वसन्त सेना / भाग 5 / यशवंत कोठारी
रात्रि का तीसरा प्रहर।
हर तरफ नीरव शांति। कभी कभी श्वान के भेांकने की आवाजें। या दूर से किसी चौकीदार की जागते रहो की आवाज। हर तरफ सुनसान। इस वक्त एक गरीब ब्राह्मण शर्विलक चोरी करने के विचार से आर्य चारूदत्त के घर में सेंध लगाता हैं शर्विलक एक कलात्मक चोर है, चोरी करता हैं मगर चौर्यकला में प्रवीणता के साथ। सुन्दर ढंग से। चांद डूब रहा हैं वह सोचता हैं रात्रि माता की तरह हैं मुझे सुरक्षा देती है। शर्विलक बाग से होकर रनिवास की दीवार के पास पहुंच जाता हैं वह चोरी को बहादुरी का काम मान कर करता है। उसके अनुसार यह एक स्वतंत्र व्यवसाय है। इस काम में किसी के पास गिडगिडाना नहीं पडता। शर्विलक सेंध लगाने लायक हिस्सा ढूंढता है। उसे भगवान कनकशक्ति की याद आती हैं जो सेंध लगाने के लिए नियम बना गये थे। उन्हीं नियमों के अनुरूप वह सेंध लगाता हैं दीवार में हुई सेंध को एक कलात्मक रूप प्रदान करता है। ताकि दिन निकलने पर आम आदमी उसके कार्य की प्रशंसा करें। वह जनेऊ से रस्सी का काम लेता है। अन्दर प्रवेश करने से पूर्व एक नकली पुतले को धकेलता हे। घर पुराना है। बैठक में शर्विलक प्रवेश करता हैं चारों तरफ ढूँढता है, कुछ नहीं मिलता हैं वह फर्श पर दाने बिखेरता है, मगर कुछ नहीं होता। वह सोचता है आज की मेहनत बेकार गई, मैं कहां निर्धन के घर आ गया। यहां पर तो मृदंग, वीणा, बांसुरियां और ग्रन्थों के अलावा कुछ नहीं हे। यह तो किसी निर्धन ब्रह्मण का घर लगता है। शर्विलक निराश हो जाता है।
बैठक में मैत्रेय सो रहा हैं सपने में सोचता है। किसी ने घर में सेंध लगादी है। वह सपने में ही गहनों की पोटली शर्विलक के हवाले कर देता हैं मैत्रेय उसे गाय और बा्रह्मण की शपथ दिलाकर जबरन पोटली सोंप देता हैं मैत्रेय सोचता हैं शर्विलक चारूदत्त हैं शर्विलक दीपक बुझा देता है। चारों तरफ अन्धकार छा जाता हैं वह पोटली ले लेता है। मन ही मन शर्विलक सोचता है, मैं चारों वेदों का ज्ञाता और दान न लेने वाला ब्राह्मण हूं मगर वसन्त सेना की सेविका मदनिका के लिए यह पाप कर रहा हूं मुझे उससे प्यार है, और उसे दासता से छुडाने के लिए धन की आवश्यकता हैं शर्विलक पोटली लेकर चल देता हैं वह सोचता है अब मैं मदनिका को वसन्त सेना के बंधन से छुडा सकता हूं मैं उससे विवाह कर के शेश जीवन आराम से गुजार सकता हूं। वह चल जाता हैं सुबह का हल्का प्रकाश फैलने लगता है। चिडियों की आवाजें आने लगती है। तभी पांवों की आहट आती है। रनिवास से रदनिका बैठक की ओर आती हैं वह चिल्लाती है।
अरे हमारे घर में सेंध लग गयी। चोरी हो गयी। आर्य मैत्रेय, उठो। वर्द्धमानक तुम कहां हो। जागो। हमारे यहां चोरी हो गयी। मैत्रेय, रदनिका सेंध देखते हैं। आर्य चारूदत्त को सूचित करते हैं। आर्य चारूदत्त सेंध देखकर कह उठते हैं-
