते हो अनुपम, मुझे जाना ही होगा।’
‘तुम्हें बहुत मिस करूँगा, मीता।’
‘जानती हूँ। यहाँ तो बस मैं नहीं रहूँगी और सब होंगे, पर वहाँ तो नया परिवेश, नयों के बीच, मैं बहुत अकेली रहूँगी अनुपम।’
‘याद केया करोगी?’
‘यह भी कोई पूछने की बात है? अनुपम एक रिक्वेस्ट है, कभी छुट्टियों में समय मिलने पर घर हो आया करना। अम्मा को तुम्हारा सहारा रहेगा।’
‘तुम्हारा हुक्म सिर-आँखों, मीता। वैसे अब तो यहाँ मैं कुछ ही दिनों का मेहमान ठहरा?’
‘क्या मतलब’
‘एम.एस.सी. करने तो मुझे भी शहर ही जाना होगा। शायद तुम्हारे ही शहर आ पहुँचूँ।’
‘स्वागत रहेगा तुम्हारा’
मीता के शहर चले आने के बाद अनुपम ने उसकी बात रखी थी। अम्मा के पत्रों में अनुपम की बड़ाई लिखी रहती थी। बड़ा भला लड़का है। छुट्टी में जब भी आता है, जो काम हुआ कर जाता है। अपने आप हाल पूछने आ जाता है।
शायद गमी। की छुट्टीयों में अनुपम भी मिले। अनुपम के लिए एक छोटा-सा उपहार खरीदकर ले जाने की बात पहले उसने क्यों नहीं सोची थी? रिकाॅर्डिंग के बाद टाइम मिला तो आज की उसके लिए कोई कलात्मक पेंटिंग या वाॅल-हैंगिंग जरूर ले लेगी। बचपन से अनुपम उसके घर आता रहा है। अनुपम के पापा किसी ब्लाॅक में नियुक्त थे। पढ़ाई के कारण अनुपम, अपनी माँ के साथ मीता के घर के पास वाले अपने पैतृक घर में रहता था। उसके पापा प्रायः शनिवार की संध्या आते और सोमवार की प्रातः वापिस चले जाते थे। बचपन से कुशग्र-बु(ि अनुपम, कक्षा में सर्वप्रथम आता रहा था। पाँचवीं कक्षा तक लड़के-लड़कियों के लिए कस्बे में एक ही स्कूल था, अतः करीब तीन-चार वर्षों तक मीता और नीरज के साथ अनुपम भी साथ स्कूल जाया करता था। बाबूजी की असामयिक मृत्यु के समय अनुपम के घर से बहुत सहारा मिला था। अनुपम की माँ ने अम्मा को संभाला था, वरना न जाने क्या होता। अनुपम के पापा जब भी आते, हालचाल पूछने ज़रूर आते थे। अम्मा कहतींµ
‘अच्छे पड़ोसी भाग्य से ही मिलते हैं। भगवान् इनका भला करें।’
मीता और अनुपम के बीच प्रेम-जैसी कोई चीज़ शायद नहीं पनपी थी, पर मीता की हर बात पूरी करना अनुपम का कर्तव्य बन जाता। नीरज से बार-बार मनुहार करती मीता जब थक जाती तो गुस्से में उबल पड़तीµ
‘ठीक है, मत करो मेरा काम, मुझे भी तुम्हारी गरज़ नहीं...।
‘गरज नहीं तो क्यों बेकार हाथ-पाँव जोड़ रही थी? देखें तुम्हारा काम कौन करेगा?’
