लौट आओ तुम / भाग-4 / पुष्पा सक्सेना

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‘क्या कहूँ, अलका। सच तो यह है जिस आदमी की जिंदगी में दुख आ जाए तो वहां से वो हटने का नाम ही नही लेता। मेरी पत्नी को गहस्थ जीवन से वैराग्य सा हो गया है। बहुत समझाया पर घरबार बच्चों का मोह छोड़ हरिद्वार जा बसी हैं। अपने माता-पिता के गुरू के आश्रम में जीवन काट रही है और यहां उसके बिना बच्चे और मैं अनाथ हो गया हूँ, अलका...।’ नवीन्द्र जी का स्वर रूंध गया था।

‘इस उम्र में वैराग्य का कोई कारण तो रहा होगा, सर?’

‘बात कहने में भी संकोच होता है बचपन से उसके घर में इन गुरूजी का आना-जाना था, न जाने उन्होंने कैसा वशीकरण मंत्र पढ़ा कि उसके पीछे दीवानी हो गई।’

‘ऐसा भी संभव है क्या? पति न सही बच्चों का मोह छोड़ पाना क्या स्त्री को आसान होता है।’

‘यही बात तो समझ में नही आती, अलका। बेचारे बच्चे मां के रहते, बिन मां के हो गए हैं। बड़ी लड़की को होस्टेल भेज दिया, अब इस वर्ष से छोटा बेटा भी नेतरहाट चला गया। एकदम अकेला छूट गया हूँ मैं, अलका...।’

अलका का मन उनके प्रति भीग उठा। सब कुछ पाकर भी इन्सान कितना असहाय हो सकता है। नवीन्द्र जी के लिए अलका के मन मे ढे़र सा नेह उमड़ आया था।

‘ऐसा क्यों सोचते हैं, हम सब भी तो आपके हैं।’

‘सच कहती हो, अलका? ओह। अलका ये बात कहकर तुमने मुझे नया जीवन दे दिया। मैं तुम्हारा कितना आभारी हूँ।

अलका के मस्तक पर निःसंकोच उन्होने चुम्बन दे, कृतज्ञता ज्ञापित की थी। अलका ने भी उसका अर्थ उन्यथा कहां लिया था। उसके बाद नवीन्द्र जी का अलका के घर आना-जाना शुरू हो गया था। ड्यूटी के बाद अलका को उसके घर डाॅप करना उनकी दिनचर्या में शामिल हो गया था।

अलका की मां, भाई-बहिन भी उन्हें खूब सम्मान देते। जल्दी वापिस लौटने की बात पर अलका रोक लेतीµ

‘यहीं खाना खाकर जाइए। वहां नौकर के हाथ का कच्चा-पक्का खाना खाते हैं, यहां मां का पकाया खाकर देखिए।’

‘सच मैं कितना भाग्यशाली हूँ। मुझे यहां अपना परिवार मिल गया है।’

नवीन्द्र जी आराम से देर रात तक बैठे बतियाते रहते। भाई-बहिन भी अब अधिकारपूर्वक उनसे अपनी फर्माइशें करने लगे थे। ऐसे नवीन्द्र के साथ जब एक कार्यक्रम की कवरेज के लिए अलका को दूसरे शहर जाने के लिए कहा गया तो घर में किसी को भी आपत्ति का सबाल ही नहीं उठता था। अनहोनी वहीं घटी थीµ

देर रात प्रोग्राम कवरेज के बाद डिनर से जब लौटी तो साथ में नवीन्द्र जी ही थे। खाने के पहले शायद ज्यादा ही पी गए थे। होटल पहुंच, अलका के साथ जब उसके कमरे में जाने लगे तो उसने कहा थाµ

‘बहुत रात हो गई है, अब आप अपने कमरे में जाकर आराम करें।’

‘नहीं, में तुम्हारे साथ रहूंगा अलका। थोड़ी देर को अपने पास रहने दो... प्लीज...। इस वक्त बहुत अकेला महसूस कर रहा हूँ बस थोड़ी देर रहने दो।’

उनके कातर स्वर पर अलका पिघल गई थी।

‘ठीक है। पर, थोड़ी देर में जाना पडे़गा।’

कमरे में पहुंच अलका को जबरन पलंग पर बैठा उन्होंने उसकी गोदी में सिर रख दिया था। अलका ने सिर हटाने की कोशिश की तो वे रो पड़े थेµ

‘प्जीज अलका, मुझे मत हटाओ, मैं मर जाऊंगा। तुम्हारे सहारे मैं जी रहा हूँ। आई लव यू अलका...।’

