लौट आओ तुम / भाग-3 / पुष्पा सक्सेना

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‘अम्मा ने रोज जल्दी जगा, ऐसी ही आदत डाल दी है। उनका कहना है देर तक सोने वाले शनीचर होते हैं।’ अम्मा की वो बात याद करती मीता के ओंठ मुस्कान में फैल गए।

‘कल रात आपको क्यों याद किया, जानना चाहेंगी?’

न जाने क्यों मीता का मुंह लाल हो गया था। अनुत्तरित मीता को एक पल ताक, आलोक जी ने कहा थाµ

‘महादेवी वर्मा की कुछ पक्तियाँ पढ़ते-पढ़ते अचानक आप याद आ गईं।’

‘कौन सी पंक्तिया? मीता अपनी उत्सुकता रोक नहीं सकी थी।

‘मैं नीर भरी दुख की बदरी...’ ताज्जुब इसी बात का है कि उन पंक्तियों से आपकी याद क्यों आई? आप का चेहरा तो हमेशा उल्लास और उत्साह से दमकता है फिर ऐसा क्यों हुआ?’

‘शायद इसलिए कि अन्दर से मैं बहुत उदास-दुखी हूँ।’

‘आप उदास या दुखी क्यों होंगी मीता जी? उज्ज्वल भविष्य के साथ, आपका वर्तमान भी...’

‘उन बातों को जाने दीजिए। आप यहां पहले भी आ चुके हैं?

‘कई बार, पर लगता है आज ही जान पाया दार्जिलिंग की सुबह कितनी सुन्दर है।’

‘इसके पहले आप कभी जल्दी जागे ही नहीं होंगे इसलिए...।’

‘शायद ठीक कह रही हैं, इसके पहले...। आप यहां के टूरिस्ट स्पाॅट्स देखना चाहेंगी? यूरोप का कार्यक्रम तो एन्ज्वाॅय नहीं कर पाईं, यहां दार्जिलिंग का आनंद उठा लें।’

‘अगर समय मिला तो देख लूंगी... आप परेशान न हों।’

‘गजानन बाबू से कह दूंगा कार अरेंज हो जाएगी। कल की बैठकों में आपकी ज़रूरत नहीं है।’

‘तब तो मैं टाइगर हिल जाना चाहूंगी, सुना है वहां सूर्योदय का दृश्य बहुत अदभुत होता है।’

‘जरूर जाइएगा। बतसिया लूप की रेल में भी जरूर बैठिएगा। मुझे विश्वास है, आपको अच्छा लगेगा।’

‘थैंक्स’।’

‘आइए एक कप गर्म काफ़ी हो जाए? गजानन को मेरे जागने की खबर नहीं हुई वर्ना आज की ये सुहानी सुबह भी उसके नाम करनी पड़ती।’

आलोक जी की बात ख़त्म होते न होते सामने से हड़बड़ाए गजानन बाबू भागते से आते दिखे थे।

‘सर, आज इतनी जल्दी जाग गए? तबियत तो ठीक है, न?

‘एकदम ठीक हूँ, पर गजानन जी आप अपनी कोई चर्चा छेड़ें उसके पहले एक कप गर्म काफी लेने देंगे?’ आलोक जी के स्वर मे स्नेह और परिहास का संगम था।

‘अभी लें, सर। आपने अभी तक चाय-काॅफ़ी भी नहीं ली। मुझे माफ़ करेें, देर तक सोता रह गया।’

‘आप ठीेक टाइम से उठे हैं, गजानन बाबू। अगर थोड़ा और पहले जाग जाते तो मुश्किल हो जाती।’

‘थैंक्यू सर।’ कृतज्ञ भाव से सिर झुका गजानन बाबू काॅॅफ़ी का आर्डर देेने अन्दर चले गये।

‘मैं चलती हूँ।’

‘अरे वाह, फिर गजानन की काॅफी का क्या होगा? बेचारा मायूस हो जाएगा, उस पर तो दया कीजिए।’

आलोेक जी की नाटकीय मुद्रा पर मीता हंस पड़ी। तेजी से आते गजानन बाबू के साथ वेटर के हाथ में काॅफ़ी की टेª थी। लाॅन में पड़ी टेबिल पर ट्रे रख, वेटर ने काफी का मग आलोक जी की ओर बढ़ाया था।

