वसन्त सेना / भाग 6 / यशवंत कोठारी

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‘क्या तुमने मेरे जैसी तुच्छ नारी के खातिर अपने चरित्र और शरीर को खतरे मैं डाल दिया?‘

‘हां, आयें मैंने ऐसा ही किया। मैंने स्वर्ण आभूशणों की चोरी की है और ये आभूशण मैं वसन्त सेना को देकर तुम्हें मुक्त कराना चाहता हूँ।

गहने देखकर मदनिका सोच में पड़ जाती है। सोचती है ये गहने तो उसके देखे - पहचाने हैं। वह पहचान जाती हैं कि ये गहने तो वसन्त सेना के हैं। इसी बीच शर्विलक बताता है कि गहने चारूदत्त के आवास से चुराये गये हैं। वसन्त सेना की सेविका मदनिका इस सम्पूर्ण प्रकरण को समझ जाती है और डर से कांपने लगती हैं। वसन्त सेना के गहने चारूदत्त के पास धरोहर है, चारूदत्त से चोरी करके शर्विलक लाया है अपनी प्रियतमा को छुड़ाने, और प्रियतमा की मालकिन वसन्त सेना को देने। प्रेम का कैसा सुन्दर त्रिकोण बना है। मदनिका ने आगे विचार किया।

लेकिन वसन्त सेना के गहने चारूदत्त के पास धरोहर थे और धरोहर का चोरी हो जाना, बेचारे आर्य चारूदत्त पर क्या गुजरेगी।

सम्पूर्ण प्रकरण को मदनिका समझ तो गई, मगर अब हो क्या सकता है? शर्विलक भी कुछ गंभीरता को समझने लगा। मगर अब क्या हो?

‘तुम बताओ मदनिका। अब हम क्या करें। स्त्रियां ऐसे मामलों में ज्यादा समझदार होती है।‘

‘मेरी मानो तो ये गहने चारूदत्त को लौटा देा।‘

‘और अगर मामला न्यायालय में गया तो।‘

‘चाँद से कभी धूप निकलती है क्या?‘

शर्विलक आर्य चारूदत्त के गुणों से परिचित है।

गहने वापस लौटाना नीति के अनुरूप नहीं है। कुछ और सोचो। एक उपाय और है -‘मदनिका बोली।‘

‘वो क्या?‘

‘तुम चारूदत्त के दास बनकर वसन्त सेना को ये गहने लौटा दों न तुम चोर रहोगे और न चारूदत्त पर ऋण ही रहेगा।‘

‘लेकिन यह तो और भी मुश्किल है।‘

‘इसमें कुछ भी मुश्किल नहीं है। तुम कामदेव - मंदिर में ठहरो। मैं वसन्त सेना को तुम्हारे आगमन की सूचना देती हूँ। यह कहकर मदनिका तेजी से अन्दर चली जाती है। वसन्त सेना को सम्पूर्ण घटनाक्रम की पूर्व जानकारी झरोखे से सुनने पर प्राप्त हो जाती है, मगर वह मदनिका पर जाहिर नहीं होने देती। वसन्त सेना मदनिका को तुरन्त आर्य चारूदत्त के चैट को अन्दर लाने की आज्ञा देती है।

शर्विलक वसन्त सेना के पास आता है। शर्विलक अन्दर आता है। वसन्त सेना ब्राह्मण को प्रणाम करती है। शर्विलक आर्शीवाद देता है। वह वसन्त सेना से कहता है।

‘आर्य चारूदत्त ने मुझे आपके पास भेजा है और कहा है कि मैं इन गहनों को अधिक समय तक अपने पास नहीं रख सकता हूँ। कृपया आप इन्हंे पुनः ग्रहण करें।‘

वसन्त सेना मुस्कराती है। मन ही मन सम्पूर्ण प्रकरण पर आनन्दित होती है। वह शर्विलक को मदनिका को स्वीकार करने का आग्रह करती हैं और कहती हैं -

‘आर्य चारूदत्त ने मुझसे कहा था कि जो गहने लाये उसे सेविका मदनिका को सौंप देना। सो मैं आपको मदनिका सौंपती हूँ। अब मदनिका आपकी हुई। ‘शर्विलक सब समझ जाता है। वसन्त सेना भी सब कुछ समझ जाती है।

वह चारूदत्त के गुण गाता है। वसन्त सेना एक गाड़ी मंगवाती है और मदनिका को उसमें बैठा कर विदा करती है। वसन्त सेना उसे उठाकर गले लगाती है। शर्विलक और मदनिका प्रस्थान करते हैं।