‘ये क्या कह रहे हैं सर? आप होश में नहीं हैं, प्लीज अपने कमरे में जाइए।’

‘मैं पूरे होश में हूँ, अलका, आई लव यू, आई लव यू...।’

अलका पर उनका दबाव बढ़ता गया था और विरोध के बावजूद अलका अवश होती गई थी माथा, गाल, ओंठ सब उनके चुम्बनों से भीग गए थे। अन्ततः अलका अपने पर नियंत्रण न रख सकी थी।

‘वो रात मेरे जीवन की काल-रात्रि थी, मीता। दूसरे दिन सुबह अपने से घृणा हो आई थी, पर नवीन्द्र जी ने बाहों में भर दिलासा दिया थाµ

‘मुझे माफ़ करना, अलका, मैं संयम और विवेक खो बेठा था। विश्वास दिलाता हूँ, हमेशा तुम्हारा रहूँगा।’ बात खत्म करते नवीन्द्र जी ने ललाट पर फिर स्नेह-चिहन अंकित कर दिया था।

उस कवरेज कार्यक्रम के बाद घर लौटी अलका जैसे एकदम बदल चुकी थी। मां उसका उतरा चेहरा देख घबरा गई थीµ

‘क्या बीमार पड़ गई थी, अलका? चेहरा ऐसा बुझा सा क्यों हैं?’

‘शायद थकान है, अम्मा बस इसीलिए...।’

बार-बार नहाकर भी अलका को अपना बदन गन्दा ही लगता रहा। दो कौर मंुह में डाल, सिर तक चादर ओढ़, दिन भर मुंह ढ़ापे पड़ी रही थी।

ये क्या हो गया? जिन्हें अपना गुरूजन जान, सम्मान का पात्र माना था, उनके साथ ऐसा संबंध...छिः... अलका को अपने से घृणा हो आई थी। काश वह प्रतिरोध कर पाती, क्यों वह इतनी कमजोर पड़ गई थी। क्या उसके मन में भी उनके लिए कमजोरी थी? नहीं ऐसा तो वह सोच भी नहीं सकती। कैसे सबसे अपना मुंह छिपाए।

दूसरे दिन अलका कार्यालय नहीं गई थी। अम्मा से वो सब बता पाने का साहस वह बटोर नहीं सकी थी, वे तो पहले ही टूट चुकी हैं। जवान लड़की के साथ जो कुछ हुआ, क्या सह सकेंगी? अकेले उस बोझ को ढ़ोते रहना कैसे होगा? भाई-बहिनों के निष्पाप चेहरे देख अलका अपने को माफ़ नहीं कर पा रही थी।

दूसरे दिन शाम को नवीन्द्र नाथ जी घर आ पहुंचे थे।

‘क्या बात है मांजी, अलका दो दिनों से आफ़िस नहीं आ रही है?’

‘न जाने क्यों सुस्त सी पड़ी है, लाख पूछा जवाब नहीं देती, न जाने क्या हुआ है। तुम्हीं पूछ देखो, बेटा।’

नवीन्द्र जी का अलका के पास भेज, अम्मा उनके भोजन की व्यवस्था के लिए रसोई में घुस गई थीं। भाई-बहिन नवीन्द्र जी की लाई मिठाई खा, होमवर्क में जुट गए थे।

‘कैसी हो, अलका?’

निरूत्तरित अलका ने मुंह अठाकर भी नहीं देखा था। कमरे के हलके प्रकाश में उसका उदास चेहरा और ज्यादा मायूस लग रहा था।

‘मुझसे बहुत नाराज़ हो, अलका? मेंरी ओर नहीं देखोगी? जानती हो, दो दिन से पानी भी गले से नीचे उतार पाना मुश्किल लग रहा है। तुम्हारा अपराधी हूँ, जो चाहो सजा दे दो, पर यूँ मुझसे नाता न तोड़ो।’

अलका के मौन पर दृढ़ शब्दों में नवीन्द्र जी ने कहा थाµ

‘ठीक है अब मत्यु ही मेरा सही दंड है। अपना मुंह तुम्हें कभी नहीं दिखाऊंगा, यही चाहती हो न? मैं जा रहा हूँ, अलका।’

नवीन्द्र जी उठ खड़े हुए थे। अलका ने उनके मुंह पर जैसे मत्यु की छाया पढ़ ली थी। झटके से उठ, अलका ने उनकी राह रोक ली थीµ

‘आप ऐसा नहीं करेंगे। आपको जीवित रहना होगा।’