‘मैडम को दीजिए।’ कहते आलोक जी ने झुककर ट्रे से दूसरा मग उठा लिया।

‘बिस्किट, मैडम...।’

नो थैंक्स। इतनी जल्दी कुछ खाने की आदत नहीं है। बस यही काफ़ी है।

‘बिस्किट तो हल्के होते है, मैडम। अकेली चाय-काॅफ़ी पीना नुक्सानदेह होता है, एसिडिटी हो जाती है।’ गजानन बाबू ने अपनी जानकारी दी।

अब आप समझ सकती हैं, कैसे मुझे चैबीसों घंटे इनकी डाॅक्टरी सलाह पर जीना पड़ता है।’ आलोक जी ने विवशता जताई।

‘ठीक ही तो है। आपके व्यस्त जीवन में बहुत जरूरी है कोई आपकी ठीक देखभाल करता रहे।’

मीता की सहज रूप में कही बात पर गजानन बाबू और आलोक जी जैसे दोनों ही अस्थिर से हो उठे थे। आलोक जी कप रख उठ खड़े हुए।

‘थैंक्स फ़ाॅर दि कम्पनी। गजानन जी, चलें आज का काम शुरू करें।’

‘यस सर।’

मीता से आंखे चुराते से गजानन बाबू आलोक जी के पीछे-पीछे चल दिये। विस्मित मीता उनकी पीठ ताकती रह गई।

दिन में चहकते नवीन ने आकर चैंकाया थाµ

‘वाउ... ग्रेट न्यूज फाॅर मिस मीता।’

‘क्या हुआ? बड़े खुश नजर आ रहे हो?

‘बात ही ऐसी है, सुनोगी तो उछल पड़ोगी... गजानन बाबू ने हमारे लिए गाड़ी भेजी है। दार्जिलिंग के टूरिस्ट स्पाॅट देखने जाने के लिए हम फ्री हैं।’

‘मेरा मूड नहीं है, तुम चले जाओ नवीन।’

‘कमाल करती है, अगर आप न गई तो हमारा मूड खराब हो जाएगा। अब जल्दी उठिए, मैडम, देर हो रही है। बाकी सीनियर आराम फ़र्मा रहे हैं, हम दोनों ही चल सकते है।’

नवीन कभी बडे़ अपनेपन से मीता को तुम पुकार लेता तो कभी आप कह, अपनी नाराज़गी ज़ाहिर करता।

बेमन से मीता को उठना पड़ा था। बतसिया लूप की टेªन में बैठी मीता को आलोक जी की बात याद आ रही थीµउन्होंने कैसे जान लिया उसे उस छोटी सी रेलगाड़ी की यात्रा में बहुत आनंद आएगा।

माल की छोटी-छोटी दुकानों में विदेशी पर्यटकों की भीड़ थी। उस चैरस जमीन के टुकड़े पर खुशी बिखरी पड़ी थी। पर्यटक खुशी के रंग में रंगे, एकसार हो गए थे।

‘कुछ खरीदना नहीं है, मीता जी?’

‘क्या खरीदूं?।’

‘ये कहिए, क्या न खरीदूं। मेरा तो जी चाहता है सब कुछ खरीद ले जाऊँ।’

‘जी चाहने से ही तो सब कुछ नहीं हो जाता नवीन?’

‘हमेशा अपनी विवशता का रोना-रोते रहना ज़रूरी है क्या? कभी तो हंसा करो।’

‘तुम नहीं जानते...’

‘क्या नहीं जानता? यही न कि घर के सारे दायित्व आप निभा रही हैं, पर क्या इस तरह की लड़की आप अकेली ही हैं? हर घर में मज़बूरी का जीवन जीता, कोई न कोई ज़रूर मिलेगा। मेरे बारे में कितना जानती हैं, आप?’

