व्यावसायिक अभिरुचि / कृष्णा जाखड़
व्यावसायिक अभिरुचि
प्रभा का जन्म व्यावसायिक मारवाड़ी घराने में हुआ। उन्होंने घर में व्यापार की बातें सुनीं। प्रसिद्ध उद्योगपति श्री लादूरामजी खेतान के व्यापारी दोस्त, व्यापारी रिश्तेदार और ईद-गिर्द पूर्णतया व्यापारिक वातावरण था। इसी वातावरण में प्रभा ने अपना बचपन जीया। जैसे-जैसे वे बड़ी हो रही थीं, अपने भाइयों की व्यापारिक बुद्धि को देखती जा रही थीं। उनकी रगों में भी व्यापारिक वंश का खून दौड़ रहा था। विषम परिस्थितियों को सहते-सहते प्रभा अंदर से मजबूत होने के साथ-साथ सबसे अलग अपना अस्तित्व बनाने का मंसूबा भी मन में पाल रही थीं। समाज में अपना अस्तित्व स्थापित करने की ललक और मारवाड़ी समाज को यह दिखाने का संकल्प कि औरत भी व्यापार कर सकती है, पैसे कमा सकती है। बस यही वजह रही, जिसने प्रभा में व्यावसायिक हौड़ पैदा की।
आर्थिक समस्याओं का सामना तो प्रभा को विद्यार्थी जीवन से ही करना पड़ रहा था। पितृसत्तात्मक समाज में पिताजी के देहांत के बाद घर के मालिकाना अधिकार प्रभा के बड़े भाई के पास चले गये। प्रभा ने अपने ऊपर जब भाई की मनमानी बेजा हरकत को नहीं चलने दिया तो भाई ने कॉलेज फीस के लिए मना कर दिया। प्रभा खुद लिखती हैं-
एम.ए. की परीक्षा की फीस के पैसे भी इस बड़े घर की बेटी ने अपनी सहेली से उधार लिये थे। क्योंकि अम्मा का कहना था कि अब वे मेरी पढ़ाई का खर्च उठाने में असमर्थ हैं। 'हर महीने तेरी पढ़ाई के पैसे कहां से लाऊं? धन्नू (बड़े भैया) पैसे देना नहीं चाहता।` ......``
और धन्नू पैसे क्यों नहीं देना चाहता, यह सिर्फ प्रभा जानती थीं या फिर दाई मां। लेकिन शोषण के खिलाफ खड़े होने की हिम्मत प्रभा में अब तक समावेशित हो चुकी थीं।
प्रभा ने ऐसी ही परिस्थितियों के बीच एक बड़ा साहसिक निर्णय लिया कि वह शादी नहीं करेंगी। प्रभा को इस फैसले की पूर्णता के लिए भी आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होना पहली जरूरत थीं।
प्रभा ने नारी की पीड़ाओं को जितना अपनी मां के जीवन से ग्रहण किया उतना तो शायद पुस्तकों से भी नहीं। प्रभा एक रूप में मां के कष्ट भरे जीवन के कारण ही पुस्तकों की ओर आकृष्ट हुईं। अमीर घर में रहकर भी प्रभा की मां कभी संतुष्ट नहीं थी। उन्हें पैसे के लिए पहले अपने पति यानि प्रभा के पिताजी लादूराम से और उसके बाद अपने ही बेटे धन्नाराम से याचना करनी पड़ती थी। औरत का स्वाभिमान तार-तार होता। क्यों? जिस बेटे का पृथ्वी पर आना मां के बिना असम्भव होता है वही मां पर मालिकाना हक रखता है। वह मां के हाथ पर पैसे रखते हुए अहसान जताना नहीं भूलता। ये पीड़ाएं प्रभा ने बड़ी नजदीकी से देखी। सिर्फ मां ही नहीं भाभी-बहनों को भी प्रभा ने इन स्थितियों से गुजरते देखा। प्रभा की मां कई बार कह भी देती थी कि तुम सशक्त बनो। प्रभा लिखती हैं-
किसी भी पढ़ी-लिखी स्वावलम्बी स्त्री को देखती तो अम्मा यही कहा करतीं, 'तुम लोग जरूर रुपया कमाना, अपने पैरों पर खड़ी होना` ......।`` प्
