वसन्त सेना / भाग 3 / यशवंत कोठारी
प्यारी। धनवान की प्रीति का क्या भरोसा वियोग देकर चला जाता है। ब्राह्मण हमारे लिये पूजनीय होते है। वसन्तसेना ने फिर कहा।
तो आर्ये बताइये न वह सौभाग्यशाली कौन है, जिसने हमारी प्राण प्रिय सखि का चित्त चुरा लिया है। मदनिका ने जोर देकर पूछा।
इस बार वसन्तसेना फंस गई। इन्कार करते नहीं बना कह बैठी।
तुम तो सब जानती हो। तू मेरे साथ कामदेवायतन बाग गई थी। फिर भी अनजान बनती हैं वहीं पर तो तुझे दिखाया था।
अच्छा समझ गई उन्हीं की याद में आप खोई हुई है। वे तो सेठो के मोहल्ले के निवासी हैं और.....। मदनिका बोली।
उनका नाम क्या है ? आतुर स्वर मंे वसन्तसेना ने पूछा ।
अरे उनका नाम तो आर्य चारूदत्त है।
तू ने बिल्कूल सही पहचाना, मेरा रोग। इस नाम को सुनने मात्र से मेरे मन की अग्नि शीतल हो गयी है। ऐसा लगता है जैसे मेरे सम्पूर्ण शरीर में प्रसन्नता व्याप्त हो गई। सखि तू धन्य है।
लेकिन वे बहुत निर्धन है। मदनिका ने जानकारी दी।
अरे पगली। इसीलिए तो मैं उन्हें चाहती हूं। गणिका यदि निर्धन से प्यार करे तो कोई बुरा नहीं मानता। फिर उनके गुणों का क्या कहना। गुणवान होना भी तो समृद्धि है।
लेकिन क्या तितलियां बिना पराग के फूलों पर भी बैठती है।
चुपकर सखि। बिना पराग के फूलों में भी सुगंध और रंग होता है। मैं ऐसे ही पुष्प को प्यार करना चाहती हूं।
लेकिन आप उनसे मिलती क्यों नहीं ? सखि उनसे मिलना आसान नहीं। वियोग और इंतजार का अपना आंनद है, मैं इंतजार करूंगी।
और आप अपने आभूषण उन्हें दे आई।
चुप कर। शैतान। किसी से कहना नहीं।
नहीं कहूंगी।
दोंनों खिलखिला कर हंस पड़ती हेैं। वसन्तसेना मदनिका की सहायता से दैनिन्दिन कार्य सम्पन्न करती है।
उज्जयिनी नगर में हर तरह की समृद्धि थी । राजा पालक अनार्य था। अक्सर उसके परिवार के सदस्यों के द्वारा प्रजा पर अत्याचार, किये जाते थे। राजा इन समाचारों की और ध्यान नहीं देता था। राजा के निवास में रहने वाली स्त्रियों के रिश्तेदार स्वयं को राजा का साला बताकर अत्याचार करते थे। इन लोगों की शिकायत नहीं की जा सकती थी राजा का एक प्रबल विरोधी आर्यक क्षत्रीय नहीं था, वह गोपपुत्र था। सामाजिक संरचना में अन्तर्विरोध थंे, मगर प्रजा अपने आमोद प्रमोद छल प्रपंच तथा विलासिता में व्यस्त रहती थी क्षत्रीय राज पालजक और गोपपुत्र के आर्यक में राज का संघर्ष यदा कदा उभर कर आता था, इसी कारण पालक ने आर्यक को जेल में बन्दी बना लिया था। उज्जयिनी महानगर था और इसी कारण यहां पर व्यापार - व्यवसाय, कला, संस्कृति, साहित्य, आमोद प्रमोद के प्रचुर साधन थे। घूतक्रीड़ा एक व्यवसाय की तरह फल फूल रहा था।