नवीन के उस आक्रोश पर मीता अवाक रह गई थी। शायद उससे इस तरह बोलने का नवीन का पहला अवसर था। पनिआई आँखें चुराती मीता, माल से नीचे नेपाली मार्केट की ओर उतरने लगी थी।

‘आई एम साॅरी, मुझे माफ़ कर दो। तुम्हारा दिल दुखाने का मेरा कतई इरादा नहीं था।’

‘इट्स ओ.के.! तुमने ठीक ही कहा मैं व्यर्थ ही सबका मूड खराब कर देती हूँ।’

‘ये तो नाराज़गी वाली बात हुई। चलो इसी बात पर मूरी ओर से एक आइक्रीम हो जाए। शायद आइसक्रीम से गुस्सर ठंडा हो जाए।’

इस सर्दी में आइसक्रीम? तुम मुझे नीरज की याद दिला जाते हो, वो भी ऐसे ही लड़ाई करने के बाद सौदा करता है।’

‘नीरज कौन’

‘मेरा भाई। हम दोनों खूब झगड़ते थे और बाद में वह कैडबरीज या आइसक्रीम खिला, अपनी ग़लती मान लेता था।’

नवीन जैसे चुप सा पड़ गया था। उसके मुंह के भाव पढ़ पाना कठिन था।

‘क्या हुआ नवीन? क्या आइसक्रीम की बात टालना चाहते हो?’

‘नहीं वैसा कोई इरादा नहीं है। मैं जो कहता हूँ उसे पूरा जरूर करता हूँ। चलो उस पाॅर्लर में चलते हैं।’

दोनों माल के दाहिने कोने पर बने पाॅर्लर की ओर बढ़े चले थे। सामने गर्म दोसे बन रहे थे।

‘नवीन आइसक्रीम के पहले एक-एक दोसा हो जाए।’

‘साॅरी, अपनी जेब एक ही चीज का खर्चा उठा सकती है, चुन लो।’

‘क्यों क्या दोसा मैं नहीं खिला सकती? आओ दोसा मेरी ओर से चलेगा।’

‘एक लड़की से खर्च कराना हमारी संस्कृति नहीं, वह भी अपनी छोटी बहन से। चलो आज घाटा ही सही।’

‘तुमने मुझे बहिन माना है, नवीन?’

‘क्यों तुम्हारे भाई लायक गुण नहीं हैं मुझमें?’ नवीन गम्भीर था।

ओह नवीन, तुम्हारे साथ हमेशा अपने को सुरक्षित पाती रही हूँµशायद हमेशा यही एहसास हुआ मेरे साथ मेरा बड़ा भाई है। ‘मीता का गला भर सा आया था।

‘फिर वही भावुकता, तुम लड़कियां भी बस। या तो लड़ोगी या रोओगी। इसी चक्कर में दोसा ठंडा हो जाएगा और आइसक्रीम पिघल जाएगी।’

मीता हंस पड़ी थी। मन जैसे फूल सा हल्का हो आया था। नवीन में हमेशा उसने भाई पाया,ष्शायद इसीलिए वह उसके साथ इतनी सहज रहती थी।

‘कल सुबह टाइगर-हिल ज़रूर चलना है, जाग सकोगे न? सुबह चार बजे पहुंचने के लिए तीन बजे चलना पडे़गा।’

‘मुझे नहीं जाना है। इतनी सर्दी में मेरा क्या दिमाग खराब हुआ है जो चार बजे कांपते हुए सूर्योदय देखने जाऊँ?’

‘ठीक है मत जाओ। अकेले ही जाउंगी, पर बाद में पछताओगे।’

‘पछताना मेंरी आदत में नही। जो बीत गई, सो बात गई।’

उस रात मीता को बहुत मीठी नींद आई थी, पर सोने के पहले ये बात दिमाग में जरूर आईµआलोक जी ने महादेवी वर्मा की उन भावुक पंक्तियों के साथ उसे याद किया था और उसने क्या अंट-संट सोच डाला था। रजाई ऊपर तक खींच, मानो उसने अपनी शर्म छिपाई थी।

दो बजे अलार्म की कर्कश आबाज़ ने मीता को मीठी नींद से जगाया था। रात में ही गजानन बाबू ने कार का इंतजाम कर दिया था।

ठीक ढ़ाई बजे चलकर चार बजे टाइगर हिल पहुंचना होगा, वर्ना सूर्योदय का दृश्य नहीं देख पांएगी, मैडम।’

‘ठीक है मैं तैयार रहूँगी।’ उत्साहित मीता ने यह भी जानने की कोशिश नहीं की थी कि उसके साथ कोई जा भी रहा था या नहीं?’

लांग कोट पहिनना उसे कभी पंसद नहीं था, पर सुबह की बर्फीली हवा की चुनौती उससे ही झेली जा सकती थी। सिर पर स्कार्फ, बांध, मीता नीचे रिसेप्शन पर उतर आई थी।

लांउज में गजानन बाबू उसकी प्रतीक्षा कर रहे थे।

‘वाह मैडम, मान गया। आप सचमुच धुन की पक्की हैं, वर्ना इस समय रज़ाई से बाहर आ पाना क्या संभव है?’