रभा जिस समाज में जन्मी उसमें स्त्री वस्तु मात्र थी। देखने में वो गहने और मंहगें कपड़ों से सजी-धजी खुश नजर आती मगर नजदीक होने पर पता चलता कि वह चारदीवारी के बीच घूंघट में सिमटी मूरत है। उसकी ये स्थिति शिक्षा के अभाव और आत्मनिर्भरता की कमी के कारण थी। बस प्रभा ने मन में ठान लिया कि उसे ऐसी घुटन भरी जिंदगी नहीं चाहिए।
कई बार मन बुद्धि पर हावी हो जाता है और मन के बस में होकर मनुष्य बड़ा फैसला ले लेता है। वही प्रभा के साथ हुआ। मन के झुकाव के कारण प्रभा डॉ. सर्राफ के बंधन में बंध गई और हमेशा बंधी रहीं। उन्हीं की सलाह से प्रभा अमेरिका गईं। अमेरिका में प्रभा ने महसूस किया कि वहां के अमीर लोग भारतीय गरीबी को कैसे दया की दृष्टि से और गरीब बना देते हैं। वहां मिले कष्टों ने भी प्रभा को पैसे कमाने के लिए उकसाया। प्रभा लिखती हैं-
मिसेज डी की तरह मेरा भी ऑफिस होगा, ढेरों पैसे कमाऊंगी।``
प्रभा पढ़ने में होशियार थीं। उसके शिक्षक चाहते थे कि अन्य मारवाड़ी लड़कियों की तरह प्रभा घर नहीं बैठे। अमेरिका जाने से पहले जब वो अपनी स्कूल की अध्यापिका से मिली और अपनी मंशा बताई तो उन्होंने प्रभा को आगे बढ़कर विद्वता प्राप्त करने की सलाह दी। प्रभा का उस वक्त जवाब था कि मेरे समाज में व्यक्ति की विद्वता को महत्व नहीं दिया जाता बल्कि वहां उसे पैसे से तोला जाता है। प्रभा अपनी अध्यापिका से कहती हैं-
नहीं मेरी लड़ाई अपने ही समाज से चलेगी। आप नहीं जानती बहनजी, औरत की सारी स्वतंत्रता उसके पर्स में निहित है।``
जब अमेरिका में प्रभा ने आत्मनिर्भर स्त्री को देखा तो उसका मन भी कहता कि मुझे भी आर्थिक रूप से मजबूत होना है। अपनी ही जमीन पर मुझे स्वाभिमान से जीना है। वो लिखती हैं-
आर्थिक स्वतंत्रता मेरी पहली जरूरत है। कलकत्ता लौटकर अपने पैरों पर मुझे आत्मनिर्भर होना होगा।``
जहां भी आर्थिक समस्या प्रभा के रास्तों को रोकना चाहती वहां पैसे कमाने का इरादा और दृढ़ हो जाता। हर जगह आर्थिक समस्या प्रभा के सामने आई, चाहे देश में पढ़ाई का वक्त हो या फिर विदेश मेंं रहने का समय। इन अवसरों ने ही आर्थिक महत्वाकांक्षा के बीज उनके मन में रोप दिया। आत्मनिर्भर बनने के लिए प्रभा ने डाक्टर के यहां मात्र ३०० रुपये माहवार की नौकरी से सफर शुरू किया और समय के साथ अपने व्यापारिक साम्राज्य को अरबों तक पहुंचाया।
प्रभा ने सपने देखे और उनको पूरा करने का हौंसला रखा। प्रभा आत्मकथा में लिखती हैं-
अम्मा कहा करतीं ..... 'चांद को छूने की कल्पना करो तो खजूर के पेड़ तक पहुंचोगे। अरे तुम्हारी चाहना ही सीमित रहेगी तो आगे कैसे बढ़ोगे?`` प्रभा अर्थ के खजूर तक नहीं रही, उसने अर्थ के चांद की प्राप्ति कीं।
सफलताओं के शिखर पर :