कहने की देर नहीं होती, अनुपम आनन-फानन काम पूरा कर डालता। कभी-कभी आरती कहती भीµ
‘बेकार ही नीरज भइया की इतनी खुशामद करती हो, अनुपम दा मिनटों में तुम्हारा काम कर डालते हैं।’
‘वो तो ठीक है, पर गै़रों का व्यर्थ एहसान लेना ठीक बात तो नहीं है न, आरती।’
बी.एस्-सी. की परीक्षा में अनुपम ने टाॅप किया था। उस समय मीता बी.ए. पार्ट-1 की छात्रा थी। काॅलेज के प्राचार्य उसकी प्रशंसा करते मुग्ध थेµ
‘अनुपम ने अपना नाम सार्थक किया है, वह सचमुच अनुपम है। इस कस्बे के डिग्री काॅलेज में ऐसा रत्न छिपा है, कौन जानता था? अगर यह लड़का किसी बड़े शहर में होता तो कमाल कर दिखाता।’
‘कमाल तो उसने यहाँ रहते कर दिखाया है, प्रिन्सिपल साहब, बड़े शहरों में तो रोज ही दस-बारह लड़के-लड़कियाँ टाॅप करते रहते हैं, वहाँ टाॅप करना किस गिनती में है?’ एक पत्रकार ने प्राचार्य को बढ़ावा दिया था।
अनुपम की सीधी-सादी माँ बेटे की उस गौरव-गाथा से अभिभूत थीं। उनके पास पहुँच लड़कों-लड़कियों ने जब मिठाई के लिए शोर मचाया तो आँचल से बँधा पचास रुपए का नोट थमाती गद्गद हो उठी थींµ
‘आज तो बस इतने पर तसल्ली कर लो, कल को इसके पापा आएँगे तो जी भी मिठाई-पकवान खा लेना।’
अनुपम के पापा ने पूरे कस्बे के लोगों को पार्टी पर बुलाया था। सभी उसके भाग्य को सराह रहे थे। इलाहबाद से अनुपम के मामा आए हुए थे। उन्होंने अपना कर्तव्य निबाहा।
‘यहाँ जो पढ़ना था, पढ़ लिया, अब मैं अनुपम को साथ ले जाऊँगा। ऐसे ज़हीन लड़के के लिए यहाँ कोई स्कोप नहीं है, शारदा। बाबू इलाहाबाद में रहकर पढ़ाई पूरी करेगा, फिर वहाँ कम्पटीशन की तैयारी की भी सुविधा रहेगी। लड़का कलक्टर बनेगा, देख लीजिएगा।’ मामा की बात पर उसके माँ-बाप का चेहरा दमक उठा।
‘वाह अनुपम, तुम्हारे क्या ठाठ हैं?’ जिसे देखा वही न्योछावर है।’ मीता ने परिहास किया।
‘क्यों नहीं, ब्लैंक चेक हूँ न, सो सभी अपना दावा तो ठोकेंगे ही।’ बाहर जाने के लिए अनुपम ज़्यादा उत्साहित नहीं लग रहा था।
‘ब्लैंक चेक?’ मीता ताज्जुब में पड़ गई थी।
‘हमारे यहाँ लड़कों को ब्लैंक चेक ही माना जाता है। जितना ऊपर उठेगा, उतना ही भारी दाम लगेगा।’ अनुपम खिन्न-सा था।
‘वाह, तब तो तुम्हारी बोली बहुत ऊँची लगेगी, तुम तो टाॅपर ठहरे।’
‘बोली लगाने दूँ तब न?’
‘मतलब तुम किसी के वश में नहीं आनेवाले।’
‘जिसके वश में हूँ, उसके हाथों बेमोल बिकने को तैयार हूँ, मीता।’ अनुपम की उस दृष्टि में न जाने क्या था कि मीता बेहद असहज हो उठी थी।
बहाना बना वह अनुपम के पास से हट गई थी, वरना क्या उस दिन अनुपम उसके समक्ष कोई प्रस्ताव न रख देता।
रिकाॅर्डिंग पूरी हो चुकी थी, बच्चों के साथ काम करना मीता को हमेशा बहुत अच्छा लगता था। दस बार रोको-टोको उनके उत्साह में कमी नहीं आती। महिला-कार्यक्रम बनाने में हमेशा समस्या आ जाती। जहाँ किसी को रोक-टोक लगाई नहीं कि उनके मुँह फूल जाते।
‘मैडम एडिटिंग कब करेंगी?’
‘आज तो देर हो गई, कल कर लेंगे, विश्वनाथ। कल तुम फ्री रहोगे?’