‘किसके लिए, अलका?मेरे जीवन की किसे जरूरत है। तुम्हारा अपराधी बन जाने से मौत अच्छी। मुझे मत रोको, अलका, वर्ना मैं कमजोर पड़ जाऊंगा।’

‘नहीं मैं आपको नहीं जाने दूँगी, मेरे लिए जीना पड़ेगा आपको।’

अलका के कांपते अधरों से न जाने वो बात कैसे निकली थी, शायद पिछले दो दिनों से जिस उधेड़बुन में वह थी, उसका यही एकमात्र समाधान शेष था। भारतीय परिवार में पत्नी-बढ़ी अलका के मन में एक ही बात सर्वाेपरि थी-शरीर का स्वामी केवल पति ही हो सकता है। दूसरे की भोग्या लड़की की कहीं इज्ज़त नहीं। अब जब नवीन्द्र जी उसे स्वयं स्वीकार कर रहे थे, तो दूसरा विकल्प क्या शेष था? माना कि वे विवाहित, दो बच्चों के पिता थे, पर उनके जीवन में पत्नी का स्थान तो रिक्त था। वह उनकी पत्नी ही नहीं, बच्चों की मां बनकर दिखाएगी।

अलका के मन का बोझ उतर सा गया था। उस रात नवीन्द्र जी काफी प्रसन्न घर लौटे थे।

अलका और नवीन्द्र जी के संबंध घनिष्ठ होते गए थे। आफ़िस में लोगों ने अलका से अगर कुछ कहना चाहा तो उसने कान नहीं दिए। नवीन्द्र जी ने उसे समझा रखा था कि आफ़िस के लोग उनसे जलते हैं। उनकी खुशी से उन्हें बैर है। प्रायः काम करने के बाद अलका नवीन्द्र जी के कमरे में ही जा बैठती थी। दोनों को साथ आते-जाते देख, पीठ पीछे फब्तियां कसी जाती, पर दोनों ने उन बातों की कभी पर्वाह नहीं की। अब वे अलका के घर भी उसके कमरे में सीधे चले जाते। उनके निःसकोच कमरे में जाने पर अम्मा ने आपत्ति की थीµ

‘इस तरह बिना पूछे तुम्हारे कमरे में जाना क्या ठीक है? तुम मना क्यों नहीं करती?’

‘तुम ही मना कर दो, अम्मा। मुझे संकोच होता है।’

‘इधर तू आॅफ़िस से भी बहुत देर में आती है। लोगों को तो मौका चाहिए, एक बार बदनाम हो गई तो कहीं की नहीं रहेगी।’

अलका ने नवीन्द्र जी से जब वो सब बताया तो वे हंस पड़े थे।

‘अम्मा पुराने विचारों की ठहरी, मैं उन्हें समझा दूंगा।’

‘पर हमें कोई निर्णय तो लेना ही होगा, कहीं कुछ गड़बड़ हो गई तो...।’ अलका की जुबांन लड़खड़ा गई थी।

‘गड़बड़ कैसी? तुम प्रिकाॅशन तो लेती हो न?’

‘कभी कभी उसका मौका ही कहां देते हो...जब-तबऋजहां मौका मिला नहीं कि...।’

‘देखो अलका, जब तक मेरी पत्नी से कानूनन संबंध-विच्छेद नहीं हो जाता, हमे किसी परेशानी में नहीं पड़ना है, समझी।’ नवीन्द्र जी कुछ नाराज़ से दिख रहे थे।

‘संबधं-विच्छेद के लिए आपने कहीं पहल की है? अगर पति-पत्नी एक-दो वर्षो से अलग रह रहे हैं तो कानूनन तलाक मिल जाता है।’

‘लगता है आजकल वकीलोें से बात कर रही हो, मुझे भी चिन्ता है, मैं देख लूंगा, तुम्हें इस बारे मेें किसी से चर्चा नहीं करनी है।’

उस दिन की बात अलका के मन में गड़ सी गई थी। कहींे वह बहाना तो नहीं कर रहे हैं। पिछले कुछ दिनों से सुबह-सुबह उसे मतली सी आने लगी थी। अम्मा के दिए चूरन या घरेलू नुस्खों से कोई फायदा नहीं हो रहा था। डाक्टर ने जब बताया वह मां बनने वाली है तो अलका स्तब्ध रह गई थी।

नवीन्द्र जी ने जब वह बात सुनी तो बेतरह झुंझला उठे।

‘तुम पढ़ी-लिखी लड़की हो, इतनी अक्ल तो होनी चाहिए थी। मैं सरकारी नौकरी में हूँµनौकरी चली गई तो कहीं का नहीं रहूँगा।’

‘अब तो कुछ करना ही पड़ेगा वर्ना मैं कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं रहूंगी।’ अलका रो पड़ी थी।

‘उन दिनो अबर्शन अपराघ माना जाता था मीता, स्वयं मैं इसे पाप ले गए। मेरा दुर्भाग्य सफ़ाई के बाद भी कोई अंश बचा रह गया और... मुझे बिन ब्याही मां बनना पड़ा।’

‘नवीन्द्र जी ने विवाह क्यों नहीं किया, अलका दी?’