‘आप भी तो उठे हैं, गजानन जी, क्या आप भी चल रहे है?’

मंत्री जी के साथ जाना तो मेरी मजबूरी ठहरी मैडम।’

‘क्या मंत्रीजी भी जा रहे हैं?’

‘बस आपका इंतजार था। उन्हें अभी खबर करता हूँ। ये लीजिए शांति बाबू और नागेन्द्र जी भी आ गए।’

ए.एस.डी. और प्रोड्यूसर के साथ नवीन नहीं था। जरूर वह गहरी नींद में सो रहा था, पर आलोक जी जैसा व्यस्त आदमी साइट-सीइंग के लिए समय व्यर्थ करे। मीता को ताज्जुब हो रहा था।

कुर्ते-पजामे के साथ शाल ओढ़े आलोक जी के चेहरे पर ताज़गी थी ए.एस.डी., प्रोड्यूसर ने श्र(ापूर्वक अभिवादन किया था। मीता ने शायद नमस्ते के लिए हाथ उठाए भर थे।

‘हेलो। सब चलने को तैयार हैं... चलें गजानन?’

‘आइए सर, गाड़ी तैयार है। मैडम आप भी आएं। हम लोग दूसरी गाड़ी में आते हैं। गर्म चाय का थर्मस लेना है।’

‘चलिए।’ मीता को हाथ से आगे बढ़ने का संकेत करते आलोक जी चल दिये थे।

कार के बन्द शीशों के बीच आलोक जी के सानिन्घ्य से मीता को गर्मी सी लगन लगी थी। आलोक जी ने सीट के पीछे सिर टिका आंखे मुंद ली थी।

करीब एक-डेढ़ घ्ंाटे बाद, कार टाइगर हिल पहुंच गई थी।

गजानन जी की कार पांच-सात मिनट बाद आ पहुंची थी।

‘सर, आपने सिक्यूरिटी नहीं लाने दी है। कहीं किसी ने पहिचान लिया तो?’

‘कुछ नहीं होगा, गजानन। मीता जी मेरे साथ चलेंगी, किसी को आभास भी नहीं होगा। यही आनंद तो मैं भूल गया हूँ, गजानन। अपने आप में मस्त, दूर तक पहिचाना न जाना।’

‘मीताजी प्लीज, आप सर के साथ ही रहें, लोग समझेंगे कोई कपॅल सूर्याेदय देखने आया है। जो मैंने कहा उसे माइंड न करें, यह जरूरी है... इसीलिए... प्लीज...’

शर्म से मीता के कान की लवें तक लाल हो उठी थीं। काश््ा वह इस बात को पहले जान पाती तो, भला यहां इस तरह आलोक जी की रक्षिका बन आती? पर अब चारा ही क्या था।

सूर्योदय की प्रर्तीक्षा में खडे़ ढे़र सारे लोगों से जरा हटकर मीता और आलोक जी खड़े थे। गजानन ने काफी का कप जैसे ही पेश किया, आलोक जी झुंझला उठे थे।

‘कभी तो मुझे भी आम आदमी की तरह एन्ज्वाॅय करने का अधिकार होना चाहिए यहां भी वही वी.आई.पी. ट्रीटमेंट। आइ एक फ़ेड-अप।’

‘साॅरी, सर। आपकी उठते ही काॅफी की आदत है, इसलिए...’

‘लाइए इस समय सूर्योदय के साथ गर्म-गर्म काॅॅफी से आनन्द दुगना हो जाएगा।’ मीता ने हाथ बढ़ा काॅफ़ी का मग थाम लिया। गजानन बाबू का मुख चमक उठा।

‘आप बहुत उदार हैं, मीता जी। साॅरी गजानन।’ आलोक जी हल्के से मुस्करा दिये।

पहाड़ों के पीछे से उगता लाल सूर्य देखना, एक अभूतपूर्व अनुभव था।

‘कितना अद्भुत कितना सुन्दर, है न?’ मीता के चेहरे पर लाल रश्मियां प्रतिबिम्बित थीं।

‘हां, सचमुच बहूत ही अपूर्व और अद्भुत है। मीता के चेहरे पर आलोक जी की दृष्टि गड़ सी गई थी।’

