वसन्त सेना / भाग 12 / यशवंत कोठारी

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शकार कंगन ले लेता है और कहता है।

‘यही वह कंगन है जिशके कारण मैने इसे बांधा था। यह चोर है। मैंने इसे खूब मारा था। इसकी पीठ पर मार के निशान भी है। कंगन की चोरी के कारण ही यह बुर्जी पर बंदी था।’स्थावरक की बात पर अब कोई विश्वास नहीं करता। चारूदत्त पुनः निराश हो जाता है। शकार स्थावरक को मार पीट कर भगा देता है और राज कर्मचारियों को फांसी जल्दी लगने का हुक्म देता है तभी रोहसेन रोता हुआ आता है। शकार उसे भी चारूदत्त के साथ फांसी दे देने का आदेश देता है। चारूदत्त अपने पुत्र को समझा बुझा कर मां के पास जाने का आदेश देता है। कहता है --

‘बेटे अपनी मां को लेकर तपोवन चला जाना। रोहसेन तुम जाओं। मित्र मैत्रेय इस ले जाओ।’रोहसेन को लेकर मैत्रेय चला जाता है। शकार रोहसेन को भी मारने को कहता है मगर राज कर्मचारी ऐसा करने से मना कर देते हैं। राज कर्मचारी चारूदत्त के वध की अंतिम तैयारी करते हैं। शकार चारूदत्त को डण्डे से पीटने के लिए कहता है ताकि वह अपना अपराध स्वीकार करे। लोगों से कहें कि हां हत्या उसने ही की है। राज कर्मचारी चारूदत्त को मारते है। चारूदत्त मार के डर से स्वीकार करता है --

‘हे नगरवासियों वसन्त सेना की हत्या मैंने की है। मैंने ही वसन्त सेना को मारा है।‘

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दोनोंं राज कर्मचारी आपस में विचार कर रहे हैं, सूली पर चढ़ाने की बारी किसकी है, दोनों यह काम नहीं करना चाहते, क्योंकि चारूदत्त से उपस्कृत है। वे जल्दी भी नहीं करना चाहते। पहला दूसरे से पूछता है --

‘फांसी देने में जल्दी क्यों नहीं करनी चाहिए।‘

‘कभी-कभी कोई भला आदमी धन देकर मरने वाले को छुड़ा लेता है। कभी राजा की आज्ञा से अपराधी को छोड़ दिया जाता है और कभी राज्य में क्रान्ति हो जाने से सत्ता बदल जाती है और सभी अपराधियों को आम माफी दे दी जाती है। क्या पता आज भी इनमें से कोई घटना घट जाये।’आर्य चारूदत्त का जीवन बच जाये।‘

मगर शकार इस काम में देरी नहीं करना चाहता। वह जल्दी से जल्दी फांसी दिलाना चाहता है।

प्रथम राज कर्मचारी -‘आर्य चारूदत्त ईश्वर का ध्यान करे। आपका अन्त समय निकट है।‘

चारूदत्त उच्च स्वर में कहता है -‘अगर मैं सच्चा हूं, तो वसन्त सेना कहीं से भी आकर मुझे इस कलंक से मुक्त करें।‘

कर्मचारी चारूदत्त को ले चलते हैं। शकार जल्दी करने को कहता है चारूदत्त को ले चलने में देरी होने पर कर्मचारी को डांटता डपटता है। आर्य चारूदत्त को वध स्थल तक पहुँचा दिया गया है।

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वसन्त सेना बौद्ध भिक्षु के साथ बिहार से नगर की ओर आ रही है। अचानक एक दिशा में भारी भीड़ को देखकर वह भिक्षु की जानकारी प्राप्त करने के लिए निवेदन करती है। भिक्षु बताते हैं --

-आर्य आपकी हत्या के आरोप में आर्य चारूदत्त को सूली पर चढ़ाने के लिए वध स्थल की ओर ले जाया जा रहा है।‘

‘आर्य चारूदत्त को सूली..............मुझे शीघ्र उस स्थान की ओर चलिये भिक्षु - प्रवर।‘

भिक्षु और वसन्त सेना तेजी से भीड़ को चीरते हुए आगे बढ़ते हैं। राज कर्मचारी चारूदत्त को सीधे लेट जाने का आदेश देते हैं। जल्लाद ज्यांेहि तलवार से वार करना चाहता है कि तलवार उसके हाथ से गिर जाती है। कमर्चारी प्रसन्न होता है कि षायद चारूदत्त की जान बच जाये। मगर दूसरा कर्मचारी जल्दी से चारूदत्त का वध करने को कहता है। तभी भिक्षु और वसन्त सेना वध स्थल तक पहुँच जाते हैं। वे जोर से कहते हैं --

‘ठहरो।.............‘ठहरो।.............रुक जाओ। आर्य चारूदत्त को सूली पर मत चढ़ाओ।’वसन्त सेना प्रजा की आरे देख कर कहती है।