‘उसने कभी विवाह की बात सोची ही नहीं थी मीता... वह तो आदमखारं शेर से भी ज्यादा ख़ंूख्वार निकला। उसकी सच्चाई जानोगी तो...

‘क्या सचाई थी, अलका दी...।’

‘यही कि उसकी पत्नी सचमुच सती-सावित्री थी। जिस पर वैराग्य का झूठा दोश्लगा, उसने मेरी सहानुुभूति जीती थी। वस्तुतः वह स्त्री अपने मन-मंदिर में उस धूर्त नवीन्द्र नाथ को पति-परमेश्वर रूप में प्रतिष्ठित कर, उसकी पूजा करती थी। पति कभी पाप कर ही नहीं सकता और इस आदमी ने उसकी इसी सिधाई का फ़ायदा उठाया। टी.वी. पर नई लड़कियां आने को उतावली रहती हैं, इसने न जाने कितनों को मसल कर बर्बाद कर डाला था मीता, उन्हीं में से एक मैं अभागिन भी थी।’

‘कैसे वो सब झेल पाई होंगी, अलका दी?’

अम्मा पर तो पहाड़ टूट पड़ा था। छोटे भाई-बहिन टुकुर-टुकुर मेरा मुंह ताकते रह गए थे। अम्मा के दूर के रिश्ते की बहिन ने सहारा दिया था। उनके पास पाँच महीने रह, दिव्या को जनम दिया था। हाथ में महीने भर की बेटी दठाए सीधे केंद्र-निर्देशक के पास पहुंची थी। सारी कहानी सुन, वह चुप रह गए थे।

उन्ही से पता लगा मेरे जाने के बाद ही नवीन्द्र नाथ ने बी.बी.सी. में अपना ट्रांसफ़र करा लिया था। अब वह लंदन में ऐश की जिंदगी जी रहा है। मैंने अधिकारियों को पत्र लिखने चाहे, पर उन बातों का मेरे पास क्या प्रमाण था मीता? डाइरेक्टर साहब भले आदमी थे, मुझे शान्त रहने की सलाह दे, यहां ट्रांसफर कर, दिया।

मेरी बदनामी मेरे साथ हर जगह पहुंच जाती है। चाह कर भी दिव्या को न अनाथालय में दे सकी, न उसे मार सकी, अन्ततः उसकी मां हूं न?

बात समाप्त करती अलका की आंखे भर आई थीं। निःशब्द मीता ने उसके हाथों पर अपनी हथेली धर दी थी।

‘सच अलका दी, आपने बहुत सहा है, पर द्रिव्या का भविष्य क्या होगा?’

‘वही सोच मुझे परेशान करता है मीता, सोचती हूँ इसे अनाथ कहकर किसी बोर्डिगं-हाउस में डाल दूं।’

‘ये क्या समस्या का ठीक समाधान होगा? आप पुनर्विवाह की बात भी तो सोच सकती हैं, अलका दी?’

पुनबर्ववाह? मेरे इस अतीत के साथ भला मुझसे कौन विवाह करेगा, मीता? लड़की का चरित्र ही उसकी सबसे बड़ी पूंजी है, वही खो दी तो क्या शेष रहा? जानती है अम्मा ने मुझसे हमेशा के लिए नाता तोड़ लिया। भाई-बहिन मेरी छाया से भी दूर भागते हैं। कभी उनके लिए मैं ही सब कुछ थी। न जाने कैसे उनके दिन कटते होंगे। मैं उनकी भी अपराधी हूँ, मीता।’

‘अपने को नवीन्द्र जी के हाथों सौंप देना आपकी गलती जरूर थी, पर उस गलती का आपने कम मूल्य तो नहीं चुकाया हैं। गलती का दंड दिव्या को क्यों मिले?’

तुम ठीक कहती हो मीता, मेरे अपराध का दंड दिव्या क्यों भोगे? इसीलिए सोचती हूँ उसके जीवन से मेरा दूर हो जाना ही उसके हित में है। मैं हार चुकी हूँ, उसके लिए कुछ कर पाना कैसे संभव होगा, मीता?’

