वसन्त सेना / भाग 1 / यशवंत कोठारी
प्राचीन समय में भारत में उज्जयिनी नामक एक अत्यंत प्राचीन वैभवशाली नगर था। नगर में हर प्रकार की सुख समृद्धि थी। नगर व्यापार, संगीत, कला तथा साहित्य का एक बड़ा केन्द्र था। ब्राह्मण, वैश्य, शूद्र सभी मिलकर रहते थे। मगर अत्याधिक समृद्धि के कारण इस नगर के समाज में नाना प्रकार की बुराईयां व्याप्त हो गई थी। राजशक्ति का प्र्रभुत्व धन बल के कारण क्षीण हो गया था। जन रक्षण की व्यवस्था अच्छी नहीं थी। यदा कदा राज्य क्रांति के चलते राजा बदल दिये जाते थे। जुआं, चोरी , चकारी , लम्पटता , बदमाशी का बोल बाला था, राजसत्ता के चाटुकार, रिश्तेदार मनमानी करते थे। बौद्ध धर्म का प्रभाव तो था, मगर राजा की औार से आश्रय नहीं था। बौद्ध विहारों में नाकारा लोग भर गये थे।
समृद्धि इस नगर में जिस तरफ से प्रवेश करती, अपने साथ जुआ, शराब, व वेश्यागमन आदि की बुराईयों को भी साथ लाती। आर्थिक उदारता ने लोगों के चरित्र को डस लिया था।
इसी समृद्ध, वैभवशाली उज्जायिनी नगर में एक भव्य राज मार्ग पर अन्धकार में प्रख्यात गणिका वसन्त सेना भागी चली जा रही है। चारों तरफ निविड़ अन्धकार। रात्रि का द्वितीय प्रहर।
रह रहकर वसन्त सेना के भागने की आवाजें। उज्जैयिनी के राजा का साला संस्थानक अपने अनुचरों के साथ वसन्त सेना के पीछे पीछे तैजी से भाग रहा है। संस्थानक स को श बोलता है, इसी कारण षकार नाम से समाज में पहचाना जाता है। ‘वशन्त षेना रूक जाओ वशन्त शेना।‘
मगर वसन्त सेना का अंग अंग कांप रहा था, वह बेहद डरी हुई थी, वह जानती थी कि राजा के साले के चंगुल में एक बार फंस जाने के बाद बच निकलना असंभव है। शकार अपने अनुचरों के साथ चिल्लाता हुआ चल रहा था।
वशन्त सेना। वशन्त सेना।
भागते भागते वसन्त सेना ने पुकारा।
पल्लवक, पल्लवक।
माघिविके, माघिविके।।
मदनिके, मदनिके।।।
हाय। अब मेरा क्या होगा। मेरे अपने कहां चले गये हाय अब मैं क्या करूं। मुझे अपनी रक्षा खुद ही करनी पडे़ंगी। वसन्त सेना ने स्वयं से कहा।
दौड़ते दौड़ते शकार वसन्त सेना के नजदीक आ गया। बौला-ऐ दो कौड़ी की गणिका, तुम अपने आपको षमझती क्या हो? मैं राजा का शाला हॅूं - शाला । तुम किसी को भी पुकारो अब तुम्हारी रक्षा कोई नहीं कर सकता क्योंकि मै राजा का शाला हूं। मेरे हाथों शे तुम्हें अब कोई नहीं बचा शकता ?