चोरी करना भी एक कला है, क्या सुन्दर रास्ता बनाया गया हैं। और एक बात हैं हमारे घर में चोरी की नीयत से आने वाला कोई बाहरी व्यक्ति या नया चोर ही हो सकता है, पूरा नगर मेरी स्थिति और निर्धनता से परिचित है। बेचारा चोर भी सोचता होगा इस चारूदत्त के यहां कुछ नहीं मिला।
मैत्रेय चारूदत्त की बातें सुनकर हैरान हो गया।
आप चोर की चिन्ता कर रहें हैं लेकिन वसन्त सेना वे गहने कहां हैं जो मेंने रात को आपको दे दिये थे।
फिर मजाक।
मजाक नहीं मैने रात को गहनों की पोटली आपको दी थी। उस वक्त आपके हाथ भी ठंडे थे। नहीं मुझे नहीं दिये। मगर एक शुभ बात ये हैे कि चोर खुश हो कर लौटा, खाली हाथ नहीं गया। चोर मेरे घर से खाली हाथ नहीं गया। वह वसन्तसेना के गहनों को ले गया। चोर कुछ अर्जित करके गया। यही सुखद हैं।
लेकिन वे गहने तो वसन्त सेना की धरोहर थे। आर्य।
-घरोहर। आह। ये क्या हुआ। अब मैं उसे क्या मुंह दिखाउंगा। चारूदत्त मुर्च्छित हो जाता हैं।
आप घबराते क्यों हैं? हम मना कर देंगें कि गहने हमारे यहां नहीं रखे। मैत्रेय ने बात को संभालते की कोशिश की।
तो क्या अब मुझे मिथ्या भाशण भी करना होगा। हे भाग्य। मैं भीख मांगूंगा मगर गहने वापस लौटाउंगा।
इसी समय सेविका रदनिका सम्पूर्ण घटना का विवरण रनिवास में जाकर आर्य चारूदत्त की पतिव्रता पत्नी धूता को बताती है। धूता सब सुनकर बेहोश हो जाती है। रदनिका धूता की सेवा-सुश्रषा करती है। धूता सोचती है,अब इस नगर के लोग क्या सोचेगे कि निर्धनता से परेशान होकर चारूदत्त ने गणिका के गहने दबा लिये। निर्धन का भाग्य तो कमल के पत्तो पर गिरी पानी की बूंद की तरह होता है। मेरी रत्नावली देकर ही इस परेशानी से छूटा जा सकता है। वह कहती है-’तुम जाकर मैत्रेय को यह मेरी रत्नावली दे दो।’
रत्नावली लेकर मैत्रेय चारूदत्त के पास जाता है। दुःख में योग्य पत्नी की कृपा से बच जाने की बात मान लेता है और मैत्रेय को रत्नावली देकर वसन्त सेना के पास भेज देता है। मैत्रेय रत्नावली लेकर चला जाता है। चारूदत्त सोचता है, मैं निर्धन नहीं हूँ, मेरे पास योग्य पत्नी, अच्छा मित्र मैत्रेय सब कुछ है। वह प्रातःकालीन पूजा-अर्चना में व्यस्त हो जाता है।
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प्रेम जीवन का शाश्वत सत्य है ठीक मृत्यु की तरह। प्रेम ही जीवन है। प्रेम की अनुपस्थिति में जीवन निस्सार है। प्रेम का आधार ही जीवन को आधार देता है। प्रेम कभी भी, कहीं भी किसी से भी हो सकता है। धनवान स्त्री गरीब पुरूश से और गरीब स्त्री धनवान पुरूश से प्रेम कर लेती है। समाज इस आश्चर्य को देखता रह जाता है। सदियों से स्त्री पुरूश संबंधांे पर ज्ञानी लोग चर्चा करते रहे हैं, मगर कोई ठोस सर्वमान्य परिभाषा का विकास आज तक नहीं हो पाया हैै। स्त्री-स्त्री है और पुरूश-पुरूश मगर मिलन, प्रेम, प्यार के क्षणों में सब कुछ मिल जाता है। समरस हो जाता है।