कहते हैं कि हिम्मत की कीमत होती है। प्रभा के जीवन को जानने के बाद यह सिद्ध हो जाता है। सच भी है। बचपन में प्यार को तरसती बच्ची, अपने ही घर में असुरक्षित किशोरी, बंगाली सहपाठियों से अपने समाज मारवाड़ियों को लुटेरे कहते हुए लगातार ताने सुनती छात्रा, समाज में स्वयं के अस्तित्व के लिए संघर्षरत कुंवारी लड़की और सफलताओं की बुलन्दियों पर प्रभा खेतान। नदी की धारा के साथ बहने वाले जीवन को आसानी से जी लेते हैं मगर धारा के विपरीत बहने वालों को संकटों का सामना करना पड़ता है। साहस के कारण वे धारा को अपने मनवाकिफ मोड़ लेते हैं मगर वे धारा के साथ बहने की आदत वालों के दिल का नासूर बन जाते हैं। प्रभा ने मारवाड़ी समाज की रूढ़ियों पर से परदा उठाया और कुंठाओं से घिरी मारवाड़ी स्त्री को एक राह दिखाई। नारी की क्षमता को समाज के सामने उदाहरण के रूप में रखा। प्रभा की सफलता की कहानी उनका आत्मकथ्य बयान करता है-
मैंने अपने-आप को बचाया है, अपने मूल्यों को जीवन में संजोया। हां, टूटी हूं, बार-बार टूटी हूं,..... पर कहीं तो चोट के निशान नहीं..... दुनियां के पैरों तले रौंदी गई, पर मैं मिट्टी के लोंदे में परिवर्तित नहीं हो पाई। इस उम्र में भी एक पूरी-की-पूरी साबुत औरत हूं, जो जिंदगी को झेल नहीं रही बल्कि हंसते हुए जी रही है, जिसे अपनी उपलब्धियों पर नाज है। दोस्ती का हाथ बढ़ाकर जिसकी गर्म हथेलियां हर किसी को अपने करीब खींच लेती हैं।``
साहित्याकाश की अनंत राहों पर :
जीवन की राहों पर कांटों-फूलों को समान रूप से लेते हुए इंसान जब संघर्षों को पार कर अपनी मंजिल तक पहुंचता है, तब लोग कहते हैं कि उसने सफलताओं की बुलदिंयों को छू लिया है।
सातवीं कक्षा में पढ़ते वक्त लिखी कविता जो 'सुप्रभात` में छपी, इस कविता से शुरू हुई प्रभा की साहित्य साधना अनवरत रूप से अंत तक चलती रही।
प्रभा खेतान के लेखन का दौर शुरू हुआ कविताओं से और फिर उपन्यास, अनुवाद के साथ-साथ चिंतनपरक साहित्य तक पहुंचा; जो पाठक को झकझोर कर रख देता है। जब उनके साहित्य भण्डार को देखते हैं तो इतना बड़ा व्यापार चलाने वाली प्रभा की बात झूठी-सी लगती है और जब इतना विस्तृत व्यापार देखते हैं तो ये साहित्य भण्डार झूठा-सा लगता है। दोनों कार्य एक साथ कैसे हो सकते हैं? इतना बड़ा व्यापार, देश-विदेश का भ्रमण, इनके बीच कब लिख पाती होंगी प्रभा? लेकिन यह सच है और प्रभा ने लिखा, बड़ी संजीदगी से लिखा। व्यापार की भागदौड़ भरी जिंदगी के बीच लिखा है। प्रभा कहती हैं-
मैं तो हमेशा लिखती रही हूं। दौड़ते-भागते, दतर की भीड़ में, तो कभी अकेली शामों को, अकेली रातों को। सारी सामाजिकता, मौज-शौक से कट कर।``
जितना विस्तृत दायरा होगा उतना ही व्यापक सोच होगा। यही कारण है कि प्रभा का सम्पूर्ण साहित्य चिंतन प्रधान है। रचना कौशल की नवीनता है। कथ्य की मजबूताई है। और बस यही कारण है कि प्रभा इतना लिख पाईं।
प्रभा के जीवन के स्व-अनुभवों की झलक सभी रचनाओं में मिलती हैं। प्रभा ने भारतीय तथा विदेशी समाज की संरचना को नजदीक से समझा। खासकर भारतीय समाज को देखते, समझते हुए उसमें अपने वजूद को पुख्ता करने का प्रयास किया। समाज की दोगली नीति; जो नारी को जकड़े हुए थीं, प्रभा ने उस नीति को नकार दिया और पुरुष के बराबर अपना अस्तित्व स्वीकार करवाया। प्रभा जब विदेशों में गई तो देखा कि न सिर्फ भारत में बल्कि विदेशों में भी सामाजिक व्यवस्था पुरुषों द्वारा ही बनाई हुई है और बड़ी जटिल है। नारी का स्थान विदेशों में भी कमजोर नजर आया। वहां भीड़ में भी मनुष्य अपने-आपको अकेला पा रहा था। लोगों के बनावटी चेहरे भी खूब देखने को मिले।