‘थैंक्स। आपके कारण ये सब देख सका वर्ना...।’ आलोक जी ने अपना बाक्य अधूरा छोड़ दिया था।

वापिस आते आलोक जी पूरे समय मौन ही रहे थे।

मीता ने नवीन को चिढ़ाया थाµ

‘इतना सुन्दर दृश्य देख पाना, सबका सौभाग्य नहीं होता। कुंए के पास आकर प्यासा लौटता, तुम्हें ही देखा है।’

‘चलो मेंरी जगह तुमने तो उस दृश्य को आंखांे में कैद कर लिया है, न? तुम्हारी आंखों की चमक से उसकी सुन्दरता की कल्पना कर सकता हूँ।’

‘आलोक जी भी मुग्ध थे...।’

‘क्या आलोक जी भी गए थे।’

‘हां... आं... सब तुम्हारे जैसे आलसी थोड़े हैं कि एक दिन की नींद भी सैक्रीफाइस न कर सकें।’

‘ताज्जूब है। शायद जिंदगी में पहली बार उन्होंने इस तरह के फालतू काम के लिए अपना टाइम वेस्ट किया होगा, पर क्यों?’

‘तुम तो ऐसे बोल रहे हो जैसे उनका पर्सनल बायोडाटा तुम्हारे पास हो।’

‘ऐनी हाओ, ये आलोक जी तुम्हें कुछ ज़्यादा ही इम्पोंर्टेंस नहीं दे रहे हैं?’

‘मुझे तो नहीं लगता।’

‘अगर लगे, तो बी केयरफुल। इन लोगों से दूरी ही भली।’

‘ओ.के. बिग ब्रदर, और कोई सलाह?’

दोनों हंस पड़े।

दरर्जिलिंग से वापिस लौट, मीता अपनी पुरानी दिनचर्या में व्यस्त हो गई थी। उसके पीछे अम्मा और आरती के पत्र आए थे। घर न पहुंचने की अम्मा और आरती दोनों की ही शिकायत थी। उससे न मिल पाने की बजह से नीरज भी उदास रहा। दिल्ली में नीरज की दो महीने की ट्रेनिंग हैं, उसके बाद वह मीता के पास पहुचेगा। आरती के एक्जाम्स के लिए शुभकामना-कार्ड भी नहीं भेज सकी थीं। शाम को उसे लम्बा सा पत्र लिखने का निर्णय ले, मीता ने काम शुरू किया था।

पिछले दो दिनों से अलका दी के न आने से मीता चिन्तित हो उठी।

क्या बात है नवीन, अलका दी नहीं दिखाई दे रही हैं। कहीं टूर पर गई हैं क्या?’

‘शायद बीमार हैं, एक सप्ताह की छुट्टी की ऐप्लीकेशन आई है।’

‘क्या हुआ?’

‘पता नहीं, अपने बारे में उन्हें कभी बात करते देखा है क्या?’

‘उनका घर कहंा है?’

‘वो भी पता नहीं, पर शायद रामदीन से पता लग जाए, आफ़िस का सबसे पुराना मेसेंजर है, न।’

रामदीन के बताए पते पर पहुचने में मीता को काफी मुश्किल उठानी पड़ी थी। सकरी गली से पहुंच जिस घर का जीर्णद्वार खटखटाया, वह उस घर की हालत का परिचायक था। दरवाजा एक सात-आठ वर्ष की लड़की ने खोला था।

‘किससे मिलना है आंटी?’

‘अलका जी हैं?’

‘कौन मम्मी?’

‘कौन है दिव्या, किससे बातें कर रहे है?’ अन्दर से अलका दी की आवाज आई थी।

‘देखो न मम्मी, ये कौन आंटी आई हैं?’

‘कौन हैं?’ कहती अलका दी बाहर आ गई थी।

‘अरे मीता... यहां...?’

आप दो दिनों से नहीं आ रही थीं पता लगा, बीमार हैं सो देखने चली आई।’ अलका दी को उस बच्ची द्वारा मम्मी पुकारे जाने की बात ने मीता को उलझन में डाल दिया था।

‘यहां का पता रामदीन ने बताया होगा?’

