वसन्त सेना / भाग 2 / यशवंत कोठारी
मैत्रेय भवन के अन्दर जाता हैं । वो रदनिका को पुनः समझाता है कि आर्य स्वयं दुखी हे, उन्हें इस घटना की जानकारी देकर और ज्यादा दुखी मत करना । रदनिका मान जाती है। इसी समय चारूदत्त अन्धेरे मे वसन्त सेना को रदनिका समझ कर कहते है।
रदनिके पुत्र रोहसेन को अन्दर ले जाओ और उसे यह दुशाला औढ़ा दो, सर्दी बढ़ रही है। उसे हवा लग जायेगी। यह कह कर चारूदत्त अपना दुशाला उतार कर वसन्त सेना को दे देता है। वसन्त सेना समझ गई कि आर्य चारूदत्त ने उसे देखा नहीं है और उसे अपनी दासी समझ रहे है। वह दुशाला लेकर उसे सूघंती है, प्रसन्न होती है--
चमेली के फूलोें की खुशबू वाला आर्य का दुशाला।
वाह........। बहुत सुन्दर.......। अभी आर्य का दिल और शरीर जवान है।
चारूदत्त पुनः रोहसेन को अन्दर ले जाने के लिए कहते है। मगर वसन्त सेना कुछ जवाब नहीं देती है। मन ही मन सोचती है। - आर्य मुझे आपके गृह प्रवेश का अधिकार नहीं है। मैं क्या करूं ?
चारूदत्त पुनः कहते है---
रदनिका तुम बोलती क्यों नहीं हो। तभी मैत्रेय तथा रदनिका अन्दर आते है। मैत्रेय कहता है।--
आर्य रदनिका तो ये रही ।
तो वो कौन है? बेचारी मेरे छू जाने से अपवित्र हो गई।
- नहीं नाथ मैै तो पवित्र हो गई। मेरी जनम जनम की साध पूरी हुई। वसन्तसेना ने स्वयं से कहा।
चारूदत्त -यह तो बहुत सुन्दर है। शरद के बादलों की चन्द्रकला की तरह लगती है। लेकिन मैंने पर स्त्री को छू कर अच्छा नहीं किया।
मैत्रेय - ऐसा नहीं है आर्य। आपने कोई पाप नहीं किया। ये तो गणिका वसन्तसेना है, जो कामदेवायतन बाग महोत्सव के समय से ही आप पर मोहित है। आप का कोई दोष नहीं है। यह तो स्वयं आपको चाहती है।
चारूदत्त - अरे तो ये वसन्तसेना हैं मै निर्धन, गरीब, दरिद्री, ब्राह्मण। मैं कैसे अपने प्यार को प्रकट करूं। मै मजबूर हैूं वसन्तसेना मैं मजबूर हूं। मुझे क्षमा करेा। मेरा आवास भी तुम्हारे लायक नहीं है।
आर्य चारूदत्त यह कह कर वसन्त सेना को प्रथम बार भर पूर निगाहों से देखते है। अप्रतिम सौन्दर्य, धवल रंग, सुदर्शन देह यष्टि , चपल नेत्र, मदमस्त चाल, गजगामिनी और मुग्धानायिका की तरह का व्यवहार चारूदत्त अपनी सुध बुध खो बैठते है। मगर तुरन्त संभलते है। मैत्रेय उन्हे सूचित करता है कि राजा पालक का साला संस्थानक आया था तथा वसन्त सेना को ले जाना चाहता है यदि ऐसा नही किया गया तो वह हमेशा के लिए हमारा शत्रु हो जायगा। राजा के साले के साथ शत्रुता हमें महंगी पड़ेगी।
मगर चारूदत्त इस बात पर कोई ध्यान नहीं देता है। वो तो वसन्तसेना के प्रेम में पागल हो जाना चाहता हैं कहता है--
आप एक दूसरे से क्षमा मांगते रहे, मैं तो आप दोनों को प्रणाम करता हूं । मेरे प्रणाम से आप दोनों प्रसन्न होने की कृपा करें।
दोनों हंस पड़ते हे। मानेां हजारों पखेरू एक साथ आसमान में उड़ पड़े हो।
वसन्तसेना कह उठती है - आर्य अब मेरा जाना ही उचित है, यह भेंट मुझे हमेशा याद रहेगी। आर्य मेरे ऊपर एक कृपा करें, मेरे आभूषण व हार आप घरोहर के रूप में रखलें, ये चोर- बदमाश मेरा इसीलिए पीछा करते है।
चारूदत्त - वसन्तसेना। मेरा आवास धरोहर के लायक नहीं है।
वसन्तसेना - आर्य । यह असत्य है। धरोहर तो योग्य व्यक्ति के यहां रखी जाती है, घर की योग्यता को कोई महत्व कभी नही देता । मुझे आप सर्व प्रकार से योग्य लगते है।
चारूदत्त - ठीक है। मैत्रेय ये आभूषण ले लो।
मैत्रेय - आभूषण ले कर कहता है - जो चीज हमारे पास आ गई वो हमारी है।
चारूदत्त - नहंी हम आभूषण यथा समय लौटा देंगे।
वसन्तसेना घर जाने की इच्छा प्रकट करती है।