प्रभा ने कलकत्ता में 'फिगरेट` नाम से हैल्थ क्लब खोला और इसमें स्त्री को अपने शरीर के प्रति असंतुष्ट पाया। सभी अपने शरीर को उसी सांचें में ढालने के लिए भाग रही थीं जो एक पुरुष चाहता है। व्यापारिक संसार को प्रभा ने नजदीक से देखा, उसे जीया और खूब सावधानी से संवारा।
व्यापार जो कि तार पर साईकिल चलाने जैसा होता है, थोड़ी-सी चूक हुई कि सीधे नीचे। कारीगर, मजदूर और अन्य कर्मचारी! कैसे इन सबमें सांमजस्य बैठाया जाए और विदेशी व्यापारी जो वस्तुएं आयात करते हैं, कैसे मिनटों में ही बदल जाएं; पता ही नहीं चलता। इन सबके माध्यम से जो अनुभव प्रभा को हुए वे सब ही उनके साहित्य में मिलते हैं। इसके अलावा व्यक्तिगत जीवन में होने वाले खट्टे-मिट्ठे अनुभव भी उनके साहित्य में कांटों और फूलों की तरह बिखरे पड़ें हैं।
साहित्य की अनंत राहें हैं। अनंत विधाएं हैं। किसी एक विषय को लेकर लिखते जाना कुछ सहूलियत भरा हो सकता है, मगर विविध विषयों पर कलम चलाना दुष्कर होता है। यही स्थित विधाओं की होती है।
प्रभा खेतान ने न केवल मन के भावों को व्यक्त करने के लिए लिखा बल्कि विविध विषयों पर उनका चिंतन, शोध दृष्टि, विवेचनात्मक बौद्धिकता और अनुवाद के लिए चुनी गई पुस्तकें साहित्य में उनको उच्च स्थान पर प्रतिष्ठित करते हैं। कविता, कहानी, उपन्यास, अनुवाद, आत्मकथा, चिंतनपरक व शोध साहित्य सभी विधाओं में कलम चलाना प्रभा की योग्यता रही।
'अपरिचित उजाले` से शुरू हुए लेखन के सफर में इनकी आत्मकथा 'अन्या से अनन्या` तक आते-आते पूर्ण प्रौढ़ता नजर आने लगती है। प्रभा की कविताओं में भले ही स्व सिमटा हुआ हो परंतु स्त्री की संवेदनशीलता और सशक्त स्वरूप की झलक स्पष्ट दिखलाई पड़ती है। उपन्यासों में सामाजिक परिवेश, रूढ़ियों, विकृतियांे के साथ-साथ व्यापारिक संघर्ष और व्यवसाय जगत की वास्तविकताओं पर से पर्दा उठता हुआ लगता है। मजदूर-मालिक का रिश्ता, मजदूर-मजदूर का रिश्ता, व्यवसायी-व्यवसायी का रिश्ता और व्यापारिक घरानों में रचे जाते षड्यंत्रों का खुलासा पर्त-दर-पर्त होता हुआ देखा जा सकता है। इसके अलावा प्रभा खेतान के संपूर्ण साहित्य में मजबूती से उभरा हुआ मुद्दा है- नारी की सार्वभौमिक दशा। कविता, उपन्यास, चिंतनपरक साहित्य और अनुवाद में हर जगह स्त्री की पैरवी करती हुई प्रभा मौजूद हैं। दमित-शोषित और पुरुष के प्रेमजाल में टूटती हुई नारी किस प्रकार इस दुनियां से लड़ती है और किस प्रकार कभी-कभी घुटने टेक देती है। यह सबकुछ भी है।
उपन्यास 'आओ पेपे घर चलें` में तो महान सम्पन्न राष्ट्र समझे जाने वाले अमेरिका जैसे देश में भी नारी की दुर्दशा दिखाई गई। तुलनात्मक स्वरूप में भारतीय उपमहाद्वीप की स्थिति में वहां की स्थिति किसी भी ढंग से भिन्न नजर नहीं आती है, व्यक्त है। नारी सभी जगह शोषित है। उपन्यास की एक पात्र स्त्री के लिए कहती है कि स्त्री को इंसान बनने के लिए अपने अधिकारों को समझना होगा। वह कहती है-