वसन्त सेना ने देखा अब बचना मुश्किल है। ऐसी स्थिति में उसने शकार से कहा।--
आर्य। मुझे क्षमा करें। मैं अभागिन अनाथ हूं।
शकार - तभी तो तुम अभी तक जीवित हो।
वसन्त सेना - आर्य आपको मेरा कौनसा जेवर चाहिए। मैं अपने सभी आभूषण आपको सहर्ष देने को तैयार हूं।
शकार - मुझे आभूषूण नहीं चाहिए देवी। तुम मुझे श्वीकार करो।
मुझे अंगिकार करों। मुझे प्यार करो। मुझे तुम्हारा शमर्पण चाहिए।
बश शमपूर्ण।
वसन्त सेना क्रोध से उबल पड़ी।
- तुम्हें शर्म आनी चाहिए। मैं ऐसे शब्द भी सुनना पसन्द नहीं करती।
शकार - मुझे प्यार चाहिए। शमर्पण चाहिए।
वसन्त सेना - प्यार तो गुणों से होता है।
शकार - अब शमझा। तुम उस निर्धन ब्राह्मण चारूदत्त पर क्यों मरती हो, जो गरीब, अशहाय है। और मुझे डराती हेै। और अब शुन र्बाइं तरफ ही तेरे प्रेमी चारूदत्त का घर है।
वसन्त सेना को यह जानकर आत्मिक संतोष होता है कि वह अपने प्रिय आर्य चारूदत्त के घर के आस पास है। वह सोचती है कि अब उसका मिलना अवश्य हो पायगा। अब उसे कौन रोक सकता है। वह अन्धेरे का लाभ उठाकर आर्य चारूदत्त के भवन में प्रवेश कर जाती है। शकार और उसके साथी अन्धकार में भटकते रहते है।
आर्य चारूदत्त एक अत्यंत गरीब मगर सम्मानित ब्रह्मण है। वे दीनों- गरीबों के कल्पवृक्ष है। दरिद्रों की लगातार सहायता करने से वे स्वयं गरीब हो गये है। चारूदत्त के पितामह एक धनाढ्य व्यक्ति थे। उनका लम्बा चौड़ा व्यापार - व्यवसाय था, मगर काल के प्रवाह में लक्ष्मी और समृद्धि उनसे रूठ गई थी, मगर चारूदत्त का मिजाज रईसाना था। उनकी पत्नी धूता अत्यंत शालीन तथा पतिव्रता स्त्री थी। चारूदत्त का एक पुत्र रोहसेन था। जो छोटा बालक था। जिस समय कला प्रवीण उद्दान्त चरित्र तथा मुग्धानायिका वसन्त सेना ने आर्य चारूदत्त के आवास में प्रवेश किया, उसी समय चारूदत्त का सेवक मैत्रेय मातृदेवियों पर बलि चढ़ाने हतु सेविका रदनिका के साथ बाहर निकल रहा था। वसन्त सेना के आगमन से हवा के तेज झोंके से दीपक बुझ गया। इस वक्त आर्य चारूदत्त ने वसन्त सेना को रदनिका समझ लिया। मैत्रेय ने दीपक जलाने का प्रयास छोड़ दिया क्योकि घर में तेल नहीं था। इसी समय शकार व विट भी चारूदत्त के घर में वसन्त सेना को ढूंढ़ते हुए प्रवेश कर जाते है। मैत्रेय को यह सब सहन नहीं होता है। वो कहता है---
कैसा अन्धेर है। आज हमारे स्वामी निर्धन है तो हर कोई उनके घर में घुसा चला आ रहा है।
शकार व विट रदनिका केा अपमानित करते है। आप रदनिका का अपमान क्यों कर रहे है। मैं इसे सहन नहीं करूंगा। मैत्रेय ने क्रोध से कहा।
मैत्रेय गुस्से में लाठी उठा लेता है। शकार का सेवक विट अपने कृत्य की क्षमा मांगता है। मैत्रेय को महसूस होता है। कि असली अपराधी तो राजा का साला शकार है, जिसका नाम संस्थानक है। वह विट को कहता हैं।
तुम लोंगों ने यह अच्छा नहीं किया है। मेरे स्वामी आर्य चारूदत्त गरीब अवश्य है, मगर इस पूरे नगर में अत्यंत सम्मानित नागरिक है। उनका नाम सर्वत्र आदर से लिया जाता है। आप लोंगों ने आर्य चारूदत्त के सेवकों पर हाथ उठाया है। दासी रदनिका के अपहरण का प्रयास किया है।
शकार - मगर हम तो वसन्तसेना को ढूंढ़ रहे है।
मैत्रेय - लेकिन यह तो वसन्तसेना नहीं है।
शकार - भूल हो गयी।
विट - हमें क्षमा करें । आर्य चारूदत्त को इस घटना की जानकारी नहीं होने दें।
ठीक है। आप लोग जाइये।
म्गर शकार नहीं जाता । वो चारूदत्त के सेवक मैत्रेय को बार बार वसन्तसेना को अपने हवाले करने के लिए कहता है। शकार कहता है - अरे दुष्ट शेवक, उश गरीब चारूदत्त को कहना कि गहनों से शजी वेश्या वशन्त षेना तुम्हारे घर में है। उशे मेरे पाश भेज दो नहीं तो शदा के लिए दुश्मनी हो जायगी। मैं उसे नष्ट कर दूंगा। मैं राजा का शाला हूं शाला।
मैत्रेय समझा बुझा कर शकार व विट को वापस भेज देता है।