वो सहमी हुई दोपहर / अशोक कुमार शुक्ला

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
यादों का झरोखा
जो उस दिन के बाद फिर कभी नहीं दिखी..!

अपनी कल्पना के घोड़े पर सवार होकर मैं भी नीद की परियो के बीच पहुँच पता इससे पहले ही बाहर सत्तू के बाबा के गाली गलौच के स्वर में चेता के रोने का मर्मान्तक स्वर भी शामिल हो गया। लगातार बढ़ती चेता की चीखे और सत्तू के बाबा की गालियाँ हम सब को असहज लगने लगी थी। माँ ने पिता से कहा-"लगता है बुढ्डा चेता को मार रहा है" "हां शायद..!" पिताजी ने कहा । चेता का रोना और चीखें प्रतिपल तीव्रतर होती जा रही थी । मैं तो उन्हें सुनकर ही सहमा जा रहा था। वो मर्मान्तक चीखें जब असहनीय हो गयी तो पिताजी और मांजी दरवाजा खोलकर बहार निकल आये और आँगन में निकल पर पुकारा- "ये क्या हो रहा है सत्तू के बाबा..?" पिताजी का बाहर निकल कर इतना पुकारना जैसे अगल बगल के सभी लोगों के लिये उत्प्रेरक का कार्य कर गया और एक एक करके कई दरवाजे खुलते गए।साथ ही सबकी जुबान पर एक ही प्रश्न कि "आखिर यह हो क्या रहा है" सत्तू और उसकी माँ जो अब तक उन्हें टोकने की हिम्मत नहीं कर पा रही थी अब वह भी बडबडाने लगी थी। कुछ ही देर में ये सारे लोग उन दोनों के बीच पहुँच चुके थे और शराब पीकर आपा खो चुके सत्तू के बाबा से चेता को छुडा चुके थे। वह शराबी बूढा अब भी न जाने क्या क्या बडबडा रहा था- "ये निर्बगी न्योनि थै तो मैन ज़िंदा खदयोंड.." यानी इस अभागी लडकी को तो मैं ज़िंदा जमीन में दफ़न कर दूंगा। चेता की माँ अब चेता को गले लगाए थीं और रो रोकर अपने पति और उसकी शराब को कोस रही थी साथ ही सत्तू भी खडा होकर सुबक सुबक कर रो रहा था। सभी एकत्रित लोगों की आम सहमति इस बात पर थी कि सत्तू के बाबा को वहाँ से हटा दिया जाय अन्यथा वो पुनः इसी प्रकार उग्र हो सकते हैं। चेता की माँ की भी यही राय थी..। सब लोगों ने मिलकर सत्तू के बाबा को उन्ही के मकान के एक कमरे में बंद कर दिया और बाहर से कुण्डी चढा दी। चेता के प्रति सहानुभूति व्यक्त करने के बाद सभी लोग अपने अपने कमरों में चले गए।मैं भी सहमा हुआ था सो माँ से चिपक कर मन ही मन समूचे घटनाक्रम की विवेचना करता हुआ सोने का प्रयास करता रहा। कब नींद आयी यह तो नही पता लेकिन अगली सुबह अन्य दिनों की तरह सामान्य नहीं थी। सुबह उठकर चेता नहीं दिखी जानवरों का चारा उसकी माँ ने किया । वह बिचारी रात के घटनाक्रम के बाद बुखार में पड़ी थी। सत्तू के बाबा के कमरे की कुण्ढी को सूरज चढ़ने के बहुत देर बाद खोला गया..! जाने कैसे यह सन्देश उनकी बड़ी बेटी मट्टू तक पहुँच गया जो लम्बगांव के किसी थोकदार के परिवार में ब्याही थी और दो चार दिन के अन्दर वो आ गयी। उनके आने से माहौल कुछ बदला। दिन भर चेता अपनी बड़ी बहन मट्टू के साथ अलग अलग क्रिया कलापों में बिताती। एक दिन मट्टू की ससुराल के कुछ लोग आये । घर पर "अरसे" (एक पहाड़ी पकवान जो प्रत्येक शुभ अवसर पर बनाया जाना अनिवार्य होता है) बनाये गये । चेता ने नयी लाल साडी पहनी ..उसे सजाया गया, मुकुट पहनाया गया । कुछ पूजा पाठ जैसा हुआ ..और दोपहर बाद आगंतुको में से एक ने चेता को गोदी में उठाया और बाकि सब उसके पीछे पीछे चल दिए...चेता दहाड़े मार मार कर रोती रही घर वाले भी रोते रहे ..लेकिन सारे लोग उसके पीछे पीछे ही चलते गए...शायद इस प्रकार मोटर चलने वाली सड़क तक तक गए। चेता को मोटर में बैठा कर वो सब चले गए....पीछे रह गयी अनगिनत बातें जो दबे छिपे स्वरों से अक्सर सुनाई देतीं रही... रात में जब पिताजी और माजी आपस में बाते करते तो मैं उनमे से कुछ निष्कर्ष निकालने का असफल प्रयास करता माँ कहती-"मट्टू ने बताया है कि यह चेता का व्याह हुआ था." पिताजी कहते -"व्याह नहीं तो..अगर व्याह होता तो दुल्हा भी होता ना. .. दुल्हा तो था ही नहीं..फिर कैसा व्याह?" माँ बताती-" मट्टू बता रही थी कि उसका देवर है ..बम्बई में रहता है...कही नौकरी करता है.. छुट्टी नही मिल पायी इसलिए उसके कपडे बेदी पर रखकर ब्याह पूरा किया गया है. " पिताजी आगे कहते- "अरे नहीं..इन लोगों ने लडकी को बेच दिया है..देखना बेचे हुए पैसो से अब हर रोज खूब दारु उडाएगा ये बुढ्डा.." माँ कहती-" ईश्वर जाने क्या हुआ..हमें क्या करना है ..जैसा करेंगे वैसा भोगेंगे.." उनका वार्तालाप सुनसुनकर मैं अपनी तरह से निष्कर्ष निकालने की वैसी ही असफल चेष्टा करता जैसी तब से अब तक चेता को भुलाने की करता रहा हूँ. वही चेता.जो उस दिन के बाद फिर कभी नहीं दिखी..! न जाने कहाँ होगी चेता ...क्या मुंबई में अपने उस पति के साथ जिसे विवाह मंडप तक पहुँचने भर का भी अवकाश नहीं था?