प्रभा, औरत अभी मनुष्य की श्रेणी में नहीं गिनी जाती और तुम अमीर-गरीब का सवाल उठा रही हो? राष्ट्र का भेद समझा रही हो? माई स्वीट हार्ट! हम सब अर्ध-मानव हैं। पहले व्यक्ति तो बनो, उसके बाद बात करना।``
प्रभा की शोधदृष्टि न केवल उनके पी-एच. डी. के शोध प्रबंध 'सार्त्र का अस्तित्ववाद` तक सिमट कर रह गई बल्कि 'शब्दों का मसीहा सार्त्र` और 'अल्बेयर कामू : वह पहला आदमी` में और निखर कर सामने आई। सतत् अध्ययन ही लेखकीय क्षमताओं को बनाए रखता है। कोई सोचे मुझे लिखना है, तब वह लिख नहीं पाता। जो बात मन को सालती है, चैन से जीने नहीं देती, रात-दिन, सोते-उठते-बैठते दिल और दिमाग पर हावी रहती है, लिखने को मजबूर कर देती है; तब कलम चलती है और जो परिणाम आता है वो संतुष्ट करने वाला होता है। कॉलेज शिक्षा से पीछा करता हुआ सार्त्र भी प्रभा को उद्वेलित किए हुए था और उसी का परिणाम इन शोध रचनाआंे में आया।
नोबल पुरस्कार से नवाजी गई फ्रांस की प्रसिद्ध लेखिका सीमोन द बोउवार की ख्याति प्राप्त कृति 'द सेकिण्ड सेक्स` का 'स्त्री उपेक्षिता` के नाम से हिन्दी अनुवाद प्रभा की एक उपलब्धि रही। एक सामान्य स्त्री जो हिन्दी तक सीमित है, उस तक नींद से जगा देने की क्षमता रखने वाली यह पुस्तक पहुंच सकी। प्रभा ने नारी विमर्श के पैरोकार के रूप में यह बहुत महत्त्वपूर्ण कार्य किया। दक्षिण अफ्रीका की कुछ कविताओं का अनुवाद 'सांकलों में कैद क्षितिज` नाम से प्रभा ने किया। दक्षिण अफ्रीका का शोषण और स्वतंत्रता की लड़ाई को समझने के लिए यह एक सहायक पुस्तक मानी जा सकती है।
'उपनिवेश में स्त्री` के प्रकाशन तक आते-आते प्रभा का चिंतन प्रखर हो गया। वे बेहिचक स्त्री की स्थितियों को दर्शाने लगीं। 'बाजार के बीच : बाजार के खिलाफ` के जरिये तो स्त्री समाज में चेतना-सी पैदा करती दिखीं। स्त्री पूर्ण मानव है, वो संसार की आधी आबादी है फिर क्यों हर विकास में, हर परिवर्तन में पीछे खड़ी नजर आती है? मानो इन सबका प्रभाव स्त्री को प्रभावित कर ही नहीं पाता। वो क्यों इतनी अचेतन है? जकड़ी हुई क्यों रहती है? और इनका उत्तर खोजती हुई प्रभा साहित्य में मौजूद मिलती हैं। नारी को झकझोर कर जगाती हुई प्रभा मिलती हैं। चिंतन में उभरती हुई स्त्री को देखें तो प्रभा के विचारों में एक क्रांति की पहल है।
कदम-दर-कदम प्रभा ने अपने अनुभव संसार से साहित्य सृजन किया है और नारी की पीड़ा को केन्द्र में रखकर एक नव्य आयाम स्थापित किया। साहित्य-सीढ़ी के पहले पायदान पर सावधानी से कदम रखने वाली प्रभा की यह जागरूकता और योग्यता रही कि वह आज साहित्याकाश की अनंत राहों पर देदिप्यमान हंै।
व्यावसायिक जगत की रपटीली राहों पर :
बच्चा खड़ा होने के बाद जब पहला कदम बढ़ाता है तो उसको आत्मबल मिलता है और लड़खड़ाते हुए एक के बाद एक कदम बढ़ाते हुए वह चलना सीख जाता है।
