वसन्त सेना / भाग 8 / यशवंत कोठारी

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आर्य चारूदत्त प्रातःकाल भ्रमण हेतु चले गये हैं। वसन्त सेना को एक दासी उठाती है। वह आर्य चारूदत्त के आवास पर है रात्रि की शिथिलता अभी बाकी है। आर्य उसे पुष्पकरण्डक में आने को कह गये हैं। ऐसा दासी ने वसन्त सेना को सूचित किया। तभी वसन्त सेना चेटी को कहती है कि रत्नावली अन्दर जाकर आयी धूता को दे दें। आर्या से कहना कि चारूदत्त की दासी वसंत सेना का प्रणाम स्वीकार करें।

चेटी-‘लेकिन आर्या धूता मेरे से नाराज हो जाएगी।‘

‘तू मेरी आज्ञा का पालन कर।‘

‘जो आज्ञा-। लेकिन आर्या धूता रत्नावली लौटा देती है। और कहती है - मेरे भूशण तो आर्य पुत्र ही है। आप रत्नावली स्वयं रखंे। आर्य पुत्र की दी हुई चीज वापस लेना मुझे षोभा नहीं देता।‘

तभी रोहसेन को लेकर रदनिका प्रवेश करती है। रोहसेन रो रहा है। जिद करता है और कहता है--‘ मैं मिट्टी की गाड़ी से नहीं खेलूंगा। मैं तो सोने की गाड़ी लूंगा।‘

रदनिका से वसन्त सेना पूछती है-‘ यह किसका बच्चा है। यह पता लगने पर कि यह आर्य चारूदत्त का पुत्र है। उसे गोद में लेती है। वह बच्चे को पुचकारती है।

‘पर यह रो क्यांे रहा है?‘

‘यह पड़ोस में सोने की गाड़ी देखकर आया है, वैसी ही गाड़ी लेना चाहता है। रदनिका कहती है। मैंने इसे मिट्टी की गाड़ी बनाकर दी मगर यह नहीं मानता।‘ रदनिका ने समझाया।

‘हाय। यह भी भाग्य के कारण रो रहा है। आज चारूदत्त निर्धन है तो उनका बेटा भी रो रहा है।‘ तभी रोहसेन रदनिका से पूछता है।

‘ये कौन है।‘

‘ये भी तुम्हारी मां है।‘ रदनिका जवाब देती है।‘

‘नही।‘ ये मेरी मां नहीं हो सकती। इनके पास तो इतने सोेने के गहने हैं, कीमती कपड़ंे हैं, ये मेरी मां कैसे हो सकती है।‘ वसन्त सेना स्वर्ण आभूशण उतार देती है, और कहती है - ‘लो मैं तुम्हारी मां हो गयी। इन गहनों से तुम सोने के गाड़ी बनवालो। ‘वसन्त सेना गहने मिट्टी की गाड़ी पर रख देती है। मगर रोहसेन नहीं मानता।

‘नहीं। मैं नहीं लूंगा। रदनिका रोहसेन को लेकर चली जाती है।‘

तभी वर्द्धमानक कहता है कि बैलगाड़ी तैयार है, वसन्त सेना को भेजो।

वसन्त सेना श्रृंगार करती है। तभी वर्द्धमानक गाड़ी का कपड़ा लाने वापस चला जाता है। तभी वहां पर शकार का दास स्थावरक अपनी बैलगाड़ी लाकर भीड़भाड़ के कारण खड़ी कर देता है। और धोखे से वसन्त सेना उसमें बैठ जाती है। स्थावरक रास्ता साफ होने पर गाड़ी चला देता है। उधर वर्द्धमानक की बैलगाड़ी में भगोड़ा आर्यक पहरेदारों से बचता बचाता छुप कर बैठ जाता है। दोनोंं बैलगाडि़या अलग-अलग रास्तांे पर चल पड़ती है। एक में वसन्त सेना और दूसरे में गोपपुत्र आर्यक। रास्ते में राजा के पहरेदार आर्यक की गाड़ी को रोकते हैं, मगर एक पहरेदार आर्यक का मित्र होता है, अतः आर्यक बच जाता है। इस चक्कर में पहरेदारों में झगड़ंे हो जाते हैं। मगर आर्यक की बैलगाड़ी बच निकलने में सफल हो जाती है क्यांेकि वह आर्य चारूदत्त की गाड़ी है, जो समाज में आदरणीय है।