‘अगर अपनी लड़ाई आपने ठीक से लड़ी होती तो आज यह स्थिति नहीं आती अलका दी। और अब भी आप नकरात्मक रूख अपना रही हैं, ये ठीक नहीं है।’

‘क्या ठीक है मीता?’

‘दिव्या को उसके असली पिता से उसका हक दिलवाइए। उसे पिता का नाम मिलना ही चाहिए।’

‘असली पिता के नाम से भी घृणा होती है, मीता। उस बाप के नाम से भी वह अपमानित ही रहेगी।’

‘फिर उसे अपना नाम दीजिए, अलका दी, अगर उतना साहस नहीं तो दूसरा पिता उसे क्यों नहीं मिल सकता? दुनिया में सब नवीन्द्र नाथ ही नहीं हैं। आपने कोशिश की थी अलका दी?’

‘नहीं, कभी नहीं। मुझे आदमी। ज़ात से ही नफ़रत हो गई। अगर किसी ने सहानुभूति जतानी चाही तो उसे दूर झटक दिया?’

‘ऐसा कोई था। अलका दी?’

‘कभी नवीन्द्र नाथ पर मुकदमंे की बात सोची थी, बकील था। वो कभी हम साथ पढ़ते थे। उसने नवीन्द्र नाथ से मेरे अपमान का बदला दिलाने के लिए कसम खाई थी, पर मैंने ही छोड़ दिया। बहुत दिनों तक घर आता रहा, दिव्या से खेलता था...।’

‘फिर?’

‘मैं ट्रान्सफ़र ले, इस अनजान शहर में आ गई।’

‘असका कोई अता-पता भी नही रखा?’

‘क्या होता?’

‘शायद तुम्हारे ज़ख्मों पर वह मरहम रख पाता।’

‘क्या पता वह भी मुझसे मेरी कमज़ोरी का फ़ायदा उठाता।’

‘हमदर्दी भी तो हो सकती थी?’

‘हमदर्दी के नाम से ही चिढ़ हो आती है, मीता।’

‘किसी पर भी विश्वास न कर सकीं तो कैसे जिएंगी, अलका दी।’

‘जी तो रही ही हूँ...।’

‘ये भी कोई जीना है, अलका दी? आज से आप दिव्या की चिन्ता छोड़ दें, उसका दायित्व मैं लेती हूँ।’

‘मीता, हमेशा से तुझमें अपनापन पाती रही। आज दिव्या की जिम्मेवारी की बात कह, तूने मुझो खरीद लिया है। दिव्या तेरे संरक्षण में अपना भविष्य संवार सकेगी विश्वास है।’ प्यार से अलका दी ने मीता को अपने से चिपटा लिया। चाय पीती मीता अचानक कह बैठी थीµ

‘आज समझ में आया, कहीं भी बाहर जाते समय आप मेरे लिए क्यों चिन्तित रहती थीं।’

‘दूध का जला छाछ भी फूंक-फूंक कर पीता है, मीता, फिर तू इतनी भोली है कि हमेशा तुझे देख, अपना अतीत याद आ जाता था।’

‘कल आफ़िस आ रही हैं, अलका दी?’

‘कल तो शायद न आ संकू, आज ही बुखार उतरा है। घर में पडे़-पडे़ जी ऊब जाता था, आज तेरे आने से मन बदल गया।’

‘अब तो अक्सर आकर परेशान करूंगी।’

‘तेरे आने से पेशानी कैसी? बहुत अच्छा लगेगा, मीता।’

घर आकर बहुत देर तक मीता सो नहीं सकी। अलका दी पर बहुत करूणा उमड़ रही थी। वैसी गलती क्यों हो जाती है... काश अलका दी अपने पर नियंत्रण रख सकी होतीं। अम्मा ठीक ही कहती हैंµ विनाश काले-विपरीत बुद्वि।’

वो रात अलका दी के जीवन की काल-रात्रि ही तो बन गई थी।

दो दिन बाद से अलका दी आने लगी थीं। मीता अब उनसे और ज्यादा अपनापन महसूस करने लगी थीं।

‘आपके चले आने पर दिव्या को कौन देखता है, अलका दी?’ उस छोटी लड़की के प्रति मीता के मन में बहत प्यार-दुलार हिलोरें लेता था। बड़ी होने पर उसे जिन समस्याओं का सामना करना होगा, क्या वह झेल सकेगी?’