‘एक कप चाय पिला दीजिएगा, फिर फ्री ही फ्री हूँ।’ विश्वनाथ मस्त लड़का था। अभी कैजुअल रूप में उसकी नियुक्ति हुई थी। मीता के साथ काम करनेवालों को कभी शिकायत का मौका नहीं मिलता था। वह स्वयं ज्यादा-से-ज्यादा काम निबटा डालती थी। सभी कैजुअल्स के साथ उसकी सहानुभूति रहती थी। इसीलिए जरूरत पड़ने पर छुट्टी के बाद भी उन्हें काम से एतराज नहीं होता था।
‘ठीक है, एक कप चाय के साथ समोसा भी खिला दूँगी, आज चलती हूँ।’
‘क्या बात है मैडम, आज घर जाने की बहुत जल्दी है?’
‘सैटरडे को घर जा रही हूँ विश्वनाथ, कुछ गिफ़्ट्स लेनी है।’
‘ओह तभी चेहरे पर इत्ती चमक है मैडम के। कब लौटेंगी?’
‘अभी गई नहीं, लौटने की बात कर रहे हो?’
‘आपके बिना अच्छा नहीं लगता, मैडम। एकदम सन्नाटा हो जाता है।’
‘अच्छा-अच्छा, अब बहुत मस्काबाज़ी हो गई, थोड़ी दूसरों के लिए भी छोड़ दो।’ मीता मुस्करा रही थी।
‘हम तो एकदम सच बोला मैडम, किसी को भी पूछ लो, सब ऐसा ही बोलने का। आपको पता नहीं, सब आपको अपनी दीदी मानते हैं, दूसरी मैडम लोगों से तो बस भगवान् बचाएँ... काटने को दौड़ती हैं।’
विश्वनाथ की बात से मीता को हँसी आ गई। मुस्कराहट दबाती मीता उठ खड़ी हुई। उसे पता है उसके साथ ही कुछ सीनियर्स नए लड़के-लड़कियों की छोटी-छोटी गलती पर भी कितना नाराज़ हो जाया करती हैं।
बाजार में अनुपम के लिए उपहार लेने में ज्यादा देर नहीं लगी थी। ‘परम्परा’ में कलात्मक वस्तुओं का भण्डार था। एक पेंटिंग अनुपम के लिए अच्छी लगी थी। ‘मैत्री’ शीर्षक के अन्तर्गत एक नन्ही लड़की और उसके सामने बैठा बन्दर उसे मुँह चिढ़ाता-सा लग रहा था। बचपन में कितनी बार उसने अनुपम से रास्ते में पड़नेवाले राजा साहब के बाग में लगे गदरे अमरूदों की फ़र्माइश की थी। बाग के माली की डाँट-फटकार की परवाह किए बिना अनुपम, चाहारदीवारी लाँघ, पेड़ पर बन्दर-सा चढ़ जाया करता था। हालाँकि वह उसे आश्वस्त करती कि माली की शक्ल दिखते ही उसे अगाह कर देगी, पर दो-तीन बार माली न जाने कहाँ से अचानक प्रकट हो गया और अनुपम की पीठ पर उसके बेंत भी पड़ गए थे। माफी माँगती मीता को देख अनुपम हँस पड़ताµ
‘पगली कहीं की, माली ने हमें जो़र से थोड़ी मारा है, वह तो हमें डरा रहे थे।’
‘देखें तो?’ अनुपम की पीठ से कमीज उठाकर निशान देखने की उसकी कोशिश, हमेशा ही व्यर्थ गई।
अब तो अनुपम एम्.एस्-सी फाइनल की परीक्षा दे चुका होगा। बकौल उसके मामा... इस वर्ष से ही कम्पटीशन्स् की तैयारी करेगा। अचानक अनुपम, नीरज, आरती सबसे मिल आने के लिए मीता बेचैन-सी हो उठी।
होस्टल पहुँच, साथ ले जानेवाले सूटकेस में वो पेन्टिंग रखती मीता एक बार फिर मुस्करा उठी। बिस्तर पर लेटते ही उसने अगले दिन का कार्यक्रम निश्चित कर डाला था-सुबह एडिटिंग निबटाने के बाद पूरे दो सप्ताह का कार्यक्रम तैयार था। अलका दी को दायित्व दे जाने से निर्धारित तिथियों में विश्वनाथ कैसेट ले लिया करेगा। निश्चिन्त मन सोई मीता, सुबह साढ़े सात तक सोई रह गई थी। चाटर्ड बस सवा आठ पर चल देती है। जल्दी-जल्दी तैयार हो, एक बिस्किट के साथ चाय के दो घूँट निगल, मीता नीचे आ गई।
जबसे उसने घर छोड़ा है, सुबह-शाम का नाश्ता-खाना कब चैन से नसीब होता है? अम्मा तो उसके स्कूल-काॅलेज जाते समय भी शोर मचाए रखती थींµ
‘खाना ठीक से नहीं खाएगी तो दिमाग क्या खाक काम करेगा?