इसी समय राजाज्ञा की घोशणा होती है कि राजा पालक ने आर्य को बंदी लिया है। शर्विलक यह सुनकर अपने मित्र आर्य को छुड़ाने के लिए मदनिका को छोड़ कर चला जाता है। मदनिका को वह अपने मित्र गायक रैमिल के यहां छोड़ने को एक चैट को आज्ञा देता है। शर्विलक राजा पालक के खिलाफ जन समुदाय में आन्दोलन चलाता है। राजा कर्मचारियों को भड़काता है। आन्दोलन धीरे-धीरे राजा पालक की शक्ति को क्षीण करता है। वसन्त सेना की एक सेविका बताती है कि आर्य चारूदत्त ने एक ब्राह्मण को भेजा है। वह ब्राह्मण आर्य चारूदत्त की पत्नी की रत्नावली लेकर आता है।

वसन्त सेना कह उठती है - ‘आज का दिन कितना सुन्दर है।‘

कुल वधु और नगर वधू के आभिजात्य में बहुत अन्तर होता है। नगर वधू वसन्त सेना का भव्य प्रासाद और चारूदत्त के मुंह लगे सेवक मैत्रेय का उसमें प्रवेश। मैत्रेय की आंखंे इस वैभव को देख कर ठगी सी रह जाती है, उसे लगता है वह किसी इन्द्रपुरी में प्रवेश कर गया है। वसन्त सेना की दासी के साथ वह प्रासाद में प्रवेश करता है। सर्वप्रथम प्रासाद के बाग की षोभा देखता है और आश्चर्यचकित हो जाता है। बाग की षोभा बहुत सुन्दर है। पेड़ फूलों-फलों से लदे हुए हैं। घने पेड़ांे पर झूलंे डले हुए हैं। षैफाली, मालती, आग्रम आदि पुष्पांे से बाग की सुन्दरता बढ़ गयी है। कमल व तालाब की षांति का मनोहर दृश्य है। यह सब देखते हुए मैत्रेय अन्दर आता है। गृह द्वार से मैत्रेय मुख्य भवन में प्रवेश करता है। द्वार के दोनों और ऊँचे स्तम्भांे पर मल्लिका की माला षोभायमान है। आम तथा अशोक के हरे पत्तांे से कलश षोभायमान है। स्वर्ण के किवाड़ है और हीरांे की कील से जुड़े हुए हैं।

मैत्रेय दासी से पूछता है-

‘आर्यें वसन्त सेना कहां है?’

‘वे तो बाग में है। आपको अभी काफी चलना है।’ मैत्रेय एक के बाद कई कक्षों में से होता हुआ बाग में पहुंचता है जहां पर वसन्त सेना बैठी हुई है। वसन्त सेना मैत्रेय को देखकर खड़ी हो जाती है। वह मैत्रेय का स्वागत करती है। बैठने का आदेश देकर स्वयं भी बैठ जाती है। वसन्त सेना अपने प्रियतम आर्य चारूदत्त के कुशल समाचार जानने को अत्यन्त उत्सुक हो पूछती है-

‘आर्य मैत्रेय बताओ। उदारता जिनका गुण है, नम्रता ही जिनकी षाखाएं हैं, विश्वास ही जिनकी जड़ है और जो परोपकार के कारण फल-फूल रहे हैं, ऐसे आर्य चारूदत्त कैसे हैं? क्या उस विराट वृ़क्ष पर मित्र रूपी पक्षी सुख से रह रहे हैं।’

हां देवी सब कुशल मंगल है। देवी आर्य ने निवेदन किया है कि आपके स्वर्णाभूशण वे जुएं में हार गये हैं और जुआरी का पता नहीं चल पाया है।’ वसन्त सेना समझकर भी नासमझ बनकर चुप रहती है। मैत्रेय चारूदत्त की दी हुई धूता की रत्नावली वसन्त सेना को देकर कहता है-

‘आप यह रत्नावाली स्वीकार करने की कृपा करें। उससे आर्य को परम सुख मिलेगा।‘

वसन्त सेना कुछ उत्तर नहीं देती चुप रहती है। मैत्रेय फिर कहता है तो वसन्त सेना कह उठती है।

‘क्या कभी मंजरियों से रहित आम के पेड़ से भी मकरन्द टपकता है।’ आप आर्य से कहे सायंकाल में उनसे मिलने आऊंगी।‘ यह कह वसन्त सेना रत्नावली चेटी को दे देती है। वसन्त सेना पुष्प करण्डक उद्यान में मिलने हेतु मिलने उपक्रम करती हैं महाकाल के मंदिर पर आर्य पुत्र की गाड़ी की प्रतीक्षा करने को कहकर मैत्रेय को विदा करती है। मैत्रेय वहां से चल देता है।