‘शीला उसे बहुत प्यार करती है। उसकी अपनी बेटी दिव्या की ही उम्र की थी, पति ने उसे घर से लिकाल, बेटी अपने पास रख ली। दिव्या को पाकर अपनी बेटी का गम भुलाती है।’

‘हर जगह वही कानी, औरत का शोषण, उसका अपमान क्यों होता है, अलका दी? चाहे वह अनपढ़ गंवार हो या उच्च वर्गीय शिक्षता... उसकी नियति वही क्यों है?’ ये अनवरत शोषण कब तक चलता रहेगा-कब तक?’

‘पता नहीं...।’

‘पता क्यों नहीं है, अगर आप जैसी स्त्री अपनी हार मान लेगी तो औरों से क्या उम्मीद रखंे? दूरदर्शन पर हम शोषण के विरू( नारी-संघर्ष के प्रभावषाली नाटक दिखाते हैं, परिचर्चाए आयोजित करते हैं और असलियत में खुद शोषण के शिकार बन जाते हैं, क्यों, अलका दी क्यों? क्यों नहीं हम आवाज उठा सकते?’

‘कहने और करने में बहुत फ़र्क है, मीता, तू नहीं समझेगी। जितना ही शोर करेगी उतनी ही ज्यादा बदनामी होगी।’

‘वाह ये भी कोई बात हुई? लंदन में यही भारतीय नारी अपने वहशी पति को जिंदा जलाकर खत्म करने के बाद भी सबकी सहानुभूति पा सकती है, यहां उससे न्याय भी नहीं मांग सकती?’

‘तुझमें इतनी आग भरी है, आज ही जान सकी, मीता। इस आग पर कभी पानी के छींटे मत पड़ने देना।’

अलका दी की बात पर मीता संकोच से भर उठी थी। अपने से उम्र में उतनी बड़ी अलका दी को वह लेक्चार देने चली थी। क्या सोचती होंगी अलका दी।

एक सप्ताह बाद अलका दी ने उसे अपनीे घर बुलाया था।

‘कल छुटटी है, सुबह आ जाना। कल का तेरा पूरा दिन मेरे नाम रहेगा, किसी और को अप्वाइंटमेंट मत दे देना, समझी’

‘ऐसी क्या बात है, अलका दी? क्या दिव्या का जन्म दिन है या...।’

वो सब जब आएगी तभी बताऊंगी।’

‘ये क्या, अलका दी, आप तो पहेलियां बुझाा रही हैं।’

‘सच किसी का जन्मदिन नहीं है, तुझसे कुछ जरूरी बातें करनी हैंµबस।’

दूसरे दिन नौ बजे ही मीता अलका के घर पहुंच गई थी। द्वार एक सौम्य पुरूष ने खोला था।

‘आइए, आप मीता हैं न? अलका जी किचेन में हैं, बुलाता हूँ।

मीता को असमंजस में छोड़, वह अन्दर चले गये। अन्दर से उज्ज्वल मुख के साथ अलका दी आ पहुंची।’

‘ठीक समय पर आ पहुंची, मीता, अभी राहुल जी ने चाय की फ़र्माइश की थी तू भी साथ देने आ गई। मीता, ये मि. राहुल चंद्र, मेरे ही शहर में वकील हैं, राहुल जी ये ही वो मीता है जिसकी वजह से आपको बुलाना पड़ा।’

‘तब तो आपका आभारी हूँ, मीता जी, आपकी वजह से अलका ने याद किया वर्ना-।’अपना वाक्य अधूरा छोड़ कर भी जैसे वह बहुत कुछ कह गये थे।

मीता को याद आया अलका दी ने उसे बताया था नवीन्द्र नाथ के साथ हुए हादसे के बाद किसी युवक वकील ने उनके प्रति सहानुभूति जतानी चाही थी, पर अलका दी उसकी सहानुभूति स्वीकार न कर सकी थीं।

‘आपके बारे में पहले सुन चुकी हूँ, आज परिचय का सौभाग्य मिला है।’

‘रियली, क्या बताया गया था मेरे बारे में? यही न कि मैं एक ख़ुदगर्ज मौका-परस्त इन्सान हूँ।’

‘छिः ऐसा मैंने कब कहा-मैंने तो-मीता तू ही बता इनकी बात क्या सच है?’

‘अगर इनकी बात सच होती तो क्या आज ये यहां आते, अलका दी?’