बाबूजी अम्मा की इस लाॅजिक पर खूब हँसा करतेµ
‘तुम्हारे विचार में तो पहलवानों के दिमाग तेज़ होने चाहिए, मनों खाते हैं।’
‘आप ऐसी ही बातें करके इन बच्चों को बिगाड़ डालते हैं, मेरी एक नहीं सुनते। माना मैं आप जितनी पढ़ी-लिखी नहीं, पर उतनी मूर्ख भी नहीं कि बच्चों का अच्छा-बुरा न समझ सकूँ।’
‘अरे रे रे... तुम तो नाराज़ हो गई। भला तुम इनका अच्छा-बुरा नहीं जानोगी तो क्या मैं जानूगा? मैं तो स्वयं तुमपर निर्भर हूँ, भई।’ बाबूजी निरीह बन जाते।
‘हमें ही क्यों यहां इतने और लोग जो हैं?’
‘अगर हमें यूरोप-टिप से अचानक न लौटना पड़ता तो दस दिन बाद ही तो यहां पहुचते। बस हमारे आंसू पोंछने के लिए डाइरेक्टर साहब ने पूरी टीम को दार्जिलिंग के लिए बुक कर दिया।’
‘मुझे नही जाना है दार्जिलिंग! घर वालों से मिले कितने महीने बीत गए हैं।’
‘टाई कर देखो, तुम्हारी लीव ग्रांट होने से रही। वैसे एक बात जरूर है, तुम और लड़कियों से बहुत अलग हो।
‘क्योें’
‘वे ऐसे दौरों को दूसरों से छीनना चाहती है जबकि तुम्हें इनके प्रति कोई उत्साह ही नहीं।’
‘हर एक की अपनी रूचि-अरूचि होती है।’
‘वो बात नहीं, और किसी बात के संदर्भ में कहा था मैंने।’
‘किस संदर्भ में नवीन?’
‘छोड़ो, न समझो वही अच्छा है, पर दार्जिलिंग के लिए तैयारी कर डालो। जो वुलेन्स यूरोप के लिए खरीदे थे, कम से कम दार्जिलिंग में तो इस्तेमाल कर डालें वर्ना पैसे बेकार गए, न?’
‘बात पैसों की नहीं है, इस समय इतना होम-सिक महसूस कर रही हूॅ कि बस लगता है उड़कर पहुंच जांउ।’
‘नौकरी में सबसे पहले जिस चीज को छोड़ना चाहिए वो भावुकता है, पर तुम्हें शायद सबसे ज्यादा सगाव इसी वीकनेस से है।’
’तुम इसे वीकनेस कहते हो?’