आत्मनिर्भर बनने का सपना पाले हुए प्रभा ने भी आर्थिक जगत में लड़खड़ाते हुए प्रथम कदम एक डॉक्टर के चेम्बर में सेक्रटरी का काम मात्र ३०० रुपये माहवार में संभालते हुए रखा। इसके बाद प्रभा ने पीछे मुड़कर नहीं देखा और कदम-दर-कदम आगे बढ़ती रही। आर्थिक जगत की ऊंचाईयों को छूने के बाद भी उन्होंने आराम करके नहीं देखा, बस कर्म करना ही उन्होंने अपना धर्म स्वीकारा। डॉक्टर के चेम्बर में काम करती हुई प्रभा अपने भविष्य के सपने पाल रही थीं। उसे पता था ये उसकी मंजिल नहीं, उसे आगे बढ़ना है। मारवाड़ी समाज को दिखाना है कि औरत भी आत्मनिर्भर बन सकती है। घर वालों की इच्छानुसार प्रभा को एक खूंटे से बंधकर रह जाना स्वीकार नहीं था। यही एक ऐसा मोड़ प्रभा के जीवन में आता है जो उनकी दिशा को दृष्टि देता है। प्रभा को अमेरिका जाने का मौका मिलता है और सन् १९६६ में प्रथम विदेश यात्रा करती हैं।
वहां कैलिफोर्निया बेवरली हिल हेल्थ क्लब से 'ब्यूटी थेरापी` में डिप्लोमा करती हैं। इसी डिप्लोमा के दौरान उनको वहां अनेक नए अनुभवों से भी गुजरना पड़ा। माना वे एक धनी परिवार से संबंध रखती थीं, लेकिन वहां उन्हांेने कई समस्याओं का सामना किया। लोहा अग्नि में तपकर अनेक प्रकार के सुंदर और मजबूत आकार ग्रहण करता है, बस प्रभा के व्यक्तित्व में भी नई समस्याओं से निखार आता जा रहा था। अब उनके सपने और ऊंची उड़ान भर रहे थे। वहां ऑफिसों के वैभव को देखकर प्रभा का मन करता कि एक दिन मेरा भी ऐसा ही ऑफिस होगा, मैं भी वैभव से जीवन जी सकूंगीं। आइलिन जैसी औरत ने शायद प्रभा की आंकाक्षाओं को और ऊंचा उठने में सहारा दिया। प्रभा आइलिन द्वारा कही गई बात लिखती हैं-
डिप्लोमा लेकर तुम्हें अपने देश जाना है। पौधा अपनी जमीन पर उगता है।``
अमेरिका से लौटने के बाद फिगरेट नाम से हेल्थ क्लब खोलने की कहानी प्रभा के शब्दों में-
अमेरिका की पहली यात्रा से लौटकर मैंने फिगरेट नाम से हेल्थ क्लब खोला था। लोगों का मुझसे पहला सवाल था- भला पैसे देकर कोई दुबला होना चाहेगा? मुझे लगा यदि अमेरिकी स्त्रियां अंग सौष्ठव चाहती हैं तो भारतीय स्त्रियां क्यों नहीं चाहेंगी? ....... सन् १९७०, इसी हेल्थ क्लब से मुझे पच्चीस से तीस हजार रुपये महीने की आय हो जाती थी। अपने आप में यह एक बड़ी आर्थिक उपलब्धि थी।``
उपलब्धि चाहे छोटी हो चाहे बड़ी लेकिन हर उपलब्धि के बाद आत्मबल मजबूत होता है और मन कहता है कि एक कदम और बढ़ायो। बस, ऐसे ही चलता जाता है इंसान अपनी कामयाबियों का रसास्वादन करते हुए आगे और आगे। संतुष्ट होना जिसने सीख लिया उसका जीवन एक पड़ाव पर आकर ठहर-सा जाता है। नदी जमीन के एक टुकड़े से संतुष्ट नहीं होती इसीलिए वह बढ़ती जाती है, अनेक पड़ाव पार कर पर्वत से रेगिस्तान तक।
अर्थ की स्वतंत्रता के साथ-साथ प्रभा के व्यक्तिगत जीवन में उलझने बढ़ती जा रही थीं। परंतु प्रभा उलझनों के बीच भी एक सुंदर भविष्य देख रही थीं। प्रभा लिखती हैं-
तमाम उलझनों के बीच मैंने एक बेहतर भविष्य का सपना देखना नहीं छोड़ा।``
प्रभा एक कमजोर स्त्री बनकर नहीं जीना चाहती। आत्मकथा में लिखती हैं-