नागरिक विलासी थे, आसव का प्रयोग प्रचुर रूप से होता था। आसव शालाओं में घूत क्रीड़ा एक अनिवार्य शर्त थी। नागरिक पत्नी के अलावा उप पत्नी , दासी , वधू आदि रखते थे और समाज विकृतियों से भरा पडा था। गणिकाएं सर्व सुलभ थी । समाज में उन्हें आदर प्राप्त था। वे सुख साध्य थी अस्थायी विवाह संबंध एक आम बात थी समाज में कुंवारी मां पुत्र या दासी पुत्र या गणिका पुत्र के सम्बोधन दिये जाते थे। कुल मिलाकर उज्जयिनी नगर की व्यवस्था, रीति रिवाज, भ्रष्ट , कामुक और अनैतिक थे। समाज के सभी वर्ग और वर्ण एक दूसरे से सम्पन्नता मंे होड़ ले रहे थे। स्त्रियों को काफी स्वतंत्रता थी, वे अपने प्रेमियों से खुले आम मिलती थी, अभिसारिकाएं वनों , उपवनों , बागों आदि में रमण करती थी। समाज में चारित्रिक विपन्नता व्याप्त थी।
घूत क्रीडा लोकप्रिय खेल था। अक्सर नागरिक घूत क्रीडा में कुछ भी दांव पर लगा देते थे। जुआ को शासकीय अनुमति थी। घूतक्रीडाध्यक्ष शासन की और से नियुक्त किये जाते थे। वे जुआरियों से राशि की वसूली करते थें।
ऐसे उज्जयिनी नगर के एक घूतक्रीडा गृह में घूत क्रीडाध्यक्ष माथुर एक जुआरी को पकडने के लिए चिल्ला रहा है।
पकडों। उसे पकडो। उस चोर , जुआरी संवाहक से हमें अस्सी रत्ती सोना वसूल करना है। उसे पकडों, भागने मत देा।
संवाहक नामक जुआरी जुएं में दांव में सब कुछ हार गया है, भागता है, मगर बचकर जाने का रास्ता उसे दिखाई नहींे दे रहा हैं वह मन में सोचता है यह जुआ भी केसी बुरी और बेकार लत हैंे। अब कैेसे जान बचाऊं ? कहां जाऊं ?। जीता हुआ जुआरी और घूताध्याक्ष माथुर मुझे ढूंढतें हुए इधर ही आ रहे हे। है भगवान। अब मैं क्या करूं? किसी मंदिर में मूर्ति बनकर बेैठ जाउं तो कैसा रहे, यह सोच कर संवाहक पास के मंदिर में छुप जाता है। मूर्तिवत बैठ जाता है। संवाहक से दाव जीतने वाला जुआरी और माथुर दोनों संवाहक को ढूढते हुए मंदिर के पास आते है। मगर उसे आस पास न पाकर परेशान होते है। माथुर को जुआरी कहता है--
देखिये उसके पांवों के निशान है, शायद वो इस मंदिर में छुप गया है।
चलो उसको ढूंढते है।
माथुर और जुआरी मंदिर में आते है। माथुर और जुआरी वहीं मंदिर की मूर्तियों के सामने जुआं खेलने बैठ जाते हैं संवाहक इन दोनों को जुआ खेलते हुए देखता हैं और शीध्र ही उनमें शामिल होने को उत्सुक हो जाता है। संवाहक को देखकर माथुर औरा जुआरी उसे पकड कर अस्सी रत्ती सोना वसूलने का प्रयास करते हैं संवाहक के पास देने को कुछ नहीं हैं माथुर और जुआरी मिलकर उसे मारते है। संवाहक के नाक से खून बहने लग जाता है माथुर कहता है-
अब तू बच कर कहा जायेगा ? तुझे हर हालत में सोना देना होगा।
संवाहक - मगर मेरे पास है नहींे तो दू कहां से।
माथुर कहता है - नहीं हैं तो बचन दो।
संवाहक आधा सोना चुकाने का वचन देता हैं और आधा सोना माफ कर देने की प्रार्थना करता है।