‘वीकनेस और स्ट्रेन्थ दोनों ही हो सकती हैं। कहीं इसी भावुकता ने लड़की का कैरियर नष्ट कर डाला तो कहीं इसी के बल पर देवी कहलाई।’
‘मुझे न देवी बनना हैं और न दानवी, बस मीता ही रह जांऊष्वही काफी हैं। एक बात तय है, मुझे दार्जिलिंग जाने के लिए कोई मजबूर नहीं कर सकता, मैं घर जा रही हूँ।’
‘एक नेक सलाह मेरी भी मान देखिए... इस चांस को मत खोइए। विश्वास दिलाता हूँ, कोई तकलीफ़ नहीं होने दूंगा। लौटकर भी तो जाया जा सकता है, पर चांस दोबारा शायद ही मिले।’
‘क्या करना है चांस लेकर। स्टेशन डाइरेक्टर बनने की तमन्ना नहीं हैं मेंरी।’
‘शांतिपूर्वक काम तो करना चाहेंगी? बाॅस और नेता को नाराज कर, जी नहीं सकेंगी। मुझ पर विश्वास है न? चलकर देखिए कितना एन्ज्वाँय करेंगी प्लीज।’
‘नवीन के जुड़े हाथ देख मीता हंस पड़ी थी।
‘मुझे साथ ले जाने की कोई खा़स वजह?’
‘तुम्हारे साथ जो सहजता, है दूसरों के साथ संभव नहीं। अपने को न जाने क्या समझती हैं ये लड़कियाॅ, जो उनके नखरे उठाए वही ठीक है।’
‘मैंने तो सुना है लड़कियाँ तूम्हारे नखरे उठाती है।’
‘हां कैमरे जैसा ट्रम्प कार्ड जो अपने पास है। तो चलोगी न?’
‘ठीक है, एक बार तूम्हारे मन की बात ही सही, चलूंगी।’
‘थैंक्यू।’ नवीन का चेहरा खिल उठा।
दार्जिलिंग के मनोहारी दृश्यों ने मीता को मुग्ध कर लिया। होटल की बालकनी से दिखता कचनजंगा का शिखर मीता को बहुत अच्छा लगाा था।
आलोक जी का कार्यक्रम वहां दो दिनों के लिए नियत था। स्थानीय नेताओं से बातें करते आलोक जी के धैर्य पर मीता आश्चर्य कर उठती। विरोधी दलों के व्यक्तियों की अभद्र, अत्तेजित कर देने वाली बातें, वे किस शांति से सुन पाते थे।
शाम को गवर्नमेंट हाउस में गवर्नर की ओर से दिए गए रात्रिभोज में पूरी टी.वी. टीम को शामिल होना था। डिनर के पूर्व स्थानीय कलाकारों द्वारा सांस्कृतिक-कार्यक्रम का आयोजन किया गया था। पारम्परिक गीतों और नृत्यों ने समां बांध रखा था।
डिनर के बाद होटल पहुंचने पर मीता का टेलीफा़ेन बजा थाµ ‘हेलो...।’
‘अगर नींद नहीं आ रही है तो कुछ देर के लिए मेरे रूम मे आ सकती हैं’
’जी... मैं सोने ही जा रही थी, अगर ़जरूरी बात हो तो चेंज करके आ सकती हूँ।’ मीता लड़खड़ा आई थी। अलका दी ने रात में कभी कहीं अकेले न जाने की चेतावनी जो दी थी। आलोक जी को उस समय उससे क्या काम पड़ गया था? मीता का पूरा शरीर कंटकित हो उठा।
‘ओ.के. आप सोइए, फिर कभी सही...।’
जागते-सोते रात बीत गई थी क्यों बुलाया था आलोक जी ने... अगर बह गई होती तो? सुबह की ठंडी हवा ने मीता को जगाया था। कन्धें पर शाल डाल वह बाहर आ गई। सामने के पहाड़ों के पीछे से उभरते लाल सूर्य ने उसका अभिषेक किया और ढेर सारी चिड़ियों ने गीत गा अभिनंदन।
‘सुप्रभात। लगता है रात ठीक से सो नही पाईं।’
भोर के उस मनभावन रूप-सागर में डूबी मीता जान भी न सकी कब आलोक जी उसके पास आ खडे़ हुए थे।
‘जी...। आप बहुत जल्दी उठ गए?’ अपने को सम्हाल मीता ने पूछा था।
‘मैं शायद सोया ही नहीं, इसलिए जागने का सवाल ही नहीं उठता। हां आप जरूर जल्दी जाग गई। क्या हमेशा की अर्ली राइजर हैं?’