आर्य चारूदत्त अपने विदूशक मित्र के साथ पुष्पकरण्डक बाग में टहल रहे हैं। वे एक शिलाखण्ड पर बैठ जाते हैं। चारूदत्त का मन उद्विग्न है वे वसन्त सेना का इंतजार कर रहे हैं मैत्रेय बाग की षोभा का वर्णन करता है, प्रकृति चित्रण करता है, मगर चारूदत्त का मन नहीं लगता है।

‘वर्द्धमानक अभी तक नहीं आया मित्र मैत्रेय।‘

‘हां पता नहीं कैसे देर हो गई।‘

तभी वर्द्धमानक गाड़ी लेकर पहुँचता है। वसन्त सेना के आगमन की खुशी में आर्य चारूदत्त उतावले हो रहे हैं। वे मित्र को गाड़ी घुमाने और वसन्त सेना को उतारने का आदेश देते हैं। तभी गाड़ी में देखकर मैत्रेय कहता है -

‘मित्र ये तो वसन्त सेना नहीं है।‘

चारूदत्त -‘क्या कहते हो मित्र। यह हमारी बैलगाड़ी है, हमारा गाड़ीवान है, हमने इसे वसन्त सेना को लाने भेजा था। इसमें कोई पुरूश कैसे हो सकता है।‘

गाड़ी के पास चारूदत्त गाड़ी में देखता है। उसी समय आर्यक की नजर उस पर पड़ती है। आर्यक चारूदत्त को देखकर संतोश की सांस लेता है उसे लगता है अब वह सुरक्षित है। उसके ऊपर राजा का जो खतरा मण्डरा रहा था, वह फिलहाल टल गया। चारूदत्त भी आर्यक को देखकर विस्मित रह जाता हैं।

‘अरे यह कौन हैं? इनकी विशाल भुजाएं, उन्नत ललाट, विशाल वक्षस्थल, सिंह के समान ऊंचे कंधे, बड़ी-बड़ी लाल आँखंे और पांवांे में बेडि़यां, आर्य आप कौन हैं?‘

आर्यक अपना परिचय देता है और राजा पालक बंदी बनाये जाने के बाद काराग्रह से शर्विलक की मदद से भागने की घटना बताता है। चारूदत्त आर्यक का परिचय पाकर परम प्रसन्न होता है - कहता है।

‘आज मैं अत्यंत प्रसन्न हूँ। मेरा सौभाग्य है कि मुझे आपके दर्शन हुए है। मैं अपने प्राण देकर भी आपकी रक्षा अवश्य करूँगा। आप विश्वास रखंे। चारूदत्त अपने अनुचर को आज्ञा देकर आर्यक की बेड़ी कटवा देता है। बेड़ी कट जाने पर आर्यक कहता है।‘

‘आर्य मैं कृतज्ञ हूं। आपने मुझे एक बेड़ी से काट कर प्रेम की बेड़ी से जकड़ लिया है।‘ अब मुझे जाने की आज्ञा दीजिये।‘

अभी आपके पांव में घाव है, आप इसी मेरी गाड़ी द्वारा जाये। इससे कोई आप पर शक नहीं करेंगा। और आप सुरक्षित व कुशलता से पहुँच जायेंगे। ईश्वर आपकी रक्षा करे।‘ चारूदत्त कहता है।

आर्यक चला जाता है।

आर्य चारूदत्त मैत्रेय से कहते हैं -

‘हमने राजा पालक के विरूद्ध कार्य किया है, हमें इस स्थान पर अधिक नहीं रूकना चाहिए। वसन्त सेना अभी तक नहीं आई है। मैं विरह से व्याकुल हूं। मेरा हृदय घबरा रहा है। पता नहीं क्या अनिष्ट होने वाला है। हमें अब यहां से चल देना चाहिए।‘ वे दोनों वहां से चल देते हैं।