‘उनके अलावा और कोई आपका पता कहां जानता है अलका दी।’

उसने भी तुझे बता दिया, वर्ना और किसी को वह बताने वाला नहीं। आओ, मीता इधर ही बैठोगी या आंगन में चलें। शाम को गर्मियों में आंगन अच्छा रहता है।,

‘तो चलिए वहीं बैठा जाए।’

‘दिव्या, ये तेरी मीता आंटी हैं, इन्हें क्या खिलाया जाए?’

‘टाॅफ़ी दूं मम्मी?’ बच्ची की भोली बात पर दोनों हंस पड़ी थीं।

‘हमे तो पता ही नहीं था आप यहां रहती हैं, वर्ना आपके लिए ढ़ेर सी टाॅफ़ी जरूर लाते।’ मीता ने प्यार से कहा।

‘इसे देख ताज्जुब में पड़ गई न?

‘शायद...।’

‘मेरी बेटी है।’

‘पर आपने कभी चर्चा नहीं की?’

‘बहुत सी बातें हैं मीता, किस-किस की चर्चा की जाए। वैसे लोगों ने मेरी जितनी लम्बी कहानी सुनाई होगी, उससे छोटी ही है।’

आपके बारे में मैंने कभी लोगों से कुछ नहीं जानना चाहा, अलका दी। अगर किसी ने कोशिश भी की तो वहीं रोक दिया, पर आज सब कुछ जान पाने की उत्सुकता ज़रूर जाग गई है।

आपके जीवन में जरूर कुछ अनहोना घटा है, यह तो समझती थी, पर क्या हुआ, नहीं जान सकी।’

‘सुरमा।’

अलका दी की आवाज पर एक आदिवासी युवती कमरे में आई थी।

‘सुरमा, इन दीदी के लिए चाय पिलाएगी? खाना तो तैयार है न?’

‘अभी लाई, दीदी। खाना जब कहें लगा दूं।’

‘आप बेकार ही तकल्लुफ कर रही हैं अलका दी। अभी भरपेट खाकर निकली थी। सोचा छुट्टी का दिन आपके साथ ही गुजारूं।’

‘बड़ी बहिन के साथ पूरे दिन रहने के लिए घर से खाना खाकर आना होता है, मीता?’

‘सोचा, आप बीमार हैं असुविधा न हो, बस इसीलिए वर्ना...।’

‘अच्छा-अच्छा जान गई। अपनी अलका दी का बड़ा ख्याल है न तुझे। सुरमा, तू हमें चाय देकर, बेबी को खाना खिला दे।’

‘नहीं, मम्मी हम आपके साथ खाना खाएंगे।’ दिव्या ठुनक गई थी।

‘अरे वाह! हमारी बेटी इतनी जल्दी भूल गई, आज तुम्हें शीला आंटी ने बुलाया है, न? खाना खाकर आराम नहीं करोगी तो वहां मूवी देखते-देखते नींद आ जाएगी।’

‘ठीक है, मम्मी। तुम आंटी के साथ खा लेना। बाॅय, आंटी।’ दिव्या का चेहरा चमक उठा था।’

‘बड़ी प्यारी बच्ची हैं।’

‘काश्, अपना सा उजला भाग्य भी साथ लाती।’ अलका दी ने उसांस ली थी

‘आपने कैसे जाना, उसकी भाग्य-भविष्यदृष्टा तो आप हैं नहीं। भगवान उसे सारे सुख देंगे।’ मीता ने जैसे तसल्ली सी दी थी।

‘जन्म के पहले ही ये अपना भाग्य, लिखा लाई थी, मीता।तेरी ही तरह मुझे भी मजवूरी में नौकरी करनी पड़ी थी। उम्र के उस मोड़ पर हर लड़की मोहक लगती है, मैं कुछ ज्यादा ही आकर्षक थी। साथ काम करने वालों की लोलुप, शरीर-बींधती दृष्टियां आसानी से सह पाना कठिन लगता, पर मजबूरी मेरी ही थी। उन जाड़ों में शाम कितनी जल्दी गहरी हो जाती थी, जानती है न?’

‘कौन सी शाम की बात कह रही हैं, अलका,दी?’