मैं एक सपना देख रही थी। उस सपने में मैं एक सबल और सशक्त महिला थी। इस समाज में मेरी भी एक ऊंची हैसियत थी। लेकिन यह सपना सच कैसे हो?``
व्यक्तिगत उलझनों से निकलना, आत्मनिर्भर बनना, पितृसत्तात्मक संस्था में स्त्री का स्वतंत्र जीने का सपना और इन सबको सच करने के लिए आर्थिक जगत में स्थापित होना जरूरी है। फिगरेट से प्रभा को २५-३० हजार रुपये माहवार आय होती थी जो एक रूप में आर्थिक स्वतंत्र बनाती थी। लेकिन प्रभा एक मकान तक सीमित रहकर सिर्फ पैसे नहीं कमाना चाहती थीं। उनका मन ऊंची उड़ान भरना चाहता था, जो पैसे के साथ-साथ दुनियां को देख सके, खूबसूरत जहान में अपने वजूद को स्थापित कर सके। इसी चाह को लिए प्रभा ने दूसरा व्यवसाय करने की मन में ठानी और वो भी निर्यात का। प्रभा अपने निर्यात व्यापार की इच्छा के बारे में लिखती हैं-
मैं अपना व्यापार खड़ा कर लूं और वह भी निर्यात का, कम से कम देश-विदेश घूम तो सकूंगीं, लोगों की जर में इज्जत मिलेगी वह अलग। स्वाभाविक था कि निर्यातक बनने की, अपना स्वतंत्र व्याापार करने की मेरी इच्छा दिन-पर-दिन बलबती होती।``
प्रभा ने अपने छोटे भाई की सलाह पर चमड़े से बनी चीजों का निर्यात व्यवसाय करने का मानस बनाया। प्रभा कलकत्ता के बाजारों, गलियों में चमड़े से बने बैग, चप्पलें, जूते आदि देखती और कारीगरों से मिलती, उनके बनाए सामान को देखती। प्रभा के इस काम में भी बहुत-सी अड़चने आईं, मगर उन्होंने हार नहीं मानीं। अपनी कड़ी मेहनत और उत्साह के कारण प्रभा ने चमड़े से बनी चीजें निर्मित करने का कारखाना स्थापित किया। दिन-रात की मेहनत ने आगे बढ़ाया। प्रभा अपने व्यापार के जुनून को इस प्रकार व्यक्त करती हैं-
एक उन्माद था..... चमड़े की चीजों का बनाते रहने का, एक नशा था, व्यापार करने का जो प्यार के नशे से भी ज्यादा था, मेरे सामने एक दुनियां थी, उस दुनियां में रोज नए-नए दरवाजे खुल रहे थे और मुझे लग रहा था कि मैं पहली बार सूरज देख रही हूं कि पहली बार हवा इतनी मादक है। मैं विभोर थी बाहर की दुनियां से। घंटों अपनी कल्पना में खोई रहती....... माना कि मेरा व्यापारिक अनुभव कम था, मगर काम करने का मुझमें उत्साह बहुत अधिक था।``
कोई भी काम पूर्ण निष्ठा और इमानदारी से किया जाए तो सफलता सामने खड़ी नजर आती है और मानो कदम सफलता खुद बढ़ा रही होती है। प्रभा अपने काम के प्रति पूर्ण समर्पित हो गईं। व्यापारिक संसार में इतना रस आ रहा था कि प्रभा को अपना जीवन भरा-पूरा लगने लगा। पहले मन का कोई कोना उदास होता था, लेकिन अब मन का हर कोना नए सपने बुन रहा था। प्रभा अपने व्यापार को विकसित करती जा रही थीं और साथ-ही-साथ खुद दौड़ रही थी। प्रभा लिखती हैं-
मैं दौड़ रही थी.... और पहले वाली रिक्तता, शून्यता, व्यर्थता के बदले बहुत कुछ सार्थक पा रही थी। मुझे अपनी इस नई व्यापारिक दुनियां में रस मिल रहा था, काम में संतुष्टि थी। हर दिन लगता मैं प्रगति की राह पर एक और कदम आगे बढ़ा रही थी।``