‘वाह, वकील तो मैं हूँ और ज़िरह आप कर रही हैं। अभी भी समय है कानून की पढ़ाई पूरी कर डालिए, बहुता यश पाएंगी।’ राहुल जोर से हंस पड़े थे।

‘अम्मा भी यही कहतीं थीं... बहस में मेरा कोई सानी नहीं।’

‘बात पूरी करती मीता ने जीभ दांतो तले दबा ली थी। आत्मप्रंशसा इसे ही तो कहते हैं।’

‘यह लड़की देखने में जिनी भीरू-सीधी दिखती है, वैसी बिल्कुल नहीं है। इसके अन्दर न जाने कितना बड़ा ज्वालामुखी सोया पड़ा है, राहुल।’

अपनी प्रशंसा सुन, मीता संकोच से भर उठी थीµ

‘अब मीता-पुराण छोड़, काम की बात कीजिए, अलका दी। बताइए न क्यों बुलाया है मुझे।’

‘उस दिन तेरी बातों ने मेरे मन में आग लगा दी थी, मीता। सोचकर लगा तू ठीक कहती है। दूसरों को उपदेश दे देना आसान बात है, पर अपने उउपर उसे चरितार्थ करना कितना कठिन है। राहुल जी को सारी बातें लिख भेजी और मेरा सौभाग्य, यह यहां आए हैं।’

‘सौभाग्य..., मेरा है अलका। आपके काम आ सकूंµइससे अच्छी और क्या बात होगी?’ राहुल जी का स्वर भावुक हो उठा था।

‘नवीन्द्र नाथ के खिलाफ में कोर्ट में जा रही हूँ, मीता। दिव्या को उन्हें अपनी बेटी स्वीकार करना ही होगा।’

‘यह हुई न बात। सच अलका दी, आप जरूर जीतेंगी।’

‘जीत या हार, परिणाम क्या होगा नहीं जानती, पर न्याय के लिए आवाज़ ज़रूर उठाउंगी।’

‘जिस काम के लिए आपके अन्तःकरण की स्वीकृति हो, उसे करने में परिणाम की चिंता नहीं करनी चाहिए, अलका जी। मैं आपके साथ इसीलिए हूँ क्योंकि मेरा अन्तःकरण जानता है आपके साथ अन्याय हुआ है।’

राहुल चंद्र के तेजस्वी मुंह को मीता, विस्मय-विमुग्ध निहारती रह गई।

‘आप सचमुच महान हैं, राहुल दा।’

‘राहुल दा, पुकार मुझें इतना ऊंचा उठा दिया मीता, वर्ना मैं अकर्मण्य पुरूष भर हूँµपुरूषोचित दम्भ का प्रतीकµ

‘नहीं-नहीं, आप दूसरों से बहुत अलग हैं, राहुल दा। अब बताइए, हमें क्या करना है?’

‘नवीन्द्र नाथ के खिलाफ़ मुकदमा दायर कर रहा हूँ। आज के युग में इतने परीक्षण संभव हैं कि न चाहते हुए भी दिव्या को उन्हें अपनी पुत्री स्वीकार करना ही पड़ेगा।’

‘अगर उसके बाद उन्होने अलका दी से दिव्या को छीनना चाहा तब?’

‘जिस व्यक्ति ने अपनी पुत्री का अस्तित्व ही नकार दिया, वह उसकी मांग किस आधार पर करेगा? उसके लिए तुम्हें चिन्तित नहीं होना है, अलका, वो मेरा दायित्व रहा।’

‘सच, जिस दिन वह दिव्या को अपनी बेटी स्वीकार लें उस दिन इस लड़की पर लगा कलंक कट जाए।’ अलका दी का स्वर रूआंसा हो आया था।’

‘समझ में नहीं आता स्त्रियंा किस दिशा में सोचती हैं। किसी नीच आदमी का नाम जबरन दिव्या पर थोप, उसका कलंक मिटाने की तो कल्पना भी हास्यास्पद है।’

‘बिना पिता के नाम के वह हमेशा नाजायज़ औलाद बनी रहेगी, राहुलदा।’

‘कोई और व्यक्ति भी तो उसे पिता का नाम दे सकता है...।’

‘ऐसे व्यक्ति तो बस कहानियों में मिलते हैं, राहुल दा।’

‘कहानियों में भी तो इसी जीवन के पात्र जीते हैं, मीता।’

‘आप खोज कर ला सकते हैं एक ऐसा व्यक्ति जो दिव्या को अपनी नाम दे सकें? मीता की बड़ी-बड़ी आंखे राहुल के मुख पर निब( थीं।’

‘इस बात का उत्तर अलका जी से लेना, मीता।’ राहुल गम्भीर हो उठे थे।

उन बातों को अब दोहराने से क्या फ़ायदा...।’ अलका असहज हो उठी थी।

‘अलका दी, आपने जीवन का इतना बड़ा सत्य मुझसे क्यों छिपाया? काश् उस समय आपने विश्वास किया होता...।’

‘ये तो आज भी मुझ पर विश्वास नहीं रखतीं, मीता, वर्ना मेरा प्रस्ताव यूं उपेक्षित न पड़ा रहता...।’

‘क्या मतलब, आपने अभी तक विवाह नहीं किया है, राहुल दा?’