यह समझोता हो जाने पर संवाहक जाना चाहता है, मगर माथुर उससे कहता है कि आधा सोना मिलने पर ही हम तुम्हें जाने देंगे। बेचारी संवाहक इस सम्पूर्ण प्रकरण में फंस गया है। राजा का भय दिखाने पर चिल्ला पड़ता है। अरे देखो न्याय करने वालो। ये लोग मुझे नहीं छोड रहें हैं एक बार सोना छोड देने पर भी फिर पकड लिया है। हे नगर वासियों मुझे बचाओ। लेकिन संवाहक को बचाने के लिए कोई नहीं आता हैं इधर माथुर और जुआरी उसे पकड़ कर सोना वसूलने के प्रयास जारी रखते है।
जा किसी को बेच कर सोना ला।
किसे बेचूं।
मां बाप को बेच कर ला।
मेरे मां बाप मर चुके है।
तो खुद को बेच डाल ।
हां मुझे राज मार्ग पर ले चलो। शायद वहां कोई मुझे खरीद लै।
संवाहक नागरिकों से स्वयं को क्रय करने का अनुरोध करता हैं मगर कोई उसे क्रय नहीं करता। संवाहक जो वास्तव में चारूदत्त का पुराना सेवक है, रो पडता है और माथुर उसे घसीटता है- पीटता है मारता है। संवाहक चिल्लाता है, रोता है। मार खाता है, मगर कुछ कर नहीं पाता।
एक अन्य जुआरी ददुरैक आता है वह भी माथुर से डरता हैं ददुरेक माथुर को प्रणाम करता हैं अैार संवाहक को छुडाने का प्रयास करता हैं माथुर कहता है-
मुझे संवाहक से अस्सी रत्ती सोना वसूल करना है, जो यह जुआ में हार गया है।
लेकिन माया तो आनी जानी है, तुम क्यों इसे परेशान कर रहे हो।
अच्छा तो तुम चुका दो।
अच्छा एक काम करो तुम इस संवाहक को अस्सी रत्ती सोना और दो, यदि यह जीत जाता है तो तुम्हारे दोनों दाव चुका देगा।
और यदि हार गया तो।
तो सारा सोना एक साथ ले लेना। ददुरैक के इस कथन पर माथुर चिल्लाता है।
तुम कुछ नहीं समझते । तुम चुप रहो। मैं माथुर हूं। किसी से नहीं डरता।
ये आंखे तुम मुझे मत दिखाओ। ददुरैक बोला।
नीच निकाल मेरा सोना। संवाहक को माथुर मारता है।
तुम संवाहक को छोड दो। तुम्हारा सोना मिल जायगा।
नहीं मैं तो संवाहक से ही वसूल करूंगा।
माथुर संवाहक को फिर मारता है। माथुर संवाहक के साथ साथ ददुरैक को भी मारता हैं गालियां देता है।
तुमने मुझे बिना गलती के मारा हैं कल मैं राज दरबार में तुम्हारी शिकायत करूंगा।
जा कर देना।
अचानक ददुरैक एक मुठ्ठी धूल लेकर माथुर की आंखों में झोंक देता है, माथुर जमीन पर गिर जाता है, संवाहक और ददुरैक भाग जाते हैं, ददुरैक गोप पुत्र आर्यक के पास चला जाता है। उसके गिरोह में भर्ती होता जाता है।
संवाहक एक भव्य प्रासाद के सामने आ खडा होता है, दरवाजा खुला देख कर उसमें प्रवेश कर जाता हैं प्रासाद में प्रवेश करते ही वसन्तसेनाको देखता हैं प्रणाम करता है। और कहता है।
देवी मेैं आपकी शरण में आया हूं । शरणागत की रक्षा करना आपका कर्तव्य है।
वसन्तसेना उसे अभयदान देती है। दासी को दरावाजा बंद करने को कहती है और दरवाजे की कुण्डी लगवा देती हे। अब संवाहक की घबराहट कुछ कम होती है।