‘प्रजाजनों में ही वह वसन्त सेना हूं जिसकी हत्या के आरोप में आर्य चारूदत्त को सूली पर चढ़ाया जा रहा है। मैं जीवित हूं। आर्य चारूदत्त निर्दोश हैं। वसन्त सेना और चारूदत्त आपस में लिपट जाते हैं। भिक्षु चारूदत्त के चरण छूकर कहता है।‘

‘मैं आपका पूर्व सेवक संवाहक हूं। आपने ही मुझे इस शहर में अपनी सेवामें रखा था। जुए की लत में सब कुछ हार जाने के बाद भिक्षु बन गया था।’वसन्त सेना के जीवित होने का समाचार बड़ी तेजी से प्रजा में फैल जाता है। महाराज तक भी पहँुचता है। शकार यह जानकर घबरा जाता है कि वसन्त सेना जीवित है। वह भागना चाहता है। मगर तभी राज कर्मचारी राजापालक की आज्ञा से शकार को पकड़ लेते हैं।

चारूदत्त वसन्त सेना को देखकर प्रसन्न हो जाते हैं। वे कहते हैं -- -वसन्त सेना। प्रिये तुम अचानक संजीवनी बूटी की तरह यहां तक कैसे पहुँच गई। मैं तो मर ही गया था। मगर अब मेरी जान बच गई।‘

वसन्त सेना सार्वजनिक रूप से घोशणा करती है कि राजा के साले शकार ने उसे मारने की कोशिश की थी। जन आक्रोश राजा के साले के विरूद्ध उमड़ पड़ता है। तभी शर्विलक आकर प्रजाननों के सामने घोशणा करता है कि दुष्ट राजा पालक का वध कर दिया गया है और गोप पुत्र आर्यक का राज्याभिसेक कर दिया गया है। राजा आर्यक अब स्वयं आर्य चारूदत्त के जीवन की रक्षा करेंगे।‘

शर्विलक चारूदत्त और वसन्त सेना को देखकर प्रणाम करता है। चारूदत्त उसे परिचय देने को कहते हैं। शर्विलक शर्म के साथ कहता है -

‘मैंने ही आपके धर में सेंध लगाकर आर्या वसन्त सेना के आभूशण चुराये थे। मैं आपका अपराधी हूं। आपकी शरण में हूं। मेरी रक्षा करें।‘

‘नहीं तुम तो मेरे मित्र हो। मैं प्रसन्न हूं।‘

‘एक ओर षुभ समाचार है कि राजा आर्यक ने गद्दी पर बैठते ही आपको वैणा नदी के किनारे वाला कुशावती राज्य दे दिया है। आप अब स्वयं राजा हैं।’शर्विलक कहता है।

तभी राज कर्मचारी शकार को पकड़ कर लाते हैं। शकार मारे डर के घबरा रहा है। कहता है --

‘मैं अनाथ अब किसकी शरण में जाऊं। मुझे शर्व दुःख हरने वाले चारूदत्त की शरण में जाना चाहिए।‘वह आर्य चारूदत्त के चरणों में गिरकर रक्षा की भिक्षा मांगता है। आर्य चारूदत्त उसे अभयदान देते हैं।

शर्विलक आर्य चारूदत्त से कहता है -‘आप जो भी दण्ड कहेंगे इस शकार को वहीं दण्ड दिया जायेगा।‘

‘चारूदत्त - ‘जो मैं चाहूंगा। वही होगा।‘

शर्विलक - ‘अवश्य भगवन।‘

शकार - ‘मेरे प्रभो। मैं आपकी शरण में हूं। ऐशा बुरा काम फिर कभी नहीं करूंगा। मुझे बचालो भगवन।‘

वसन्त सेना शकार को देखकर फांसी का फंदा चारूदत्त के गले से निकाल कर उस पर फेंक देती है।

शर्विलक फिर कहता है -‘आर्य चारूदत्त के आदेशांे की पालना की जायेगी।

‘परम दयालु आर्य चारूदत्त शकार को क्षमा कर देते हैं। शकार शर्मिन्दा होकर चुपचाप चला जाता है।

आर्य चारूदत्त के जीवित होने तथा वसन्त सेना के सकुशल होने का समाचार मैत्रेय धूता तथा रोहसेन तक पहुँचाता है। सब परम् प्रसन्न होते हैं। धूता वसन्त सेना से गले मिलती है।

तभी आर्य चारूदत्त वसन्त सेना को अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार करने की घोशणा करते हैं। वसन्त सेना चारूदत्त के चरण स्पर्श करती है। वसन्त सेना चारूदत्त की वधू बन गयी। वसन्त सेना का सिर आंचल से ढ़क दिया जाता है। शर्विलक को सभी बौद्ध विहारों का कुलपति बना दिया जाता है। राज कर्मचारियों को भी पारितोषिक दिया जाता है। आर्य चारूदत्त, धूता, रोहसेन, वसन्त सेना, मैत्रेय, रदनिका सभी प्रसन्न हैं। अपने आवास में लौट आते हैं।

सत्य की विजय हो।

शिव की जय हो।

सुन्दर का सम्मान हो।

सब सत्यम् शिवम् सुन्दरम् सुने, कहें, देखें और भोगे।

समाप्त।