सफलताएं आसानी से नहीं मिल जाया करतीं। विकट परिस्थितियां आती हैं, मगर ये समस्याएं तो हथौड़े की उस चोट के समान होती हैं जो हर प्रहार के बाद लोहे के आकार को सुंदरता की तरफ बढ़ाती जाती हैं। जब तक इंसान को ठोकर नहीं लग जाती वो संभलकर कदम नहीं रखता। व्यापार के सिलसिले में प्रभा ने भी रोज नए अनुभवों का सामना किया। निर्यात के व्यवसाय में विदेश की धरती पर भी प्रभा ने नई परिस्थितियों से टक्कर लीं।
विदेश में हुए अनुभवों के बारे में प्रभा लिखती हैं-
निर्यात के चक्कर में बक्सा उठाए-उठाए न जाने कितने देशों में कितने शहरों में गई हूं, कैसे-कैसे अजीबो-गरीब अनुभव हुए हैं। ऐसा नहीं कि व्यापार की दुनियां में आतंक नहीं था, धोखा और छलावा नहीं था, पर वहां दुश्मन मेरे सामने था। बाधाओं को मैं देख पा रही थी और उन बाधाओं के पार एक और दुनियां भी है जिसका मुझे अंदाजा था।``
माली एक बगिया लगाता है और रात-दिन मेहनत से पसीना बहाता हुआ उसे सुंदर से सुंदरतम स्वरूप देने का प्रयास करता रहता है। माली के पसीने की खुशबू ही फूलों के माध्यम से चारों तरफ महकती है। सबको आकर्षित करती है। प्रभा ने भी अपने व्यापार का छोटा-सा बगीचा सजाया और उसे सुंदरतम स्वरूप देने के लिए रात-दिन पसीना बहाती रहीं। अमीर घर में जन्मी, पली-पढ़ी प्रभा जी-तोड़ मेहनत करती और पसीने की गंध को फूलों की खुशबू से भी से भी कहीं अच्छा महसूस करतीं। अपने काम का जिक्र करती हुई प्रभा लिखती हैं-
फैक्ट्री लोर पर घंटों खड़ी रहती, पसीने से लथपथ- पसीने और चमड़े की गंध मुझे सुकून देती, जीवित रहने का बोध देती।``
पितृसत्तात्मक व्यवस्था में कोई स्त्री सबल होकर ऊपर उठे; ये आसान नहीं। समाज चारों तरफ दीवारें चुनकर रास्ते रोकना चाहता है, मगर पानी जब बहने की ठान लेता है तो ऊंची-ऊंची चट्टानों के बीच में से रास्ता बना लेता है। प्रभा ने हर चुनौती को स्वीकारा और निर्मल जल की तरह आगे से आगे बहती चली गईं। मंजिल को पाने की अपनी एकनिष्ठता के बारे में प्रभा खेतान लिखती हैं-
कैसा पागलपन था, कैसी अंधी जिद, कितनी गहरी आस्था कि गिरती-पड़ती फिर भी मैं अकेली बढ़ती चली जा रही थी अपनी मंजिल की ओर।``
रात्रि के बाद आने वाले सूर्य के उजाले में दुनियां रात्रि को भूला देती है, मगर महान् तो चंद्रमा है जो रात्रि का साथ निभाता है। प्रभा ने अपने काम को पूर्ण तन्मयता के साथ निभाया। अपने कर्मपथ पर खड़ी होकर मंजिल की ओर देखा। अपनी लम्बी तपस्या के कारण ही प्रभा 'कलकत्ता चेम्बर ऑफ कॉमर्स` की प्रथम महिला अध्यक्ष बनीं। जो अपने-आप में बड़ी उपलब्धि थी। प्रभा व्यवसाय जगत का चमकता हुआ सितारा थीं। अपनी कम्पनी के बारे में आत्मकथा में स्वयं लिखती हैं-
एक स्वस्थ आत्मछवि के साथ मेरी कम्पनी सर उठाकर खड़ी है। कुछ लोगों की नजर में यह एक छोटी विजय है, मेरी दृष्टि में यह आजादी की लड़ाई से कम नहीं।``
सन् १९७६ से प्रभा खेतान ने चमड़े व सिल-सिलाए वस्त्रों का निर्यात शुरू किया जो सतत् रूप से अंतिम समय तक जारी रहा। प्रभा अपनी कम्पनी 'न्यू होराईजेन लिमिटेड` की प्रबंध निदेशिका रहीं। संक्षेप में कहें तो प्रभा खेतान अर्थ के कारण हर प्रकार से स्वतंत्र थीं और हर नारी के लिए अनुकरणीय हैं।