अपना वांछित प्यार पाने के लिए स्त्री हो या पुरूश कुछ भी करने को तैयार रहता है, कहा भी है कि प्रेम और युद्ध में सब कुछ जायज होता है। कुछ भी करो और वांछित को प्राप्त करो।
अपना वांछित पाने के प्रयासांे में ही शर्विलक ने ब्राह्मण होते हुए भी अन्य कुलीन ब्राह्मण के घर से गहने चुराये ताकि अपनी प्रियतमा वसन्त सेना की सेविका मदनिका को दासत्व से छुड़ाकर पुनः प्राप्त कर सके। शर्विलक गहनों की पोटली को लेकर वसन्त सेना के प्रासाद की आरे चल पड़ता है। मन की मन सोचता है, आज वह कितना खुश है। उसने रात्रि पर, राजा के सुरक्षा कर्मचारियों पर तथा नींद पर विजय पाई। अपने उद्देश्य में सफल रहा। अब मैं सूर्योदय के साथ ही पवित्र हो गया हूँ। वह सोचता है उसने यह चोरी स्वयं के लिए नहीं की है। मैनंे यह सब अपने प्रेम को पाने के लिए किया है। प्रेम में सब जायज हैं।
वसन्त सेना के आवास में वसन्त सेना अपने कक्ष में मदनिका के साथ वार्ता कर रही है। पास में रखे एक चित्र को देखकर वसन्त सेना कहती है -
’अहा। कैसा सुन्दर चित्र है। सखि यह चित्र आर्य से कितना मिलता है। है न मदनिका।’ इसी समय शर्विलक वसन्त सेना के घर में प्रवेश कर मदनिका को आवाज देता है।
’मदनिका’।
’आर्य शर्विलक आपका स्वागत है। प्रणाम। इतने दिन आप कहां थे।’ मदनिका ने उसके पास आकर कहा।
मदनिका और शर्विलक एक दूसरे को भरपूर नजरांे से देखते हैं। आँखांे‘ आँखांे‘ में प्यार की, मनुहार की बातंे होती हैं। शर्विलक आज परम प्रसन्न है। मदनिका वसन्त सेना के आदेश को भूल गई है। वसन्त सेना पुनः आवाज देती है। सोचती है, अरे यह मदनिका कहां चली गयी। वह झांक कर देखती है, वसन्त सेना को मदनिका किसी पुरूश से वार्ता में संलग्न दिखाई देती है। वसन्त सेना मदनिका के व्यवहार को देखकर ठगी सी रह जाती है। वह सोचती है, यह पुरूश मदनिका को ले जायेगा। षायद इसी संबंध में वह मदनिका से बात कर रहा है। वह मदनिका को बुलाने का प्रयास नहीं करती।
मदनिका - शर्विलक आपस में वार्ता में व्यस्त रहते हैं। मदनिका कहती है -
‘शर्विलक तुम इतने दिन कहां रहे? और तुम इतने परेशान क्यांे दिखाई दे रहे हो। सब कुशल तो है।‘
शविलक मदनिका के मुंह को निहारता है और धीरे से कहता है -
‘मैं तुम्हें एक राज की बात बताना चाहता हूँ। ध्यान से सुनो।‘
‘कहो क्या बात है?‘
‘क्या वसन्त सेना तुम्हे‘ धन लेकर मुक्त कर देगी।‘
मदनिका यह सुनकर प्रसन्न होती है। कहती है- ‘आर्य देवी वसन्त सेना का दिल बहुत बड़ा है। वे कहती है मैं तो सब दास-दासियों को छोड़ना चाहती हूँ। मगर बताओ तुम्हारे पास कौनसा खजाना है।‘ ‘मदनिका मैं तुम्हें क्या बताऊँ? कल रात भर मैं सो नहीं पाया। मैनंे हिम्मत करके चोरी कर डाली।‘