चारूदत्त दुखी मन से मैत्रेय को वसन्त सेना को छोड़ आने को कहता है, मगर मैत्रेय अवसर के महत्व को समझ कर स्वयं जाने से मना कर देता है, ऐसे अवसर पर चारूदत्त स्वयं जाने को प्रस्तुत होते है, दीपक जलाने के लिए कहते है, मगर सेवक तेल नहीं होने की सूचना देता हैं दीपक के अभाव मै ही वसन्त सेना चारूदत्त के साथ बाहर निकलती है। चन्द्रमा की दूधिया रोशनी में वसन्त सेना का सौन्दर्य कई गुना बढ़ गया है। चारूदत्त प्यासी नजरों से वसन्त सेना को निहारता हैं वसन्त सेना भी प्यार भरी नजरों से देखती हैं नजरें मिलती है। शीध्र ही वसन्त सेना का आवास आ जाता हैं चारूदत्त से आज्ञा ले वसन्त सेना अपने प्रासाद में प्रवेश कर जाती है। चारूदत्त चोर नजरों से देखता है। वापस आकर वसन्त सेना के आभूषणों की रक्षा का भार मैत्रेय व सेवक वर्धमानक को सौंपता हैंे चारूदत्त रात भर वसन्त सेना के सपनें में खोया रहता है। वसन्त सेना भी अपने शयन कक्ष में चारूदत्त के विचार मन में लेकर निंद्रा के आगोश में समा गई ।
वसन्तसेना का भव्य प्रासाद । अप्रतिम सौन्दर्य की मलिका वसन्तसेना का प्रासाद नगर वधू के सर्वधा अनुकूल। इस प्रासाद में कई कक्ष, कक्षों में सुन्दर तेल चित्र, अभिसार के, मनुहार के, वसन्त के, प्यार के, केलि- क्रीड़ा के , जलक्रीड़ा के और बाहर उपवन। उपवन में कोयल, पपीहें की आवाजें। सुन्दर, सुवासित पुष्प, पंेड़ पौधे, फव्वारे , हर तरफ श्रंृगार , अभिसार, काम कला का वातावरण। यहां तो हर रात दिवाली हर दिन मधुमास। इस सुसज्जित प्रासाद का एक सुसज्जित कक्ष द्वार पर पुष्प मालाएं लटक रही है। बैठने के दो आसन है। मध्य में एक रत्नजडित आसन पर गणिका वसन्तसेना बैठी हेै ओर वीणा को हल्के स्वर में बजा रही है। पुष्पों से, घूप से पूरा कक्ष सुवासित हो रहा है। सम्पूर्ण वातावरण में अभिसार , विलास , केलिक्रीडा महक रही है। सम्पूर्ण साज- सज्जा कलात्मक है। आभिजात्य है। सम्पन्नता पग पग पर दृष्टिगोचर है। वसन्त सेना वीणा बजाते हुए विचारों में खो जाती है। एक पुष्प उठाकर मुस्कराती है।, सोती है। अपनी दासी मदनिका को बुलाती है। वसन्त सेना मदनिका को बुलाती है। वसन्तसेना मदनिका को देखकर अलसाई हुई अंगड़ाई लेती है, पुष्प मदनिका पर फेंकती हे। तभी मांजी की सेविका चेटी आती है। और वसन्तसेना से कहतीै है--
मांजी की आज्ञा है कि अब आप प्रातः कालीन स्नान करके स्वच्छ हो जाये तथा देवताओं की पूजा - अर्चना कर लें।
नहीं मांजी से कहों। आज मेरा मन ठीक नहीं है, मैं स्नान भी नहीं करूंगी, पूजा, ब्राह्मणों से करवा लो। मैं आज कुछ नहीं करूंगी।
चेटी इस जवाब को सुनकर चली जाती हैं मदनिका वसन्तसेना के बालों में हाथ फिराते हुए पूछती है।
आर्ये में आपसे स्नेह से पूछ रही हूं, अचानक आपको क्या हो गया है? आप का मन कहीं भटक गया है ? कहीं आपको किसी से आसक्ति तो नहीं हो गयी है।
मदनिके मेरी सखी, तुम ऐसा क्यों सोच रही हों। तुम मुझे ऐसी नजरों से क्यों देखती हो। क्या तुम्हें लगता है। कि मैं अन्यमनस्क हो गयी हूं। मदनिका ने वसन्तसेना की आंखों में आंखों डालकर कहा--
मैं आपको प्यार की नजर से देख रही हूं और मुझे विश्वास है कि आपको किसी से ्रप्यार हो गया हेैं।
वसन्तसेना - शायद तुम ठीक कह रही हो। तुझे दूसरों के मन का हाल बहुत जल्दी पता चल जाता है। तुम तो सब कुछ जान जाती हो।
आपको मेरी बात अच्छी लगी । यह मेरा सौभाग्य है। क्या आपकी आसक्ति किसी राजा या राज्याश्रित पर हुई है।
नहीं सखि। मेरी मित्र, मैं तो सेवा नहीं प्यार चाहती हूं। शुद्ध प्यार। व्यवसाय नहीं। व्यवसाय बहुत कर लिया। अब तो बस प्यार.........समर्पण। वसन्तसेना ने आहत मन से जवाब दिया।
तो क्या आपके मन मेें किसी ब्रह्मण युवक की छवि बिराजी है या कोई धनवान व्यापारी ।