‘विवाह किया था मीता, पर पत्नी मुझे झेल नहीं सकी। विवाह के पहले के अपने संबंध वह तोड़ न सकी। अन्ततः मुझे ही छोड़ना पड़ा।’

‘ये क्या कह रहे हैं, मैंने तो सुना था आपका वैवाहिक जीवन बहुत सुखी है।’ अलका विस्मित थी।’

‘ठीक ही सुना था, शैली को पाकर मैं फूला न समाया था, पर उसने स्पष्ट कह दिया अपना तन-मन वह किसी और को दे चुकी थी...।’

‘बस इसी अपराध के लिए आपने उसका परित्याग कर दिया? कथनी और करनी में बहुत अन्तर होता है, राहुल जी, इसी बल पर आपने मुझसे विवाह का प्रस्ताव रखा था? मैं भी तो विवाह के पहले किसी की भोग्या थी... सब जानते थे?’ अलका का गोरा चेहरा उत्तेजना से लाल हो उठा।

‘हां सब जानते-समझते मैने तुम्हें अपनाना चाहा थाµपूरे मन से। मैं जानता हूँ अगर किसी को सच्चे मन से चाहा जाए तो उससे अलग होना कितना कठिन होता है।, इसीलिए मैंने स्वयं शैली का विवाह उसके पे्रमी राजेश से कराना, अपना दायित्व माना। दोनों बहुत सुखी हैं। मेरे मन ने स्वीकार किया, पिता की जिद का दंड शैली क्यों भोगे, बस स्वयं ही सारी व्यवस्था कर दी।’

‘क्या...? आपने अपनी पत्नी किसी और को सौंप दी, राहुल दा? आपके पुरूष के अहं को चोट नहीं लगी?’

‘नहीं, दोनों को अलग कर पाप का भागी बनने की अपेक्षा दोनों को मिलाकर ज्यादा सुखी हूँ।’

‘ओह राहुल, मुझे क्षमा करो, मैं न जाने क्या कुछ नहीं कह गई तुम इतने महान हो, मैं सोच भी नहीं सकती थी।’ अलका का स्वर भावविह्वल था।

‘राहुल दा, क्या आज भी आप अलका दी को स्वीकार करने का साहस रखते हैं?’

‘दिव्या के साथ अलका को स्वीकार करने को मैं आज भी प्रस्तुत हूँ। प्रस्ताव में मेरा ही स्वार्थ हैµबेटी के साथ एक सुन्दर पत्नी-मित्र भी लूंगा। शायद अलका नहीं जानती इनके कालेज के दिनों से मैं इनका दीवाना हुआ करता था।’

‘छिः इस उम्र में ऐसी बातें करना क्या शोभा देता है?’

‘उम्र की बात कर रही हो तो ज़राष्शीशे में अपना चेहरा देख लीजिए, लाल बहूटी बन गई हैं, आप।’

राहुल और मीता जोर से हंस पडे़ और अलका ने शर्माकर हथेलियों में मुंह छिपा लिया।

‘चलिए अलका दी, इसी बात पर आज स्पेशल लंच हो जाए। राहुल दा, से बाद में ढेर सी मिठाई भी खानी है।’

‘यानी अलका जी के कोर्ट में मेरी अर्जी मंजूर हो गई ?’

नाटकीय मुद्रा में रहुल ने बात कही थी।

‘जी हां, मैं मीता, आज के कोर्ट की जज, श्री राहुल चंद्र के पक्ष में अपना फैसला देती हूँ और जुर्माने के रूप में अलका जी को बिना देर किए आजीवन श्री राहुल चंद्र की कैद में रहने की सज़ा दी जाती है। दि कोर्ट इस एडजन्र्ड फ़ाॅर टुडे।’

‘वाह ये इकतफ़ा निर्णय लेने का अधिकार किसने दिया, मीता?’

‘अरे भई जज हूँ, न्याय-अन्याय का इकतरफा निर्णय और कौन देगा?’

‘काश अलका पहले ही तुम्हारे सामने अपना दिल खोल देती तो फैसले में इतनी देर तो न होती।’