‘एक काली शाम थी वो। काम की क्वालिटी बढ़िया हो इसके लिए मैं खुद एडिटिंग के लिए बैठती थी, काम करते कब सब लोग घर चले गए, पता ही नहीं लगा। अचानक एडिटिंग कर रहे नरेश ने काम बन्द कर, मेरे कंधे पर हाथ धर कहा थाµ

‘कब तक काम कराएंगी, मिस, भूख लग आई हैµइतनी देर काम करने का इनाम मिलना चाहिए।’

कंधे पर नरेश के हाथ के बढ़ते दबाव से मैं घबरा गई थी। हल्के से उसका हाथ हटाने की कोशिश की तो उसने दोनों हाथों को मेरे चारों ओर लपेट मुझे उपने सीने से जकड़ लिया था। डर से मेरी बुरी हालत थी। अपने को छुड़ाने के प्रयास में मैं चीखती जा रही थी। तभी पीछे से किसी ने आकर नरेश को खींच, एक ओर कर दिया था।

‘ये क्या तमाशा है, आई विल ससपंेड यू।’ सीनियर प्रोड्यूसर नवीन्द्र नाथ को देख, मैं रो पड़ी थी।

‘घबराइए नहीं। चलिए बहुत देर हो गई है, आपको मेरी गाड़ी घर पहंुचा देगी। और मिस्टर नरेश, मीट मी इन माई आफिस। मैं इंतजार कर रहा हूँ।

‘थैंक्यू सर।’ आंसुओ के बीच बस उतना ही कह सकी थी।

‘इट्स ओ.के. डोंट बी अपसेट। आगे से कोई प्रॅाब्लेम आए, सीधे मेरे पास चली आना। अब ये आंसू पोंछ डालो वर्ना घर के लोग परेशान होंगे।’

‘बड़े प्यार से अपने रूमाल से जब उन्होंने मेरे आँसू पोंछे तो मुझे उस स्नेह भरे स्पर्श में बड़े भाई के हाथ के स्पर्श सा अनुभव हुआ था, मीता।

‘फिर क्या हुआ, अलका दी?’

अगले दिन नरेश ने आकर माफ़ी मांगी थी। नवीन्द्र नाथ जी ने मुझे अपने कमरे में बुलाकर कहा थाµ

‘वैसे तो मैं नरेश को आसानी से ससपेंड कर सकता हूँ, मैं उस घटना का चश्मदीद गवाह हूँ, पर इसमें तुम्हारी बदनामी हो सकती हैं। लोग हमेशा लड़की को ही दोष देते हैं। एक बार इस तरह की घटना की शिकार हुई लड़की पर सब आदमी शिकारी नजर रखने लगते हैं, कब चांस मिले और... खैर वो सब छोड़ो। इसीलिए मैंने उसे चेतावनी देकर, तुमसे मांफ़ी मांगने को कहा था। अगर तुम उसे माफी न देना चाहो तो मैं उस पर कोई और ऐक्शन ले सकता हूँ।

‘नहीं सर, आपने जो कहा वह ठीेक है। मैं भी नहीं चाहती वो बात कहीं बाहर जाए। थैंक्यू सर, आपकी हमेशा आभारी रहूँगी।’

‘फिर वही तकल्लुफ। मुझे अपना ही समझो, अलका। बाई दि वे, तुम्हारे घर में और कौन-कौन है?’

‘माँ, एक छोटी बहिन और एक छोटा भाई... बस।’

‘पिता...?’

‘पिता जी का पिछले साल स्वर्गवास हो गया। बहुत लम्बी बीमारी का कष्ट उन्हें झेलना पड़ा था, सर। मत्यू के तीन वर्षो पूर्व से उनका आफ़िस जाना बन्द हो गया था।’

‘ओह, तुम सबको बहुत कष्ट उठाना पड़ा होगा, मैं समझ सकता हूँ। मेरे पिताजी भी हमे बचपन में ही छोड़ गए थे। तुम मुझझे कोई संकोच नहीं रखना, अलका। अगर तुम्हारे किसी काम आ सका, तो अपने को भाग्यशाली मानूंगा।’

उस दिन के बाद से अनजाने ही मैं उनके निकट होती गई थी। लगता था वे मेरी हर तकलीफ़ सिर्फ समझते ही नहीं बल्कि भोगते थे। मुझे कभी उदास नहीं होने देते थे। पर एक बात जरूर खलती थी, उन्होंने कभी मुझे अपने घर पर आने का निमंत्रण नहीं दिया। एक बार मैंने ही कहा थाµ

‘आपके साथ भाभी जी से मिलना चाहती हूँ, कब ले चलेंगे?’

‘उनसे मिलने के लिए तो प्रतीक्षा करनी होगी...।’

‘मतलब, वो कहीं बाहर गई हुई है?’